सृजन यानी पुराने संदर्भों से नए अर्थ की तलाश

लेकिन अगले दिन बातों का अवसर आसानी से नहीं मिल पाना था— “कल आप साढ़े चार तक आ सकते हैं क्या?” सुबह का समय चाहा तो व्यस्तता बताई गई. अन्ततः गगन जी के साथ बातचीत के अपने लोभ का उल्लेख करते हुए. मैंने तीन बजे तक पहुँचने की कहकर कार्यक्रम तय कर लिया था. अगले दिन चलने से पहले आश्वस्त हो लेना चाहा. उधर फ़ोन पर गगन जी थीं—नपा-तुला, सधा स्वर. निर्मलजी के समय की सूचना देकर मैंने उससे पहले उनसे समय चाहा. “आप तीन बजे आ सकते हैं?’ मैं ख़ुश. हाँ, कहा और फ़ोन रखते-रखते सोच लिया कि मिलने पर गगन जी से यह कहना ही है कि आपको कविता पढ़ते तो मैंने नहीं सुना, पर फ़ोन पर आवाज़ सुनकर भी उस कशिश का अन्दाज़ लग सकता है.

दरवाज़ा गगन जी ने ही खोला. पानी, चाय फिर बातें. आत्मलीन, चिन्तन की-सी मुद्रा में पास की कुर्सी पर बैठी हैं. कटे, खुले, बिखरे बालों का वामांश आगे की तरफ लटक-झूल रहा है और दक्षिणांश गर्दन की सहायता से पीठ की ओर मुड़ चला है. स्टील के बड़े-से फ्रेम का चश्मा, उसके उस पार दिखती बड़ी-सी आँखों का अन्तःमन और बाह्य जगत को देखते समय का अलग, निजी, ख़ास अन्दाज़. उनके बचपन, कविता, रचना-प्रक्रिया, स्त्री स्वातन्त्र्य, दलित व नारी-विमर्श, उनसे हिली-मिली बिल्लियों, पक्षियों, बच्चों पर, कई मुद्दों पर कई तरह की देर तक बातें हुईं. आज की लपड़-झपड़, तड़ाक-धड़ाक शैली में बोलने वाली कई संन्यासिनियों-साध्वियों से भिन्न, एकदम अलग अन्दाज़ में बोल रही थीं—शान्त, शब्द-ब-शब्द गहरे उतरते, ऊँचाइयाँ चढ़ते हुए. प्रश्न सुनतीं, वहाँ बैठे-बैठे जैसे कहीं जातीं, कुछ देर वहाँ ठहरकर फिर वापस आतीं.

उस दिन उनके स्वभाव के बारे में सुनी कुछ बातें तब मुझे केवल अनुमान, भ्रम और कल्पना लगी थीं. निर्मल जी के बारे में मैंने जितना पूछा. वे सहज, आत्मीय, निश्छल भाव से बताती रहीं. तब मैंने दोनों लोगों के साहित्यकार होने से गृहसंचालन में आने वाली दिक़्क़तों-मुश्किलों के बारे में जानना चाहा था. अपने लेखन के शुरूआती दौर की चर्चा करने के बाद वे कह रही थीं—हाँ, मुझ पर अभी भी बीच-बीच में बाहरी चीज़ों का दबाव आ जाता है— नहीं, पति का नहीं होता वह दबाव. मैंने अपनी इतनी रक्षा कर ली है, इतनी म्युचुअल अंडरस्टेंडिंग है कि वह दबाव नहीं है. जैसे अब कोई रिपेयरिंग का काम है, कुछ ठीक कराना है, बाहर का काम है, कहूँ तो मुझे यह भी लगता है कि निर्मल जी काफी अव्यावहारिक व्यक्ति हैं. स्वयं से कुछ कराना इनके वश का नहीं है. जो बता दिया जाए वो कर लेंगे. उनके अव्यावहारिक होने से कोई समस्या नहीं है. पर लगता है कि ये ऐसे व्यक्ति होते जिनकी मुझसे स्पष्ट-सी माँगें होतीं. मुझे किसी रोलमॉडल में बाँधकर रखते. मुझे ख़ुशी है निर्मलजी को मुझसे ऐसी अपेक्षा नहीं रही. उनकी सारी अव्यावहारिकता इससे साफ़ हो जाती है कि वे हर सुबह चाय बनाकर मेरे सिरहाने रख जाते है. उसके बाद फिर चाहे थैला भरकर सब्ज़ी लाओ, मकान की टूट-फूट ठीक कराओ या और कुछ. सुबह इतना कर देने से लगता है कि उन्होंने भी कुछ किया है. अभी दो दिन पहले सब्ज़ी लेकर लौटी तो इन्हें कहा मैंने—देखो, मैं इतना सारा बोझ लटकाकर लाई थी दोपहर में…. एकदम से बोले—मैं भी तो टिक्की लाया था तुम्हारे लिए दोपहर में! मैंने पूछा—तो क्यां टिक्की का वजन इसके बराबर था? फ़ौरन उत्तर मिला, पर एक सवाल के साथ—हाँ, टिक्की का वज़न तो कम था, इस भूसे का वज़न अधिक था…पर क्या मेरी लाई टिक्की ख़राब थी? अब क्या उत्तर दे सकते हैं आप? उस क्षण उनके मन की खीझ, ख़ुशी, तृप्ति, छिपी नहीं रह पा रही थी.

