तमाशा मेरे आगे | आख़िरी नोट

माँ का दिया हुआ आख़िरी 100 का नोट भी गला दिया. दुकानदार मुझे देख हैरान था, मैं बस रोने को था. रोज़मर्रा के सामान के बदले वो नोट उसे देते हुए बहुत दुख हो रहा था पर उन हालात में कोई और चारा नहीं था. जेब या बटुए में और पैसे नहीं थे, चोर पॉकेट में रखा ये आख़िरी नोट था. दुकान वाला यूपीआई से पैसा लेता नहीं था और मुझे इतना जानता भी नहीं था कि मैं उस से उधार लेने की कोशिश करता. सुबह का वक़्त था और मैं माल ले चुका था सो लौटाना भी ठीक नहीं समझा. अमूमन, घर से निकलने से पहले मैं बटुआ देख कर ही निकलता हूं पर उस दिन ये ख़याल ही नहीं आया. उस नोट को दे देने का दुःख हज़ार के नोट के खो जाने से भी ज़्यादा था.

गला दिया माने ख़र्च कर दिया. गला दिया इसलिए भी कहता हूं क्योंकि वो नोट सोने या चांदी की मोहर-सा ही था, भावनाओं में उससे भी ज़्यादा क़ीमती – उस पर माँ का दिया आशीर्वाद था, जो किसी राजा-महाराजा की छापी देवी-देवता की मोहर से भी ज़्यादा धन्य था.
आख़िरी नोट इस तरह कि करीब छः-सात साल पहले माँ को ऐसा लगा कि अब 100 रुपये में न तो ढ़ंग का कुछ आ पाता है, न ही बच्चे, और नाती-पोते उसे ले कर खुश ही होते हैं. तो उन्होंने नीले रंग को छोड़ हरे रंग को अपना लिया, वैसे भी गांधी बाबा उन्हें कहीं ज़्यादा प्यारे थे. तब माँ के खज़ाने से निकलने वाले 100 के नोट बंद हो गए और 500 के नोट बंटने लगे. मुझे दिया उनका वो आख़िरी 100 का नोट था. माँ बैंक से हर महीने पैसे सिर्फ़ इस लिए निकलवाती थीं कि उन्हें बच्चों में बांटा जा सके.

माँ या पिताजी (पिता अब नहीं हैं ) के सौग़ात में दिए पैसे मैंने कभी ख़र्च नहीं किये, सिर्फ़ जोड़ कर रखे, संभाले और आने वाले कल के लिए इज़्ज़त से बचा लिए ताकि मेरे लिए और घर के लिए बरकत बनी रहे, उनका आशीर्वाद इन पैसों के ज़रिये मुझे ये याद दिलाता रहे कि पता नहीं कौन से मुश्किल दिनों में ये मेरा सहारा बनने वाले हैं. रब्ब का शुक्र है कि ज़िन्दगी अच्छी तरह गुज़र रही है और ये खज़ाना महफूज़ है.

मुझे अपने भाई-बहन का तो पता नहीं कि मां-पिता जी से मिले आशीर्वाद से सराबोर इन पैसों के साथ वो क्या करते थे, पर अपने बारे में मैं ये पूरी यक़ीन से कह सकता हूं कि मैंने उन दोनों के दिए किसी भी और कितने भी पैसे को कभी ख़र्च नहीं किया, कभी नहीं. या तो वो पैसे सीधे-सीधे बैंक में जमा करा दिए गए या घर पे एक छोटे फ़ोल्डर में संभाल के रख दिए गए. न सिर्फ़ वो पैसे जो मुझे मिले हों पर मेरे बच्चों को बचपन में नाना-नानी, दादा-दादी, बुआ, मासी, मामी, चाची, ताई आदि सभी बड़ों से मिले सारे पैसे मैंने उनके बैंक खाते में जमा करा दिए. कई बार तो अपनी तरफ़ से और मिला कर.

