अमृता जी ने मुझे गंभीर दिशा दीः गगन गिल

  • 6:23 pm
  • 19 January 2024

(कवियित्री और गद्यकार गगन गिल को विष्णु खरे ने महादेवी वर्मा के बाद नए मुहावरे और तेवर वाली नई आवाज़ कहा. स्त्रियाँ ख़ासतौर पर उनकी कविताओं के केंद्र में हैं, साथ ही भारतीय चिंतन की परंपरा भी. उनकी कविता ‘एक दिन लौटेगी लड़की’ के लिए भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार मिला. ‘यह आकांक्षा समय नहीं’ के लिए केदार सम्मान सहित कई सम्मान उनके नाम हैं. उनके पाँच कविता संग्रह छपे हैं – ‘एक दिन लौटेगी लड़की’ (1989), ‘अँधेरे में बुद्ध’ (1996), ‘यह आकांक्षा समय नहीं’ (1998), ‘थपक थपक दिल थपक थपक’ (2003), ‘मैं जब तक आई बाहर’ (2018). दिल्ली में उनींदे (2000), अवाक् (2008), देह की मुँडेर पर (2018) और इत्यादि (2018) उनके गद्य का संग्रह हैं. डॉ. प्रेम कुमार से उनकी यह लंबी बातचीत उनकी शख़्सियत, पत्रकारिता के दिनों की दुनिया और उनकी रचना प्रक्रिया का पता देती है. यह बातचीत ‘अंतस के आर-पार’ में छपी भी है. -सं)

गुनगुनी-सी धूप वाली ठंड की उस सुबह दरवाज़ा खुलने तक के समय में मैंने बाहरी दीवार पर की उन देवाकृतियों और पानी भरे उस मिट्टी के पात्र को ध्यान से देखा था. उस घर के वासियों के मन-सोच की छोटी-सी एक व्याख्या जैसे उन पर अंकित थी. उस घर में प्रवेश के साथ ही आस-पास के सारे हिस्सों में एक शालीन, पवित्र, उदार-सी ख़ामोशी दिखाई दी थी. कुछ पल को ऐसा लगा कि यहाँ कुछ लोग नहीं, जैसे ख़ामोशी और साधना ही रहते हैं. जैसे यह घर न हो, कोई साधना स्थली हो. जहाँ एक नहीं, दो-दो रचनाकार – निर्मल वर्मा और गगन गिल जैसे रचनाकार – रह-लिख-पढ़ रहे होते हैं, वह घर साधना स्थली ही तो होगा. चाय पी चुकने के साथ ही निर्मल जी अपने अध्ययन-कक्ष में चले गए हैं. गगन जी सामने के सोफ़ा-कुरसी पर बाएँ पैर को दाएँ पैर के घुटने पर टिकाए बैठी हैं. आकर्षक सलवार-कुरता, स्टील के बड़े-से फ्रेम वाला चश्मा, शीशों के पार स्वस्थ, आत्मलीन-सी बड़ी-बड़ी आँखें. खुले-बिखरे, कुछ आगे, कुछ पीछे लटकते-झूलते बाल. दोनों हाथ बगल में. सुनने-बोलने-देखने का अलग-सा ख़ास अंदाज़. शुरू में आस-पास की, देश-विदेश की, डाक की -डाकगाड़ी की, फ्लैट को फ़्रीहोल्ड कराने में आ रही दिक़्क़तों की बड़ी आत्मीय-सी कुछ बातें.

अपने रचनाकार होने का पहले-पहल आपको कब पता चला? वह क्या था, कौन था, जो आपको इस ओर ले आया?

जिस ध्यान, जिज्ञासा और अपनत्व के साथ प्रश्न को सुना गया है, उसने प्रश्न का महत्त्व बढ़ा दिया है. सुनकर जिस तरह चुप-चुप सामने दीवार की ओर देखा जा रहा है, लगता है जैसे बारीक-क़ीमती से कुछ की खोज-तलाश हो रही है. और अब धीमे-धीमे, रुके-थमे, बहते-से अंदाज़ में अंतर की गहराई से बाहर आता एक-एक शब्द, शब्द की मीठी सी अनुगूँज – ‘तब पंद्रह साल की रही होऊँगी. तब भी मैं चुप रहती थी. माँ को लगता कि मैं उदास हूँ. पूछती कि क्या सोच रही हो? कहना होता कि पता नहीं क्या सोचा है. एक दिन मैं चुप बैठी थी. सामने एक पेड़ था. यूँ ही ख़याल आया – किसी और से कुछ नहीं कह सकते, पेड़ से तो कह सकते हो. तो कहो!