“निर्मलजी के साथ रहकर घर में जो मुझे परेशानी होती हैं, वह यह नहीं कि मेरे लिखने में कोई व्यवधान हो रहा है. परेशानी यह होती है कि वे बहुत डिसीप्लिंड ढंग से लिखते हैं. सुबह सात बजे वे मेज़ पर बैठ जाते हैं, फिर जब तक जैसा चले. नहाने-धोने नाश्ते को उठेंगे एक घंटे को. डेढ़ बजे तक काफ़ी सॉलिड काम होता है उनका. अर्ली ईवनिंग का समय ऐसा रखते हैं कि उसमें कहीं बाहर जाना है या मिलना है किसी को. जब वे दुनिया से मिलते हैं तो उससे पहले पाँच-छह घंटे अपनी मेज़ पर बैठ चुके होते हैं. सारा समय पढ़ना-लिखना. चिट्ठियों के जवाब देने हैं. एक बड़ी नियमित-सी दिनचर्या रहती है. इसमें कहीं व्यवधान नहीं. अराजकता कहीं होती होगी तो भीतर मन में होती होगी कि क्या कथानक चल रहा है, कौन पात्र क्या रूप ले रहा है. पर बाहर एक डिसीप्लिन. यह सब देखकर मुझे जो दिक़्क़त होती है, वह यह कि मैं रोज़ बैठकर नहीं लिख सकती. मेरे लिखने के फ़ेज़ेस होते हैं. मैं लिख रही होती हूँ तो लिख ही रही होती हूँ. कम्प्यूटर पर बैठी रहती हूँ…अधिक समय उस क्षण के इन्तज़ार में…कि पकने-बनने पर शुरू करूँ… निर्मल जी पहले मेरी इन चीज़ों को नहीं समझते थे. कहते थे कि ये कामचोरी की बातें हैं. जब तक आप मेज़ पर नहीं बैठेंगे, नहीं लिखेंगे. पर इन चौदह-पन्द्रह वर्षों में वे धीरे-धीरे समझ गये हैं कि इनका ग्राफ़ अलग तरह से चढ़ता-उतरता है और मेरा कुछ अलग तरह से.

निर्मलजी की रचनाओं की पहली पाठिका होने के बारे में गगन जी से पूछा गया तो बताने लगीं—सब ज़रूरी नहीं. कुछ चीज़ों की मैं पहली पाठक इसलिए कि मैं उनकी टाइपिस्ट हूँ. निर्मलजी कहते हैं कि उनके हैंडराइटिंग को भारत में केवल दो लोग पढ़ समझ पाते हैं—एक मैं, एक मदन सोनी. इतना बारीक लिखते हैं कि एक डॉट में तीन अक्षर छिपे रहते हैं. पिछले सात-आठ वर्षों से, जबसे मैं कम्प्यूटर पर काम करने लगी हूँ, मेरे पास उनका ड्राफ्ट आ जाता है. मदन सोनी के पास नहीं जाना है तो ड्राफ्ट मेरे पास ही आएगा. ‘अन्तिम अरण्य’ के लिए कम्प्यूटर पर काम कर रही थी तो बीच में एक बार लगा कि मेरी तो आँखें ही चली जाएँगी. मैंने निर्मलजी से कहा कि यदि आप बड़ा नहीं लिख सकते तो मैग्नीफाइंग ग्लास ही ला दें. बड़ा तो नहीं लिख सके, पर दो घंटे बाद मैग्नीफाइंग ग्लास आ गया. शब्दों के साथ निसृत होती चहक ने उनके चेहरे पर एक कान्ति, एक तेज़ ला दिया था. निर्मल वर्मा जी के अपने होने के भाव पर वे प्रमुदित-प्रफुल्लित-गर्वित-सी दिखी थीं. ‘कामायनी’ की श्रद्धा की एक पंक्ति अपनी याद दिलाकर चली गई—’दया, माया, ममता लो आज/ मधुरिमा लो, अगाध विश्वास…

ऐसे उस खास क्षण में मैंने पूछा था…निर्मलजी पर गर्व करने जैसा भाव कब-कब आता है आपके मन में? थोड़ी देर चुप रहीं. जैसे मन की गहराइयों में डुबकी लगाई जा रही हो. बोलना शुरू हुआ तो लगा कि वे जितना बोलकर बोल रही थीं, उससे अधिक शब्दों-वाक्यों के बीच के अन्तराल ओर मौन के माध्यम से बोल रही थीं. बहुत दूर कहीं देखती-सी वे बता रही थीं—मुझे निर्मल जी के साथी होने पर जिस चीज़ की सबसे बड़ी हैरानी होती है वह तब जब मैं इन्हें अध्यक्षीय बात कहते हुए सुनती हूँ.” मैं उनके बोले शब्द साथी पर रुका था कुछ समय. सहधर्मिणी, धर्मांगिनी या सहचर जैसे शब्द तो मैंने भी नहीं सुनने चाहे थे. पर ऐसा क्यों लगा कि उन्होंने साथी नहीं सारथि कहा है शायद. बिना उनके कहे भी मान लिया कि सारथि ही कहा होगा…’ये किसी सभा में गए हैं. इन्हें बोलना है. मुझे लगता है कि इन्हें जानती हूँ. मेरे आमने-सामने चल रहे हैं. पर जब ये बोलते हैं—इतनी सारी चीज़ें इकट्ठा करके कह रहे होते हैं—तब देखती-सुनती हूँ तो सोचती हूँ कि इसका मतलब तो यह है कि जिस चीज़ को मैं देख रही थी—कि आमने-सामने घूम रहे हैं—तो मैं सही चीज़ नहीं देख रही थी. शायद हो सकता है कि एक लेखक सबके लिए इतना पराया होता हो…या इतना ही अपना होता हो…”

साढ़े चार से थोड़ा पहले निर्मल जी आ चुके थे. स्वेटर-पैंट, कढ़े बाल…लगा कि उस दिन से अधिक सँवरे-से, स्मार्ट-से दिख रहे हैं आज. हिमाचल की प्रकृति जैसी सौम्य स्निग्धता. कुर्सी पर बैठने तक हाथ जुड़े हैं. प्रश्न पूछे जाने से पहले ही सुनने जैसी एकाग्रता और सुनकर अपनी उस विशिष्ट मुद्रा में ऐसे बोलना शुरू जैसे पहले से तैयार कोई ड्राफ्ट उनके मन के अन्दर रखा हो. शुरुआत के लिए यूँ ही पूछ लिया कि आप अपने वर्तमान का, लेखक होने का श्रेय किसे देना चाहेंगे? मेरा मन्तव्य जानना चाहा है पहले. फिर कहा गया है—

