तमाशा मेरे आगे | शादी के पंडाल में ओम प्रकाश और बेक़ाबू भीड़

    कुछ यादें, कुछ वाक़ये, कुछ लोग, कुछ हादसे, ग़म और ख़ुशियां, नाकामियाँ और कामयाबियाँ. कितने ही तजुर्बों से मिलकर ज़िंदगी बनती है…ज़िंदगी जिसे लेकर हर शख़्स का तजुर्बा मुख़्तलिफ़ है. ज़िंदगी को अलग-अलग रंगों में रगने वाले तजुर्बे. इनको ज़बान देना, कई बार तरतीब देकर फिर से जीना भी कमाल का तजुर्बा होता है. विज्ञापन की दुनिया की दुनिया ख़ास तरह की रचनात्मकता की माँग करती है और इसके लिए संवेदनशीलता भी एक शर्त है. राजिंदर अरोड़ा अपनी तरह के तजुर्बेकार और संवेदनाओं से भरपूर ज़िंदादिल शख़्स हैं, लेखक हैं, फ़ोटोग्राफ़र हैं और बड़े पढ़ाकू भी हैं. संस्मरणों की इस श्रृंखला की आख़िरी कड़ी अगले हफ़्ते. -सं

चरित्र अभिनेता ओम प्रकाश
कॉलेज की पढ़ाई ख़त्म होने से पहले ही घर के और अपने हालात ने मुझे पैसा कमाने के रास्ते पर रवाना कर दिया. कॉलेज छूटने के साथ-साथ फ़िल्में देखना भी छूट गया. न ख़ाली वक़्त था, न खर्चने को पैसे. फिर भी यदा-कदा किसी ‘बुरी संगत’ या फ़िल्म के कीड़े अपने दोस्त राकेश रहेजा के साथ फ़िल्म देखने को मिल जाती थी. उनमें से एक फ़िल्म जिसने मुझे मुत्तासिर किया वो थी- ‘शराबी’. शराबी फ़िल्म मैंने तक़रीबन सौ बार देखी है. यह मत सोचियेगा कि मैं बच्चन का दीवाना या फ़ैन हूँ. उस फ़िल्म में जिस एक्टर ने मुझे झिंझोड़ा था वो ओम प्रकाश जी थे. ग़ज़ब काम किया, वह भी अमिताभ बच्चन और प्राण के सामने, जब दोनों दिग्गज कलाकार अपने फ़िल्मी सफ़र की बुलंदी पर थे. उसके बाद उनकी कुछ अच्छी फ़िल्में जो टीवी पर मुफ़्त देखीं – वे थीं बुड्ढ़ा मिल गया, पड़ोसन, नमक हलाल और लावारिस. मैंने कभी ख़्वाब में भी यह नहीं सोचा था कि कभी मैं उस हसीन हस्ती, दिलक़श इंसान से मिलूंगा, उनके साथ बैठूंगा, गप लड़ाऊंगा और उनके साथ जाम टकराकर चियर्स कर पाऊंगा.

19 दिसम्बर 1919 को लाहौर में जन्मे ओम प्रकाश पहले ऑल इंडिया रेडियो में काम करते थे और उनके रेडियो ड्रामे बहुत कामयाब रहे. अपने किरदारों की तरह असल ज़िन्दगी में भी मुस्कान और ख़ुशियां बिखेरते ओम प्रकाश क़िस्से-कहानियाँ सुनाने में माहिर थे. उनकी यादाश्त ने अपने बचपन से लेकर जवानी और फ़िल्मी सफ़र की एक-एक याद संजो रखी थी.

