तमाशा मेरे आगे | ख़ुशगवार यादों की आहटें

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राजिंदर अरोड़ा अपनी तरह के तजुर्बेकार और संवेदनाओं से भरपूर ज़िंदादिल शख़्स हैं, लेखक हैं, फ़ोटोग्राफ़र हैं और बड़े पढ़ाकू भी हैं. कुछ यादें, कुछ वाक़ये, कुछ लोग, कुछ हादसे, ग़म और ख़ुशियां, नाकामियाँ और कामयाबियाँ….कितने ही तजुर्बों से मिलकर ज़िंदगी बनती है…ज़िंदगी जिसे लेकर हर शख़्स का तजुर्बा मुख़्तलिफ़ है. ज़िंदगी को अलग-अलग रंगों में रंगने वाले तजुर्बे. इनको ज़बान देना, कई बार तरतीब देकर फिर से जीना भी कमाल का तजुर्बा होता है. उनके संस्मरणों की यह श्रृंखला आगे भी जारी रहेगी. -सं
सफ़दर हाश्मी
जनपथ लेन का एक सिरा अशोक रोड से मिलता था जो होटल एशियन इंटरनेशनल से कुल 100 मीटर की दूरी पर था. अशोक रोड और जंतर-मंतर लेन वाले गोल चक्कर के सामने दो सरकारी बंगले थे. 10 नंबर अशोक रोड में कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सिस्ट) का दफ़्तर था तो सामने 12 नंबर में बूटा सिंह जी का घर था (श्री बूटा सिंह देश के गृह मंत्री और बाद में बिहार के गवर्नर रहे). 10 नंबर में पार्टी के साथ साथ कई छोटी-बड़ी बायें बाज़ू संस्थाओं के कामकाज़ी दफ़्तर थे. दिन भर बहुत लोगों का जमवाड़ा रहता था तो शाम को वहाँ कल्चरल प्रोग्राम और नुक्कड़ नाटक होते थे और कई अच्छी डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में भी दिखाई जाती थीं. यहीं पहली बार मैं कामरेड सफ़दर हाश्मी से मिला. उसके बाद कामरेड सुरजीत सिंह, प्रकाश करात, सीतराम येचुरी, बृंदा करात, सोमनाथ चटर्जी से भी यहीं मुलाक़ात हुई.
यहीं से पार्टी का अख़बार पीपल्स डेमोक्रेसी (पीडी) और लोक लहर (एलएल) भी निकलता था. इन अख़बारों को निकालने के लिए पार्टी ऑफ़िस में लगी टाइप सेटिंग मशीन उसी मॉडल की थी, जैसी मशीनें हमने अपने दफ़्तर में लगा रखी थीं. ये दोनों मशीनें दो-चार महीनों में ख़राब होती रहती थीं. इन दोनों मशीनों को चलाने वाले ऑपरेटर भी एक-दूसरे को जानते थे. धीरे-धीरे ये हुआ कि जब एक मशीन ख़राब होती तो वो अपना काम कराने के लिए दूसरे की मदद लेने लगा. इसके चलते पीडी और एलएल के कई अंक इश्तिहार के दफ़्तर में टाइप हुए. इसी तरह हमारा भी काफ़ी काम पार्टी की मशीन पर हुआ. एक बार ऐसी ही मुश्किल घड़ी में सफ़दर हमारे दफ़्तर आ निकले. सफ़दर ने कोई नया गीत या ड्रामा लिखा था, जिसे छाप के अगले दिन बंटवाने का विचार था. पार्टी के मशीन ओपेरटर ने उन्हें हमारे दफ़्तर का रास्ता दिखा दिया. जंतर-मंतर लेन और तीन हट्टी पार कर सामने खड़े होटल में सफ़दर मुझे पूछते आ निकले. संजीदा और हंसमुख सफ़दर बहुत दिलक़श इंसान थे. काम हो गया, चाय और सिगरेट पी ली गई, अगले नुक्कड़ नाटक की तैयारी के बारे में भी पता चला और साथ-साथ ये कि तुम भी नाटक में काम करो. मुझे कॉलेज के दिन और डॉ. राजेंद्र नाथ के नाटक ‘जात न पूछो साधू की’ में किया अपना काम याद आ गया. मैंने भी जोश में हाँ कह दिया और उस रोज़ से सफ़दर दोस्त बन गए. 31 दिसम्बर 1988 (मृत्यु से एक रोज़ पहले) की रात को सफ़दर मेरे साथ इश्तिहार के दफ़्तर में ही थे. वो एक पर्चे का मज़्मून टाइप कराकर उसे छपवाना चाहते थे. वो हमारी आख़िरी मुलाकात थी. अलविदा सफ़दर.
