तमाशा मेरे आगे | स्टाइल भाई

फ़रवरी का महीना, बसंत का मौसम और बड़े से घर की बड़ी, खुली छत पे बच्चों के मुंडन या जन्मदिन की पार्टी छोटे-बड़े बच्चे पसंद करें या न करें उनके माँ-बाप, चाचा-ताऊ, मामा-मामी, बुआ-फूफा सब इस मौक़े का लुत्फ़ उठाते हैं ख़ासकर अगर वो दिल्ली की पंजाबी बिरदारी के हों. बसंत का ख़ुशनुमा महकता समां, हल्की पीली धूप, पीले फूल और मद्धम हवा में रस्सियों पे झूलते पीले ग़ुब्बारे, वाह, बस डोलने की कमी थी. ऐसी ही धूप सेंकने, बियर पीने वाली ऐसी ही दावत का न्योता हमें भी आया. दावत थी एक बच्चे के मुंडन की ख़ुशी में पर लग ऐसे रहा था कि 40-45 की उम्र के ऊपर वाले सारे आदमियों ने सर पे उस्तरा चलवा लिया हो. औरतों की बात करनी नहीं चाहिए, न जाने कौन कितनी महंगी विग पहने हो या फिर … ख़ैर छोड़िये.

धूप का मज़ा और बियर की हल्की ख़ुमारी अचानक उस वक्त टूटी जब मेरी नज़रों के सामने से धूप वाला काला स्टाइलिश चश्मा पहने एक 8-9 साल, और कुल तीन फुट क़द का लड़का बड़े स्टाइल से यूँ गुज़रा जैसे वो ही अगला शाहरुख ख़ान ऐलान कर दिया गया हो. आजकल के बच्चों के लिए वो सब तो ठीक था पर मेरा माथा तो यूँ ठनका कि उस कच्ची उम्र के बालक के हाथ में एक मोटी-सी, क़रीब तीन-चार सौ पेज की क़िताब थी. जी हाँ, क़िताब. छोटे बच्चे के मुंडन पे एक बच्चे के हाथ में क़िताब? वो भी दोपहर को? वो भी उन लोगों के बीच जिनमें शायद दस लोग भी पढ़ने का शौक़ नहीं रखते हों और जिन्हें मोबाइल से फुर्सत ही कहाँ मिलती है.

उस बच्चे में वो सब था, जो किसी “स्टाइल भाई” में होना चाहिए. वही चाल, वही रौब, वैसी ही ऐंठ, वही रुख़, वही आपा, कुछ हद तक हेकड़ी और उद्दंडता भी. अपने बाएं हाथ की उँगलियों में वो किसी तरह क़िताब को बस दबाये भर ही था जैसे उस किताब का कोई वज़न ही न हो. अब ऐसी पर्सनालिटी वाले बच्चे के हाथों में एक अदना-सी किताब की क्या औक़ात. मेरी ध्यान अब लड़के से हट कर क़िताब की ओर जा रहा था. क़िताब को मैं अपने हाथ में ले कर देखना चाह रहा था, पढ़ना चाह रहा था. यूँ कहिये बिना बात के मैं मरा जा रहा था.

उस बच्चे के आसपास न उसकी माँ थी, न ही पिता. तीन-चार बच्चों ने उसे घेर रखा था, उसका रास्ता रोक रखा था. चूँकि उसने चश्मा पहन रखा था इसलिए मैं उसके हाव-भाव तो नहीं देख पाया पर बाक़ी बच्चों के चेहरे पढ़ कर मैं ये यक़ीन से कह सकता था कि वे उसे ‘डॉन’ जैसा मानते थे. कुछ ऐसा-वैसा न समझें आप, मेरा मतलब पढाई-लिखाई के डॉन से है ज़नाब. मैंने सोचा बैठे रहने से क्या होगा, उठ कर मैं भी डॉन को दुआ सलाम कर एहतिराम पेश कर आऊं. मिलिट्री वाले रंग की जैकेट, काली कमीज़, काला चश्मा पहने उन जनाब ने इस आम इंसान की तरफ नज़र डालना भी ठीक नहीं समझा. ख़ैर, क़िताब का टाइटल पढ़ कर हमें यक़ीन हो गया कि हम एक होनहार इंसान की सोहबत में हैं, जो जल्द ही दुनिया में अपना और अपने वाल्दैन का नाम रौशन करेगा.

हमें तसल्ली हो गई, ऐसे बच्चे ही दुनिया को मोबाइल के कहर से बचा लेंगे, आने वाला हमारा कल ठीक हाथों में है. बस, अब हमें अच्छी किताबें लिखनी होंगी.

तो ज़नाब वो था डेविड बैडेल का लिखा अंग्रेज़ी नॉवेल ‘द पेरेंट एजेंसी’. क़िताब का उनवान पढ़कर एक बार को तो मेरे होश उड़ने को थे पर सम्भलते हुए मैं धूप से परे छाया में लगे बार की ओर हो लिया. एक गिलास बियर तेज़ी से गटकी और दूसरा गिलास भरवा कर मैं अपनी मेज़ पे लौट आया और उस किताब की कहानी याद करने लगा जो मैंने पांच साल पहले पढ़ी थी.

अपने आप से मेरा पहला सवाल यह था कि कच्ची उम्र के इस बच्चे को यह क़िताब सुझाई किसने, ले के किसने दी और दूसरा रिएक्शन एक शुबा था, लाहौल विला कुव्वत यह बालक किसी दूसरे ग्रह से आया एलियन तो नहीं? इसने अपनी आँखें क्यों ढंक रखी है? इतनी धूप में ये जैकेट और काली क़मीज क्यूँ? ये इतना चुप और ख़ामोश क्यूँ है? बाक़ी बच्चों की तरह ये धमाल क्यूँ नहीं कर रहा और ऐसे कौन से माँ-बाप हैं जिन्होंने अभी तक अपने बच्चे की ख़बर तक नहीं ली?

