निर्मल वर्मा की फ़िक्र में भारतीयता के सवाल

(निर्मल वर्मा होते तो आज 96 वर्ष के हो गए होते. कथा-कहानी, निबंध, उपन्यास, यात्रा-वृतांत, रिपोर्ताज कितनी ही विधाओं में उनके लेखन ने हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया. उनकी कहानी परिन्दे को नई कहानी आंदोलन की पहली रचना माना जाता है. कथाकार डॉ.प्रेम कुमार की उनसे यह लंबी बातचीत साहित्य और लेखन के बारे में उनके नज़रिये को समझने में मदद ज़रूर कर सकती है. -सं)

फ़रवरी की उस खिली धूप वाली ख़ूबसूरत सुबह के सीमान्त पर मैं अचक-पचक चलता निर्मल वर्मा जी का आवास तलाश रहा था. किसी की उपस्थिति के आभास ने मुझे चौंकाया. पीछे मुड़कर देखा तो निर्मल जी सामने थे. मेरी निगाहों की भटकन उन्होंने शायद अन्दर से भाँप ली थी, और तरस खाकर या प्रसन्नि होकर शोध्य जैसे स्वयं शोधक के क़रीब आ पहुँचा था. सकपकाया-सा मैं जब तक प्रणाम निवेदन करता उनके जुड़े हाथों और निजत्व की मिठास में लिपटी उनके होठों से बाहर आयी ‘नमस्ते’ ने मुझे और भी विनम्र बना दिया था. प्रवेश द्वार के बाईं ओर की दीवार पर बनी-गढ़ी कुछ आकृतियाँ – देव आकृतियाँ दिखीं, दाईं ओर ज़मीन पर रखा बड़ा-सा पानी भरा मिट्टी का एक पात्र-कूंडा दिखाई दिया. मुझे लगा कि निर्मल जी की बौद्धिकता और संवेदनशीलता से ज़रूर इनका कुछ न कुछ नाता होना चाहिए.

वे मेरे पास सोफ़े की कुर्सी पर सन्नद्ध, तत्पर मुद्रा में बैठ चुके थे. अपने शहर और पेशे से जुड़े छोटे-छोटे सवालों के कुछ बैरियर्स, चेक-पोस्ट्स मुझे पार करने पड़े थे. गगन जी ने पानी लाकर दिया तो परिचय कराया गया—अलीगढ़ से आए हैं…वहाँ पढ़ाते हैं. झिझकते हुए मैंने शुरुआत की, उस क्षण विशेष के बारे में जानना चाहा जिसने उन्हें लेखन की ओर मोड़ा. ग़ौर से सुना. प्रश्न पूरा हुआ कि तुरन्त बोलना शुरू – तेज़-तेज़ धारा प्रवाह. जैसे न कुछ सोचना पड़ रहा है, न श्रम करना पड़ रहा है. पर हाँ, उससे पहले यह अवश्य हुआ कि उनकी पलकें दरवाज़ों के पटों की तरह चुप-चुप एक-दूसरे के क़रीब आईं और सट गईं…आकाश की तरफ़ मुँह किए, उड़ने को उत्सुक-सी उनकी दोनों हथेलियाँ हवा में अपना आसमान फैला चुकी थीं और ऊपर को उठी उनकी उगलियाँ जैसे हिल-हिल कर बता रही थीं कि हम अब उड़े कि अब उड़े. ढंग से सुनने के लिए उधर से ध्यान हटाना पड़ा-

ऐसा तो कोई फ़ैसला मैंने नहीं किया था कि लेखकीय पेशे के रूप में इसे जारी रखूँगा. यह ज़रूर था कि बचपन में किताओं का परिवेश था. भाईं रामकुमार जी पहले से लिखते ही थे. अधकचरी, कच्ची क़िस्म की कहानी कॉलेज काल मैं मैंने लिखी. पहली कहानी तब लिखी जब मैं सेंट स्टीफंस कॉलेज दिल्‍ली में विधार्थी था. नहीं, उसका नाम अब याद नहीं. समकालीन हिन्दी लेखकों में रुचि थी. तब दिल्ली में नरेश मेहता, मनोहरश्याम जोशी, श्रीकान्त वर्मा मेरे दोस्त थे, उन्हीं के साथ रहता था. नरेश जी ने ‘कृति’ शुरू की तो उसमें सहयोग किया. उसके लिए लेख और कहानियाँ लिखीं. सबसे पहली कहानी ‘कल्पना’ (हैदराबाद) में छपी—‘रिश्ते’. उस सबके कारण लिखने की तरफ़ झुकाव हो गया. ठंडे-ठंडे, धीमे-धीमे बैठकर सोचा हो, ऐसा नहीं था. और कोई काम न था—न॑ बिजनेस, न नौकरी—इसलिए लिखना और पढ़ना जीवन को काटने का धन्धा बन गया.

