लेखन में प्रतिबद्धता और जिज्ञासा का संतुलन ज़रूरी
देर लगी फिर से उस भाव-भूमि पर लौटने में. संकोच का एक विनम्र-सा भाव संवाद में व्याप्त औपचारिक बोझिलता से एक असहमति-सी. मैं उनके मन की उस अप्रत्याशित-सी उथल-पुथल को देख रहा था. ‘एक दिन लौटेगी लड़की’, ‘अंधेरे में बुद्ध’, ‘यह आकांक्षा समय नहीं’ और ‘थपक थपक दिल थपक थपक’ जैसे कविता संग्रहों की इस रचनाकार की रचनाओं में निष्ठ अप्रत्याशितता और संवेदनशीलता का आंशिक-सा आभास तब हो रहा था. और अब मैंने गगन गिल के अनुभव-संसार तथा उनकी संवेदनशीलता की ताक़त के पीछे के कुछ कारकों-कारणों को जानना चाहा था.
बहुत गहराई में से निकलकर आ रहे शब्दों की तरह का नाद-अनुनाद साफ़ सुनाई दे रहा था – ‘साहित्य अपने आप में एक दुनिया है. बचपन से ही घर का माहौल साहित्यिक था. प्रारंभिक प्रभावों से काफ़ी कुछ तय हो जाता है कि आसपास के जीवन को हम कैसे देखेंगे-समझेंगे. आरंभिक असर सोचूँ तो बहुत स्ट्रांग असर रवींद्रनाथ टैगोर और पंजाबी कवि हरभजन सिंह का. दोनों का आंतरिक जगत में केंद्रीय स्थान. रवींद्र कहानियों में पढ़े थे, हरभजन सिंह को अपनी माँ के अध्यापक के रूप में देखा था. उनमें जो लपट थी, उनके प्रकाश के वैभव में देखा था. ये मोमेंट्स तो सभी के एक जैसे होते हैं, पर मुझे छपने के मोमेंट्स इतने अहम् नहीं लगते जितने कि उन लोगों को देख पाने के -जिन्होंने अपना जीवन ख़ास तरह के कमिटमेंट और डिसीप्लिन के साथ जिया. जब ऐसे लोगों को देखते हुए हम बड़े होते हैं तो एक चीज़ बार-बार दिमाग़ में बैठती जाती है कि यह शौक़िया मामला नहीं हो सकता. जो शौक़िया चीज़ें होती हैं, वे धीरे-धीरे बिखर जाती हैं. लिखने में शायद दोनों चीज़ों का – आपकी प्रतिबद्धता भी हो, आपकी जिज्ञासा भी हो – बैलेंस ज़रूरी है. वो जिज्ञासा आपसे जिस तरह का भी जीवन जीने की माँग करे – चौबीस घंटे के व्यवहार में आपमें वह जीने को क्षमता भी हो.
हम सोचें कि जैसे आसपास के लोग देखते हैं, उनके ढर्रे अथवा सफलता-असफलता में हम रहें और बीच में थोड़ा यश भी मिल जाए तो उसे उठा लें तो सरस्वती या वाग्देवी इतनी आसानी से तो नहीं ही प्राप्त होंगी. मुझे लगता है कि यश भी बाहरी घटना है. आंतरिक जीवन से इसका कोई नाता नहीं होता. कलाकार के यशस्वी होने से उसको अपनी कला में कम मेहनत करनी पड़े या वह ज्यादा आसानी से लिखने लगे, ऐसा नहीं होता. यश या सफलता को थोड़ा संदेह से ही देखना चाहिए. अगर आप उसमें बह जाने वाले हुए तो हो सकता है कि वह आपके जीवन में नेगेटिव घटना हो जाए. आज भी इस समाज में पारंपरिक शिक्षा में आए हुए कितने ही ऐसे विद्वान होंगे जिनके बारे में हम शायद कुछ न जानते हों. सारी शिक्षा का अंतिम और सर्वोपम यही होना चाहिए कि हमने जीवन में जो भी कुछ ज्ञान अर्जित किया, उससे अपना या अपने साथ रहने वाले दूसरे लोगों का जीवन कितना ऐनरिच हुआ. अपने व्यक्तिगत जीवन में बचपन से विश्वविद्यालय तक के अपने टीचर्स की बहुत ऋणी हूँ. एक अच्छा अध्यापक कभी एक वाक्य ही कह जाता है – और वह वाक्य आपको पूरे जीवन कितनी चीज़ें करने को प्रेरित करता है और कितनी करने से रोकता है.’
