किताब उत्सव | भगवती चरण वर्मा का आत्मीय स्मरण
लखनऊ | किताब उत्सव के चौथे दिन आज भगवतीचरण वर्मा के कृतित्व और उनके व्यक्तित्व को बड़ी आत्मीयता से याद किया गया. अन्तर्राष्ट्रीय बौद्ध शोध संस्थान के सभागार में जुटे साहित्य अनुरागियों के बीच आलोचक वीरेंद्र यादव, संस्कृतिकर्मी राकेश, रंगकर्मी गोपाल सिन्हा और भगवती चरण वर्मा के पौत्र और कवि-कथाकार चंद्रशेखर वर्मा ने भगवती बाबू के रचना कर्म और जीवन के बारे में अपना नज़रिया, उनसे जुड़े प्रसंग और अपनी यादें साझा कीं.
राजकमल प्रकाशन की ओर से आयोजित इस उत्सव के पहले सत्र में यूपी के पूर्व मुख्य सचिव आलोक रंजन की किताब ‘जिलाधिकारी’ पर केंद्रित बातचीत में अशोक शर्मा ने लेखक से बातचीत की. आलोक रंजन ने कहा, “जिलाधिकारी का ओहदा बहुत महत्वपूर्ण है और देखा जाए तो यह कॉलोनियल इंडिया की देन है, जो अभी तक चला आ रहा है. इसके कर्तव्य और ज़िम्मेदारियों में समय के साथ बहुत सारे बदलाव आए है, पर अब भी यह ज़िले में केंद्रीय भूमिका में होता है. यह अलग बात है कि हम एक लोकतांत्रिक देश में रहते हैं, इसलिए उसे जन प्रतिनिधियों और जन आकांक्षाओं के प्रति भी पूरी तरह से ज़िम्मेदार होना होता है. अभी उसकी भूमिका समन्वयक की है, जहां उसे दूसरी तमाम इकाइयों और निकायों के बीच संतुलन बनाकर चलना पड़ता है. तमाम तरह के राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ने के सवाल पर उन्होंने कहा कि वे जनता के प्रतिनिधि हैं. जनता की आवाज़ उनके ज़रिये ही प्रशासन तक पहुंचती है. मैं इसे गलत नहीं मानता क्योंकि लोकतंत्र में हमें इस तरह के दबावों के लिए तैयार रहना चाहिए. हां, जब ये बहुत ज्यादा बढ़ जाए तो ज़रूर मुश्किल स्थिति है. सत्र संचालन सुरभि श्रीवास्तव ने किया.
अगले सत्र में वरिष्ठ कथाकार वीरेंद्र सारंग से चर्चित पत्रकार संतोष वाल्मीकि ने बातचीत की. यह बातचीत वीरेंद्र सारंग के उपन्यास ‘हाता रहीम’ पर केंद्रित रही. सारंग जी ने कहा कि उनकी जानकारी में ‘हाता रहीम’ जनगणना को केंद्र में रखकर लिखा गया पहला उपन्यास है. यह यथार्थ के इतना नज़दीक है कि इसमें कल्पना के लिए ज्यादा अवकाश नहीं था. जनगणना फार्म के जो चैप्टर थे, वे सब बाद में उपन्यास के उपशीर्षक बन गए.
संतोष वाल्मीकि ने कहा कि वीरेंद्र सारंग गए तो थे जनगणना के लिए पर एक ज़िम्मेदार सरकारी अधिकारी के रूप में जब वे गावों में पहुंचे तो लोगों ने उनसे बहुत सारी उम्मीदें पाल लीं. इन्हीं उम्मीदों ने संभवतः उनके भीतर उपन्यास का सृजन किया होगा.
वरिष्ठ आलोचक वीरेंद्र यादव से उनकी किताब ‘उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता’ पर केंद्रित बातचीत प्रोफेसर सूरज बहादुर थापा ने की. बातचीत के क्रम में वीरेंद्र यादव ने कहा कि प्रतिनिधित्व की समस्या अभी भी विकराल रूप में बनी हुई है. ये इससे नहीं हल होगी कि कुछ शीर्ष पदों पर दलित या आदिवासी पहुंच गए हैं. ये सिर्फ़ प्रतीकात्मक उपस्थिति है. प्रतिनिधित्व का सही हाल जानने के लिए हमको वास्तविक आंकड़ों के पास जाना होगा. श्रीलाल शुक्ल के लोकप्रिय उपन्यास ‘राग दरबारी’ का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा कि यह उपन्यास नेहरू युगीन जनतंत्र का भाष्य है. रेणु ने मैला आंचल को जहां पर ख़त्म किया था, ‘राग दरबारी’ उसी बिंदु से शुरू होता है. ‘राग दरबारी’ ने बहुत ही ज़मीनी स्तर पर भारतीय लोकतंत्र की विकृतियों को उजागर किया. ऐसे ही प्रेमचंद की ही तरह यशपाल ने भी अपनी कृतियों में आज़ादी के आंदोलन में अनुपस्थित तत्वों पर लगातार लिखा. उनका उपन्यास ‘झूठा सच’ विभाजन पर लिखा गया बेमिसाल उपन्यास है. इस यथार्थ को विमर्श के रूप में न दर्ज कर उसकी संपूर्णता में रचता है. वे स्त्री अधिकारों पर लिखते है.