—नहीं, ऐसा नहीं था, मेरी माँ या पिता ने यह आग्रह नहीं किया कि मैं नौकरी करूँ. उन्हें आर्थिक कठिनाई नहीं थी और उन्होंने मुझे कुछ भी करने या न करने की खुली छूट दे रखी थी. पार्टीशन के बाद करोल बाग में जहाँ हम रहते थे, वहीं मैं पढ़ता भी था. एक प्राइवेट कॉलेज में पढ़ाकर अपना जेब ख़र्च निकाल लेता था. हिस्ट्री मेरा विषय था, सो हिस्ट्री और पॉलिटिकल साइंस पढ़ाता था वहाँ. उन्हीं दिनों ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ और कुछ अन्य अँग्रेज़ी अख़बार चाहते थे कि मैं उनमें हिन्दी पर लिखूँ. अच्छा मानदेय देते थे. कई हिन्दी पुस्तकों की अँग्रेज़ी में समीक्षाएँ लिखी थीं तब. लेकिन मेरा मुख्य काम कम्युनिस्ट पार्टी में था. तब मैं पार्टी का सदस्य था. 50-51 से 53-54 तक काफ़ी समय पार्टी के कार्यों में ही बीता था.

शुरुआती वर्षों में काफ़ी कुछ लिखा, पर सब बिना योजना के लिखा. फिर 1957 में राज्य सभा में अनुवादक का काम मिल गया. पहली सुचारु नौकरी—दस से पाँच काम लगा. स्नेही, मित्र बन गए. राज्य सभा में जो डिबेट होती थीं, मैं उनका हिन्दी अनुवाद करता था. 1959 में चेकोस्लोावाकिया गया. ओरियंटल इंस्टीट्यूट ने आमन्त्रित किया था. तब वहाँ चेक सीखने, समकालीन चेक लेखकों के लेखन का अनुवाद करने का मुझे मौक़ा मिला. वहाँ आठ वर्ष रहकर कई चेक लेखकों—मिलान कुन्देरा, इवान क्लीना, बासलाम, हर्विल आदि की रचनाओं का हिन्दी में अनुवाद किया. वहाँ मेरा पहला उपन्यास, ‘वे दिन’ जो चेक पृष्ठभूमि पर था—आया….नहीं, वह लिखा यहीं था दिल्ली में. तब दो साल की छुट्टी पर आया था मैं दिल्ली. चेकोस्लोवाकिया जाने से पहले ‘परिन्दे’ अट्ठावन में आ गई थी. तो इस तरह आप देखें, मेरे लेखक और अनुवादक की ज़िन्दगी एक साथ शुरू होती है.

‘परिंदे’ के ज़िक्र ने अगले प्रश्न की भूमिका बना दी थी. ‘नई कहानी’ आन्दोलन से उनके जुड़ाव, ‘परिन्दे’ को उस आन्दोलन की प्रथम रचना घोषित किए जाने और उस आन्दोलन की पृष्ठभूमि, भ्रूमिका व प्रदेय के बारे में तब मैंने निर्मल जी से कुछ सवाल पूछे थे. लगा कि उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि किस सवाल पर क्या और कितना कहना है, कब रुककर अगला सवाल पूछे जाने के लिए अनकहे कहा जाना है. उस आन्दोलन से अपने जुड़ाव को याद करते हुए वे बोले—किसी एक घटना या क्षण के बारे में कहना तो मुश्किल है. जब आप किसी आन्दोलन के प्रवाह में होते हैं, तब पता नहीं चलता कि आप उसका हिस्सा हैं. बाद में इतिहासकार या आलोचक सिद्ध करते हैं कि आन्दोलन था या उसमें जो भी रहा हो. यह सोचकर मुझे उन्नीसवीं शताब्दी के एक फ़्रेंच उपन्यास— ‘ब्लैक एण्ड व्हाइट’ का ख़्याल आ जाता है. उसका एक पात्र वाटरलू के मैदान में घूमता चला आता है और अचानक देखता है कि वहाँ फ़्रेंच और अँग्रेज़ी सेनाओं के बीच भिड़न्त हो रही है. उसे नहीं मालूम कि वह एक ऐतिहासिक घटना से गुज़र रहा है. बाद में जब लोग उसे बताते हैं तो उसे लगता है ऐसा कुछ था! मेरी हालत उस दौरान कुछ वैसी ही थी, बाद में पता चला कि मैं ‘नई कहानी’ आन्दोलन में शामिल था.

उन दिनों साहित्य का केन्द्र दिल्ली नहीं था. नई कहानी के बड़े लेखक इलाहाबाद में रहते थे. वे पत्रिकाएँ जिनकी उस आन्दोलन में प्रमुख भूमिका रही, वहीं से निकल रही थीं. नई कहानी के लेखकों से मेरा ख़ास मिलना-जुलना भी नहीं होता था. मेरी मित्र-मंडली कवियों की थी—नरेश मेहता, रघुवीर सहाय, मनोहरश्याम जोशी… विरोधाभास ही जान पड़ता है यह कि मेरा मित्र-मंडल कवियों का ही अधिक था, कहानीकारों का नहीं. 56-57 में ‘कल्चरल फ़ोरम’ नाम से एक संस्था बनी थी जिसमें सांस्कृतिक कार्यक्रम हुआ करते थे. उस संगठन को चलाने में देवेन्द्र इस्सर ने मुख्य भूमिका निभाई थी. कृष्णबलदेव बैद, भीष्म साहनी, जोशी आदि सब लोग उसमें आया करते. मैं भी वहाँ कहानियाँ सुनाता था, सुनता था. ख़ूब बहस होती उस फोरम में. नई कहानी की जो मुख्य धारा मानी जाती थी, फ़ोरम के लोग तब थोड़ा उससे अलग थे, पर बाद में तो सभी एक ही आन्दोलन के सदस्य माने गए.