‘तब और अब में अंतर?’
मुझे कुछ ख़ास नहीं लगता. कमोबेश ऐसी ही थी. लगता है कि पिछले दस-पंद्रह वर्षों में मेरी कविता के साथ के मेरे रिश्ते में एक आंतरिक बदलाव आया है. पहले मैं बाहरी घटना से कई चीज़ें शुरू कर लेती थी. अब धुन से या जैसे कोई शब्द है, आधी पंक्ति है, वह बार-बार घुमड़ती रहती है. बाहरी वातावरण… ऐसे तो नहीं कि शोर है… पर शांति होनी चाहिए. जिस तरह की मेरी आज दिनचर्या है, उसका मेरे लेखन पर असर पड़ता है. मेरे पत्रकार वाले दिनों के और अब के लेखन में काफ़ी स्पष्ट-सा अंतर है. लिखते हुए जैसे भाषा में हम रुकते हैं… विराम लेकर लिखती हूँ तो लगता है कि इसे और विस्तार में होना चाहिए. जिन चीज़ों को तब मान लेती थी, स्पष्ट ही हैं, पकड़ में आ गई हैं, आज अंतर है. मैं रुककर कहीं पहुँचती हूँ. हालाँकि लोग कहेंगे कि तब भी रुकी रहती थी… पर अब जैसी रफ़्तार है, उसमें लगता है कि पहले से काफ़ी अंतर है.’
तब महिलाओं की ज़िंदगी से जुड़े कुछ ख़ास प्रश्न और मुददे चर्चा के केंद्र में आ गए थे. गगन जी के अंतर के आवेग और आवेश की दीप्ति ने उनके चेहरे और आँखों को और अधिक निर्मल कर दिया था – ‘आज मैं पोस्ट ऑफ़िस गई थी. काफ़ी भीड़ थी वहाँ. सीढ़ियों पर जहाँ अक्सर एजेंट्स बैठे रहते हैं, दो-तीन महिलाएँ वहाँ बैठी थीं. उनमें से एक का एक वाक्य कानों में पड़ा – ‘आप सोच नहीं सकती कि मैंने अपनी ज़िंदगी किस तरह से काटी है.’ बस, यह एक वाक्य काफी देर तक हॉण्ट करता रहा मुझे. एक महिला का जीवन बहुत अलग तरह से कटता है. इसमें केवल उसकी गृहस्थी की ज़िम्मेदारी वाला कार्यकलाप नहीं होता -उसमें परिवार का पूरा पावर स्ट्रक्चर, जो धन से भी जुड़ा है – वह भी आता है. कौन क्या कमाकर लाता है, कितना लाता है, उसी अनुपात में उसकी शक्ति है. वह पुरुष है या स्त्री, इससे भी शक्ति में अंतर पड़ता है. अगर धन के मामले में बराबर वाले पैमाने पर भी हों तो सेक्स वाले मामले में कहीं-न-कहीं औने-पौने ही होते हैं.