आपका मतलब लेखकों से है क्या? मेरे लिए यह कहना तो मुश्किल है कि मैं जो जैसा भी आज हूँ वह किस वजह से हूँ. उसके लिए मैं अनेक व्यक्तियों, सम्बन्धियों, मित्रों के प्रति गहरी कृतज्ञता महसूस करता हूँ. उनका नाम लेने से कोई ख़ास फायदा नहीं है, पर चेतन और अचेतन मानस में उनकी उपस्थिति मेरे लिए कितनी फलप्रद रही, यह कल्पनातीत है. भारतीय परम्परा में यह माना गया है कि हमें जीवन में तीन तरह के ऋण चुकाने पड़ते हैं. अगर हम इन शब्दों को व्यापक अर्थ में लें तो मेरी कृतज्ञता की सूची बहुत कुछ इन तीन ऋणों के बीच समा सकती है. देव ऋण इस मायने में कि मैंने जिस परम्परा में जन्म लिया है उसमें पवित्रता का एक अद्भुत आभास था. वह जो भी है—चाहे पर्वत, धरती, आकाश कुछ भी है. जो चीज़ भी हमारा पोषण करती है, जिसके माध्यम से हम इस जीवन के यथार्थ के परे किसी सार्वभौमिक शक्ति से साक्षात करते रहते हैं, अनुभव-उपस्थिति से अधिक समग्र-सम्पूर्ण बातें हैं उसमें. यह संयोग नहीं कि परम्पराओं में इन समस्त को, इन उपकरणों को देवी-देवताओं के रूप में स्वीकार किया गया है.

उसी तरह ऋषि ऋण के अर्थ में वे सब विद्वान, लेखक, चिन्तक जिन्होंने प्रत्यक्ष रूप से या पुस्तकों के माध्यम से मुझे अच्छे-बुरे, सत्य-असत्य, न्याय संगत-अन्याय संगत, नीति-अनीति के बीच में भेद करना सिखाया और यह सिखाया कि मनुष्य के भीतर जन्म से ही मनुष्य नहीं होता, उसे मनुष्यत्व को अर्जित करना होता है. मुझे इस बहुमूल्य चीज़ को सिखाने में ऋषिऋण का गहरा योगदान है. तीसरा पितृऋण मेरे भीतर जिस तरह की चिन्ताएँ, जिज्ञासाएँ, और आकांक्षाएँ निवास करती हैं, जो मुझे एक विशिष्ट व्यक्ति के रूप में रूपायित करती हैं, उसके लिए मैं उन सब पुरखों-पूर्वजों का कृतज्ञ हूँ. पितृ का अर्थ ही पूर्व है. वे सजग रूप से तो नहीं पर अचेतन रूप से मेरी स्मृतियों, मेरे अचेतन मानस में वास करते हैं और उनका होना मेरे अस्तित्व को वर्तमान से ऊपर उठाकर अतीत और भविष्य की एक श्रृंखला में संयोजित करता है. यहाँ भी यह देखिए कि भारतीय परम्परा में श्राद्ध पुरखों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने को किया जाता है. शायद दुनिया में कहीं नहीं है यह परम्परा. तीनों ऋणों को चुकाने की प्रक्रिया में दुनिया का अजनबी परिवेश हमारा आत्मीय आवास स्थल बनता है. जिस तरह मकान को घर में बदलने के लिए अनेक पीढ़ियों का आवास ज़रूरी होता है, उसी प्रकार से संसार को अपनी संस्कृति में बदलने-परिवर्तित करने की प्रक्रिया तभी पूरी होती है, जब हम ऋणों को चुकाने में समर्थ होते हैं.

सूचना तन्त्र, टीवी, मीडिया आदि की भूमिका तथा प्रभाव और साहित्य के भविष्य के बारे में किए गए सवालों के उत्तर में निर्मल जी ने कहा—

एक तरह से इसे आधुनिक युग की विडम्बना और विरोधाभास मानना चाहिए कि टीवी, इंटरनेट आदि की प्रविधियाँ इतनी परिष्कृत और व्यापक हो गई हैं कि हम तुरन्त एक-दूसरे के बारे में सूचना प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन अन्य का बोध—और आपके बीच का बोध उत्तरोत्तर क्षीण, कमज़ोर पड़ता जा रहा है. क्या— यह अजीब बात नहीं कि सुदूर देशों की जनता की आकांक्षाओं-यातानाओं के बारे में मैं आसानी से रेडियो, अख़बारों से ख़बर पा सकता हूँ, मगर इस धरती पर मानवता के बीच मनुष्यों से मेरा रिश्ता उतना ही अजनबी और कहीं-कहीं तो आतंकित और भयभीत करने वाली चीज़ बन गया है. सार्त्र ने कहा था कि अन्य की अवधारणा यानि, मनुष्य में जो अदर है वह नरक की तरह है. आज इस नरक की भयावहता सूचना तन्त्रोंय के इतने व्यापक होने के बावजूद कम नहीं हुई है. मनुष्य उत्तरोत्तर छोटे-छोटे गुटों, संघों में बँटता जाता है. धर्म, राजनीति, टेक्नालॉजी, सामाजिक-राजनीतिक संस्थाएँ हर क़दम पर मनुष्यों के बीच वैमनस्य और शत्रुता यदि नहीं तो दूरी, भय और अजनबीपन उत्पन्न करती जाती हैं. इसलिए मैं कभी-कभी सोचता हूँ कि एक मनुष्य को जानने के लिए ज़रूरी नहीं कि हम सारी दुनिया की मानव जाति की ख़बरों को तात्कालिक रूप में जान सकें, अपितु सान्निध्य में रहने वाले लोगों के भीतर की मानवता के सूत्रों में अपने को जोड़ सकें. यह बड़ी बात होगी. क्राइस्ट ने कहा था—अपने पड़ोसी से वैसा ही प्रेम करो जैसा तुम अपने से करते हो. जब तक यह दुनिया हमारा पड़ोस नहीं बनती, हम इसे पड़ोसी की तरह आत्मीय स्नेह नहीं दे सकते, तब तक सूचना तन्त्रों का प्रसार किसी भी तरह मनुष्यों को एक-दूसरे के नज़दीक ला पाएगा, उन्हें एक-दूसरे के बारे में ईमानदारी के साथ समझदारी दे सकेगा, मुझे सन्देह है.