कहानी के भीतर स्फूर्तिदायक, ताज़गी भरे अनुभवों को लाना इसका सबसे बड़ा योगदान रहा है. शैली और भाषा में भी एक तरह की ऐसी संवेदनशीलता आई जो पहले मौजूद नहीं थी. स्वतन्त्रता के बाद मध्यवर्गीय परिवारों में जो विघटन हुआ, एक तरह की सुरक्षित ज़िन्दगी छिन्न-भिन्न होने लगी…उससे जो पीड़ा, उखड़ापन या टिपिकल विषाद दिखाई दिया, पिता-पुत्र के बीच का द्वंद्व, स्वतन्त्र हो रही स्त्री, स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में प्रथम बार हो रहे परिवर्तन, गाँवों से उन्मूलित होकर शहरों में आ रहे लोगों के मन का अकेलापन, असुरक्षा…मूलभूत परिवर्तन होने की आशा के मोहभंग की वेदना-व्यथा आदि…इन सब समस्याओं को कथ्यात्मक घेरे में लाने को काफी सार्थक सफल प्रयास किया था नई कहानी ने. हाँ, सीमाएँ भी थीं. इनकी रचनाएँ, मूल्य, इनका कथ्य बहुत कुछ मध्यवर्गीय जीवन तक ही सीमित था. एक बड़े वर्ग का संवेदनात्मक पक्ष तब तक इससे बाहर रहा, जब तक रेणु का ‘मैला आँचल’ नहीं आया.

‘मैला ऑँचल’ ने नई ज़मीन तोड़ी थी. भारतीय गाँवों में हो रहे महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों, कांग्रेस, समाजवादी, साम्यवादी पार्टी के आपसी संघर्षों का इतना सुन्दर, नाटकीय, काव्यात्मक चित्रण रेणु से पहले किसी ने नहीं किया था. रेणु के उपन्यास और कहानियाँ प्रेमचन्द के ग्रामीण जीवन से अलग एक ऐसा पक्ष दिखाती थीं, जो प्रेमचन्द की औपनिवेशिक निराशा से बिलकुल अलग था. रेणु के उपन्यासों में जहाँ एक तरह की ग़रीबी थी, वहाँ दूसरी तरफ एक ख़ास क़िस्म का लिरिकल उल्लास, लोकजीवन में पगे लोगों का जो आनन्द है, लोक संगीत है और ग्रामभाषा के भीतर जो बहुमुखी लचीलापन है, जह सब अलग और ख़ास है. नए कहानीकारों की तुलना में रेणु ने हिन्दी कहानी के परिवेश को कहीं अधिक विस्तृत और प्रशस्त किया था. आगे शिवप्रसाद सिह, मार्कण्डेय आदि ने भी इन विषयों पर अच्छी कथाएँ लिखी हैं, पर उतने विशाल पटल पर, पैमाने पर वे मन पर इतना गहरा असर नहीं छोड़ते. रेणु ने यथार्थवादी उपन्यास की सीमाओं का अतिक्रमण किया था और एक नये उपन्यास की ऐसे समय में संरचना की थी जब भिन्न जातियों, वर्णों के लोगों, उनकी मनःस्थितियों, उनके मानस के परिवर्तनों में स्वतन्त्र भारत में उत्पन्न होने वाले उन्मेष आदि को, इसकी रवानी और बहुमुखी संश्लिष्टता को प्रकट करने के लिए नए औपन्यासिक ढाँचे की ज़रूरत थी. इस ढाँचे का रेणु ने बहुत काव्यात्मक संवेदनशीलता के साथ निर्माण किया था.

अगर हम प्रेमचन्द और रेणु के उपन्यास के अन्तर को देखें तो रेणु की देन स्पष्टत: हमारे सामने उजागर हो जाएगी. उनके दूसरे उपन्यास ‘परती परिकथा’ में लिरिकल काव्यात्मकता और भी मुखर होकर आती है. हिन्दी के कथ्यात्मक ढाँचे को बदलने में जितना योगदान रेणु का रहा है, उतना शहरों में रहने वाले मध्यवर्गीय कथाकारों का नहीं. सच कहें तो ‘नई कहानी’ का आन्दोलन सिर्फ़ कहानी तक ही सीमित था. इस समय जो उपन्यास लिखे गए वे कलात्मक-रूप से उतने सफल नहीं थे, जितनी इन लेखकों की कहानियाँ सफल थीं. कहना न होगा कि गद्य की केन्द्रीय विथा उपन्यास है, कहानी नहीं और उपन्यास में परिवर्तन का श्रेय रेणु को है. इससे नई कहानी आन्दोलन का महत्त्व कम नहीं हो जाता, मैं यहाँ सिर्फ़ उसकी सीमाओं की ओर संकेत करना चाहता हूँ.