पोस्ट ऑफ़िस में एजेंट होना सहज-सा प्रोफ़ेशन तो नहीं है – उसकी दिक़्क़तें, ज़िम्मेदारियाँ, चाहतें. मेरे यहाँ काम करनेवाली कहती है – हम हाथ नहीं फैला सकते, वह फैला लेता है… आप देखिए कि स्त्रियों ने सदियों में -दशकों में अपनी बेटियों को तो स्ट्रांग, कर्मठ, स्वतंत्र कैसे बनना है, यह सिखा दिया; पर बेटों को? अगर आप आसपास की महिलाओं को देखें तो वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्ट्रांग होती दिखती हैं. कोई औरत मुश्किल में अगर कोई सबक़ सीखती है तो उसे अपनी बेटी को कम्युनिकेट कर देती है – तुमने यह देखा… तुम्हारे साथ यह हो सकता है तब तुम्हें क्या करना है… आदि-आदि. इस चीज़ पर मुझे दुःख होता है, हैरानी है कि जो औरत अपनी बेटी को इतना कुछ कम्युनिकेट करती है, वह अपने बेटे को क्योंः नहीं ऐसा कुछ कहती – देखो बेटा, तुमने अपनी माँ को देखा है. तुमसे हो सके तो तुम ऐसा दुःख अपनी पत्नी को मत देना… अपनी इस सोसायटी में बच्चों को खेलते देखती हूँ – एक ही माँ की संतानें हैं दोनों, लड़की का बिहेवियर शालीन, कंसीडरेट, पर भाई वैसा नहीं. मैं दोनों में अंतर पाती हूँ. श्रृंखला की जिन कड़ियों की महादेवी जी बात करती थीं, तब से काफी परिवर्तन आया है. पर यह जो आधा-आधा-सा आया है, उसके बारे में लोग सचेत नहीं हैं. नोटिस नहीं ले रहे हैं इसका. यह जो सेंसटाइज़ेशन है बच्चों का – स्कूल जाने के समय से शुरू होना चाहिए.’
मैंने औरतों की आज़ादी और बहादुरी के कुछ अराजक, उच्छृंखल होते जा रहे बिंदुओं का ज़िक्र किया है, राजनीति के क्षेत्र के कुछ नामों के साथ कोई एक सीमा-रेखा हो सकने के बारे में जानना चाहा है. नपे-तुले-सधे शब्दों में बेबाकी के साथ वे अपना पक्ष प्रस्तुत कर रही हैं – ‘ मुझे लगता है कि सबसे पहले हमें अपनी स्वतंत्रता की पहचान होनी चाहिए. जो अधिकार हम लेना चाहते हैं, वो दूसरों को देने के लिए हम तैयार नहीं हैं. हम में आत्म-आलोचना काम नहीं करती. एक अतिरेक से तो बचना ही चाहिए हमें. उस अतिरेक का वर्जन होना चाहिए. हम पीड़ा में या धौंस से स्टेटस बनाएँगे?’
‘जहाँ पर डायलॉग होना चाहिए, हम चुप हो जाते हैं. हमें लगता है कि हम निरस्त-निरुत्तर कर दिए जाएँगे. नहीं, मायावती इज़ ए वेरी बैड एक्ज़ाम्पुल. और जयललिता को बहुत फ़ॉलो नहीं किया… पर उनका जो पब्लिक पॉश्चर रहता है कि आप महिला हैं, इसलिए हर तरह के नियम की खिल्ली उड़ा सकते हैं… नहीं, यह तो स्वीकार नहीं होना चाहिए. यह एक्सप्रेशन एक्सट्रीम हो सकता है; पर कभी-कभी लगता है कि मायावती जैसे ये लोग स्त्रियाँ नहीं हैं. सदियों, वर्षों से दलित और अपरकास्ट्स का तनाव होता आया है. तो यह भी एक खेल हो गया है. जैसे ‘महाभारत’ में सीधे आप कुछ नहीं कर सकते थे तो शिखंडी को सामने ले आते हैं. ऐसे ही पुरुष-पुरुष आपस में कई बार आघात नहीं कर पाते हैं, इसलिए बीच में किसी स्त्री को लाकर कई प्रकार के शॉर्टकट्स ले आते हैं. मायावती या उन जैसी अन्य राजनीतिक हस्तियों की क्रेडेबिलिटी भी इसीलिए ख़त्म होती है कि वे सार्वजनिक जीवन में जो सवाल उठाती हैं, व्यक्तिगत व्यवहार में उन्हीं गड्ढों में गिरती दिखती हैं. फूलन देवी अगर गाँव जा रही हैं तो गाड़ी वहाँ भी रुके, जहाँ कोई स्टॉप नहीं. क्यों? आप कुछ भी कर सकते हैं? कभी तो ये बड़ी भोली-सी समस्याएँ लगती हैं, जैसे कोई ख़ास बात न हो; पर बड़े पर्सपेक्टिव में देखें तो लगे कि आख़िर हम क्या कर रहे हैं. दो-चार और घटनाओं में गुणा करके देखें कि और करेंगे तो समाज की क्या व्यवस्था होगी. आप देखिए दलित हों या ग़ैर-दलित, उन नेताओं को सब मिलकर चुन देते हैं जिनकी कोई ग्रासरूट प्लानिंग नहीं कि कैसे रिलीफ़ देना है? कैसे रोज़गार देना है – ग़रीबों को, दलितों को?’