बड़ा अजीब लगा वह तब – कि एक पेड़ जो ठीक सामने भी नहीं है, उसके ठीक नीचे भी नहीं बैठी हूँ मैं, उसे भला क्या कैसे कह सकती हूँ? तब जो लगा, पर बाद में लिखा. माँ को दिखाया. हाँ, माँ कॉलेज में पढ़ाती थीं, ख़ुद भी कविताएँ लिखती थीं. जी, कविता थी वह. अच्छा लगा तब लिखकर. कुछ-कुछ याद आता है – पता नहीं, वह कविता मेरी स्मृति में पहली है या थी ही. पहले संग्रह ‘एक दिन लौटेगी लड़की’ में है वह…शुरू में सैकड़ों कविताएँ फाड़कर फेंक दीं. शर्म आती थी बाद में देखकर कि क्या लिखा है. मम्मी के दोस्त वगैरह घर आते थे. उनमें कवि लोग भी होते थे. आप देखिए कि उन सब बड़ों के बीच में एक बच्चा बैठा है. अचानक कोई कहता है कि हम इसकी कविता सुनेंगे. हम सुनाते थे. बड़ी इंर्पोटेंस मिलती थी, ख़ूब प्रशंसा मिलती थी – साहित्य के स्तर पर.’

ऐसा कुछ याद आ गया है कि हँसी भी आ गई है – ‘मैं हिंदू कॉलेज में इंग्लिश ऑनर्स की छात्रा थी. संयोग से सहेलियाँ सब हिंदीवाली. पता नहीं कब, किसने क्याा कहा कि हम कॉलेज की कविता प्रतियोगिता में पहुँच गए. धीरे-धीरे सीखा कि किन विषयों पर लिखना चाहिए. कॉलेज के दिनों में प्रगतिशील तरह की कविताएँ लिखने लगे. उन वर्षों में जो अध्यापक-कवि निर्णायक रूप में वहाँ आते रहे, सब आत्मीय-परिचित हो गए. अजित जी, रामदरश जी के स्नेह से भरे हैं मेरे वे वर्ष. संयोगवश पहला सही रेस्पांस मिला अमृता प्रीतम से. उस ज़माने में अमृता जी पर बहुत मरते थे हम. मुझे आज भी याद है – कमानी ऑडीटोरियम में अमृता जी आई थीं. इंटरवेल हुआ तो माँ उन्हें नमस्कार करने गईं. उनके पीछे-पीछे मैं भी थी. मम्मी ने अमृता जी से कहा कि यह आपकी बेहद प्रशंसिका है. तब मैंने उनसे ऑटोग्राफ़ लिया था. उस काग़ज़ को कितने ही दिन मैं गाल से लगाकर रखती थी.

उनकी कविताएँ-कहानियाँ पढ़ती थी. उनकी रचनाओं में मुझे एक सच्चा-बड़ा इनसान दिखता था. उनकी इंटेंसिटी, उनका स्ट्रगल, समाज के अपवाद-बदनामियों में से उस तरह उनका निकलकर आना-वह सब मुझे आकर्षित करता था. आकर्षण की बीमारी इस हद तक कि एक दिन माँ से कहा कि मुझे उनके घर ले चलो. मम्मी की उनसे ख़ास क़रीबी नहीं थी. मेरी माँ पंजाबी विभाग में थीं. उस समय पंजाबी साहित्य में अपनी तरह की जो एक राजनीति थी, उसमें दिल्लीम का पंजाबी विभाग अमृता जी के ख़िलाफ़ काफी सक्रिय था. अमृता जी के मन में मेरी माँ को लेकर शायद वह रुकावट रही होगी कि वो विरोधी लोगों में काम करती हैं. पर मेरी भक्ति ने – हाँ, वो भक्ति थी, नॉर्मल संबंध नहीं था, सारे कलुष को धो दिया था. मुझे लगता है कि अमृता जी ने मुझे गंभीर दिशा दी. चीज़ों को सुधारा तो नहीं, पर प्रतिक्रिया से रचना को ख़ुद ही देखना सिखाया. सिखाया कि काट-छाँट कैसे होनी चाहिए. मुझे लगता है कि मैं उन्हें अच्छी लगती थी. क़तारों में भक्त थे उनके – पर मेरे प्रति जो स्नेह था, वह ख़ास था. मैं उनके घर में रह भी जाती थी.