मैंने जानना चाहा कि क्या उन्होंने कभी कविताएँ भी लिखी हैं—

शुरू-शुरू में कभी अँग्रेज़ी में कविताएँ लिखा करता था. ‘गीताजंलि’ के असर में लिखी थीं. —नहीं, छपी नहीं. सौभाग्य से वह कॉपी खो गई… काव्य-सृजन के उस समय को याद किया जा रहा है— हायर सेकेंड्री के बाद कुछ मित्रों के साथ कश्मीर गया था. हाउस बोट में ठहरे थे. बड़ी शान्त जगह थी वह. ऊपर छत पर जाकर डल के सौन्दर्य को देखा करता था और ‘गीताजंलि’ का जो रहस्यवादी दर्शन हावी था—उन दोनों के मिश्रण से, प्रकृति के सौन्दर्य के प्रभाव में वे कविताएँ लिखी गई थीं.

—नहीं, इसमें गद्य या पद्य की बात नहीं. मैं नहीं समझता कि काव्यात्मक रूप केवल कविता तक सीमित रहता है. वह हर विधा की भाषा में प्रकट होता है—चाहे वह नाटक हो या कहानी हो या कुछ और. अँग्रेज़ी का ही उदाहरण लें तो लॉरेंस, वर्जीनिया वुल्फ, फ़ॉस्टर के उपन्यास हालाँकि शुद्ध गद्य की ज़मीन पर चलते हैं, पर अपने भीतर कहीं ज़्यादा प्राणवत्ता गद्य के घेरे में काव्यात्मक ऊर्जा प्राप्त करने से आती है. कैथरीन मैंसफ़ील्ड की सबसे विख्यात कहानियाँ इसी लिरिकल फ़ॉर्म में लिखी गईं. काव्यात्मक का यह अर्थ नहीं है कि सुन्दर बिम्बों को आभूषणों की तरह सजाकर लाने की चेष्टा करें. मेरा काव्यात्मक से मतलब भाषा और शब्दों के प्रति एक ऐसी गहन संवेदनशीलता को प्राप्त करना है जिससे हमारी अनुभूतियों के वे पक्ष उजागर हो सकें जो अधिकतर आत्म से बोझिल रहते हैं, अँधेरे में रहते हैं.

नई कहानी आन्दोलन के कुछ अन्य प्रमुख रचनाकारों की तरह आपने आलोचना के क्षेत्र में स्वयं को सक्रिय स्थापित करने की कोशिश क्यों नहीं की? लेखक द्वारा आलोचना करने के ऐसे प्रयत्नों को आप कैसे देखते रहे हैं.

—मैंने आलोचना-पुस्तक नहीं, अधिकतर निबन्ध ही लिखे. नई कहानी की वकालत करने के लिए निबन्ध लिखना ज़रूरी समझा. आलोचना कभी-कभी करनी पड़ती है, ज़रूरी नहीं कि हर लेखक करे. अपने दौर की कहानियों-कविताओं में ऐसे जो परिवर्तन आ रहे हैं, जिनके कारण लेखक ने पिंछली पीढ़ी के लेखन से अपने को अलग किया है, इस अलगाव को दिखाने के लिए कभी-कभी ख़ुद भी लिखना पड़ता है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण इलियट हैं, जिन्होंने कविता के साथ अपनी कविता के बारे में विचारवान निबन्ध भी लिखे हैं. ज़रूरी नहीं कि हर लेखक ऐसा करे. नए लेखक को आलोचक आलोकित करते हैं इसलिए सामान्यत: लेखक को ऐसा करने की ज़रूरत नहीं पड़ती.

कई बार ऐसे आलोचक भी होते हैं जो ऐसी नई धारा या परिवर्तन को दिखाते हैं, जो पाठक की दृष्टि से अलग रहता है. लेविस ने अँग्रेज़ी उपन्यासों में होने वाले परिवर्तनों का सुन्दर रेखांकन किया था. हिन्दी में नामवर सिंह के निबन्ध इस दिशा में उल्लेखनीय हैं. ‘नई कविता’ के आन्दोलन में अज्ञेय, जो स्वयं कवि थे, की आलोचना की भूमिका भुलाई नहीं जा सकती. तार सप्तकों की भूमिका से हमें जितनी जानकारी मिलती है, उतनी आलोचकों से नहीं मिलती. हाँ, इसके अपने ख़तरे भी होते हैं. कई बार कवि-लेखक अपनी चीज़ को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करते हैं. —हाँ, नई कहानी के लेखकों ने भी ऐसा किया. उन्होंने स्वयं को जैनेन्द्र, अज्ञेय से अधिक महत्त्वपूर्ण सिद्ध किया. मैं इसे ग़लत समझता हूँ. नई कहानी के कई शक्तिशाली तत्त्व हम जैनेन्द्र, अश्क, नागर, यशपाल आदि में देखते हैं. ‘नई कहानी’ अपने को पुरानी कहानी से बिलकुल अलग कर सकी, यह कहना काफी अतिशयोक्तिपूर्ण जान पड़ता है. दोनों स्थितियाँ हैं—कुछ हैं जो चीज़ों को पहचान लेते हैं, कुछ बढ़ा-चढ़ाकर कहते हैं—सन्तुलित नहीं रह पाते. इसीलिए आलोचक की वस्तुपरक दृष्टि अधिक महत्त्वपूर्ण होती है बजाय लेखक की ख़ुद की अपनी घोषणा या आलोचना के.