मलाल की बारीक-सी एक पर्त जैसे चेहरे पर आ जमी थी. थोड़ा-सा क्षोभ शब्दों में आ मिला था – ‘हाँ, औरत की अकेले रहने वाली माँग तो अब धीरे-धीरे समझ में आती है कि उस स्थिति से बच नहीं सकते आप. आर्थिक निर्भरता से बचने का भी प्रश्न है. औरत ने जब देख लिया कि पुरुष का व्यवहार नहीं बदला – वह घर में रहती है या दस-बारह घंटे बाहर काम करके आई है – अगर खाना नहीं बनाया-परोसा तो घर में रहने का मुख्य प्रयोजन तो ख़त्म हो जाता है. जब हिंदू कोड बिल पास हुआ और तलाक़ की सुविधा मिली, तब महादेवी जी ने लिखा था कि कितनी ही स्त्रियों ने तलाक़ लेने की इच्छा व्यक्त की थी. इतने बड़े वर्ग की थकान को कब से स्थगित कर रखा है. वह इसी तरह मुखर होगी. यदि उसके पास विकल्प हो तो कोई लड़की विवाह का निषेध नहीं करेगी या अकेलेपन का चुनाव नहीं करेगी. उसे अगर यह मालूम हो कि स्वयंवर की माला के बाद उस पर बैलों वाला जुआ रखा जाना है तो वह सोचती है कि मैं अकेली ही ठीक हूँ. एक सेमिनार में मैं असम गई थी. मेरे साथ एक मित्र भी गई थी. लिखने-पढ़ने-कमानेवाली वह औरत बहुत वर्षों बाद अपने घर से बाहर निकली थी. मित्र ने बताया था कि उसके पति ने चलते समय उससे कहा था, ‘वहाँ जाकर मुझे फ़ोन मत करना. तुम्हारी आवाज़ सुनकर मुझे कष्ट होगा.’ उसका पति भी लेखक है. पर यह देखिए कि उसने उस लेखिका के सेमिनार वाले दिनों में यह कहकर कितना ज़हर घोल दिया.
‘नहीं, समलैंगिक रिलेशंस के बारे में मेरा कोई मॉरल जजमेंट नहीं कि होना चाहिए या नहीं-अथवा कितना प्राकृतिक है या अप्राकृतिक है. पर इसको भी मैं उसी सामाजिक परिवेश व परिप्रेक्ष्य में देखती हूँ. पुरुष हो या स्त्री, उसकी स्वतंत्रता समाज द्वारा प्रतिबंधित है. जाति का दबाव हमारे यहाँ बहुत है. संपत्ति के अधिकार उत्तराधिकार के भी सवाल हैं. मेरे को समझ में आता है कि ये सब रिएक्शंस हैं – शायद उन्हीं चीज़ों को ठीक करने को. यही कि आपने हमारी स्वतंत्रता को ऐसे बाधित किया है, अब हमें अपने मन का सब करना है.’ कहने से पहले हँसी हैं, जैसे एक राहत, एक ख़ुशी का-सा भाव व्यक्त हुआ है – ‘ग़नीमत है कि समलिंगी जोड़े अपने मित्र को लेकर आपके पास नहीं आ रहे यह कहने कि यह आपको बहू है. जो भी इस तरह का क़दम उठाना चाहता है, उसे यह मालूम है कि उसे अलग रहने की छूट दी जाएगी. असल नरक तो तब होता है, जब वह आपके बराबर आकर बैठ जाए.’