‘तब उन्नीस वर्ष की थी मैं, जब मैंने अमृता जी की पत्रिका ‘नागमणि’ में प्रेम कविताओं पर कॉलम लिखा था. उन्नीस की उस उम्र में प्रेम की समझ कम थी, पर प्रेम कविता की समझ काफ़ी थी, अच्छी थी.’ मुसकराती-सी हँसी के बाद छोटी-सी एक चुप्पी. उस उम्र की यादों ने चेहरे पर जैसे तब के चहकते-से उस श्रद्धाभाव को ला बिठाया है – ‘अपने जीवन में देवी माँ की तरह लगती हैं अमृता जी. उन्हीं वर्षों में एक और बहुत बड़े व्यक्ति को देखती हूँ -हरभजन सिंह, पंजाबी के सबसे बड़े कवि, यूनिवर्सिटी में पंजाबी के प्रोफ़ेसर. विलक्षण व्यक्तित्व, फ़क़ीरी और एलीगेंस का अनूठा मिश्रण-अच्छे. पैंट-शर्ट या सलवार-कुरता, खुली दाढ़ी, तेजस्वी चेहरा – आधुनिक दरवेश-से लगते थे. माँ के टीचर थे, सो बचपन से देखते आ रहे थे उन्हें. कवि के रहस्य का अंदाज़ होता था उन्हें देखकर, बातें करते-करते गुम.’

‘कविता चल रही है. ख़ुद दोहराते थे, हमें नहीं सुनाते थे. जैसे, दूसरी किसी दुनिया में होते थे. हम सुन-देख रहे हैं, उन्हें फ़र्क नहीं पड़ता था. वे अपनी दुनिया में ही रहे आते. सो मुझे बहुत अपने लगते थे. वे अपनी जिस दुनिया में होते थे, वहाँ हम नहीं होते थे. पिता की मूर्ति जैसी थी शायद – इसलिए कि मेरे पिता उन दिनों यात्राओं पर बहुत रहते थे. पिता के साथ मेरा गहरा लगाव था. वे बहुत इंटेंस व्यक्ति थे. किसी दुःख में वे चुप रहते थे, सो उनके दुःख का तो अंदाज़ा नहीं होता था कि कहाँ से आ रहा है; पर उनकी चुप्पी दिखती थी. यह बड़ी अजीब बात है कि मेरे पिता मेरी चीज़ों को बहुत ध्यान से पढ़ते थे -एक-दो वाक्यों में प्रतिक्रिया नहीं देते थे. तो चाहे मेरी माँ ने मुझे कविता लिखना सिखाया होगा-लेकिन वह मेरे पिता की बेटी थी, जो कवि थी. अपनी गद्य की पुस्तक -‘दिल्ली में उनींदे’- में उनके जाने के बाद मैंने उनके बारे में लिखा था.’ एक हाथ की उँगलियों के नाख़ून जैसे दूसरी उँगलियों के नाख़ूनों की पीठ सहला रहे हैं – ‘हाँ, मैं अपने को अपनी गद्य की पुस्तक में पाती हूँ.’

फ़ोन की घंटी ने छोटी-सी एक रुकावट पैदा की है. धैर्य और मिठास के साथ अंग्रेज़ी में बातें की गई हैं. फ़ोन से मुक्त हुईं तो मैंने गगन जी से पहली बार प्रकाशित होने से जुड़े कुछ ख़ास क्षणों को याद करने का आग्रह किया है. दमकते-से दर्प की एक आभा चेहरे पर दिखाई दी है – ‘पंजाबी में तो उस समय काफी प्रमुखता से छापा था मुझे – और अमृता जी ने ही कहा था कि पंजाबी में लिखो. पंजाबी में मैं लिख तो नहीं पाई, पर अनुवाद कर लेती थी. कॉलम चूँकि प्रोज़ में था, सो मूल पंजाबी में लिखा वह. अमृता जी की पत्रिका में प्रमुखता से छपने के कारण ही पंजाबी की उस दुनिया में हम स्टार जैसे हो गए थे तब. हाँ, हिंदी में पहली बार ‘लहर’ और ‘पश्यंती’ में छपी थीं कुछ चीज़ें. हाँ, कविताएँ थीं. रमेश गौड़ यूनिवर्सिटी में प्रतियोगिता में निर्णायक थे तब. प्रतियोगिता के बाद बोले कि ये कविताएँ दे दो, हम इन्हें भेजेंगे. उन्होंने ही इन पत्रिकाओं में भेज दी थीं वे कविताएँ. शायद ‘पश्यंती’ में – कुछ याद नहीं पहली कविता का – शायद वह थी -उदासी क्या ऐसी भी होती है. पेड़ पर लिखी थी वह, माँ के कहने पर. उसके तुरंत बाद कविता विशेषांक निकला था. सात-आठ कवि थे उसमें. मुझे उदय प्रकाश का और अपना याद है. हाँ, वे भी तब ‘पश्यंती’ में पहली बार छपे थे. तब तक यह नहीं पता था कि हम कवि हो जाएँगे.’