ओम प्रकाश जी से मेरी पहली मुलाक़ात अजीब हालात में हुई. मैं उसे अजीब ही कहूंगा क्योंकि एक तो मुझे मालूम नहीं था कि ऐसा कुछ होने वाला है, दूसरा वो मेरी शादी का दिन था और तीसरा इसलिए कि उनके नाम की ख़बर फैलते ही हमारे शादी के पंडाल पर बेक़ाबू भीड़ ने धावा बोल दिया. शादी में आए दोस्त और रिश्तेदार तो परेशान हुए तो हुए, पूरा खाना बर्बाद हो गया, केक लुट गया और टेंट गिरते-गिरते बचा. वो और हम, बस अपनी ख़ैर मनाते हुए वहां से बाहर निकले.

ओम प्रकाश जी हमारी पत्नी के पिताजी के ख़ास दोस्त थे, लाहौर से कह लीजिए. दिल्ली के साउथ एक्सटेंशन में दोनों के घर साथ-साथ थे. पिताजी फ़िल्में बनाने का भी शौक़ रखते थे, फ़िल्म बनाने के कारोबार में पैसे भी लगाते थे और फिर उन्हें डिस्ट्रीब्यूट भी करते थे. ओम प्रकाश जी इनमे से कुछ कारोबार में उनके हिस्सेदार थे. उनसे दूसरी मुलाक़ात होटल एशियन में हुई, जहाँ हमारी शादी का भोज रखा गया.

शादी हमारी हुई थी और क़िस्से सुना रहे थे ओम प्रकाश जी अपनी शादी के. उनमें से एक दिलचस्प क़िस्सा यह था:
“दोस्तों के कहने पर मैंने घोड़ी चढ़ने से पहले थोड़ी शराब पी ली, थोड़ी ही पी थी. मैंने सब को बता दिया था कि मेरे ससुर शराब को बुरी शय समझते हैं और मेरी माँ ने कहा था कि ‘बरात हर हाल में ठीक टाइम पर लड़की वालों के यहाँ पहुंचनी चाहिए. अपने दोस्तों को कह देना कि नाच गाने के लिए बार-बार न रुकें.’ फिर भी बारात तीन या चार जगह रोकनी पड़ी और हर बार मेरे दोस्तों ने मुझे एक-एक पेग पिला दिया. इसके बावजूद मैं बिलकुल ठीक और होश में था. जब हमारी बारात प्रभा जी [उनकी होने वाली पत्नी] के घर पहुँची तो किसी शरारती लड़के ने घोड़ी के ठीक पीछे पटाख़े वाला बम चला दिया. घोड़ी उछली, और मैं पटाक से पीछे को गिरा. मेरी क़मर पर बंधी तलवार का मुट्ठा मेरे माथे पे लगा और उस ज़ख्म से तेज़ी से ख़ून आने लगा. प्रभा जी के चाचा जी डॉक्टर थे वो भागे आये. वहीँ सड़क पर बैठ कर उन्होंने मेरा सिर अपनी गोदी में रख ज़ख्म को ठन्डे पानी में भीगे कपड़े से दबा दिया. घर से टिंचर अभी आया नहीं था. इतने में मुझे घेरे बहुत से लोगों को मेरे मुँह से शराब की बू आ गई. बस, बहुत सारे तो मुझे वहीँ सड़क पर छोड़कर वापस अंदर चले गए. मैंने उनके चाचा और पिता जी से माफ़ी मांगी और वायदा किया कि आगे से इसे कभी हाथ नहीं लगाऊंगा. तब जा के प्रभा जी मेरे साथ फेरों पे बैठीं.”

होटल में हमारे चारों तरफ खड़े रिश्तेदार जब उनका क़िस्सा सुनकर लोटपोट हो रहे थे तभी मैंने पूछ लिया “तो अंकल फिर कभी शराब नहीं पी?” उन्होनें मेरी तरफ देखा और बोले “बरख़ुरदार, शायरी पढ़ा करो ख़ासकर मजाज़ – शराब से कौन कर पाया है तौबा, और फिर एक बार शादी हो गई तो …” ये कह कर वो ख़ुद ही ठहाका लगा कर हंस पड़े.