उन्होंने कहा कि आज़ाद भारत में सर्वाधिक प्रासंगिक वैचारिक लेखन राजेंद्र यादव का है. लोकतंत्र के विघटन के सवाल, स्त्रियों के सवाल, दलितों और आदिवासियों से जुड़े सवालों को हिंदी साहित्य के केंद्र में लाने का काम करते हैं. उन्होंने समता, स्वतंत्रता को केंद्र में रखकर अपनी वैचारिकी रची और हिंदी साहित्य और उसकी संस्कृति पर गहरा असर डाला.
मूर्धन्य लेखक भगवती चरण वर्मा के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित सत्र में वीरेंद्र यादव ने कहा कि भगवती चरण वर्मा लखनऊ के गौरव थे. उनकी कृतियों में लखनऊ का वृहत्तर यथार्थ दिखाई देता है. उनका उपन्यास ‘चित्रलेखा’ आज भी एक मानक बना हुआ है. चंद्रशेखर वर्मा ने भगवती चरण वर्मा के उपन्यास ‘चित्रलेखा’ से एक मार्मिक और विचारोत्तेजक अंश का पाठ किया. उन्होंने भगवती चरण वर्मा के जीवन से जुड़े कई रोचक प्रसंग भी साझा किए. वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी राकेश जी ने कहा कि भगवती बाबू जिस समय में रहे, वह सांस्कृतिक रूप से लखनऊ का बहुत ही समृद्ध समय था. और ये समृद्धि जिन कुछ महान व्यक्तित्वों के दम पर हासिल थी, उनमें भगवती बाबू का शीर्ष स्थान था. ‘दो बांके’ और ‘मुग़लों ने सल्तनत बख़्श दी’ जैसी उनकी कहानियां आज क्लासिक बन चुकी हैं.
निवर्तमान आईजी राजेश पांडेय की किताब ‘वर्चस्व’ पर पत्रकार भूपेन्द्र पांडेय ने उनसे बातचीत की. राजेश पांडेय ने कहा कि कोविड के समय जीवन के यथार्थ से सामना हुआ. उस दौरान क्राइम बंद हो गया था क्योंकि सब अपने घरों में बंद थे. उस समय ऐसा लग रहा था कि जीवन का कोई भरोसा नहीं है. इन्हीं सब चिंताओं के बीच उन्हें लगा कि पुलिस विभाग में रहने के अपने अनुभवों को लोगों तक किताब के माध्यम से पहुंचाया जाना बहुत ज़रूरी है. सुहैल वाहिद ने कहा कि ‘वर्चस्व’ शानदार किताब है. फ़ैक्ट फ़िक्शन होने के बावजूद यह बहुत रोचक किताब है.
राजेश पांडेय ने कहा कि पुलिस को आपराधिक घटनाओं पर लिखते रहना चाहिए. पुलिस वाले लिखेंगे तो लोग उनके लिखे पर ज़रूर भरोसा करेंगे. जब आप दूध को दूध और पानी को पानी कहेंगे तो लोग आपका ज़रूर भरोसा करेंगे. लोगों को सच के बारे में पता चलना चाहिए. पुलिस विभाग का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि उसकी सफलता अख़बारों में बहुत पीछे बहुत छोटे से हिस्से में छापी जाती है लेकिन असफलता पहले पन्ने पर छपती है.
अंतिम सत्र काव्य संध्या का रहा. अनिल त्रिपाठी, आलोक पराड़कर, प्रीति चौधरी, सीमा सिंह, सुभाष राय, ज्ञान प्रकाश चौबे और नलिन रंजन सिंह ने कविताओं का पाठ किया.
किताब उत्सव के अन्तिम दिन 16 जनवरी दोपहर दो बजे से होने वाले कार्यक्रमों के पहले सत्र में उत्कर्ष शुक्ला के उपन्यास ‘रहमान खेड़ा का बाघ’ का लोकार्पण होगा. दूसरे सत्र ‘हमारा शहर हमारे गौरव’ में श्रीलाल शुक्ल के कृतित्व स्मरण किया जाएगा. तीसरे सत्र में ओमप्रकाश वाल्मीकि की दो किताबों ‘प्रतिनिधि कविताएँ’ और ‘सम्पूर्ण कहानियाँ’ और प्रमोद रंजन की किताब ‘बहुजन साहित्य की सैद्धान्तिकी’ का लोकार्पण होगा. अगले सत्र में ‘लखनऊ की मोहल्लादारी’ विषय पर हिमांशु वाजपेयी से आलोक पराड़कर बातचीत करेंगे. किताब उत्सव का अन्तिम सत्र मुशायरे का होगा, जिसमें अखिलेश निगम ‘अखिल’, अभिषेक शुक्ल, चन्द्रशेखर वर्मा, मनीष शुक्ला, राजकुमार सिंह और हरिओम क़लाम पेश करेंगे.
(विज्ञप्ति)
कवर | भगवती बाबू पर स्मरण-सत्र.
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