फ़ारूक़ शेख़
दिल्ली में जनपथ सड़क पर एक तीन सितारा होटल होता था-एशियन इंटरनेशनल. फ़ारूक़ शेख़ जब भी अपने निजी काम से या नाटक के कम ख़र्च वाले काम से दिल्ली आते तो इसी होटल में रुकते थे. जनपथ होटल के ठीक पीछे यह होटल केरल भवन के सामने था. फ़ारूक़ चौथी मंजिल पे कमरा नंबर 404 में रुकते थे, जिसकी खिड़की से केरल भवन का हरा-भरा मैदान दिखता था. इसी केरल भवन के ठीक साथ वाला बंगला शबाना आज़मी का था जब वो संसद सदस्य थीं . यह बंगला जंतर-मंतर रोड पर था जो नारे बाज़ी, हड़ताल और इंकलाब ज़िंदाबाद की आवाज़ उठाने का पक्का अड्डा था. दिल्ली में होने वाले ‘तुम्हारी अमृता’ के बहुत से शो की रिहर्सल शबाना जी के बंगले में भी होती थी. शबाना जी “सहमत” से जुड़ीं थी सो कई बार हमारा साथ देने जलसों और प्रदर्शन करने हमारे साथ सड़क पर भी उतरती थीं. मेरी हमसफ़र और मैं ख़ुशकिस्मत थे कि हमारा दफ़्तर उसी होटल के बेसमेंट में था. फ़ारूक़ जी को हम पहली बार वहीं मिले थे और सालों तक उनका प्यार मिला. दोस्ती कुछ ऐसी हो गई कि कई बार थिएटर में सामने बैठकर और कुछ बार स्टेज के पीछे से भी शो देखने को मिले. महीन मलमल या लखनवी चिकन का हलके रंगों वाला कुर्ता, तंग पाँयचे का अलीगढ़ी पाजामा, पाऊँ में पिशौरी सैंडल पहने और मदमस्त कर देना वाला अत्तर लगा कर लम्बी लटों वाले फ़ारूक़ जहाँ से भी गुज़रते थे, लोग उन्हें देखते रह जाते थे. अच्छी सेहत वाले गोरे-चिट्टे फ़ारूक़ ख़ासे हसीन थे और उनकी आवाज़ में तो जादू था. लड़कियाँ तो उन पे जान छिडक़तीं थीं. फ़ारूक़ साहेब ग़ज़लें भी खूब गुनगुनाते थे और गाते भी बहुत अच्छा थे.
फ़ारूक़ बेवफ़ाई कर जल्दी चले गए. अब न फ़ारूक़ हैं, न वो बंगला शबाना जी का है, न वो होटल एशियन वहां है, न ही हमारा दफ़्तर उस इमारत के बेसमेंट में है. कितना कुछ छूट जाता है पर कहीं न कहीं से यादें ज़िंदा रखने का सिलसिला बन जाता है. आज फ़ारूक़ और उन दिनों की याद प्रभात भाई द्वारा भेजी किताब से फिर से ताज़ा हो गई .
कुँवर महिंदर सिंह बेदी
गर्मियों के दिन थे पर होटल के अंदर न तो गर्मी-सर्दी और न ही बसंत-बरसात के मौसम का पता चलता है. एयर कंडिशनर की वही नपी-तुली बासी हवा दिन-रात होटल में घूमती रहती थी, जिसके बारे में अंदर रहने वालों को अच्छी साफ़ हवा क्या होती है, इसका पता ही नहीं चलता था. अंदर का तापमान दिन में 22 और रात को 24/25 डिग्री बना रहता था.