जहाँ तक साहित्य के भविष्य की बात है, इस तरह की आशंकाएँ, हर उस समय में जब नई कला विधा का प्रादुर्भाव होता है, उत्पन्न होती हैं. उन्नीससवीं शताब्दी में जब फ़ोटोग्राफ़ी ईजाद हुई, कहा गया कि पेंटिंग, चित्रकारी का भविष्य अन्धकारमय है. क्या ऐसा हुआ? चित्रकारी ने अपनी कला में अधिक संस्कार, अधिक संश्लिष्टता, अधिक कलात्मक क्षमताओं को अर्जित किया और फ़ोटोग्राफ़ी दूसरी दिशाओं में अग्रसर होती गई. इसी तरह बीसवीं शताब्दी के शुरू में जब सिनेमा आया, तब भी यह आशंका प्रकट की जाती थी कि थिएटर की जो परम्परागत कला है, नाट्य कला है, उसकी अब कोई ज़रूरत महसूस नहीं होगी. जब मनुष्य दो-ढाई घंटे में फ़िल्म के चलायमान बिम्बों द्वारा इतना ज्ञान और आनन्द प्राप्त कर सकता है तो फिर थिएटर जैसे अपेक्षाकृत स्थिर मंचीय माध्यम की तरफ वह क्योंि झुकेगा? लेकिन यह भी नहीं हुआ क्योंकि जिस तरह का दर्शक और नाटक के बीच साक्षात संवाद का परिवेश थिएटर उपस्थित कर सकता था, कलात्मक रूप से और जिस गहराई से नाटकीय कला के माध्यम से उन समस्याओं को उजागर कर सकता था, उन्हें सिनेमा कभी छूने का साहस भी नहीं करता. इसलिए हम देखते हैं कि बीसवीं शताब्दी में जहाँ सिनेमा जैसी कलात्मक विधा का आविष्कार हुआ, वहाँ इब्सन जैसे महान नाटक लेखक और रंगकर्मी हमारे सामने आए और हमें पता चला कि नाट्यकला को सिनेमा कभी अपदस्थ ही नहीं कर सकता. क्योंकि दोनों ही अपने-अपने माध्यम से मनुष्य के जीवन-सत्यों को उद्घाटित करते हैं.

क्या कभी टेलीविज़न या मीडिया के दूसरे साधन ऐसा करने के कलात्मक साधन जुटा पाते हैं? सिनेमा में, टीवी में हम फ़्लैशबैक की टेक्नीक अपनाते हैं, लेकिन वह बहुत सतही रूप में, तकनीकी फ़ार्मूले के रूप में हमारे सामने आता है. जबकि साहित्य में अन्ना कैरनिना जैसी नारी आत्महत्या करने से पहले जिस भावनात्मक उन्मेष के साथ अपने अतीत का विश्लेषण छिलके-छिलके करके करती है, क्याा कभी कोई मीडिया-माध्यम ऐसा कर पाने में समर्थ हो सकता है? मैं नहीं समझता कि पुस्तक का कोई भी पर्याय कभी भी कोई अन्य चीज़ हो सकती है. उसका सीधा- सा कारण यह है कि पुस्तक-उपन्यास, कविता, नाटक, आध्यात्मिक-दार्शनिक ग्रन्थ—अपने शब्दों के माध्यम से कोई बना-बनाया सत्य किसी बिम्ब या इमेज के द्वारा अभिव्यक्त नहीं करते, जैसा हम सिनेमा-टीवी में देखते हैं, जो हमेशा अधूरा और सतही होता है. जबकि हर पुस्तक मनुष्य की स्वाधीन चेतना पर विश्वास करती है कि वो किसी भी कविता या उपन्यास को एक विशिष्ट अर्थ में न बाँधकर, अनेक अर्थों में, बिम्बों में उसे प्राप्त करने, उसका रसास्वादन करने में समर्थ हो सकती है.

मार्क्वेज से जब किसी ने पूछा कि आप अपने उपन्यास—’एकान्त के सौ वर्ष”—का फ़िल्मीकरण कराने की अनुमति क्योंे नहीं देते, जबकि बॉलीवुड के अनेक प्रोड्यूसर आपको लाखों डॉलर देने को तैयार हैं? तो उनका उत्तर यह था कि आज जब लोग मेरी पुस्तक पढ़ते हैं तो हर पात्र या घटना का अपने व्यक्तिगत अनुभव के माध्यम से अर्थ लगाते हैं. मेरी पुस्तक हर पाठक के लिए एक अलग अर्थ रखती है. वह किसी सामान्य ढर्रे में नहीं बँधी. मेरे हर पाठक के भीतर मेरे उपन्यास के हर पात्र का एक अलग बिम्ब है. जब ये ही पाठक मेरे उपन्यास की फ़िल्म देखेंगे तो उन पाठकों के भीतर पात्रों-बिम्बों और अर्थों की बहुलता का जो संसार होगा, वह हास्य एक्टर की मुद्रा और एक हास्य बिम्ब में जड़ित होकर रह जाएगा. मैं नहीं चाहता कि फ़िल्म मेरी पुस्तक के बहुआयामी अर्थों को फ़िल्म में ढले हुए एक ख़ास सिनेमाई बिम्ब में सिकोड़कर रख दे. मेरे ख़्याल में सुन्दर है यह बात. यही कारण है. हम पुस्तक से जो सुख प्राप्त करते हैं उसमें हमारा निजी योगदान उतना ही है जितना लेखक का. यही कारण है कि एक पुस्तक हर युग में हर पाठक की एक नई पुस्तक होती है, जबकि उसका टेक्स्ट वही रहता है.