ओम प्रकाश जी के घर जब भी जाना हुआ, उनके साथ जाम टकराने का मौक़ा कभी नहीं जाने दिया. ऊँचे ब्रांड की पीते थे और ख़ासी नफ़ासत से शौक़ फरमाते थे. घर में हमेशा सफ़ेद तहमत और मलमल की महीन हाफ़ शर्ट पहनते थे. पहला जाम उठाने से पहले कुर्सी से खड़े होते, बाएं हाथ से तहमत को सँभालते, दाएं से जाम बनाते, दो छोटे टुकड़े बर्फ़ के धीरे से डूबने को छोड़ देते, दाएं हाथ से चमकती चाँदी के पतले लम्बे स्टरर (हिलाने वाली डंडी) से ड्रिंक में बर्फ़ को धीरे-धीरे घुमाते. जब बर्फ़ घुल जाती तो हाथ उठा के बिस्मिल्लाह करने का इशारा करते. इस बीच कोई बात नहीं, कोई आवाज़ नहीं. पूरा ध्यान गिलास पर. ओठों पे लगा पहले सिर्फ़ हलकी-सी चुस्की लेते, आँखें बंद, जाने किस हसीना को याद करते और मुस्कुराते, आखें खोलते और अपनी आराम कुर्सी पर धीमे से उतरते. शायद वो वक्त उनके चिंतन मनन का हुआ करता था. उस आराम कुर्सी पे दोनों टांगें बाँधकर समाधि-सी लगा लेते और कुछ गुनगुनाने लगते, इतना धीमे की साथ खड़े इंसान को भी भनक न हो.

ओम प्रकाश जी की शाम लम्बी नहीं चलती थी और उन्हें शाम का अपना कुछ वक्त अकेले बिताना पसंद था. दिल्ली हों या बंम्बई, वह अपना प्यार बनाये रखते थे.

हम सब अयोध्या
पहले हम फ़ैज़ाबाद जाते थे, अयोध्या नहीं. फ़ैज़ाबाद एक शांत उनींदा शहर था. अयोध्या उसके पास ही था. अयोध्या उससे भी ज़्यादा शांत और सौम्य था. फिर वहां राम आकर बस गए और सब बदल गया. पहले फ़ैज़ाबाद रेलवे स्टेशन से घाघरा नदी के सरयू घाट पहुंचने में एक घंटा तो लग ही जाता था. तब वहां फट-फट वाला स्कूटर भी नहीं चलता था. शहर में सब जगह साइकिल रिक्शा से ही जाना पड़ता था. बाबरी मस्जिद देखने कोई विरला ही जाता होगा, हाँ शहर के बीचो बीच बिराजे ‘बहु-बेगम का मक़बरा’ देखने बाहर से आए सब लोग चले जाते थे. राम और बुद्ध की नगरी अयोध्या या पुरानी साकेत, सरयू के घाट से सिर्फ़ प्रेम शांति और सद्भाव का सन्देश ही भेजती थी, जिसमें हिन्दू-मुसलमान या धर्म का कोई भेद भाव नहीं था.

दिसंबर 1983 की एक सर्द सुबह जब रजनी और मैं फ़ैज़ाबाद कैंट स्टेशन पर उतरे तो ऐसा महसूस हुआ कि शहर में किसी वज़ह से सोग मनाया जा रहा हो. कोहरे और धुंध में काले सायों से सरकते, और अलावों के गिर्द बैठे ठिठुरते लोगों के सिवा शहर मायूस-सा था. वो शहर अपनी कुंडली पढ़ चुका था. उसे अपना भविष्य मालूम था. ठीक नौ साल का फ़ासला था, जिसके बारे में हम कुछ नहीं जानते थे. तब हम वहां फिलिप्स कंपनी के शोरूम का नया डिज़ाइन बना कर उसको सुन्दर बनाने और सजाने के लिए गए थे.