अंदर की ठंडक को छोड़ अगस्त की उस उमस भरी गर्मी में मैं होटल से बाहर निकला तो देखा सामने नीली धारियों वाली चमकदार पगड़ी पहने एक लम्बे गठीले बदन के सरदार जी फ़िएट गाडी के साथ खड़े पार्किंग के गार्ड से ये पूछ रहे थे कि वो गाड़ी कहाँ खड़ी करें. हलके हरे रंग की उनकी फ़िएट गाड़ी का नंबर था DHL 111. सिर्फ़ कार के नंबर भर से पता चल रहा था कि वो कोई ख़ास शख़्स हैं. गार्ड भाई हाथ बांधे उनसे कुछ विनती कर रहा था. इतने में भगत साहेब का ड्राइवर बहादुर हाथ जोड़ते हुए आया और उनसे चाबी लेकर गाड़ी को तरीके से लगाने के लिए ले गया. अपना काम निपटा कर मैं वापस लौटा तो सीधे बाबू जी यानि भगत साहेब के केबिन में गया. वो दिलकश-सा लगने वाला शख़्स वहीँ मौजूद था.
उम्र रही होगी 70-72 साल, चेहरे पर रौनक, तरतीब से बाँधी मूंछ और दाढ़ी पे खिजाब लगाकर उसे रात-सा काला कर दिया गया था. उनके सामने एक उर्दू का रिसाला खुला पड़ा था. भगत साहब कुछ तसवीरें देखने में मशगूल थे. मैंने दोनों को हाथ जोड़ के नमस्ते की और कुर्सी खींच पास ही बैठ गया. बाबू जी ने उनका तार्रुफ़ करवाया तो पता चला कि मेरे सामने हिंदुस्तान के मशहूर-ओ-मारूफ़ शायर कुँवर महिंदर सिंह बेदी बैठे हैं. आव देखा न ताव, सर नीचे झुका कर पैर छुए और उनका आशीर्वाद लिया. आत्मा तृप्त हो गई. चाय और पनीर पकौड़े आ गये थे. उनके नज़दीक बैठकर मैं भी चुस्कियाँ लेने लगा. पता चला कि भगत साहब और बेदी साहब अच्छे और पुराने दोस्त हैं. दोनों ने मिलकर कई हिंदी फ़िल्मों में पैसा भी लगाया और फ़िल्मों का वितरण भी किया. बेदी साहेब तो फ़िल्मों के लिए गीत और ग़ज़ल लिखते भी थे. दो फ़िल्मों की कहानियों में भी उनका हिस्सा था.
बेदी साहेब और भगत साहेब में अच्छी निभती थी. एक शायर तो दूसरा शायरी का शौक़ीन. शमा रिसाले में छपी अपनी नई ग़ज़ल पढ़ कर उन्होंने सुनायी और हमने खूब दाद दी. शागिर्द तो हम बन न सके पर ‘घर वाला बच्चा’ समझ कर हमारी दोस्ती वहीं पक्की हो गई.
शंकर-शाद मुशायरा लाल किले के सामने मैदान में हर 15 अगस्त के बाद होता है. मुशायरे में बैठने के पास बेदी साहब ने भेजे और हमने बड़े शौक़ से सबसे आगे वाली लाइन में सोफ़े पे बैठ कर मुशायरे का मज़ा लिया. उसके बाद काफ़ी अरसे तक बेदी साहब से मुलाकात नहीं हुई. भगत साहब से पूछने पर पता चल कि उनकी तबीयत कुछ ठीक नहीं थी. कुछ दिनों बाद एक दिन वो फिर आ निकले. एक बार फिर से नई ग़ज़ल सुनी गई, कुछ बातें हुईं दिलीप कुमार साहेब की और फ़िल्मी दुनिया की.
मैंने ख़ैर पूछी तो उन्होंने कहा, “बरख़ुरदार, बाक़ी सब तो ठीक है पर आजकल सुबह एक दर्ज़न अंडों का आमलेट और रात को गोश्त की हांडी नहीं पचती, पता नहीं क्या हो गया है”. मैंने अपने आप को कुर्सी से गिरने से कैसे रोका मैं ही जानता हूँ . नाश्ते में बस 12 अंडे, और रात को पूरी हांडी? बेदी साहब कुछ दिनों में ही ठीक हो गए पर उनका हाज़मा लगातार ख़राब रहा. उस उम्र में भी वो चैम्सफ़ोर्ड क्लब में रोज़ तैरने जाते थे और हर शाम चार बड़े पैग पीने वाले बलिष्ठ सरदार जी कहते थे, ‘किसी हरामी की नज़र लग गई है मुझे.’