सम्प्रेषण की समस्या कहाँ है? आज भी किताबें पढ़ी जाती हैं, लाखों की संख्या में पुस्तकें आज भी छपती हैं, आज भी पाबन्दी लगती है पुस्तक पर. ऐसे भी देश हैं जहाँ के शासक डरते हैं कि पुस्तक छपेगी तो उनके झूठ का पता लगेगा. यदि पुस्तक में शक्ति न होती तो तस्लीमा की किताब पर बांग्लादेश में या यहाँ पाबन्दी क्योंक लगती? यदि छपने पर वही स्थिति रहती है तो पाकिस्तान, चीन, सोवियत संघ जैसे देशों में पुस्तक पर पाबन्दी क्योंप लगाई जाती है? मतलब यही है कि पुस्तक में मानस को परिवर्तित कर सकने की अदम्य शक्ति है. बीसवीं सदी की जहाँ अनेक उपलब्धियाँ हैं, वहाँ सबसे बड़ा अभिशाप शायद यह है कि सबसे अधिक संख्या में पुस्तकें जलाई गईं, पाबन्दियाँ लगाई गयीं—क्योंकि शासक शब्द से डरते थे. यह कहना गलत है कि सम्प्रेषण का संकट है. भारत जैसे देश में जहाँ साक्षरता की कमी है, अधिक लोग बहुत किताबें नहीं पढ़ सकते, आज भी हज़ारों-लाखों लोग सत्संग, धार्मिक समारोहो, उत्सवों आदि के माध्यम से रामायण, महाभारत आदि लिखित पुस्तकों से शक्ति व ज्ञान प्राप्त करते हैं, इन महाकाव्यों की कहानियों से अनुप्राणित होते हैं.

तब मैंने आज के लेखन में भाषा के स्तर पर व्याप्त लापरवाही और अन्य दुर्बलताओं के बारे में निर्मल जी की राय जाननी चाही थी. प्रश्न होते-होते सुनने को मिला—

संकट यह नहीं है. सही प्रश्न नहीं है यह. सही प्रश्न आपको यह पूछना चाहिए कि पचास-पचपन वर्ष बाद भी हम भारतीय भाषाओं के भीतर उतनी स्वावलम्बी चेतना पैदा क्यों नहीं कर सके कि सृजन, चिन्तन, संचार, दफ़्तर आदि के कामों के लिए सीधे-सीधे अँग्रेज़ी पर निर्भर न करके, वह सब स्वयं सम्पन्न कर पा सकने की स्थिति में होते? यह सबसे बड़ा संकट है, भारतीय संस्कृति के लिए और लज्जास्पद बात है. जहाँ चीन, जापान, वियतनाम जैसे देश भी अपनी भाषाओं में दूसरी भाषाओं के साथ संवाद कर पाते हैं, वहाँ आज भी हम अपने को अँग्रेज़ी पर निर्भर पाते हैं. वर्ष में केवल एक दिन हम हिन्दी दिवस मनाकर अपनी ज़िम्मेदारी से छुटकारा पा लेते हैं, जबकि तकाज़ा यह है कि हम हर दिन अपनी भाषा में काम करने में समर्थ हो सकें ताकि हर दिन हिन्दी-दिन मनाया जा सके. यहाँ अँग्रेज़ी या उसके साहित्य की अवहेलना करना मेरा आशय नहीं है और न उन लेखकों को किसी भी तरह नीचा दिखाने की इच्छा है जो अँग्रेज़ी में कविताएँ या उपन्यास लिखते हैं. उनमें से अनेक उत्कृष्ट कवि और लेखक हैं.

पर भाषा का प्रश्न केवल साहित्य तक ही सीमित नहीं है. एक पूरी संस्कृति के मर्म और अर्थों को सम्प्रेषित करने की सम्भावना उसके भीतर अन्तर्निहित है. भारत में एक समय में समूची संस्कृति के सार्वभौमिक सत्य को संस्कृत भाषा में व्यक्त किया जाता था. उन्नीससवीं शताब्दी में जब यह प्रश्न अँग्रेज़ी शासकों के समक्ष आया कि कौन भाषा शासकीय हो, तो उनमें से कुछ लोग संस्कृत को शासकीय भाषा बनाना चाहते थे. पर फिर कुछ औपनिवेशिक शासकों ने कुछ स्वार्थों के कारण अँग्रेज़ी को ही शासकीय भाषा बनाना सही समझा क्यों कि वे भारत के शिक्षित वर्ग को अपनी परम्परा से उन््मी लित करके पश्चिम की वैचारिक दासता से मुक्त नहीं करवा सके हैं. इसके बारे में समूचे बुद्धिजीवी वर्ग और हमारे शासक वर्ग को गम्भीरता से सोचना चाहिए. यदि हम वैचारिक रूप से स्वयं अपनी भाषा में सोचने-सृजन करने की सामर्थ्य नहीं जुटा पाते, तो हमारी राजनीतिक स्वतन्त्रता का क्या मूल्य रह जाएगा?

कुछ दिन पहले मैंने निर्मलजी के उपन्यास अंश के साथ यह घोषणा पढ़ी थी कि वे इन दिनों ‘लाली बुआ’ उपन्यास पर काम कर रहे हैं. शीर्षक के बुआ शब्द के आधार पर मैंने निर्मलजी से जानना चाहा था कि क्या अब उनका लेखन अतीत से जुड़े कुछ ख़ास रिश्तों पर केन्द्रित होना चाह रहा है?