6 दिसंबर 1992 हिंदुस्तानी तारीख़ में वो काला दिन है जो भूला नहीं जा सकता और जिसे याद करने पर दर्द और जख़्म फिर से ताज़ा हो जाते हैं. रथयात्रा की शुरुआत से बाबरी गिराए जाने तक देश द्वारा लंबे समय तक झेले जाने वाले भयानक बदलाव आ चुके थे. नफ़रत के वो ख़तरनाक बदलाव जो आज भी जारी है. इस त्रासदी के बाद मुल्क के हर कोने से धर्मनिरपेक्ष गुटों, संस्थाओं और नागरिकों नें बाबरी मस्जिद के ध्वंस की निंदा और आलोचना की, इस हिंसक बर्बरता के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई और डट कर इसका विरोध किया. हमारी विरासत के एक हिस्से को उन्मादी हिंसक भीड़ द्वारा विध्वंस किये जाने पर पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में दंगे भड़क उठे, जिसके कारण लगभग 2,000 लोग मारे गए. सबसे ख़तरनाक हिंसा मुंबई में हुई थी, जहां क़रीब 900 लोग मारे गए थे.

‘सहमत’ से जुड़े हज़ारों कलाकार सड़कों पर उतरे और हमने न केवल इसकी सख़्त निंदा की बल्कि आम जनता का ध्यान हिंसा और दंगों से हटाकर अयोध्या की सदियों पुरानी तहज़ीब और भाई चारे के सन्देश की तरफ़ खींचा. ‘हम सब अयोध्या’ के नाम से तैयार की गई एक बहुत बड़ी नुमाईश को तैयार करने के काम में इतिहासकार, चित्रकार, कलाकार, छविकार, संगीत और नृत्य से जुड़े कलाकार, आर्किटेक्ट, डिज़ाइनर, चिंतक, विचारक, दर्शनशास्त्री, अर्थशास्त्री, लेखक, पत्रकार, मज़दूर संस्थाओं, छात्रों और महिलाओं के कई गुट हमारे साथ जुड़े.

क़रीब-क़रीब 300 कृतियों की यह नुमाइश सन् 1993 के अंत तक भारत के 22 शहरों में दिखाई गई. इसके साथ ही सूफ़ी-भक्ति आधारित गीत-संगीत के कार्यक्रम भी आयोजित किए गए. नुमाइश में पेंटिंग्स, पौराणिक कहानियां और उनके कई संस्करण प्रदर्शित किए गए. राम मिथक (राम कथा) के कई संस्करणों पर इस नुमाइश के दो पैनल हमले का ख़ास केंद्र बन गए. ये नुमाइश न सिर्फ़ भारत में बल्कि दुनिया के कई देशों में दिखाई गई और सालों तक चर्चा में रही. यहाँ तक कि इसका ज़िक्र भारत की संसद में भी हुआ.

इस नुमाइश के लिए रिसर्च करने, जानकारी और आकंड़े जुटाने, तस्वीरें और पांडुलिपियां खोजने, इसकी रूपरेखा लिखने में क़रीब-क़रीब पांच महीने लगे और ये सब काम होटल एशियन इंटरनेशनल के बेसमेंट से शुरू होकर वहां के दस कमरों और दो बड़े हॉल में पांच महीने तक फैला रहा. इस सब में इश्तिहार का दफ़्तर ‘सहमत’ का हिस्सा बन दिन-रात पूरा काम संभाल रहा था. इस दौरान जिन हस्तियों नें इस नुमाइश को शक्ल देने का काम किया, उनमे से कुछ नाम हैं- इरफ़ान हबीब, के.एन. पणिकर, ऐजाज़ अहमद, रोमिला थापर, प्रभात पटनायक, भीष्म साहनी, हबीब तनवीर, मक़बूल फ़िदा हुसैन, विवान सुंदरम, ग़ुलाम मोहमद शेख़, भूपेन खक्खर, गीता कपूर, बिनोय बहल, रविंदर कुमार, सुशील श्रीवास्तव, मधु प्रसाद, राजेंद्र प्रसाद, एम.के. रैना, राम रहमान, असद ज़ैदी, पार्थिव शाह, शबनम हाश्मी और राजिंदर अरोरा.