यह पता कब लगा?

‘काफी समय बाद. मुझे याद है, जब मैं ‘वामा’ में काम करती थी तो वे मुश्किल दिन थे मेरे -बहुत मुश्किल. इस तरह कि जिस तरह के परिवार से मैं आई थी वहाँ इस तरह के संघर्ष का कोई अंदाज़ नहीं था. बस में चढ़ना-सिर्फ़ चढ़ना ही नहीं, वह पूरा एक युद्ध ही होता था. मुद्रिका बस में चढ़ते थे. चढ़ने से उतरने तक के वे बीस-पच्चीस मिनट अगले दरवाज़े तक आगे आने में निकल जाते थे. ठुँसी-भरी बस, धक्का लगता या झटके से बस रुकती तो ड्राइवर के पास वाले डंडे से टकराना, लगता था कि पसलियाँ टूट जाएँगी. जीवन का वह ठोस यथार्थ था – आज तक याद है.’ मुद्राएँ-भंगिमाएँ बता रही हैं कि वे तब के उस आतंक, तनाव और भयावहता को इस समय भी जी रही हैं. अपने उन दिनों से उबरने में उन्हें देर लगी- ‘1983 के आसपास की बात है. तब में तेइस साल की थी. तब ऐसी कविताएँ लिखी गईं, जिनमें मेरी पहचान थी – मेरे हस्ताक्षर कह लें उन्हें. उससे पहले लेखन में वो सब था, जो मैं देख रही थी, पर वो चीज़ नहीं थी उस दौर की. कामकाजी समय में एक लड़की के अनुभवों की जो श्रृंखला वहाँ थी!

शानी जी तब ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ में थे. अपनी पाँच कविताएँ मैंने उन्हें दी थीं. छह महीने तक उन्होंने न कुछ निर्णय लिया, न कुछ बताया. नया लेखक ऐसी चीज़ों से बहुत डिमॉरलाइज़ हो जाता है. नए लेखक के लिए यह सुपर स्थिति है कि उसकी रचनाओं के बारे में तुरंत फ़ैसला हो जाए. बीच में जो लटके रहना है – कि हर सुबह आप जानने का इंतज़ार करते रहें कि आपकी कविता रही अथवा टोकरी में फेंक दी गई. छह महीने बाद मैंने जाकर शानी जी से पूछा कि क्या आपने निर्णय कर लिया? वे बोले कि मैंने पढ़ीं तो पर समझ नहीं आ रहा कि छपने लायक हैं या नहीं. वो शायद बाक़ी चीज़ों से इतनी अलग थीं कि वे समझ नहीं पा रहे थे कि रद्दी हैं अथवा अच्छी हैं. शायद इसी असमंजस में उन्होंने वे कविताएँ चलाईं कि एक युवा कवि है, पूछ रहा है, छह महीने से रखी हैं. वैसे तो वे हमें कुछ समझते भी नहीं थे.

पर जब वह अंक आया तो दिल्ली में चर्चा उठी. भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार के समारोह में विजेताओं पर बोलते हुए विष्णु खरे ने उन कविताओं की बात की! सुपरलेटिव अंदाज में कहा कि महादेवी के बाद एक नई आवाज़ है यह. आप इन कविताओं को देखें. मुझे इस सबकी कोई सूचना नहीं थी. बस का यह युद्ध करते रोज़ की तरह हम दफ़्तर पहुँचे. हमारे पहुँचने तक संपादक -मृणाल पांडे- पर कई फ़ोन आ चुके थे. उन्हीं से हमें यह सूचना मिली. फिर शानी जी से सूचना मिली कि तुम्हें यह मालूम है कि यह हुआ. मेरे जीवन का बहुत बड़ा क्षण था वह. जब शानी जी और मृणाल जी से पता चला कि मेरी कविता ही नहीं, मैं भी रद्दी की टोकरी से उठकर बाहर आई हूँ. वो सुबह! वो क्षण.’