फ़िएट कार बेचने की एजेंसी थी उनकी, और भी कई करोबार थे – खाने-पीने और अपनी सेहत का बेदी साहब पूरा ख़याल रखते थे. 82 साल तक की उम्र तक खुद गड्डी चलाकर आसफ़ अली रोड से ग्रेटर कैलाश अकेले अपने घर जाते थे. जब अपनी फिएट में बैठते थे तो उनकी पगड़ी का ऊपरी कोना कार की छत से रगड़ खाता था. अपनी लंबी टांगों की वजह से ड्राइविंग सीट को उन्होंने ख़ासा पीछे सरकवा रखा था. सरहद के दोनों तरफ़ का जाना-माना शायर एक शाम ज़िंदगी की आख़िरी ग़ज़ल लिखते-लिखते दूसरी दुनिया को रौशन करने निकल गया. अलविदा बेदी साहेब.
दूरदर्शन के सी.वी. रमन और कुलभूषण खरबंदा
दिल्ली यूनिवर्सिटी के जिस कॉलेज से मैंने ग्रेजुएशन किया, उसी कॉलेज में उस समय की कुछ महान हस्तियां कॉलेज में लेक्चरर थीं. मैंने स्नातक की डिग्री अंग्रेज़ी आनर्स में की. मैं ख़ुशनसीब था कि अंग्रेज़ी डिपार्टमेंट के मेरे गुरुओं में डॉ.राजेंद्र नाथ थे. दिल्ली में नाटक और ड्रामा दुनिया के स्तम्भ थे वो. उनके ग्रुप ‘अभियान’ ने ‘जात न पूछो साधू की’ और ‘घासीराम कोतवाल’ जैसे कई महत्वपूर्ण नाटक किये. नाटक और ड्रामा के मंच पर मुझे लाने वाले डॉ.राजेंद्र नाथ ही थे. इन दोनों नाटकों में मैंने भी काम किया. उनके साथ अंग्रेज़ी पढ़ाने वाले लेख़क डॉ. एस. पॉल और डॉ. अनिल भट्ट भी थे. हालाँकि मैं अंग्रेज़ी पढ़ने वाला छात्र था इसके बावज़ूद बाक़ी विषयों को पढ़ाने वाले लेक्चरर भी मुझ पर दयादृष्टि और प्यार बनाये रहते थे. उनमे से एक थे इकोनॉमिक्स पढ़ाने वाले सी.वी. रमन जो दूरदर्शन पर रात को हिंदी ख़बरों के ख़ुलासे पढ़ते थे. रमन साहेब दक्षिण भारत से थे फिर भी हिंदी कमाल की पढ़ते थे. हमारे कॉलेज में एक और लेक्चरर थे डॉ. उमाकांत, जो हिंदी लेखन में एक बड़ा सितारा थे. इन सब से कॉलेज के दौरान ऐसे अच्छे सम्बन्ध हो गए जो ताउम्र चले.
रमन साहेब और डॉ.राजेंद्र नाथ तो अक्सर शाम को प्रेस क्लब में भी मिलते रहे. कई बार रमन साहेब दफ़्तर भी चले आते थे. होटल में दफ़्तर होने के बहुत फ़ायदे होते हैं ज़नाब. एक ऐसी ही शाम मैं काम में मशगूल था. वक़्त था शायद 6.30 या 7 बजे. दफ़्तर में मैं अकेला ही था और मेरे हाथ में अभी काफ़ी काम बाक़ी था. रमन साहब दबे पाँव चलते मेरे केबिन के खुले दरवाज़े के सामने खड़े थे. मेरे उस्ताद रहे थे तो इस्तक़बाल तो होना ही था. मैंने उन्हें अपने सामने वाली कुर्सी पर बिठाया.
उनके साथ एक और साहेब भी थे. गोर-चिट्टे, शरीर से थोड़े भारी, नाक पे चश्मा, हलकी सफ़ेद दाढ़ी, भरी हुई आँखें, नीले कुर्ते के ऊपर नेहरू जैकेट पहने थे. उनके हाथ में कोई रिसाला था. मैंने हाथ जोड़ के नमस्कार किया और उन्हें भी तशरीफ़ रखने को कहा. उन दोनों से माफ़ी मांगते हुए मैंने कहा बस 15-20 मिनट दीजिए, मैं जल्दी ही फ़ारिग हो जाऊंगा, तब तक आप चाय पियें. फ़ोन उठाया, चाय और सैंडविच आर्डर कर दिए. होटल में दफ़्तर होने के कई फ़ायदे हैं और कई नुक़सान.