‘पुरुष और स्त्री का यह अंतर…शालीनता, आंतरिक सौंदर्य- जिसे पुरुष लैक करता है – यह सब आपकी धारणा है. मातृत्व से मुक्ति की बात-ये सब एक ही आकांक्षा के अलग-अलग डायमेंशंस हैं. आप धीरे-धीरे पहचानने लगे हैं कि किन-किन चीज़ों से हमारा जीवन ऐसे घिरता है कि फिर उलट नहीं सकता. मैं पश्चिम में रही हूँ, जानती हूँ कि वहाँ एक उम्र के बाद- मिड थर्टीज़ में- महिलाओं में यह इच्छा बलवती होने लगती है कि जितना स्वतंत्र जीवन अब तक जी लिया, वह जी लिया, अब परिवार बनाएँ. सीधे, नेचुरली बन जाता है तो बन जाता है, नहीं तो फिर आर्टीफ़िशियल – मेडिकल ऐड वगैरह. मुझे लगता है कि पहले मातृत्व को लेकर दोनों लोगों का जुड़ाव रहता था, ज़िम्मेदारी रहती थी. जब महिलाओं को यह लगा या सिद्ध हुआ कि यह उसके अकेले की ज़िम्मेदारी होगी तो वह उससे कतराने लगी.
आप अपनी जान-पहचान में देख लीजिए. यह पुरुष की लापरवाही है, ज़िम्मेदारी से बचना है. महिला को न केवल फ़िजीकली परवरिश करनी है, यह भी सुनना है कि तुमने पैदा किया है. देर-सबेर यह भी होता है कि उसकी पढ़ाई-लिखाई भी तुम हो देखो. मुझे लगता है कि पिछले दस वर्षों में भारतीय समाज में बहुत बदलाव आया है. जब-जब स्त्रियों की अलग जीवन जीने को इच्छा सामने आए तो पुरुष समाज को अच्छी तरह यह सोचना चाहिए कि यह इच्छा कौन-सी तकलीफ़ में से, कौन-से रिएक्शंस में से निकली है. हमारे साथ सबसे बड़ी बिडंबना यह हुई कि हमें बचपन में पारंपरिक परिवार का प्यार मिला है. हम बने हुए तो उस पारंपरिक स्नेह से हैं, लेकिन मॉडर्निटी के चक्कर में हमने स्वयं को इतना उजला नहीं रहने दिया कि हम भी अपनी संतान को वैसा स्नेह दे सकें, जो हमें दिया गया था.