इसी क्रम में मैंने उनसे निबन्ध लेखन के प्रति एक ख़ास तरह की उनकी रुचि और उसका कारण जानना चाहा. उसी मुद्रा में बैठे-बैठे वे बता रहे हैं—एक सीमा पर हमेशा मुझे यह महसूस हुआ है कि अनेक ऐसी बातें, समस्याएँ, प्रश्न मुझे परेशान करते हैं जिनका देश व जाति की नियति तथा अस्मिता से सीधा-सीधा सम्बन्ध होता है. भारतीय दृष्टि और भारतीयता की समझ के बारे में ग़लतफ़हमी, जो औपनिवेशिक सत्ता की देन थी, अतीत और परम्परा का वह महत्त्व जिसे आधुनिकता के आन्दोलन ने कहीं पीछे ठेल दिया था, प्रगतिशील आन्दोलन की सीमाएँ और उनकी भ्रान्तियाँ—ये सब ऐसे प्रश्न थे जिन्हें मैं कहानियों या उपन्यासों में वस्तुपरकता के साथ प्रकट नहीं कर सकता था. इसके लिए एक नई विधा चुनने की बाध्यता मेरे सामने आई. मुझे लगा कि शुद्ध रूप से जिसे आलोचनात्मक कहा जा सकता है, परम्परागत अर्थ में अकादमिक आलोचना कही जा सकती है, वह सब तो नहीं, पर तीसरा—चिन्तनपरक निबन्धों का रास्ता अपनाना उचित होगा. इसलिए मैं अपने लेखन के इस चिन्तन पक्ष को उतना ही महत्त्वपूर्ण मानता हूँ जितना कि तथाकथित सृजनात्मक पक्ष को. बोलना रुका तो नज़र ऊपर उठी. बेआवाज़ चुपचुप हँसती उनकी हँसी अभी बोले ‘तथाकथित’ शब्द की ओर इशारा किए जा रही थी. हँसी थमी तो फिर कहना शुरू हुआ—यदि मैं निबन्ध न लिखता तो ऐसी कई चीज़ों को अपनी कहानियों में, उपन्यासों में ज़बर्दस्ती लाने की कोशिश करता. वह एकतरफ़ कहानी-उपन्यास को अशक्त बनाता, दूसरी तरफ़ ये प्रश्न भी वहाँ पूरी स्पष्टता और संश्लिष्टता के साथ अभिव्यक्त न हो पाते. मैं समझता हूँ कि भारतीय लेखक को समय-समय पर उन प्रश्नों को व्यक्त करना चाहिए, प्रकाश में लाना चाहिए, जिसे राजनीति उपेक्षित, अनदेखा कर देती है.

चिन्तनपरक निबन्ध-लेखन की परम्परा और मौलिकता के प्रश्न पर बात हो रही थी. निर्मलजी का पूर्वगत विशिष्ट लय में तन्मयता के साथ बोलना जारी था—

स्वतन्त्रता के बाद दुर्भाग्य से भारत में मौलिक चिन्तन का वह विकास अवरुद्ध हो गया, एक समय जिसका गाँधी, अरविन्द, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, शुक्ल आदि के लेखन में इतनी प्रगल्भता के साथ सूत्रपात किया गया था. तकाज़ा तो यह था कि हमारे राजनीतिज्ञ स्वतन्त्र चिन्तन की परम्परा को अधिक नए सन्दर्भों में अधिक स्पष्टता के साथ मुखरित करत्ते. भारतीयता क्या् है, परम्परा से हमारा विच्छेद कैसे हुआ, दो सौ वर्षों की औपनिवेशिक ग़ुलामी से किस तरह के दोष आए, हम कैसे मानसिक दासता के उत्तरोत्तर शिकार होते चले गए, अँग्रेज़ी के प्रभुत्व से किस तरह से स्वतन्त्र होने के बाद भी आत्मनिर्वासन की स्थिति जीने को अभिशप्त हुए—ऐसे सारे प्रश्न, जिन पर बीसवीं शताब्दी के शुरू में विचार होना शुरू हो गया था, एक अधूरे एजेंडे की तरह रह गए. स्वतन्त्रता से पहले मालूम था कि हमें क्या करना चाहिए, पर कैसे अपने जीवन में वह करना है या आना चाहिए—यह उस एजेंडे का अधूरा भाग था. हमारे राजनीतिक मनीषियों ने यह अधूरा छोड़ दिया.