मज़े की बात यह है कि इन सब ने हमारे दफ़्तर को नवाज़ा, वहां बैठ कर महीनों काम किया और कुछ ने तो रातें वहीँ मेज़ों या कालीन पर सो के गुज़ारीं. होटल एशियन और इश्तिहार को इस बात का फ़ख़्र है.

अस्सी की दहाई और काला 1984
मोबाइल फ़ोन आने में अभी पूरा दस साल का फ़ासला था. जिनके हाथ में कैमरा होता भी था, वो भी सोच समझ के तस्वीर खीचते थे, आज की तरह कबूतरों से ले कर हर क़बाब की तस्वीरें नहीं खींची जाती थी. फ़िल्म की रील और उसके प्रिंट बनवाने में ख़ासे पैसे लगते थे. उन दिनों इंडिया गेट के चारों तरफ़ गाड़ियां चक्कर लगा सकती थीं, हिंदी फ़िल्म देखने के लिए बड़े-छोटे सभी सिनेमा घरों के बाहर लंबी कतारें लगती थी और टिकट ब्लैक में मिलते थे. इंटरनेट आने में भी कुछ साल थे. दिल्ली में प्रदूषण नहीं था. बरसात में आधा शहर डूब नहीं जाता था. लोग सावन और ज़िन्दगी का मज़ा लेते थे. काम की रफ़्तार मद्धम थी. मज़दूर, कामगार और किसान जुलूस निकालते, हड़ताल करते और धरने पर बैठते थे. छात्र राजनीति अपने चरम पर थी. हम अपने नए दफ़्तर होटल एशियन इंटरनेशनल के तहख़ाने में सुकून से दिन-रात मेहनत करते थे. ऐसा था अस्सी का दशक. यह सब होने के साथ साथ 80 के दशक ने देश की सियासत और हमारी अर्थवयवस्था को हमेशा के लिए बदल दिया.

जुलाई 1984 में हमारी एजेंसी को प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी का बीएचईएल, भोपाल के दौरे पर फ़िल्म बनाने का कॉन्ट्रैक्ट मिला. इंदिरा जी को भारत में बने पहले इलेक्ट्रिक सिग्नलिंग सिस्टम का उद्घाटन करना था और बीएचईएल फ़ैक्ट्री का चक्कर भी लगाना था. उस टीम में वीडियो कैमरामैन और दूसरे फ़ोटोग्राफ़र के साथ मैं भी कैमरा लिए आगे-आगे था. मैंने भी इंदिरा जी की ढेर सारी तस्वीरें उतारीं. कौन जानता था कि तीन महीने बाद क्या होने वाला था. अक्टूबर के दूसरे हफ़्ते में हमारी एजेंसी को इंडिया इंटरनेशनल ट्रेड फेयर में बीएचईएल का पैविलियन बनाने का काम भी मिल चुका था. पर दो हफ़्ते बाद क्या होने वाला था, यह हम में से कोई नहीं जानता था. वो मेला 14 नवम्बर को शुरू होना था.

इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद राजीव के राजनीति में क़दम रखते ही यह कहना कि ‘जब कोई बड़ा दरख़्त गिरता है’ ने हिंसा, उत्पात, और निरादर की राजनीति को जन्म देकर उस समय के विरोधी दलों के हाथ में ख़तरनाक हथियार दे दिया. बुरी ख़बरें तेज़ी से फ़ैलती हैं. ‘प्रधानमंत्री को दो सिखों ने मारा’ सुनते ही जनता पागलों की तरह एक क़ौम से बदला लेने निकल पड़ी. पूरे मुल्क में पाँच दिनों तक सिख नरसंहार और सिख विरोधी दंगे चलें. वहशियों ने मासूम बच्चे, बूढ़े, औरतें और जवान सिखों को बर्बरता से मारा. सिखों के घर जला दिए गए. उनके कारोबार तबाह कर दिए, सामान लूट लिया और एक मेहनती और ज़िंदा-दिल क़ौम के ख़िलाफ़ जाने क्या-क्या लिखा और कह दिया गया. शर्म आती है, डर लगता है और घिन होती है यह सोच कर भी के यह सब करने वाले हमारे बीच रहते थे, हमारे पड़ोसी, साथ काम करने वाले, कुछ दोस्त भी थे, पढ़े-लिखे और समझदार कहे जाने वाले लोग थे.