काम क़रीब 7.15 पर जा के ख़त्म हुआ. बत्तियाँ बंद कीं, दरवाज़ा भी बंद किया और हम लोग बाहर आ गए. उन दोनों को गाड़ी में बिठाकर मैं प्रेस क्लब ले आया. कहाँ चलना है, क्या प्रोग्राम है, पूछने और बताने का तक़ल्लुफ़ आपस में नहीं होता था. वैसे भी शाम को बैठने का ठिकाना एक ही था. टेबल मिलने के बाद दफ़्तर और काम से मेरा मन हटा और मुझे चैन आया.
अभी वेटर को आने में समय था तो रमन साहेब ने आने की वज़ह बताते हुए कहा, ‘कोई जल्दी नहीं है, तुम्हें फ़ुर्सत हो तो बात कर लेना.’ ‘जी, आप समझ लीजिए कि काम हो गया’, ये कहकर मैंने सामने बैठे उनके दोस्त को देखा ही था कि रमन साहेब ने पूछा, ‘राजिंदर, तुमने शायद इन्हें पहचाना नहीं.’
माफ़ कीजिएगा सर, कहीं मिला तो हूँ इन्हें पर अब याद नहीं आ रहा. इतनी देर में क्या देखता हूँ कि आस-पास की सभी टेबल वाले उन ज़नाब को देख के खुसफुस कर रहें हैं. मैंने भी चोरी से फिर देखा पर कुछ याद नहीं आया. झेंपते हुए मैंने कह दिया-सर, आपके साथ टीवी पर ही देखा होगा. वो दोनों हंस दिए.
ड्रिंक आ गई थी. चुस्की लेते हुए रमन साहेब ने कहा, ‘भई अज़ीब घनचक्कर हो तुम, हिन्दोस्तान का मशहूर फ़िल्म और थिएटर कलाकार तुम्हारे सामने बैठा है और तुम पहचान नहीं रहे,’ धत्त. मैं शर्म से लाल हो रहा था पर फिर भी याद नहीं कर पा रहा था. इतने में एक बहुत कोमल-सा हाथ टेबल के ऊपर से मेरी तरफ़ बढ़ा और उन साहेबान ने मुझ से मुख़ातिब हो कहा, ‘इस नाचीज़ को कुलभूषण खरबन्दा कहते है’. मैं बस इतना ही सोच पाया कि काश धरती फट जाती और मुझे समा लेती. वो शाम सिर्फ़ माफ़ियां मांगते कटी.
महान क्रिकेटर कपिल देव
8 फ़रवरी 1994 को अहमदाबाद के मोटेरा क्रिकेट मैदान पर सुबह 11 बजे के आसपास हिंदुस्तान के महान गेंदबाज़ कपिल देव ने अपना 432वां टेस्ट विकेट लेकर न्यूज़ीलैण्ड के सर रिचर्ड हेडली का 431 विकेटों का रिकॉर्ड तोड़ा और अपने नाम एक और कीर्तिमान कर लिया. स्टेडियम में बैठे हज़ारों दर्शकों ने करीब 15 मिनट तक ताली बजाकर और खड़े हो कर कपिल देव को बधाई दी और स्टेडियम से 432 रंगीन गुब्बारे हवा में छोड़े गए . एक महीने बाद दो विकेट और लेकर कपिल देव ने टेस्ट क्रिकेट की दुनिया से संन्यास ले लिया. उस समय वो टेस्ट क्रिकेट की दुनिया में 434 विकेट लेने वाले अकेले खिलाडी थे. इस 434वीं विकेट के साथ कपिल देव से हमारा मिलना तय हो गया.
हुआ यूँ की इस रिकॉर्ड से तीन महीने पहले दिल्ली के एक प्रकाशक ने कपिल देव के खेल जीवन पर एक क़िताब छापने की अनुमति ले ली थी. हम (यानि इश्तिहार) उस प्रकाशक के लिए पहले भी कई किताबें डिज़ाइन कर चुके थे और कपिल देव की किताब डिज़ाइन करने का ज़िम्मा हमें ही काम सौंपा गया. हमारी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था. डिज़ाइन करने से पहले हमें कपिल जी की ज़िन्दगी के हर पहलू पर जानकारी इकट्ठी करनी थी, बहुत सी तस्वीरें जुटानी थीं और कपिल जी के साथ खेलने वाले अन्य खिलाड़ियों के इंटरव्यू भी करने थे. काम लम्बा था और वक़्त कम.
