ज़ायक़ा | पेचकस की देसी रेसिपी का क्रेडिट तो हम लेंगे
डिस्क्लेमर: टी टोटलर क़िस्म की भावनाएं आहत हो सकती हैं, सो गुज़ारिश है कि इसे पढ़ने से बचें. क़द्रदान क़िस्म के मयनोश या फिर दिल्ली-मुंबई वाले मयख़ानों के मेन्यू की फ़ोटोस्टेट से अपने लेदर बाउण्ड मेन्यू बना डालने वाले ठिकाने भी इसे अपनी हत्तक के तौर पर हरगिज़ न लें. हम इस टिप्पणी के ज़रिये मयनोशों की पारखी ज़बान पर होने वाले अत्याचारों का विरोध करते हैं. यहां दर्ज सभी वाक़ये एकदम सच्चे हैं और किसी तरह की कल्पना से इनका रत्ती भर भी लेना-देना नहीं.
शहर में कॉफ़ी पीने का कोई बढ़िया ठिकाना नहीं मिल रहा है सो मेरे सहयोगी अमित ख़ासे खिन्न हैं. जहां कहीं ढूंढते हैं, झाग के ऊपर चॉकलेट पाउडर और नीचे दूध में घुली इन्सटेंट कॉफ़ी ही मिलती है. एक-सी महक़ और एक-सा स्वाद. वह कोलकाता के कॉफ़ी वाले तमाम ठिकाने याद करते हैं, लेमन टी याद करते हैं. यों वह दूध-कोला भी ख़ूब याद करते हैं. मयनोशी से कोसों दूर हैं, सो माने बैठे हैं कि बरेली के बार-वार तो एकदम झमाझम हैं. दिलकश रोशनी, किसिम-किसिम की बोतलें और गिलास. और कुछ-कुछ उसी क़िस्म के क़द्रदान, जिनके चेहरों पर संतोष का भाव उनकी राय और पुख़्ता करता है.
अब सुनिए बार का किस्सा. चौपुला के रास्ते पर डिप्लोमेट होटल के ऐसे ही चमचम वाले बार के झांसे में आ गए एक पारखी. मेन्यू देखकर स्क्रू ड्राइवर आर्डर कर दिया. यह जो पेय है, यह अंग्रेज़ी का पेचकस इसलिए है कि अमेरिकन इंजीनियर अपने काम के दौरान जो ऑरेंज जूस पीते उसके कैन में ख़ामोशी से थोड़ी वोदका भी डाल लिया करते और फिर पेचकस से उसे मिला लेते. सो स्क्रू ड्राइवर आज भी ऑरेंज जूस और वोदका का ऐसा मिश्रण है, जिसे ढेर सारी बर्फ के साथ झकझोरने के बाद पीते हैं.
ईजाद के धुनी लोगों ने अब तक तो इसके कितने ही वैरिएंट भी बना डाले मगर उन्हें अलग नामों से नवाज़ा है. मसलन, ऑरेंज जूस में डार्क रम मिलाई जाए तो वह मंकी ब्रास है या फिर वोदका, टक़ीला, ऑरेंज जूस और एनर्जी ड्रिंक को बराबर-बराबर मिला लें तो वह इलेक्ट्रिक स्क्रू ड्राइवर होगा. यह सब ठीक मगर स्क्रू ड्राइवर का फ़ॉर्मूला बदस्तूर रहा, अहमदाबाद से इलाहाबाद तक.
फाफामऊ की तरफ़ है – मयख़ाना द बार. ऐन इंजीनियरिंग कॉलेज के सामने. बंदे ने वर्षों तक वहीं के स्क्रू ड्राइवर का ज़ायक़ा जाना है. पहले ही घूंट में लगता कि ओरिजिनल रेसीपी उन्हीं की ईजाद की हुई हो. प्रवीण को वहां का स्क्रू ड्राइवर अब भी लुभाता है. सुनील को तो ख़ैर सोडा-लाइम कॉर्डियल से ही सुरूर होने लगता सो पता नहीं वह मिस करते हैं या नहीं. दफ़्तर के साथियों को लेकर साल में दो-चार बार भोज उत्सव के लिए हम सारे वहीं जुटते थे, स्वाद के साथ ही कुछ सुकून और कुछ वहां की सर्विस से प्रभावित होकर. धर्मवीर नाम का एक बेयरा हम सब का फ़ेवरिट हो गया था. उसके हिस्से की टेबिल ख़ाली न मिलती तो हम इंतज़ार भी कर लेते
वैसे इलाहाबादी क़द्रदानों के कहने ही क्या! एक बार एयरफ़ोर्स के एक दोस्त के घर जुटने वाली पार्टी किसी वजह से ऐन मौक़े पर टल गई. वह बमरौली की तरफ़ रहते थे तो एक साथ चलने के इरादे से अरिंदम दादा आ गए थे. उनका मशविरा था कि बमरौली की पार्टी टलने का मतलब यह नहीं कि हमने उस शाम पार्टी का हक़ खो दिया है. तो रास्ते से एक लीटर ऑरेंज जूस ख़रीदकर डेढ़-दो घंटे की बतकही के इरादे से हम साथ बैठे. मिश्रण के अनुपात के अपने तजुर्बे के साथ ही उन्होंने काली मिर्च और कुछ और अवयव मिलाकर पेचकस का नया ज़ायक़ा पेश किया था.
ख़ैर, क़िस्सा तो बरेली का कहने बैठे हैं. स्ट्रा और स्टिक के साथ पूरी नफ़ासत से सर्व किए गए पेचकस का स्वाद पहली बार में ही कुछ अनचीन्हा और अटपटा-सा लगा. उसके ख़राब स्वाद की कोई वजह मैं भला कैसे जानता? तो बेयरे को बुलाकर थोड़ी तहकीक़ात भी कर डाली. सबसे पहले तो यही मालूम हुआ कि ऑरेंज जूस की कड़वाहट उसके सस्ते ब्रांड से ही जुड़ी हुई है और वोदका! मेज़ से उठकर उनके काउण्टर तक जाने पर यह राज़ भी खुल ही गया. उनके बार में वोदका तो थी ही नहीं. यानी वह पेचकस ख़ालिस हिन्दुस्तानी निकला – एकदम स्वदेशी. बसंती टाइप. उसे उसके हाल पर ही छोड़ देने में अपनी भलाई लगी…हां, चलने से पहले बारटेंडर को अपनी ओर से स्क्रू ड्राइवर की रेसिपी ज़रूर बताकर आया था.
यहां लिख इसलिए दिया कि हम दूसरों के तजुर्बे से भी नसीहत लेते हैं. आइंदा चमड़े की ज़िल्द में झांकते हुए किसी झोंक में ऑर्डर देने से पहले सारे तत्वों की उपलब्धता ज़रूर पता कर लें. वरना अब तो कैश मेमो से भूल-चूक, लेनी-देनी वाली विनम्रता भी गायब हो गई है.
(कैनसस के नाइट क्लब में मार्गेरीटा पर अगले हफ़्ते)
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