बुधवार 31 अक्टूबर 1984 को जब यह ख़बर मुझ तक पहुंची तो दोपहर 2 बजे का वक्त था. पीटीआई में अपने दोस्त श्रीनिवासन को मैं काफ़ी देर तक फ़ोन लगता रहा. सारी लाइनें बिज़ी थीं. यक़ीन नहीं हो रहा था. घर फ़ोन लगाया तो वहां बस घंटी बज रही थी. बाद को पता चला कि रजनी, मेरी पत्नी, हमारी बिटिया चांदनी को साथ लेकर मेरी माँ को मिलने अशोक विहार चली गई थीं. अभी तक सिर्फ़ यह ख़बर मिली थी कि ऐम्स अस्पताल के बाहर कुछ कांग्रेंसियों ने ‘कुछ लोगों से मार पिटाई की’. जैसे ही रेडियो और टीवी पर प्रधानमंत्री के मरने की ख़बर बताई गई दरिंदगी की आग ने मुल्क के ज़्यादतर हिस्सों को अपनी लपेट में ले लिया. शाम 6 बजे जब मैं कनॉट प्लेस से निकला तो 11 सिखों की लाशें सिर्फ़ बाहरी सर्किल में सडकों पर पड़ी मिलीं. कई दुकानें और दफ्तर जल रहे थे. झंडेवालान, करोल बाग़, पटेल नगर, राजौरी गार्डन, सराय रोहिल्ला और शक्ति नगर जैसे पंजाबी बहुल इलाक़े में उन्मादी पागलों की भीड़ लट्ठ, तलवार, चाकू, पेट्रोल की बोतलें लिए अपने शिकार चुन रही थी. उस पहले रोज़ किसी को बचाने की कोशिश करने का हश्र अपनी जान गंवाना था. मेरे कई सिख दोस्तों की दुकानें या तो लूट ली गईं या जला दी गईं.

मशहूर फ़ोटोग्राफ़र सरदार मनोहर सिंह का पटेल नगर वाला स्टूडियो लूटने के बाद आग के हवाले कर दिया गया. मेरे दोस्त सुखविंदर की अशोक विहार वाली दुकान में पड़ी करीब 1500 जीन्स पैंट लूट ली गई. एक और दोस्त की पत्नी और बच्चों को घर में ज़िंदा जला दिया गया. हरबीर सिंह ‘बीरा” के लकड़ी के कारख़ाने को आग लगा दी और जमना पार वाला उसका घर और दफ्तर लूट लिया गया. अपनी जान बचाने के लिए बीरा तीन दिन और दो रात छत के ऊपर पानी की टंकी में छुपा रहा.

उन दिनों हम ईस्ट ऑफ़ कैलाश में रहते थे. हमारे घर से चार घर छोड़ एक सिख परिवार का शानदार बंगला था जिसके बाहरी माथे पे ओंकार और खड़गे का निशान बना था, किसी बदमाश ने जिसे तोड़ कर उस पर काला रंग पोत दिया गया. कई सिख दोस्तों ने अपने बच्चों के केश काट दिए ताकि वो दंगाइयों के ज़ुल्म से बच जाएँ. सालों तक हम अपने सिख दोस्तों और उनके परिवारों से आँख नहीं मिला सके. आज भी जब बात सन् ‘84 की होती है, हम अपने को शर्मसार पाते हैं.

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