इश्तिहार के पूरे दफ़्तर और प्रकाशक के एडिटर सुरोजीत बनेर्जी ने मिल कर इस मुश्किल काम को छह महीने में पूरा किया. इस दौरान कपिल देव से उनके घर, दफ़्तर क्रिकेट के मैदान, दिल्ली क्रिकेट एसोसिएशन के दफ़्तर फिरोज़शाह कोटला और बहुत-सी जगहों पर मिलने जाना पड़ा. ज़्यादातर मुलाकातें और इंटरव्यू उनके घर पे ही हुए, जिस दौरान उनसे उनकी ज़िन्दगी के कई अलग-अलग पहलुओं पर बातचीत हुई और उनको नज़दीक से जानने का मौक़ा मिला. एक दोपहर उनके घर लंच करते हुए यह सामने आया कि वे ख़ुद खाना खाने से पहले पाले हुए अपने तोते के जोड़े को अपने मुँह से खाना खिलते हैं. उनकी माता जी और उनकी पत्नी रोमी जी से बात हुई.
एक रोज़ कपिल ने हमें अपनी बीएमडब्लू कार में भी सैर करवाई. दिन के वक़्त कपिल देव बहुत मसरूफ़ रहते थे सो किताब के कई चैप्टर्स पर बात करने या तस्वीरों के चुनाव के लिए वो हमारे दफ़्तर होटल एशियन में देर शाम को ही आते थे. अक्सर नौ बजे के बाद. उनके आने से होटल में ख़ासी भीड़ उनके इर्द-गिर्द इकट्ठी हो जाती और कई बार काम करना भी मुश्किल हो जाता पर कपिल देव बहुत सब्र से लोगों से बात करते और प्यार से हर स्थिति को संभाल लेते.
गेंदबाज़ी की अपनी तस्वीरों में वो सिर्फ़ उन्हें ही चुनते थे, जिसमें उनका गेंद फेंकने का एक्शन बिलकुल सही होता न कि वो तस्वीरें जिनमे उनका चेहरा या बदन अच्छा दिख रहा हो. खेल के टेक्निकल हिस्से को ज़्यादा तरज़ीह देते थे. उनसे मिलते हुए हमने भी उनके साथ बहुत से तस्वीरें खिंचवाईं. एक पूरा दिन उन्होंने क्रिकेट मैदान पर गेंद पकड़ने, डालने और उसके एक्शन की एक-एक तस्वीर तसल्ली से खींचने का मौक़ा दिया.
क़िताब का डिज़ाइन पूरा होने पर उसे छपवाने हम सिंगापुर ले गए. कपिल देव की ऊँची शख़्सियत और खेल में उनके विराट रुतबे को ध्यान में रखते हमने किताब का साइज़ भी बड़ा रखा था. 1994 में छपी उस क़िताब का खेल दुनिया में आज भी कोई सानी नहीं है. रंगीन तस्वीरों से भरी उस क़िताब को न सिर्फ़ पूरी दुनिया में सराहा गया बल्कि उस साल के डिज़ाइन अवार्ड्स में उसे श्रेष्ठ किताब का पुरस्कार भी मिला.
क़िताब के रिलीज़, यानि विमोचन, का दिन तय कर दिया गया था और उसका पहला एडिशन 10,000 कॉपी का था. किताब को रिलीज़ करने के लिए दिल्ली के ताज होटल में बहुत से ख़ास मेहमान मौजूद थे, जिनकी फेहरिस्त बहुत लम्बी है. उनमे से सबसे ऊपर थे कपिल देव को दिल से चाहने वाले मक़बूल फ़िदा हुसैन, अमिताभ बच्चन, सुनील गावस्कर और पूरी हिंदुस्तानी क्रिकेट टीम. गज़ब माहौल था. ताज होटल का हॉल मेहमानों से खचाखच भरा था. पार्टी देर रात तक चली, जिसके बाद हर एक मेहमान को कपिल देव ने क़िताब की दस्तख़त की कॉपी अपने हाथ से दी.