मेज़ के बीच रखी किताब पर दृष्टि जम गई है – जैसे उस क्षण को रोके रखना चाह रही हों. ‘वे कविताएँ? हाँ, कुछ का ध्यान आ रहा है – ‘लड़की अभी उदास नहीं है’, ‘चौबीस पार्कर की लड़की’, ‘उसकी बाँहों की चूड़ियाँ’. चेहरे पर की दिप्-दिप्‌ कई-कई भावों की आवाजाही को साफ़-साफ़ दिखा रही है – ‘उस सुबह के बाद मेरी गंभीर यात्रा शुरू हुई. जैसे हमारे सारे प्रेत वैध हो जाते हैं, सारे संशय ऐसा लगा. हम अपने प्रेत बनाते नहीं हैं – संशय रहता है- अरे, आपके इतने सारे प्रेत हैं. उन वर्षों में मेरी सबसे बड़ी शक्ति या मेरा आत्मीय समुदाय दफ़्तर की मेरी सहयोगिनी थीं. कुछ भी लिखती, वहीं टाइप होता. वे पढ़तीं और कहतीं कि जो कुछ हम सोचती रहती हैं, वह सब तुम कैसे लिख देती हो.

हम हॉल में बैठते, उन दिनों हमारे सबके प्रेत एक जैसे थे. मैं प्रेतों को पकड़ लेती थी. एक जैसी समस्याएँ सबकी, एक जैसे दुखड़े. क्या कहूँ मैं अपने को – मैं ओझा थी. मैं उन सबकी बात कर रही हूँ. हमारे साथ से मृणाल बहुत प्रोटेक्टिव महसूस करती थीं. वो संपादक थीं. उनके साथ मेरी पटरी कोई बहुत सीधी नहीं थी, ऊबड़-खाबड़ रहती थी. पर स्नेह और सदाशयता दोनों तरफ रहती. इसमें किसी को कोई शक नहीं था. 1985 में इन्हीं कविताओं में से एक – ‘एक दिन लौटेगी लड़की’ – पर भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार दिया गया. इस समाचार और इस कविता को भारतीजी ने ‘धर्मयुग’ में बहुत प्रमुखता से छापा. यह उस समय के लिए एक अनूठी घटना थी. पुरस्कार के आयोजकों की उनसे शायद कुछ अनबन थी. बिंदुजी के फ़ोन से पता लगा कि उससे पहले उस कार्यक्रम की उन्होंने कभी कोई सूचना नहीं छापी थी.’

बाएँ हाथ में पहने सफ़ेद कड़े को घुमाती-सी दाएँ हाथ की अँगुलियाँ जैसे कोई खेल-खेल रही हैं. व्यतीत को याद करने की वह मुद्रा, बताने का वह अंदाज़ – लगा जैसे तब का आज हुआ जीवंत, मूर्तिमान वह सब उन्हें अब भी आलोकित-पुलकित कर रहा है – ‘उसके बाद मैं दफ़्तर से छुट्टी लेकर छह हफ़्ते का एक कोर्स करने पूना फ़िल्म इंस्टीट्यूट गई थी. तब बंबई भी गई और वहाँ भारती जी से मिलना हुआ. इस अधिकार से मैं गई कि टाइम्स ऑफ़ इंडिया मेरा भी संस्थान है. सूचना मिलते ही उन्होंने तुरंत बुलाया. तब ऐसा कुछ सेंस नहीं था – जींस-टॉप पहने थी – यूँ ही गई. बड़े स्नेह से मिले. रात को उनके घर पर कोई आयोजन था, उसमें आने के लिए कहा.

दिल्ली़ आकर जब मैंने उस मुलाक़ात के बारे में बताया तो लोग विश्वास नहीं करते थे. जी हाँ, यह सौभाग्य ही है कि कोई युवा कवि अपने आरंभिक वर्षों में इतनी बड़ी हस्तियों से इतनी सहजता और स्नेह के साथ मिल सके. मैंने कभी स्नेह को पाने की कोई कोशिश तो नहीं की थी, पर लगता है कि यदि वह न मिला होता तो मेरे वे वर्ष काफी सूखे रहे होते. ऐसा नहीं है कि उससे जीवन आसान हो गया. हमारा जो भी संघर्ष है, समस्याएँ हैं, जिन भी चीज़ों से हम जूझते हैं – वे उतनी ही असंभव रहती हैं; लेकिन यह बड़े संबल की बात है कि कहीं कोई लोग हैं, जो आपकी क़द्र करते हैं, आपके अंदर जो छोटी चीज़ है, उसे पहचानते हैं.’