—एक अंश से समूचे उपन्यास के बारे में धारणा नहीं बना सकते. अभी अधूरा है वह. पहला ड्राफ्ट है. लिख रहा हूँ, अन्तिम रूप क्याक होगा, अभी यह कहना नामुमकिन है. उतना अंश पढ़कर पूरे का अनुमान नहीं लगाया जा सकता. उसमें विभिन्नछ परिवारों के सदस्यों के वैयक्तिक जीवन और उनके अन्तःसम्बन्धों को व्यक्त करने का मैंने प्रयास किया है. लेकिन वह अभी कच्ची और अधूरी शक्ल में मौजूद है. वह छोटा, अधूरा हिस्सा पढ़ा है आपने…

आपके लेखन में कुछ अनुभव, स्थितियाँ, चित्र, दृश्य बार-बार, बहुत बार आते हैं—जैसे प्रकृति, अकेलापन, निर्वासन, उदासी, प्रतीक्षा करुणा, मृत्यु…?

इतना सुनकर ही हँसने लगे हैं. देर तक हँसे हैं. पहले दिन यह नहीं सोच सका था कि निर्मलजी को इस तरह हँसते हुए भी मैं देख सकूगा. लगा कुछ ग़लत पूछ लिया क्या? पर उनके बोलने के साथ ही यह लगना स्वयं ही बन्द हो गया.

—मृत्यु! मृत्यु भी बार-बार आती है. पात्रों का जीवन अनवरत रूप से चलता है. मैं किसी ख़ास विषय पर केन्द्रित नहीं करना चाहता—प्रेम, मृत्यु या अन्य किसी अभाव पर. ये सारे प्रसंग मनुष्य के जीवन में केन्द्रित अर्थ रखते हैं. बीमारी, बुढ़ापे, मृत्यु को देखकर गौतम बुद्ध का सारा जीवन बदल गया था. कथा-साहित्य में आप इन तीन चीज़ों की उपेक्षा कैसे कर सकते हैं? यदि मैं इन विषयों पर बार-बार लौटता हूँ तो यह वैसा ही है जैसे एक पक्षी अपने घोंसले से सुबह उड़ता है और शाम को वापस लौट आता है…तब अगर कोई आलोचक कहे कि पक्षी कैसा है, बड़ा मूर्ख है—शाम-सुबह इसके अलावा और कुछ आता नहीं इसको. इस तरह की साहित्यिक आलोचना के बारे में सोचना चाहिए. ऐसी सतही बातें नहीं करनी चाहिए साहित्य के बारे में. शाश्वत प्रश्न हैं ये—प्रेम, मृत्यु, सम्बन्ध, सम्बन्ध-विशृंखलता, सम्बन्धों की उपस्थिति, अभाव. हम इन प्रश्नों से कैसे छुटकारा पा सकते हैं? देखना यह है कि लेखक इनको नए सम्बन्धों में उजागर कर पाता है या नहीं. हर लेखन करता रहा है इनकी अभिव्यक्ति. सृजनात्मकता इसी में निहित है कि वह पुराने सन्दर्भों को नया अर्थ दे सके. शान्ति, अहिंसा की बातें उपनिषदों में भी कही गई हैं, महाभारत में भी है, बहुत वर्षों बाद गौतम बुद्ध ने भी दोहराई, शताब्दियों के अन्तराल के बाद गाँधी ने नया अर्थ दिया. तो क्या आप इसे दोहराना कहेंगे. वे दोहरा भी रहे थे, सृजनात्मकता भी दे रहे थे. गाँधी की रचनात्मकता ही इसमें निहित है कि अहिंसा को उन्होंने सत्याग्रह के अस्त्र के रूप में पहली बार प्रस्तुत किया. मेरे विचार में यह आविष्कार उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना कि किसी वैज्ञानिक का. हम परम्परा से अलग होकर लिखते हैं, न कि उसकी नक़ल करते हैं. उसके भीतर रहते हुए उसमें अपने समय की परिस्थितियों के अनुकूल नया अर्थ ढूँढ़ते हैं. तो आपको देखना यह है कि लेखन ने ऐसा किया है या नहीं? यदि नक़ल है तो किसी लेखक की किताब आप क्योंक पढ़ें? वह सब पहले ही पढ़ चुके हैं आप. पर यदि पाते हैं कि उसने मानवीय संवेदनाओं को नया रूप दिया है तो वह पुरानी होते हुए भी नई चीज़ बन जाती है. मृत्यु शाश्वत है, पर हर मृत्यु अलग विशिष्ट है. मृत्यु के प्रश्न को अनेक साहित्यकारों ने उठाया. जैनेन्द्र उठाते रहे, पुराने साहित्य ने उठाया—तो पूछना, देखना यही चाहिए कि उसने नया क्या दिया, नया क्या जोड़ा? मनुष्य जन्म लेता है तो उसके दो हाथ, दो पैर, दो कान…ही तो होंगे. अब आप कहें कि अरे यह तो हर बार वही मनुष्य है. अरे भई वो अलग थोड़े ही होगा… .

भाषा-अलंकरण के अवयवों, दृश्यों, रंगों आदि को लेकर रचनाकार की अपनी रुचियाँ और पसन्दें कभी-कभी इतनी प्रभावी हो जाती हैं कि उसके लेखन में ये बार-बार आ उपस्थित होती हैं. कुछ ख़ास रंगों, शब्दों, बिम्बों आदि के सन्दर्भ में क्यात अपने लेखन के बारे में कभी इस दृष्टि से आपने सोचा है?