नेहरू के औद्योगीकरण के ढाँचे को यथावत रखकर, अँग्रेज़ों द्वारा स्थापित संस्थाओं को उसी रूप में रखकर, शिक्षा या शासन जैसी पद्धतियों में किसी तरह के परिवर्तन की ज़रूरत न मानकर हमने वह सब नहीं किया जो हम अधूरे एजेंडे को पूरा करने के लिए कर सकते थे. यह अपने दायित्व से भागना ही था. अकल्पनीय है यह कि हमारी शिक्षा-पद्धति का ढाँचा आज भी पूर्ववत है. चीन, जापान जैसे देशों ने साहित्य व टेक्नोलॉजी का विकास अपनी भाषा में किया. हम हैं कि अँग्रेज़ी के ग़ुलाम बने रहेंगे. जिन दायित्वों से राजनीतिज्ञ बचते-भागते रहे, उन्हें पूरा करने की ज़िम्मेदारी अन्तत: हमारे लेखकों और बुद्धिजीवियों पर आनी ही थी. और मुझे दुख के साथ कहना पड़ता है कि हमारे बुद्धिजीवी इस कर्त्तव्य को पूरा करने में केवल असमर्थ ही नहीं रहे, उन्होंने अपनी सभ्यता और संस्कृति के बारे में पश्चिमी वैचारिक ढॉँचे के अनुसार भ्रान्तिपूर्ण धारणाएँ प्रचारित कीं. जैसी कि एक ज़माने में मैकाले और अँग्रेज़ी शासक प्रचारित करते आए थे. यह ऐसी दयनीय स्थिति थी कि राजनीतिक रूप से स्वतन्त्र होने के बावजूद हम वैचारिक रूप से उतने ही पराधीन रहे जितने स्वतन्त्रता मिलने से पहले थे. इसीलिए निबन्धों का क्षेत्र चुनना मेरे लिए कुछ हद तक इस अभाव को दूर करने का प्रयास था, जिसे मैं अपने सामाजिक-राजनीतिक जीवन में महसूस करता था. मुझे नहीं मालूम कि मैं किस हद तक अपना दायित्व पूरा कर सका हूँ. किन्तु यदि मैं उन प्रश्नों पर निगाह न डालता जिनके बारे में ज़्यादातर लोग चुप रहने से ही स्वयं को सुरक्षित मान लेते हैं, तो यह भाव मेरे भीतर अपराधबोध की तरह जमा रहता.

चिन्तनपरक और सृजनात्मक लेखन के क्षणों में प्रक्रिया के स्तर पर आप क्या और कैसा अन्तर महसूस करते हैं?

—यह अन्तर स्पष्ट है. इन निबन्धों के लिखने से पहले एक तरह की बौद्धिक परेशानी, एक तरह की मानसिक उलझन मैं महसूस करता हूँ और सोचता हूँ कि अपने इस चिन्तन को निबन्ध, डायरी या जनरल लिखकर इन प्रश्नों का अधिक ठोस और स्पष्ट रूप से मैं सामना कर सकूँगा. यदि यह मानसिक-बौद्धिक परेशानी न होती, यदि अख़बारों में इस तरह का झूठ न फैलाया जाता, यदि हमारे हिन्दी लेखक अपनी तथाकथित क्रान्तिकारी और वामपन्थी रिटॉरिक की रौं मैं आकर कई प्रश्नों को ग़लत रूप से प्रस्तुत न करते या ऐसी प्रस्तुतियों पर चुप न रहते… उनकी चुप्पी, उनकी ग़लत प्रस्तुति से मानसिक परेशानी होती है, उन्हें सुलझाने, शान्त करने को मैंने निबन्ध लिखे. जबकि कहानियाँ-उपन्यास लिखने के पीछे जिन स्पष्ट चीजों को रूपायित करने की आकांक्षा होती है, उसका क्षेत्र बिलकुल अलग है. वह हमारी स्मृतियों, अनुभूतियों से कहीं गहरा सम्बन्ध रखता है. यह नहीं कि स्मृति और अनुभूति निबन्धों में नहीं आती. यह विभाजन मैं नहीं कर रहा, पर हाँ उनमें अधिक होती हैं. उन स्मृतियों को जो हमारे अतीत जीवन का हिस्सा बनी थीं स्पष्ट करने का मन होता है.

यूँ कहें कि कहानियों के बीच में जो ख़ाली जगह बच जाती है, उसे निबन्ध पूरा करते हैं, निबन्धों के बीच में जो निराशाएँ, पीड़ाएँ वाणी नहीं पाती, शब्द नहीं पाती, वे कहानी में परोक्ष रूप से आती हैं. इन दोनों के सम्बन्ध में मैं इतना कह सकता हूँ कि आलोचकों के इस कथन से सहमत नहीं हूँ कि निबन्ध एक दिशा में और कहानी दूसरी दिशा में. निबन्ध में क्या होना चाहिए यह प्रश्न प्रमुख है, जबकि कहानी में क्याद है, यह प्रमुख है. भारतीय परम्परा में हमेशा यह रहा है. महाभारत में भगवद्‌गीता का परिवेश है. मनुष्य क्या है? वहाँ उदात्त पाशविकता, अँधेरा, मनुष्य सब सामने आता है और अचानक महाभारत के बीच में गीता के प्रवचन हमें बताते हैं कि मनुष्य का आदर्श क्या होना चाहिए, किस तरह वह महाभारत की भूल-भुलइयों से मुक्ति पा सकता है. कृष्ण—अर्जुन को यही बताते हैं कि तुम जिन्हें कहते हो कि वे मरेंगे, वे पहले से ही मृत हैं. यह चीज़ मुझे बहुत आकर्षित करती है. मनुष्य क्या है, यह हम तभी जान सकते हैं, जब हम जानें कि उसे क्या होना चाहिए. और यह तब कह सकेंगे जब यह जानते हों कि वह क्यास है. दोनों चीजें एक-दूसरे से अन्तस्सम्बन्धित हैं.