पर डिज़िटल लेन-देन के आते जब बैंक आना-जाना बंद हो गया, तो मैं उनके दिए पैसे तह लगा कर अपने पर्स की छुपी हुई या चोर जेबों में भरकर रखने लगा. तीन या चार तह लगे वो कड़क नोट धीरे-धीरे मेरे बटुए को मोटा करते रहते. फिर एक दिन मैं उन सब को निकाल और सलीक़े से जोड़ कर अपनी अलमारी में छुपा देता हूं. कुछ ऐसे नोट जो शगुन के लिफ़ाफ़ों में मिले थे उन्हीं लिफ़ाफ़ों में अब भी उस त्योहार की ख़ुशबू के साथ यूँ ही रखे हैं. ये सिलसिला आज भी चल रहा है . पिता के गुज़रने के बाद मेरे पास माँ के दिए करीब 25-30 हज़ार रुपए तो रखे ही हैं, जो बैंक पहुंचे सो अलग. ये नोट अक़्सर नए, चमकीले और करारे रहे हैं. इनमें से कुछ पॉकेट के बटुए में हैं, कुछ अलमारी में और बाक़ी लिफाफों में इस क़सम के साथ रखे हैं कि इन्हें खर्च नहीं करना, ये बरकत हैं.

होली, दीवाली, बैसाखी, जन्माष्टमी, या फिर दुर्गा अष्टमी और राम नवमी जैसे त्योहार के साथ-साथ किसी का भी जन्मदिन हो, सालगिरह मुबारक हो, बच्चा पैदा हुआ हो या पास हो गया, बीमारी से ठीक हो गया, विदेश से घर आया हो, बहुत दिनों बाद मिला हो – मां को तो बस बहाना चाहिए था – बटुआ खोलो और पैसे बाँटो, बस – वो भी उन सबको जो-जो सामने खड़े हों – ख़ासतौर पे बेटियां और जमाइयों को. और तो और माँ या पिता के जन्मदिन पर भी ये तोहफ़ा हमें ही मिलता है.

माँ-पिताजी का पैसे देने का यह सिलसिला हम बच्चों की शादियों के बाद ही शुरू हुआ. अगर अपने बचपन की बात करूँ तो सिवाए किसी ख़ास मौक़े के हमे पैसे कभी नहीं मिलते थे. फ़िल्मों में दिखने वाली थैली तो कभी लटकी नहीं देखी माँ की साड़ी से, न ही चाँदी-सी चमकती चाबियों का गुच्छा और फिर न तो घर में कोई सेफ़ नुमा तिजोरी ही थी, न कोई बड़े ताला लगे कमरे. वो सब किसी और दुनिया में होता होगा हम जैसे महीने-से-महीने तक तनख़्वाह पर जीने वाले साथियों के घरों में नहीं. दो कमरों के मकान में चार बच्चों के साथ रहते हुए छुपाना तो दूर आप क्या और कैसे बचा सकते हैं.

माँ के पास तब इतने रुपये-पैसे तो होते ही नहीं थे जिसके लिए बड़े या फ़ैंसी पर्स चाहिए हों. थोड़े बहुत महीना भर चलाने के पैसे या तो माँ की अलमारी में बंद रहते थे और बाक़ी रोज़ ख़र्चे वाले पल्लू की गांठ में बंधे होते थे या किसी बड़े ख़ज़ाने की तरह वो उन्हें दिल से लगा के रखती थी. हर बार, पैसे निकालने या देने से पहले मुड़ कर मुंह दीवार की तरफ़ कर लेती, पल्लू कंधे और सर पे खींच लेती और उतने ही पैसे निकालती जितने की ज़रूरत होती, अक्सर उनसे भी कम. ख़ासकर जब कोई सामान बेचने वाला सामने होता तो वो सौदेबाज़ी में पहले ही हार चुका होता. माँ ने एक बार कह दिया फ़लां चीज के 5 रुपये तो जनाब 5 ही रुपये मिलेंगे, इकन्नी भी ऊपर नहीं मिलेगी – रोते रहो.

खुले हाथ से ख़र्चा करना तो दूर घर में कुल इतने ही पैसे होते थे कि किसी तरह बच्चों के स्कूल की फ़ीस और घर की ज़रूरी ज़रूरतों को ही पूरा किया जा सकता था. पिताजी जितना भी नौकरी की कमाई से लाते अपनी सिगरेट के पैसे रख कर सब माँ को दे देते थे, उसी से घर चलाना पड़ता, उसी से गृहस्थी, रिश्तेदारी की ख़ातिर-तवाज़ो और उठना-बैठना सब. अब लाल झंडा ले के चलने वाले पिता इस से ज़्यादा और क्या दे सकते थे अपने घर वालों को. बचपन में मैंने अक्सर देखा कि पंक्चर लगवाने या साईकल ठीक करवाने के लिए भी पिता जी माँ से पैसे मांगते थे.

