फ़र्न्स की ख़ुशबू से ख़ुशहाल ऑकलैंड का कुनबा

  • 9:23 am
  • 27 September 2022

बरेली | लॉरेंस फ़र्नांडिस को मुमकिन है कि आप न जानते हों मगर फ़र्न्स बेकरी से तो वाक़िफ़ होंगे. कभी एएससी के ऑफ़िसर्स मेस में बटलर रहे लॉरेंस ने 1963 में यह बेकरी शुरू की थी. उनके कुलनाम फ़र्नांडिस से ही इस बेकरी को अपना नाम मिला – फ़र्न्स. वह कैटरिंग इन्सट्रक्टर थे और तमाम तरह के ज़ायक़े ईजाद करने में उस्ताद मगर उनकी बेकरी में सिर्फ़ डबलरोटी बनती थी. इसके साल भर बाद ही लॉरेंस के गुज़र जाने पर श्रीमती लॉरेंस ने कुछ अर्से तक बेकरी संभाली, फिर बच्चों की पढ़ाई की ख़ातिर बरेली छोड़ने का इरादा किया तो बेकरी उन्होंने मुबारक अली ख़ाँ को दे दी.

मुबारक अली और उनके भाई मोहम्मद अली उन दिनों शहर के नामचीन रेस्तरां रियो की बेकरी संभालते थे. रियो की कॉफ़ी और पेस्ट्री की उन दिनों ख़ूब धूम हुआ करती थी. दोनों भाई पहले नैनीताल की बेकरी में काम करते थे. रियो के मालिक सी.एम.पंत इन दोनों भाइयों को नैनीताल से यहाँ लिवा आए थे. बाद में जब अली बंधुओं ने फ़र्न्स बेकरी ख़रीदी तो उन्होंने इसका पुराना नाम नहीं बदला, अलबत्ता अपने हुनर की पहचान बन गई पाइनएपिल और चॉकलेट पेट्री इसके मेन्यू में जोड़ दी, पैटीज़ और डोनट्स भी. और हुनर का कमाल देखिए कि पचास साल बाद भी यही पेस्ट्री उनकी बेकरी की पहचान हुई है.

एक भाई केक और पेस्ट्री के उस्ताद रहे तो दूसरे प्लम केक और फ़्रूट केक बनाने के. यह उन दिनों की बात है, जब शहर में गिनती की चार-पांच बेकरी हुआ करती थीं और हर किसी के यहां कुछ न कुछ ऐसा ख़ास ज़रूर हुआ करता जो उनकी शोहरत की वजह बनता. ख़ास तरह के वेडिंग केक नेशनल बेकरी की पहचान हुआ करते, कमल डेयरी को क्रीम रोल और बाद में केजी कन्फ़ेक्शनरी को उनकी ब्रेड के लिए जाना जाता. मगर दूसरी-तीसरी पीढ़ी के आने और मेन्यू में ख़ासा इज़ाफ़ा करने के बाद भी फ़र्न्स की पाइनएपिल पेस्ट्री की शोहरत मद्धिम नहीं हुई है.

इतना वक़्त गुज़र जाने के बाद भी खाने-पीने की किसी चीज़ का ज़ायक़ा ऐसे कैसे बना रह गया है कि हर खाने वाले को मुतासिर करे? यह पूछने पर मुबारक अली के बेटे ज़ाहिद ख़ाँ झट से जवाब देते हैं – इसका राज़ बुजुर्गों की ईजाद रेसिपी और हमारी मेहनत है. बक़ौल ज़ाहिद, ‘हम अपने यहाँ ताज़ी क्रीम ही इस्तेमाल करते हैं. इसे जुटाने और तैयार करने में मशक्कत ज़रूर ज़्यादा होती है मगर ज़ायक़े के क़द्रदानों की कसौटी पर खरा उतरने के लिए यह ज़रूरी भी हैं. डिब्बाबंद क्रीम हम कतई इस्तेमाल नहीं करते.’

वह ख़ुद मानते हैं कि और जगहों पर बनने वाली पेस्ट्री उनके यहाँ की पेस्ट्री के मुक़ाबले ज़्यादा आकर्षक दिखाई देती हैं मगर नाज़ुकी, ख़ुशबू और लज़्ज़त के मामले में उनके यहाँ की पेस्ट्री बिल्कुल अलग ठहरती है.