‘द पेरेंट एजेंसी’ किताब के लेखक ने एक इंटरव्यू में बताया था कि ये किताब उन्होंने अपने बेटे एज्रा के एक सवाल के जवाब में लिखी थी. एज्रा और बैडेल, यानि बेटा और पिता, हैरी पॉटर किताबों की किसी प्रदर्शनी देखने गए थे जहाँ एज्रा ने अपने पिता से पूछा, “हैरी पॉटर डर्स्ली परिवार से दूर क्यों नहीं भाग गया और हैरी ने अपने लिए बेहतर या ‘नए’ माँ-बाप क्यों नहीं ढूंढ लिए?’ इस सवाल ने बैडेल को कहानी की शुरुआत दी और उनको ये किताब लिखने को प्रेरित किया.

बैडेल की कहानी का हीरो एक बच्चा है जिसका नाम बैरी बेनेट है, जो कभी-कभी सोचता है और चाहता है कि काश उसके माँ-बाप कोई और होते, बेहतर इंसान और बेहतर घर-गृहस्थी वाले जो उसकी ख़्वाहिशें पूरी कर पाते, उसे अच्छे स्कूल ले जाते, उसका बड़ा घर होता, समाज में उनका बड़ा नाम होता, वग़ैरह वग़ैरह.

बैरी की वो सोच उसे एक काल्पनिक या ख़याली ब्रह्मांड ‘यूनाइटेड किड-डोम’ में ले जाती है, जहां का उसूल है कि दस साल की उम्र के बाद बच्चे अपने लिए नए या बेहतर माता-पिता का चुनाव कर सकते हैं. यानि वो अपने असल माँ-बाप को छोड़कर चुने गए नए माँ-बाप के साथ रह सकता है. उस ख़याली दुनिया, यानि, ‘यूनाइटेड किड-डोम’ में बैरी अपने दोस्तों जेक, लुकस और ताज के साथ ‘द पेरेंट एजेंसी’ नाम की कंपनी के ‘यंगडन डिपार्टमेंट’ में काम करने लगता है. यहाँ उसे पता चलता है कि हर बच्चे को अपने दसवें जन्मदिन से पहले नए माता-पिता को चुनने का चांस मिलता है और उसे भी अब अपने नए माँ-बाप ढूंढने का मौक़ा मिलेगा.

बैरी उसके लिए ‘द पेरेंट एजेंसी’ में अर्ज़ी लगता है. अपने दसवें जन्मदिन से पहले अब बैरी के पास कुल पाँच दिनों का समय है. पांच दिनों में बैरी को माता-पिता के पाँच अलग-अलग जोड़ों से मिलवाया जाता है. हर रोज़ एक नए माता-पिता के जोड़े से. अब बैरी को यह तय करना है कि वह अपने मूल माता-पिता को ज़्यादा पसंद करता है या चुने गए किसी नए जोड़े को. हालाँकि बैरी के पास जो कुछ भी है और जो ‘चीज़ें’ नहीं हैं उन सब के लिए बैरी अपने माता-पिता को दोषी ठहराता है और उनकी फ़ेहरिस्त बनाता है.

बहुत सोच-विचार और नए माता-पिता के पाँच जोड़ों से मिलने के बाद बैरी इस नतीजे पर पहुँचता है कि अपने दसवें जन्मदिन पर वो अपने असली या मूल माता-पिता के साथ ही रहना पसंद करेगा. इसके लिए बैरी को वापस पृथ्वी पर आना होता है.

‘द पेरेंट एजेंसी’ गज़ब का थ्रिलर है. एक नया तसव्वुर है, नई सोच की नई कहानी.

अपने लिए नए माता-पिता के चुनाव में बैरी को मिले पांच दिन तक अलग-अलग जोड़ों से मिलने की जो कहानियाँ हैं, वे यक़ीनन हैरान कर देने वाली हैं. इन पांच दिनों में हुई सारी घटनाओं और वाक़यों को यहाँ बताकर मैं किताब पढ़ने का आपका मज़ा ख़राब नहीं करना चाहूंगा. मैं चाहता हूँ मेरी आज की मुलाक़ात वाले छोटे डॉन की तरह यह किताब आप भी पढ़ें.

माँ-बाप और बच्चे दोनों का एक दूसरे को परस्पर परखना और अपनी-अपनी उम्मीदें एक दूसरे के सामने रखना 21वीं सदी का सत्य है. न केवल माता पिता को बल्कि आजकल बच्चों को भी उनसे बहुत कुछ अपने मुताबिक़ चाहिए जिसके लिए वो एक नई व्यवस्था करने को भी तैयार हैं.

कुल दस बरस की उम्र वाले छोटे डॉन से दोस्ती करने के लिए जब मैंने अपना हाथ बढ़ाया तो कुछ देर सोचने के बाद वो बोला, “हम दोस्त कैसे बन सकते हैं आप तो मेरे से बहुत बड़े हैं”. ये कह कर कंधे उचकाता छोटा डॉन स्टाइल से क़िताब को बग़ल में दबाकर, दावत की हलचल के बावज़ूद छत का एक कोना चुनकर पढ़ने में मशगूल हो गया.

ज़िंदाबाद छोटे डॉन.

क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हर पार्टी में एक कोना किताबों और पढ़ने वालों के लिए भी हो?

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