छोटी जगहों का मैं नहीं कह रही – बड़े शहरों के बच्चे देखती हूँ तो ऐसे अनाथ-से दिखते हैं कि मन काँपता है. माँ-बाप के लिए यह आसान है कि कुछ रुपए दे दिए, कंप्यूटर गेम पकड़ा दिया – फिर बच्चा कुछ भी करे, पर हमसे बात न करे. आप देखिए – सब बच्चे खेल रहे हैं – क्रिकेट, फ़ुटबॉल, वीडियो गेम. सुबह से रात तक यह हो रहा है. अपने बचपन का याद करूं तो तब यह असंभव लगता है. इतने सारे बच्चे अगर खेल ही रहे हैं तो मतलब यह है कि उनसे बात करने वाला कोई नहीं है. उनके बचपन में न कोई किताब है, न कहानी है. बस्ते उठाए बस से आ रहे हैं, ट्यूशन जा रहे हैं, फिर बैट्स ले-लेकर दो-तीन घंटे का हुड़दंग. ह्यूमन टच सिरे से ग़ायब है जीवन से. ह्यूमन टच दैवी संयोग से – आसमान से नहीं टपकेगा. व्यक्ति याद करे कि मेरे दादा ने मुझे कितना प्रेम किया था, उसे आगे पहुँचाने की अभिव्यक्ति उसे मालूम होनी चाहिए. उस बच्चे ने आपके दादा को नहीं देखा, नहीं देख पाएगा; पर आपको तो मालूम है. आपको उसे उतनी ही फ़्रीडम देनी होगी – फ़िजीकली भी…’
निर्मल वर्मा जी के व्यक्ति और लेखन का जिक्र आया तो एक दूसरी ही गगन गिल मेरे सामने थीं. उनके साथ और संबंध को लेकर गर्वित, श्रद्धावनत-सी. उनके लेखन, डिसीप्लिंड जीवनचर्या, वैदुष्य आदि के लिए प्रशंसा के भाव॑ से आपूरित. बताया कि निर्मल जी की बहुत सी रचनाओं की वे पहली पाठक हैं. निर्मल जी का कहना है कि उनके बेहद बारीक़ लेख को भारत भर में केवल दो लोग पढ़ सकते हैं – एक मदन सोनी, दूसरी गगन गिल. बड़े उत्साह -अधिकार से बताया गया है कि वे निर्मल जी की टाइपिस्ट भी हैं.
दो रचनाकारों के एक जगह, एक साथ रहने-जीने के बारे में जब मैंने उनके अनुभव जानने चाहे तो बोलीं, ‘ मेरे क्रिएटिव जीवन के जो भी प्रतिरोध हैं, वे मेरे ही कारण हैं. पर यह स्थिति आज है. मैं भी इन चीज़ों को इतनी स्पष्टता से पहले दिन से नहीं जानती थी. मेरे स्पेस में भी पहले एक बड़ा हिस्सा ऐसा था, जो हमने अपनी गृहस्थी को दे रखा था. पर बाद में पता लगा कि उस हिस्से के दिए बिना भी गृहस्थी चल सकती थी. शहीदी मुद्रा में भी रहे कि अब हमसे कुछ नहीं होगा. ये सब चीज़ें ख़ुद व्यक्ति के जानने से भी जुड़ी हैं. अभी भी मुझ पर बीच-बीच में बाहरी चीज़ों का दबाव आ जाता है.
दबाव पति का नहीं होता – मैंने अपनी इतनी रक्षा कर ली है, आपसी समझ है कि यह दबाव नहीं है. गृहस्थी के अनेक काम ऐसे हैं – बाहर के भी -कि उन्हें मैं ही करती हूँ, कर सकती हूँ. इस दृष्टि से निर्मल जी काफी अव्यावहारिक व्यक्ति हैं. उनके वश का कुछ नहीं, जो बता दिया जाए, कर लेंगे. उनके इस अव्यावहारिक रूप से कोई परेशानी नहीं है. उनकी यह अव्यावहारिकता इतने भर से माफ़ हो जाती है कि ये हर सुबह चाय बनाकर मेरे सिरहाने रख जाते हैं. बस, फिर सारा दिन मुझे चाहे कुछ करना हो, उन्होंने अपनी भूमिका निभा दी. मुझे जो दिक़्क़त होती है, वह यह कि मैं रोज़ बैठकर नियमबद्ध ढंग से नहीं लिख सकती. मेरे लिखने के फेजेज़ होते हैं. बैठी रहती हूँ कंप्यूटर पर…और अधिक समय उस क्षण के इंतज़ार में कि पकने-बनने पर कुछ शुरू करूँ…’
चुप हुईं तो देर तक चुप ही रही आईं. पता नहीं, भीतर-भीतर क्या चल-पक रहा था. सोचा, उनकी इस ख]eस-सी संवेदनशीलता और आंतरिक जगत के बारे में कुछ जानूँ. प्रश्न के उत्तर में जब उनका बोलना सुना तो लगा कि जैसे अचानक उनकी आवाज़ भी उम्रदराज़ हो गई है, शब्दों की वय में वृद्धता का अनुभव आ मिला है -‘ पिछले दिनों मैं ‘धम्मपद’ पढ़ रही थी. पिछले कुछ वर्षों से मैंने इधर अधिक रुचि ली है. बुद्ध कहते हैं – यूअर लाइफ़ इज़ द क्रिएशन ऑफ़ माइंड…शिक्षा, दीक्षा, बैंक बैलेंस, स्वास्थ्य आदि बाक़ी सब चीज़ें सेकेंड्री चीज़ें हैं – असली चीज़ वही कि आप अपने साथ करते क्या हैं. आंतरिक संसार मेरे लिए अलग-सी चीज़ नहीं. मुझे जो समन्वय स्थापित करना होता है, वह बाहरी दुनिया से करना होता है. उलझन यह होती है कि कुछ इस तरह की विधि निकले कि हम बाहर जिस रास्ते पर चलते हैं, जिस रास्ते पर चलते हमें दुनिया देखती है – यदि वह रास्ता अंदर की ओर जाता है तो ठीक है.