उन्हें बोलते सुनने के साथ-साथ देखने का भी मन हो रहा था. उस बोलने में शोर बिलकुल नहीं, ख़ामोशी ही अधिक थी. कभी आँखें बन्द किए कुछ न देखते-से बैठे हुए तो कभी खुली आँखों से सामने ऐसे देखते हुए जैसे कुछ न देख रहे हों सिर्फ़ बोल रहे हों. अचानक तेज़ी से आवेशित से उठकर गए हैं. लौटे तो हाथ में पानी का गिलास था. लेखकों के आचरण-व्यवहार और उनके सम्बन्ध में पाठकों की जिज्ञासाओं-अपेक्षाओं के बारे में जब मैंने उनका मन जानना चाहा तो बड़ा संक्षिप्त-सा उत्तर देकर वे रुके—

यह हर लेखक पर निर्भर है कि वह कैसे अपना दायित्व पूरा करता है. एक नैतिक न्याय-संहिता इस बारे में पहले से बनी है, जो तोड़ते हैं वे भी जानते हैं इस बारे में.

तब मैंने निर्मलजी की विदेश-यात्राओं और प्रवास की चर्चा चलाकर इस सबके उनके लेखन पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में जानना चाहा.

धैर्यपूर्वक प्रश्न सुना और ऐसे बोलना शुरू किया जैसे उन्हें पता था कि अब यही पूछा जाना है—विदेश जाकर एक बात ज़रूर होती है कि आदमी को परिवेश से बाहर जाकर देखने का मौक़ा होता है. जातीय समस्याओं को तब वह तुलनात्मकता से आँक सकता है. अपनी आदतों से मुक्त होकर स्वतन्त्र रूप से अपने देश-समाज को आँकने-समझने का उसे मौक़ा मिलता है. पहले जो बुराई या शक्ति उसे नहीं दिखती थी, अजब दिखने लगती है. वहाँ जाकर व्यक्ति को अपने समाज की शक्ति और उन मूल्यों के पुनःअन्वेषण का मौका मिलता है, जिनके काले-उजले पक्षों को ऊपर उठकर देखने का अवकाश अपने देश में रहते न मिलता. मेरे लिए यूरोप का प्रवास-आवास इन अर्थों में बहुत महत्त्व रखता है. यदि मैं भारत में ही रहता तो शायद यह सब न हो पाता.

—स्वीकार-अस्वीकार का प्रश्न नहीं है यह. मैं समझता हूँ कि यूरोप की समृद्ध सभ्यता है, सांस्कृतिक देन है. मैं स्वयं को कृतज्ञ मानता हूँ कि मैं उस सभ्यता और संस्कृति के सम्पर्क में आया. अगर मैं उस संस्कृति के परिचय में नहीं आता तो मेरे जीवन के कई क्षेत्र सूखे पड़े रहते. उसी तरह भारतीय संस्कृति के कुछ ऐसे उपादान हैं, जो अन्य संस्कृतियों में दुर्लभ हैं. जैसे मनुष्य के आत्म और प्रकृति के साथ सम्बन्ध, अद्वैत की यह भावना कि मनुष्य, सृष्टि की और अन्य चीजों में भेद-भ्रम है—इल्यूजन है, अलगाव में समष्टि को देखना और समष्टि में हर व्यक्ति की जो अलग विशिष्टताएँ हैं, उन्हें पहचानना—ये सारे ऐसे उपादान, अंग, अवयव हैं जो मुझे केवल भारतीय मनुष्य के लिए ही नहीं, बल्कि मनुष्य मात्र के लिए महत्वपूर्ण जान पड़ते हैं. अपने बारे में यही कह सकता हूँ कि जीवन के बारे में एक समग्र दृष्टि प्राप्त करने लिए यूरोप की सभ्यता और संस्कृति को पहचानना उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना कि जीवन के प्रति भारतीय दृष्टि को जानना. दोनों में से एक-दूसरे को अलग-अलग करके देखना मानसिक विपन्नता का प्रमाण है.

आपकी रचनाओं में एक ख़ास क़िस्म के वातावरण-निर्माण की कोशिशें बड़ी साफ़ दिखती हैं. अकेलेपन, अलगाव, आत्मनिर्वासन, उदासी या पीड़ा अथवा पश्चिमी जगत के अन्य अनुभवों से सम्बन्धित चित्रों की अधिकाधिक उपस्थिति के मूल में आपके विदेश के अनुभवों और वहाँ से प्राप्त दृष्टि का क्या कुछ अवदान है?

—मेरे ख़्याल से इसमें कई चीज़ों का अवदान है. परिवार और उसके सदस्यों का अवदान. हमारा परिवार एक तरह से स्वायत्त इकाई की तरह रहा. उसका यानी हमारे माता-पिता के परिवार का सम्बन्ध अन्य लोगों से उतना नहीं रहा. अन्य लोगों से एक तरह से कटकर ही रहा परिवार. पिताजी का रेल का दफ़्तर कभी शिमला, कभी दिल्ली. इसलिए कभी वहाँ, कभी यहाँ का रहना. शायद इस तरह की एकान्तप्रियता का कारण शिमला है जहाँ मेरा बचपन पहाड़ों के बीच बीता. दूसरी चीज़ जो मुझे हमेशा आकर्षित करती रही वह है अध्ययन—पुस्तकें. कॉलेजों, में, यूनिवर्सिटी में स्वाध्याय से जो प्राप्त हुआ वह इन्हीं से. तीसरा यह कि सात-आठ वर्ष के यूरोप प्रवास में मैं अलग-अलग व्यक्तियों के विचारों के सम्पर्क में आया. ये सब चीज़ें थीं जिन्होंने मेरी दो चीज़ों को—जो बाहर से परस्पर प्रतिकूल हैं, पर हैं परपूरक—शक्ति दी, मज़बूती दी. ये दो चीज़ें हैं—अपने भीतर रहने की शक्ति और अपने से बाहर जाने का ज़ोख़िम, अपने को बाहर से देखने की चुनौती. शायद यही है जो आप जानना चाह रहे हैं, इससे मेरे स्वभाव की बनावट बनती है.