उनकी बेकरी में काम करने वाले कई लोग ऐसे हैं, जो तीस-चालीस साल से यहीं काम करते आ रहे हैं और जिन्होंने अली बंधुओं की शार्गिदी में काम सीखा. इरशाद अली स्पंज केक और पैटीज़ बनाते हैं, ’80 से यहीं हैं. वह उस दौर के कारीगर हैं, जब आज की तरह इलेक्ट्रिक ओवन नहीं था, कारख़ाने में लकड़ी का बड़ा ओवन था. यानी मिट्टी का ओवन, जिसे गर्म करने के लिए लकड़ी जलानी पड़ती थी. वह बताते हैं कि बेकिंग का हुनर उन्होंने मिस्त्री जी से सीखा है.

शेफ़, बेकर या फ़ूड एक्सपर्ट वाले दौर में किसी हुनरमंद के लिए मिस्त्री का संबोधन सुनना भला लगता है और यह सोचना भी कि अपने मुलाज़िमों के बीच वे ख़ुद को मिस्त्री कहलाना पसंद करते थे.

ज़ाहिद अली की शाइस्तगी भी कम मुतासिर नहीं करती. सन् ’90 में वालिद और ताया के गुज़र जाने के बाद बेकरी संभालने का श्रेय वो अपने भाइयों इरशाद और मुज़ाहिद को देते हैं. और अब तो तीसरी पीढ़ी के शाहबाज़ और फ़ाजिल भी काम सीखने-संभालने लगे हैं. फ़र्न्स में काम सीखने का मतलब काउंटर संभालना भर नहीं है, वहाँ काम का मतलब कारख़ाने के बुनियादी काम का सलीक़ा सीखना भी है. यही वजह है कि उनके तमाम मुलाज़िम काउण्टर और कारख़ाना दोनों ही देख लेते हैं.

बीआई बाज़ार में हकीम जी एण्ड संस के मालिक मोहम्मद महबूब शमसी से लॉरेंस फ़र्नांडिस का कारोबारी रिश्ता तो था ही, चूंकि उनका बेटा माइकल और तस्नीम शमसी साथ पढ़ते थे, इसलिए घरेलू रिश्ते भी थे. शमसी साहब की बेटी श्रीमती फ़िरदौस रहमान इस बेकरी का नाम तय किए जाने के बारे में बड़ी दिलचस्प बात बताती हैं. वह कहती हैं कि फ़र्नांडिस अंकल ने पहले बेकरी का नाम अपनी बेटी विला के नाम पर रखने का सोचा था. इस बाबत जब उन्होंने पापा से बात की तो वह राज़ी नहीं हुए. उनका कहना था कि नाम कुछ अलग और नया-सा होना चाहिए. फिर अंकल को फ़र्नांडिस का छोटा रूप फ़र्न जंच गया.

तस्नीम शमसी बताते हैं कि पहले गोवा, फिर सऊदी अरब होते हुए फ़र्नांडिस परिवार अब ऑकलैंड में आबाद है. सीमेट्री रोड के पुराने क़ब्रिस्तान में अपने पिता की क़ब्र देखने के लिए माइकल दो बार बरेली आए भी हैं. एक बार उनकी माँ भी साथ आई थीं.

उन्होंने कहा, “वो लोग बरेली आकर हमेशा ख़ुश हो जाते हैं. पुराने लोगों से मुलाक़ात के साथ ही इसकी एक वजह फ़र्न्स भी है. शहर में अपने नाम का यह वजूद उन्हें दिली ख़ुशी देता है. अभी जब फ़र्न्स का बोर्ड बदला गया तो भी मैंने माइकल को उसकी एक तस्वीर भेजी थी. और वह बेहद ख़ुश हुआ था.”

कवर फ़ोटो | श्रीमती फ़र्नांडिस, माइकल फ़र्नांडिस, ज़ाहिद ख़ान और मुबारक अली.

सम्बंधित

मैसूर पाक वाले शहर में पनीर लाहौरी का ज़ाइक़ा

ज़ायक़ा | उत्पम वाया सरसों का साग और कुंभ मटर मसाला


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.