—मेरे लिए यह बताना मुश्किल है. मैं अपने बारे में अधिक नहीं सोचता. जब मैं लिखता हूँ, एक विषय के अनुरूप लिखने की उस प्रक्रिया में जो शब्द, बिम्ब आते हैं, उनका इस्तेमाल करता हूँ. शुरू में कोई बिम्ब लेकर नहीं चलता कि उसे ही इस्तेमाल करूँ. नहीं, कोई प्रिय-अप्रिय उपमा-बिम्ब नहीं—वही जो उपयुक्तस है और मेरे भावों को व्यक्त करने में समर्थ हो सके. न मैं यह चाहता हूँ कि भाषा में अलंकारों, बिम्बों की बहुत भरमार रहे. मैं ऐसा समझता हूँ कि भाषा में जितनी अधिक सादगी रहेगी, उतनी ही अधिक मार्मिक रूपों में वह भावों को शब्दों में व्यक्त कर पाएगी. जिस सीमा तक वह लेखक के प्रयोजन को पूरा करती है, उसका प्रयोग सार्थक होता है. यह कहते दुख होता है कि जिस भाषा में हमारे साहित्य का सृजन होता है, जिसके माध्यम से एक साहित्यिक कृति अपना वैशिष्ट्य प्राप्त करती है, हममें से अधिकांश अपनी उसी हिन्दी भाषा के प्रति उदासीन और असावधान रहते हैं और सोचते हैं कि भाषा के बारे में सोचना एक कलावादी विलास है. यह वैसी ही दृष्टि है कि कोई मोटर में सैर करना चाहे पर मोटर के भीतर की मशीनरी को मैला-कुचैला रखे और उस पर ध्यान न दे. भाषा में एक सृजनात्मक कृति की समस्त चालक शक्तियाँ निहित होती हैं, जिनके प्रति उदासीन होने का मतलब है स्वयं कला के प्रति उदासीन होना. साहित्य-भाषा सिर्फ़ एक माध्यम मात्र नहीं है, माध्यम होने पर भी वह एक स्वायत्त शक्ति रखती है. इसलिए हम उसकी ओर बार-बार लौटते हैं. किसी ख़ास कृति को बार-बार पढ़ते हैं. एक बार के बाद यह नहीं कहते कि इस कलाकृति की उपयोगिता समाप्त. प्रसाद, पन्त-, निराला या अज्ञेय की कविताओं की ओर यदि हम बार-बार लौटते हैं तो मतलब यह है कि वह सब हमें आलोचकों से नहीं मिलेगा, जो हमें उन शब्दों, उन रचनाओं से गुज़रने से मिलेगा.

स्वायत्त शक्ति… कैसे…? मैं पूरी तरह कह भी नहीं पाया था कि जैसे वे मेरा आशय समझ चुके थे. बताना जारी था—

भाषा सीखनी नहीं, इसके प्रति संवेदनशीलता उत्पन्न करनी पड़ती है. हर शब्द की अनेक अर्थ ध्वनियाँ निकलती हैं और वह अलग-अलग सन्दर्भों में अपना रचनात्मक रूप बदलता रहता है. उस शब्द को किसी स्थान पर रखकर, प्रयुक्तम करके अचानक एक अप्रत्याशित अर्थ प्रकट कर देने की क्षमता यदि किसी के पास होती है तो वह बड़ी क्षमता है, उपलब्धि है. तब पाठक के तौर पर हम सोचते हैं कि हमने सोचा नहीं था कि ऐसा भी प्रयोग सम्भव है. पारम्परिक रूप में हम शब्दों को एक ढाँचे में रखते हैं. दुकानदार से कुछ ख़रीदते समय, डॉक्टर से इलाज कराते समय या दफ़्तर में हम इसी तरह की पारम्पारिक, टकसाली भाषा प्रयोग करते हैं. साहित्यिक कृति में शब्दों की भूमिका बदल जाती है. वह सिर्फ़ उपयोगितावादी नहीं रहती. साहित्यिक कृति में शब्द माध्यम से ऊपर उठकर शक्ति का स्रोत बन जाता है. यह सबसे बड़ी बात है. सत्य पाने का माध्यम न होकर वह अपने में एक सत्य रूपायित करता है और उस सत्य को पाने के लिए हमें कविता में उसी शब्द के पास जाना होगा. अगर हमें निराला के काव्य में इन शब्दों के आनन्द के पास जाना है तो निराला की इस कविता के पास बार-बार जाना होगा—’बाँधो न नाव इस ठाँव बन्धु/ पूछेगा सारा गाँव बन्धु….’ और कहीं इसका विकल्प नहीं मिलेगा.

कलाइयाँ ऊपर की ओर उठकर हथेलियों को ऊँचे, और ऊँचे ले जा रही हैं. संधि स्थल से ऊपर की ओर मुड़ी उँगलियाँ हिल-झूम कर नृत्य-सा करती लग रही हैं. चेहरे पर भावभरी मुद्रा निर्मलजी की रीझ को बता रही है. कई बार दोहराई गई हैं ये पंक्तियाँ. और कुछ सुनाना चाह रहे हैं. याद करने में समय लगा है. रीझ् और बढ़ चली है. सुनाने में दाद देने जैसा भाव आ मिला है. बन्द आँखों, कलाइयों, हथेलियों और उँगलियों की मुद्राएँ—सुनाई पड़ता है—’वो पंक्ति है न—हाँ, हाँ, देखिए, देखिए—प्रभु जी मोरे अवगुन चित न धरौ,…’ विगलित-से, गलदश्रु-से. श्रद्धा-पगा स्वर. ख़ास हो गया था वह क्षण! मैं एक रीझ को रीझते देख रहा था.’

— देख रहे हैं आप? हर शब्द में रस, सौन्दर्य और सत्य है. ये तीनों अविच्छिन्न रूप से एक दूसरे के साथ जुड़े हैं. क्या कला के इस अनुपम सत्य को हम कलावादी कहकर ख़ारिज कर सकते हैं?

बोलना रुका तो, क्या. हुआ देखने को सामने देखा. उनकी निगाह चुपचुप घड़ी के पास से लौट रही थी— “अब थक गया हूँ. बस, दस मिनट और. आप भी तो थक गए होंगे.’ थकने की बात पर पूछ बैठा कि आप टहलने जाते हैं क्या?

—_हाँ, पहले जाता था. बाहर रहा तो रूटीन बिगड़ गया. अब घूमने नहीं जा पा रहा हूँ.