क़िताब का नाम था “कपिल देव: ट्रायंफ़ ऑफ़ दी स्पिरिट”, जिसकी सारी कापियां एक महीने में ही बिक गईं. प्रकाशक ने उसके तीन एडिशन और छापे. उस क़िताब को अंजाम देने और उनके साथ बिताये आठ महीनों के बारे में आज भी सोचता हूँ तो रौंगटे खड़े हो जाते हैं. सिर्फ़ अच्छे खिलाडी ही नहीं, कपिल देव एक नेक इंसान भी हैं.
बंगाली मार्किट में उनकी स्पोर्ट्स न्यूज़ एजेंसी का दफ़्तर था. एक शाम उस दफ़्तर में हुआ वाकया भी कभी नहीं भूलेगा. मैंने फ़ोन कर के समय लिया कि ‘दो ख़ास खिलाडियों के बारे में आपकी राय पूछनी है’, वो बोले- शाम आठ बजे आ जाओ. वहां पहुँचा तो कुछ लोग पहले से उन्हें घेरे थे, क़रीब आधा घंटा इंतज़ार करने के बाद में जब उनके सामने बैठा तो मेरे साथ वाली कुर्सी पे कोई बैठा था. मैंने ज़्यादा ध्यान न दे कर जल्दी से अपने सवाल पूछे, जिनके जवाब मैं रिकॉर्ड कर रहा था. 20 मिनट में काम ख़त्म हो गया. मैं उठा और इजाज़त ले के निकलने ही वाला था कि चाय आ गई. बातों का मज़मून बदला तो मेरे साथ बैठे लड़के ने उस इंटरव्यू के बारे में कुछ कहा जिस पर मैंने ख़ास ग़ौर नहीं किया. मुझे वो स्कूल में पढ़ने वाला कोई जवान लड़का-सा लगा. मैं जैसे ही चाय पी कर उठा कपिल बोले, “जड्डू की बात में दम है सो भी लिख देना”. मेरे मुँह से यकायक निकला, ‘कौन जड्डू’? कपिल ज़ोर से हंस पड़े और बोले, ‘ओये ये, अजय जड़ेजा, और कौन’. अजय भी खड़े हुए. मैंने हाथ मिलाया और मुँह लटका के बाहर निकल आया. यक़ीन मानिये जडेजा तब 12वीं जमात के स्टूडेंट लग रहे थे.
20 ओवर का टी20 धुआंधार क्रिकेट खेल अभी शुरू नहीं हुआ था, हुआ होता तो यक़ीनन कपिल देव जैसे तेज़ गेंदबाज़ और जांबाज़ बल्लेबाज़ ने बहुत रिकॉर्ड बनाये होते. क्रिकेट के खेल में बीसियों रिकॉर्ड बनाने वाले कपिल देव ने 1994 में अंतर्राष्ट्रीय खेल को अलविदा कह दिया. 1978 में पाकिस्तान के ख़िलाफ़ शुरू हुए अपने क्रिकेट जीवन में तेज़ी से आगे बढ़ते हुए 1982 में वो हिंदुस्तानी टीम के कप्तान बने. 1983 में उनकी कप्तानी में खेलती हुई हिंदुस्तानी टीम ने विश्व कप जीत कर क्रिकेट इतिहास में अपना नाम सुनहरे अक्षरों में लिखवा लिया. 1983 के उसी विश्वकप कपिल ने जिम्बाब्वे के विरुद्ध 175 रन की बेहतरीन पारी खेली जिसके चलते भारत वह मैच जीता. इसी मैच में उन्होंने एक ओवर में 4 छक्के भी लगाए. पर दुःख की बात ये है कि टेलीविज़न प्रसारण की हड़ताल के चलते इस मैच की कोई विडियो रिकॉर्डिंग भी नहीं है. उन्होंने एक दिवसीय क्रिकेट में 1 और टेस्ट क्रिकेट में 8 शतक लगाए हैं.
कपिल देव खेल के दिग्गज़ आल रॉउंडर थे. 1980 में अर्जुन पुरस्कार 1982 में पद्मश्री, 1983 में विसडेन क्रिकेटर ऑफ़ दी ईयर , 1991 में पद्म भूषण और 2002 में विसडेन क्रिकेटर ऑफ़ दी सेंचुरी से सम्मानित कपिल देव भारत में सब ज़्यादा विभूषित खिलाडी हैं.
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जो ‘उठो लाल अब आंखें खोलो’... तक पढ़े हैं, जो क़यामत का भी संपूर्णता में स्वागत करते हैं