तो फ़ैज़ की नज़्म को नाफ़रमानी की दलील माना जाए

  • 6:45 pm
  • 3 January 2020

फ़ैज़ की जिस नज़्म को लेकर हंगामा बरपा है, अब तक तमाम लोग उसकी व्याख्या कर चुके हैं. इकबाल बानो की आवाज़ में ‘लाज़िम है कि हम भी देखेंगे…’ की रिकॉर्डिंग का यूट्यूब लिंक और 1985 में ज़िया सरकार की पाबंदी के बावजूद लाहौर स्टेडियम में उनके गाने का क़िस्सा मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक ख़ूब बताया-सुनाया जा चुका है.

जिन्हें इस नज़्म की भाषा और शायर की नीयत पर शंका है, उसका आधार तो ख़ैर वे ही बेहतर जानें मगर ‘हम देखेंगे..’ हमेशा से हिन्दुस्तान में भी उतनी ही मक़बूल रही है, जितना कि शायद पाकिस्तान में. इसके हालिया इस्तेमाल को प्रतिरोध की वही ज़बान माना जा सकता है, जिसकी तहरीर दरअसल 35 साल पहले इकबाल बानो ने लाहौर में लिखी थी. इस इबारत को एक लफ़्ज़ में समझा जा सकता है – हुक़्मउदूली, नाफ़रमानी या सिविल डिसओबिडियेन्स.

और हिन्दुस्तान में फ़ैज़ के क़लाम की लोकप्रियता का अंदाज़ा इस बात से भी लगा सकते हैं कि जो उनकी शायरी के इंक़लाबी तेवर और रुमानी नाज़ुक़ी के मेल से वाक़िफ़ नहीं भी हैं, उनके अशआर इस तरह बरतते आए हैं कि वह आम ज़बान का हिस्सा मालूम होते हैं. याद कीजिए ‘और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा..’ कितनी बार कितने ही लोगों से मुंह से सुना जाता है. मुमकिन है कि इसे बोलने वाला दूसरा मिसरा याद न कर पाए. ‘मुझसे पहली सी मुहब्बत मिरी महबूब न मांग..’ भी कितनी ही तरह से कहा-सुना जाता रहा है.
सुब्ह-ए-आज़ादी का शेर ‘ये दाग़ दाग़ उजाला ये शब-गज़ीदा सहर/ वो इंतिज़ार था जिस का ये वो सहर तो नहीं..’ पढ़कर आज़ादी के सपनों की तामीर न हो पाने पर अफ़सोस जताने वाले हिन्दुस्तान में मिलते हैं और पाकिस्तान में भी. और ‘बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे/ बोल ज़बाँ अब तक तेरी है’ तो हिन्दुस्तानी अवाम का लोकप्रिय नारा ही है. उनकी ग़ज़ल के मतले का शेर यूं भी मक़बूल है कि इसका पहला मिसरा पियूष मिश्रा के कविता संग्रह का नाम बनकर कवर पर दर्ज हुआ, ‘कुछ इश्क किया कुछ काम किया’. यहां उन अशआर का ज़िक्र है, जो अवाम की ज़बान में इस क़दर घुले-मिले हैं कि उनमें किसी ख़ास नज़रिये का तलाश बेमायने हैं. हां, अदब और अदबी महफ़िलों में लोकप्रिय क़लाम की सूची लम्बी है. ‘हम देखेंगे..’ पूरी नज़्म यहां पढ़ सकते हैं.
हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिस का वादा है
जो लौह-ए-अज़ल में लिख्खा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गिराँ
रूई की तरह उड़ जाएँगे
हम महकूमों के पाँव-तले
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हकम के सर-ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ाएब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर भी
उट्ठेगा अनल-हक़ का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज करेगी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो.

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