समय की आपत कटौती की अचानक घोषणा ने मुझे हड़बड़ा दिया है. जल्दबाज़ी में तब मैंने उनसे उनके लिखने की प्रक्रिया लेखन सम्बन्धी अनुकूलताओं-प्रतिकूलताओं, लेखन के सर्वाधिक सन्तोषप्रद क्षण तथा भावी योजनाओं एवं महत्त्वकांक्षाओं के बारे में छोटे-छोटे सवाल किए थे. बीच में कई बार उन्होंने घड़ी की तरफ़ देखा था. बातचीत को रोक दिए जाने की अपनी इच्छा पर रोक लगाते हुए मेरा मन रखा था, मेरी ज़िद रखी थी. वे तब कहानी व उपन्यास के लिखने के समय के अपने अनुभव और अन्तर के बारे में बता रहे थे— “सच यह है कि एक बना बनाया आकार एक ब्लूप्रिंट के रूप में मेरे सामने कभी नहीं आता, अपनी कहानी के कलेवर को मैं टुकड़ों-टुकड़ों में ही देख पाता हूँ. कभी एक कहानी को शुरू करते ही अन्त का आभास मिलता है, पर कभी यह अन्त वही नहीं रहता जिसका मुझे आभास हुआ था. कहानी मेरे लिए लगे-बँधे विचार से उत्पन्न नहीं होती और शायद ही कभी इस बात से कहानी का सूत्रपात होता हो कि मैंने सचेतन रूप से किसी विशेष विषय के बारे में लिखने का संकल्प किया हो. एक वाक्य में कहा जाए तो मेरे लिए कहानी धुँधली अनुभूतियों के प्रदेश को शब्दों के आलोक में देखना है. दूसरी इसके साथ जुड़ी चीज़ यह है कि ये अनुभूतियाँ, जुड़ने के बाद कोई ऐसा ख़ास पैटर्न या अर्थ-व्यवस्था बन सकती है, जो मेरे द्वारा आरोपित न होकर स्वयं इन अनुभूतियों के भीतर से सहज गति से उजागर होती हो. और तीसरी चीज़ जो अन्तत: मुझे सन्तोेष देती है, वह यह कि अगर अनुभूतियों के इस पैटर्न या अर्थ-व्यवस्था के भीतर से मनुष्य जीवन के बारे में कोई ऐसा सत्य उपलब्ध हो सके जो केवल इन्हीं अनुभूतियों के अन्तस्सम्बन्धों से उत्पन्न हो सकता था. इस सत्य का सम्बन्ध किसी ऐसे आनन्द, शान्ति या समाधान को प्राप्त करने के सुख से नहीं है, जो अक्सर हमें आध्यात्मिक, धार्मिक या दार्शनिक पुस्तकों में मिलता है. मेरे लिए यह पर्याप्त होगा कि यदि यह सत्य हमें सनुष्य के भीतर उमगने वाली अजीब विडम्बनाओं और अन्तर्द्वंद्वों से साक्षात करवा सके, जो अभी तक अँधेरे में छिपी थीं. उन्हें अँधेरे से उजाले में लाना, चाहे उनका चेहरा कितना ही वीभत्स, भयानक या कटु क्योंड न हो. यही महत्त्वपूर्ण नहीं है, महत्पूर्ण यह है कि उजाले में आकर क्याभ ये मनुष्य के बिम्ब या मनुष्य के स्वरूप के बारे में कुछ ऐसा जोड़ पाता है—जिस सत्य के बारे में मनुष्य ने कभी सोचा नहीं था. आपके दूसरे प्रश्न का उत्तर है— वह कहानी मुझे सन्तोंष दे पाती है जो इस तरह उजाले में लाने में समर्थ हो पाती है. तब मुझे लगता है कि मैंने उस बिम्ब को थोड़ा-सा मूर्तिमान कर लिया जिसका आभास कहानी लिखने से पहले मैंने किया था.

हाँ, आजकल—यह जो उपन्यास है अभी अधूरा—उसे पूरा कर रहा हूँ. पुणे में साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन होने वाला है, वहाँ अध्यक्षीय वक्तव्य देना है, उस पर काम कर रहा हूँ. एक कहानी संग्रह तैयार करने की गहरी इच्छा है. पिछले महीने भोपाल में—साहित्य में विचार कैसे प्रवेश करता है—इस विषय पर एक निबन्ध पढ़ा था. अक्सर कहा जाता है कि साहित्य, कला अनुभूति का क्षेत्र है और दर्शन-चिन्तन विचार का. इस निबन्ध में मैंने यह बताने की कोशिश की कि अनुभव और विचार में इस तरह वर्गीकरण करना ग़लत है. इससे सृजन और कलात्मक कृति कमज़ोर पड़ती है. पर विचार उसी रूप में कला में प्रविष्ट नहीं होता जैसा कि दर्शन-चिन्तन में वह होता है. कविता और कहानी में उसकी छाया अत्यन्त परोक्ष व सूक्ष्म ढंग से पड़ती है. वहाँ वह किसी सिद्धान्त को साबित करने के लिए नहीं प्रवेश करता, बल्कि किसी अनुभव को एक अप्रत्याशित दिशा में मोड़ सकने में ज़रूर योगदान देता है.

देखिए, अब बस!

6:30 में अभी पाँच मिनट बाक़ी थे. और उस दिन का आख़िरी सवाल निर्मल जी ने ही किया था. शायद, शायद इसलिए कि मैं अब और सवाल न करूँ….”आप टेपरिकॉर्डर नहीं रखते? अच्छा है, ठीक है… इतना लिख ही लेते हैं… बहुत अच्छा है….”

निर्मल जी अपनी लय, फुर्ती, अनुशासन और प्रसन्न मुस्कान के साथ हाथ जुड़ी मुद्रा में दरवाज़े पर खड़े थे. प्रणाम निवेदन और आभार प्रदर्शन के बाद जब मैं बाहर आया तो मेरी निगाहें एक बार फिर दीवार की उन आकृतियों और पानी भरे मिट्टी के उस पात्र तक गई थीं. यह सोचकर सिहरन-सी हुई कि मैं एक नहीं, दो-दो साहित्य-साधकों की साधना स्थली के, एक पवित्र तीर्थ के दर्शन करके लौट रहा हूँ.

(इस इंटरव्यू का शुरुआती हिस्सा पढ़ने के लिए क्लिक करें)

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