अच्छे लोग-बुरे लोग

फ़ोन पर उस तरफ़ से एक थकी-सी आवाज़ आई कि आपने तब फ़ोन लगाया है साहब जब बहुत देर हो चुकी है. जिनको कोविड-19 पॉज़िटिव कहा जा रहा था वे तो कोई पंद्रह दिन पहले ही इस फ़ानी दुनिया को अलविदा कह चुकी हैं. पूछा कि क्या उनकी मृत्यु कोविड-19 संक्रमण की वजह से ही हुई या उन्हें पहले से कोई बीमारी थी? तो उस तरफ़ से मुख़ातिब उनके पति ने बताया – कोरोना का संक्रमण हुआ था या नहीं, यह तो हम बता नहीं सकते लेकिन उनको काफ़ी पहले से ही प्लेटलेट्स संबंधी बीमारी थी, जिसका इलाज चल रहा था. लॉकडाउन की आड़ में जब सरकारी अस्पतालों ने उन्हें धकिया दिया तब हैसियत न होते हुए भी जान बचाने की ख़ातिर एक प्राइवेट अस्पताल का रुख किया. जब वहाँ भी हालात बहुत बिगड़ गए तो उन्होंने कहा इनका कोरोना टेस्ट कराना ज़रुरी है. टेस्ट कराया गया और तीन दिन के बाद प्राइवेट अस्पताल वालों ने बिना रिपोर्ट दिखाए या हमारे मोबाइल पर रिपोर्ट भेजे बिना ही यह घोषित कर दिया कि ये कोरोना पॉज़िटिव हैं इसलिए अब इनको वहाँ भर्ती कराना होगा, जहाँ ऐसे और मरीज़ भर्ती हैं.

ख़ैर, अब वहाँ तो ले जाना ही था सो ले जा कर भर्ती करा दिया. प्राइवेट अस्पताल का बहुत लंबा-चौड़ा बिल बना सो दो दिन यहाँ-वहाँ फ़ोन करके लोगों के सामने गिडगिड़ा कर क़र्ज़ जुटाया और अस्पताल का बिल भरा. कोविड अस्पताल में वे तीन दिन ही रह सकीं और चल बसीं. हम नहीं जानते कि वे कोविड से मरीं या प्लेटलेट्स संबंधी बीमारी से जो उनको पहले से थी!!!

कोविड अस्पताल से मरीज़ के पास रखा हमारा झोला भी चोरी हो गया, जिसमें 70-80 हज़ार का सोना और बिना सिम का नया मोबाइल फ़ोन चला गया. मैंने पूछा यह कैसे हुआ? उन्होंने बताया कि क़ीमती सामान सुरक्षित रहेगा यह सोचकर उसको कपड़े और पोलीथिन में ठीक से लपेट कर झोले में रख दिया था और हमको चूँकि वार्ड के बाहर रहना था और इधर-उधर आना-जाना भी पड़ता था सो लगा कि मरीज़ के पास रख दें तो ज्यादा सुरक्षित रहेगा. हमने डॉक्टर से भी पूछ लिया था कि अपना झोला मरीज़ के साथ रख दें क्या? तो उन्होंने कहा – हाँ… मरीज़ के पलंग पर रखा रहने दो, कहीं नहीं जाएगा ये. कोरोना वार्ड है यहाँ कोई नहीं आता.

इतना सुनते ही मैंने तैश में आकर कहा – ग़लती आपकी है. अस्पताल में क्या कोई सोना पहन कर जाता है और वह भी ऐसी बीमारी के चलते !!! उन्होंने बताया – नहीं साहब, पहन कर नहीं गए थे. सोने का एक छोटा सा हार था, शादी के वक़्त का, वही रख लिया था. क्योंकि पैसे थे नहीं और पता नहीं था कि कहाँ कितना खर्च होगा? पहले ही इनके इलाज के लिए काफ़ी कर्ज़ ले चुके थे, अब कोई न देता. यही सोच कर रख लिया था कि पैसों की ज़रूरत हुई तो वो हार किसी को दे कर पैसा ले लेंगे. मोबाइल भी नया ही था. दो महीने पहले लिया था. उसका सिम निकाल कर पुराने और ख़राब हुए मोबाईल में डाल कर उसको भी सुरक्षित उसी झोले में रख लिया था कि ज़रूरत पड़ने पर इसको भी बेच देंगे.

तीन दिन तक हमको वार्ड में जाने को न मिला और तीन दिन बाद उनकी पैक की हुई लाश बाहर आई. झोला नहीं आया. पूछने पर बताया गया कि पलंग पर मरीज़ के साथ कुछ भी सामान नहीं था. हमने काफी मिन्नतें कीं और उनको विश्वास दिलाने की कोशिश भी कि झोला वहीं था. डॉक्टर साहब से भी बात की तो उन्होंने कहा कि अभी इनका अंतिम संस्कार करो, फिर सीसीटीवी कैमरे में देखेंगे जो सारे वार्ड्स में लगे हैं तो पता चल जाएगा. अंतिम संस्कार के दो दिन के बाद से पूरे दस दिन तक अस्पताल के चक्कर लगाए कि कोई सीसीटीवी कैमरे की रिकॉर्डिंग्स देख ले. दस दिन बाद जब रिकॉर्डिंग देखी तो पता लगा कि उस वार्ड का तो कैमरा तो न जाने कब से ख़राब है और अब कुछ न हो सकता. हम अपना सा मुंह लेकर घर चले आए.

वह फ़ोन पर बड़बड़ाते जा रहा थे – बताइये साहब, ऐसी महामारी में भी, ऐसी ख़तरनाक बीमारी के दौर में भी कोई ऐसे करता है क्या? कोई ऐसे में भी मरीज़ का सामान चुरा सकता है क्या?

मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की कि जैसे अच्छे लोग हमेशा और हर परिस्थिति में अच्छे होते हैं, वैसे ही बुरे लोग चाहे कितनी भी बुरी परिस्थितियाँ हों, अच्छे शायद ही बन पाते हैं.

वह बोले – हमको कुछ नहीं मालूम, साहब…

हमको नहीं मालूम कि उनकी मौत क्या कोविड से हुई…

हमको नहीं मालूम कि अस्पताल के वार्ड का कैमरा कब से ख़राब था…

हमको कुछ नहीं मालूम साहब…

हमको माफ़ कीजिए… कहते-कहते उनका गला भर आया.

और उन्होंने बुझी आवाज़ में कहा था – चलिए साहब…

आप भी फ़ोन रख दीजिए.

(नोटः भारत दुनिया के उन देशों में सबसे अव्वल है, जहाँ लोग अपने और अपनों के इलाज के लिए सबसे ज़्यादा क़र्ज़ लेते हैं और जहां स्वास्थ्य के लिए ‘आउट ऑफ़ पॉकेट एक्सपेंडेचर’ सर्वाधिक है.)

लेखक मनोवैज्ञानिक हैं. महामारी के इस दौर में प्रभावित लोगों की काउंसिलिंग उन्हें मिली ज़िम्मेदारी है. भोपाल में रहते हैं.

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