फ़ोन बजा तो तुरंत उठकर गए हैं—’हलो, हाँ, बस एक मिनट…गगन!’ वापस आने पर मैंने उनके लेखन में काव्य, कला, संगीत आदि की उपस्थिति के बारे में सवाल किया है.

परिवार के अतीत को याद करते हुए अपने लेखन में उसकी भूमिका और प्रभाव को आँका-जाँचा जा रहा है—हमारे परिवार का व्यापक परिवेश मौजूद नहीं था तब. परिवार में माँ, पिता, बहिन, भाई-बस कुटुम्ब से ज्यादा सम्बन्ध नहीं था. हमारे बड़े भाई रामकुमार ने अपना जीवन-लेखन से शुरू किया था. बड़े चित्रकार बने. फ्रांस गए तो वहाँ से कई चित्रकारों के मेनीफ़ेस्टोज़, पैम्फ़लेट्स भेजते रहते थे. उनके आर्टिस्ट का जीवन मेरे लेखन का एक हिस्सा बन गया. यह बड़ी चीज़ है कि आपके बड़े भाई या बहिन आपको नए अनुभव क्षेत्र में लाने का प्रयत्न करते हैं. यूरोप के बारे में उनके अनुभव, यात्रा-वृतान्त मैंने तब पहली बार पढ़े थे. थिएटर, कला, संगीत का ज्ञान पेरिस से भेजी उनकी चिट्ठियों से ही होता था. मेरी बड़ी बहिन बड़ी प्रगल्भ छात्रा थी. उसे छात्र जीवन में पुरस्कार बहुत मिलते थे और पुरस्कार रूप में अक्सर किताबें ही मिलती थीं. उन किताबों पर सबसे पहले मैं क़ब्ज़ा कर लेता था. वे तब तक उन्हें ढंग से देख भी नहीं पाती थीं. मैं तब तक पढ़ लेता था. मेरी माँ की ननिहाल पुराने कटरे में थी. दिल्ली में. मैं कई बार उनके साथ जाता. उनके सम्बन्धियों से मिलने, परिवार का एक नया आयाम देखने को मिलता था. इससे—परिवार में रहने से वैयक्तिक जीवन की सीमाएँ बढ़ती हैं, अनुभव बढ़ते हैं. इस तरह अपने को जानने का जो मौक़ा मिलता है, उस दृष्टि से मैं स्वयं को काफ़ी सौभाग्यशाली मानता हूँ.

एकदम से बोलना रुका तो निर्मलजी की तरफ देखा. मन्द-नीरव-सी एक हँसी वहाँ विराजमान थी. सुनाई पड़ा— “हाँ, अब आप भी थक गए होंगे. मेरा भी सिर भारी हो रहा है. एक बजे पुस्तक मेले में जाना है. हाँ, कल जाना था, जा नहीं पाया.”

इतनी जल्दी समापन की घोषणा सुन मैं अवाक, भौंचक. अधूरा छूटा-सा लगा सब. कल दोबारा समय दिए जाने के लिए आग्रह किया तो हाँ कुछ इस तरह कहा गया जैसे वे ना कह नहीं पा रहे हों—’ठीक है, अब कल दस बजे देख लें. ज्यादा नहीं हो पाता अब. आप सवाल सिलेक्ट कर लें!” वाणी में सरल-तरल-सा स्नेह प्रदर्शन. मन रखने की उदार सदाशयता को मैंने महसूस किया. गगनजी से कुछ देर बात करने की मैंने इच्छा जताई तो बगल वाले कमरे पर वे दस्तक देते दिखाई दिए. दस्तक क्या दी—उँगलियों को आहिस्ता-आहिस्ता ऐसे दरवाज़े से छुलाया जैसे वह दरवाज़ा न होकर कोई वाद्ययन्त्र हो—”गगन, तुमसे बात करना चाहते हैं.’…चश्मा लगाये वे आईं. उनकी उपस्थिति के आकर्षण को मैं देख रहा था. कहा गया—”आज तो अभी झा साहब आएँगे…फिर मुझे जाना भी है, कुछ काम करना है…आप कल दस बजे फिर आ रहे हैं न?…कल ठीक रहेगा, फुर्सत से बैठ लेंगे”.,,कहने-बोलने में एक लय, एक अनुशासन, अच्छी कविता की तरह शब्दक्रम, आरोह-अवरोह-शीरीं-सी मिठास. दोनों को पास-पास, साथ-साथ देखा तो एक ख़ास तरह की शान्ति, अनुशसन और सबसे अधिक ग़जब के सम्मोहन को अपने आस-पास पाया. लगा कि अपने सृष्टा के मन और आत्मा के सौन्दर्य तथा जादू की कोई कृति यूँ ही आपको ख़ूबसूरत-सम्मोहक नहीं लग सकती.

(इस इंटरव्यू का शेष हिस्सा पढ़ने के लिए क्लिक करें).

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