अब वे उस मुनि को तरह मौन में उतर गई हैं, जो ब्रह्म चिंतन के लिए मौन धारण कर लेता है. तब मुनि के शब्द नहीं, मौन ही उसके अंतर्मन की व्याख्या कर रहा होता है. मौन से लौटीं तो सुनाई पड़ा – मुझे याद है राजेंद्र माथुरजी के कहने पर ‘नवभारत टाइम्स’ में मैंने कुछ महीने एक कॉलम लिखा था. टाइम्स के रिश्ते से हम उन पर काफ़ी हक़ समझते थे. अब आज तो यह विश्वास भी नहीं होता कि हम कभी उनसे मिलते थे या अपनी कोई समस्या कहते थे. उन दिनों मेरे मन में काफ़ी समय से यह दुविधा थी कि क्या पत्रकारिता का जीवन सही जीवन है? एक दोपहर अपनी इस दुविधा के साथ मैं माथुर साहब से मिलने गई. उनसे कहा – ‘मैं आज मदर टेरेसा के आश्रम में चले जाना चाहती हूँ. कोई चीज़ मुझे इस सारे जीवन से दूर भगाती है. जी चाहता है कि इस सबको छोड़कर दूर चली जाऊँ. मैं कलकत्ता जाने के बजाय आपके पास आई हूँ.’ ‘अभी तक याद है मुझे – मदर के आश्रम में जाने का ख़याल मुझे लाल क़िले के पास से गुज़रते समय बस की खिड़की में से बाहर बैठे कोढ़ियों-भिखारियों को देखकर आया था.

मेरे उस रोमांटिक आइडिया को ध्वस्त करते हुए माथुरजी ने कहा था – ‘मुझे वहाँ जाना हो तो सबसे पहले मैं ख़ुद से यह पूछूँगा कि मेरे सामने जो घायल बीमार आदमी बैठा है, उसे मैं छू सकता हूँ या नहीं? मैं तो नहीं छू सकता.’ सुनकर लगा कि मैं भी नहीं छू सकती. करुणा रखना अलग बात है, पर व्यावहारिक स्तर पर करके दिखाना. नंगे-गंदे भिखारी को आप अपने हाथों से छुएँ.’ कई बार हम मन के क़ैदी नहीं होते, त्वचा के क़ैदी होते हैं कि मेरी त्वचा उसके साथ कैसे ही छू जाए या न छू पाए. शायद इसीलिए मदर टेरेसा इतनी महान थीं – त्वचा की अनुभूति को पार कर अपने मन को जाना. इसलिए याद कर रही हूँ इन सभी को कि इन लोगों ने अपनी तरह से मेरे मन की बाड़ की काफी छँटाई कर दी. माथुर साहब यह न कहते तो आज की तारीख़ तक यही लगता कि एक-न-एक दिन मुझे कलकत्ता जाना है.

आज तो उस क़द का कोई संपादक ही नहीं है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है. इस समय यदि मैं हो होऊं… आज से बीस-पच्चीस वर्ष पहले वाली बिलकुल बौखलाई हुई व्यक्ति ही होऊंगी यदि… तो शिक्षा लेने किसके पास जाऊँगी? गुरु शिक्षा थोड़े ही देगा – वह तो अपना जीवन थोड़ा खोलकर दिखा देगा. मैंने ऐसे जिया है, तुम देखो कि तुम इसमें से कुछ ले सकते हो.’ पता नहीं क्या ध्यान आया, कैसा लगा…हँसती-झुँझलाहट के साथ हिचकती-लजाती-सी अपना हाथ झटकते हुए यकायक उठ खड़ी हुई हैं. जैसे ख़ुद को ख़ुद ही हिदायत-नसीहत दी जा रही हो – ‘इतने बड़े लोगों को जानने के बाद, अपनी बातें ऐसे बढ़-चढ़कर करना. कुछ नहीं है…कुछ आता-जाता नहीं है और लगे हैं बताने…वो छाप नहीं ही है.’ बचपन का-सा एक भोलापन.

(जारी)

(इस इंटरव्यू का बाक़ी हिस्सा पढ़ने के लिए क्लिक करें)

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