बचपन की इस तंगहाली की सीख का हश्र यह हुआ कि हम बच्चों ने कॉलेज पार करने से पहले ही कमाना शुरू कर दिया और सारा पैसा माँ के हाथ में रखना और उन्हें सौंपना घर की एक प्रथा-सी बन गई. अपनी ज़रूरतें बढ़ाने के बनिस्पत घर को टीप-टाप करने में जुट गए मैं और मेरी बड़ी बहन. पैसा अफ़ीम-सा नशा है लत लग जाए तो बस ….

बहन की शादी के ठीक बाद माँ का यह पैसे बाँटने का सिलसिला जो शुरू हुआ वो पिछले साल तक थमा नहीं था. मौक़ा कोई भी रहा हो, उनका दस्तूर था, अपने बच्चों में पैसे बाँटना, चाहे रक़म कितनी भी छोटी रही हो. दो-पाँच रूपये से शुरू हो कर वो दस और पचास तक आ पहुँची और फिर 100 का पुल लाँघ 500 तक आ गई. पिछले साल उम्र और ख़राब सेहत के चलते माँ को डेमेन्शिआ ने अपनी गिरफ़्त में ले लिया. आज जब उनकी यादाश्त कमज़ोर हो चुकी है और वो किसी और दुनिया में रहती हैं – पैसे से उनका ज़्यादातर सरोकार टूट चूका है. हाँ, पर आज भी जब वो अपने पर्स या बटुए को पहचान लेती हैं तो उसे खोल कर उसमें पैसों को देखने या गिनने के लिए आतुर रहती हैं. अफ़सोस उनकी इस बीमारी ने हमसे वो आशीर्वाद और उसमें लिपटे पैसे दोनों छीन लिए.

अपने फ़ितूर मैं ये कई बार सोचता हूँ कि हमे माँ-बाप का सिर्फ़ एक जोड़ा ही क्यों मिलता है, सिर्फ़ एक जोड़ा. क्या आपको नहीं लगता कि माँ-बापू के दो-तीन जोड़े और होने चाहिए. एक जोड़ा डाँटे तो दूसरा पुचकार ले, तीसरा जोड़ा पैसे-वैसे दे कर फुसला ले, चौथा पीठ थपथपा कर मॉरल बढ़ा दे, जीवन में लगातार आगे बढ़ते रहने, संघर्ष करते रहने और जूझते रहने के लिए हिम्मत बढ़ाता रहे. मुझे लगता है तीन-चार जोड़े होने चाहिए थे. वैसे भी ये एक जोड़े के बस की बात नहीं है. और फिर ये ज़रुरत सिर्फ़ बच्चों को सँभालने भर की नहीं है सोचिये बुढ़ापे में वो एक दूसरे के कितने काम आएंगे, कोई अकेले बैठे बोर नहीं होगा, कुछ न कुछ बातचीत, नुक्ता-चीनी, गुस्सा, ढिठाई और गपशप चलती रहेगी – कभी पुराने वक्तों की कभी बीते दिनों की.

अब माँ को ही देख लो, वो चश्मा नाक पे चढ़ा के अख़बार अपने सामने रखती है पर पढ़ कुछ नहीं रही होती अपनी यादों में कहाँ चली जाती हैं, खो जाती है. सामने पीली जर्सी और पतलून में धोनी खड़े होते हैं और माँ को लाहौर वाली पंजाबी दुल्हन का “पीला जोड़ा” याद आ जाता है. इस मौके पे उनके हमउम्र, उनके साथ के कोई दो- चार लोग अगल-बगल होते तो फ़ौरन कल रात के मैच पर बहस हो गई होती और दो घंटे के लिए सब अपनी हर बीमारी, अपने दर्द भूल गए होते.

सोचिये, तब दुनिया में बुज़ुर्गवार अकेले नहीं रहेंगे और हम वाल्दैन के सुख और उनके आशीर्वाद से कभी महरूम नहीं होंगे. और फिर, अगर सब मेरी माँ की तरह होंगे तो यक़ीन मानो नज़राने भी आते रहेंगे. फ़िलहाल मुझे तो उस 100 रुपये के नोट का दुःख खाये जा रहा है.
खैर, हो सकता है उस दुकानदार को भी माँ के आशीर्वाद की उतनी ही ज़रुरत हो, जितनी मुझे है.

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