बाहर की दुनिया की उलझन… हाँ, वैसे मैंने काफ़ी छँटनी कर दी है… मुझे लगता है कि मैं उन चीज़ों में ज्यादा नहीं घिर सकती, जो ऊपर-ऊपर होती हैं. हाँ, जैसे गपबाज़ी…ठेठ क़िस्म का सोशलाइजेशन…. बात करना अच्छा लगता है – उन लोगों से बात कर अच्छा लगता है, जिनसे बात करके लगा है कि संप्रेषित हो रहा है…संवाद बन रहा है. चाहे दो ही वाक्य बोले जाएँ, पर संवाद तो बने. एक ही जीवन मिला है – कैसे काटा का ख़याल है. हमारे यहाँ कहते हैं कि संसार नश्वर है – सच यह है कि मैं एक ही बार होऊँगा. एक-एक दिन मैं जा रहा हूँ पता नहीं मैं उसके बाद मिट्टी या राख होऊँगा…’
ख़ामोशी भरे कुछ पल. फिर वहाँ अचानक आ पहुँची एक बिल्ली की गतिविधियों को निहारा जाता रहा. किसी विरक्त का-सा स्वर सुनाई दिया – ‘आपको बताऊँ, हमारी इस सोसायटी में यहाँ कुछ आवारा बिल्लियाँ हैं. कभी दूध डाल देती थी मैं उन्हें. धीरे-धीरे हुआ यह कि मैं बैठी हूँ और उनमें से एक आई और खिड़की के शीशे पर आ जमी- या फ़र्श को गंदा करके चली गई. दु:ख पहुँचा कि मैं इसे दूध पिलाती हूँ और ये यहाँ गंदा कर गई. इसे कोई डर नहीं, ख़तरा नहीं कि मैं बैठी हूँ. पर अब समझी कि वह उनके प्रेम, उनके अधिकार-प्रदर्शन का तरीक़ा है, अपनी टेरेटरी मार्क करने का तरीक़ा है.’ लंबे से एक मौन के बाद सुनाई दिया – ‘सुख देना तो दूर की बात है, हम साधारण लोग इतना ही कर सकें कि हमसे औरों को दुःख न हो धीरे-धीरे ये भी कंट्रीब्यूट करेगा. मेरी प्रसन्नंता में से वह प्रकाश निकलना चाहिए कि मैं एक चिड़िया की हरकत को देख सकूँ. अगर मेरी पूरी ज़िंदगी मेरी आँख को देखना नहीं सिखाती तो…’ महानगर में जीती, आधुनिक होने का प्रमाण देती इस रचनाकार के विचारों और संवेदनशीलता के संतुलन को उसके व्यवहार में देखना एक उपलब्धि थी.
चला तो गगन जी की कविता की एक पंक्ति होंठों पर आकर गुन-गुन करने लगी थी- ‘उसके पैर में धुरी/ उस धुरी पे ये धरती/ नाच लेने दे तांडव/ रुकेगा आप ही थककर.’
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