बेसबब नहीं अपनी जड़ों की तलाश की बेचैनीः राजमोहन

  • 6:23 am
  • 15 November 2019

सरनामी-भोजपुरी में कविताएं और गीत लिखने वाले पॉप गायक राजमोहन मानते हैं कि आप दुनिया में कहीं रहें, कुछ भी करें मगर अपनी सांस्कृतिक पहचान के बिना आपका कोई वजूद नहीं. प्रवासी भारतीयों में अपनी जड़ों की तलाश को लेकर बेचैनी की एक बड़ी वजह यह भी है.

हालांकि राजमोहन ने यह बात गिरमिटिया की मौजूदा पीढ़ियों के संदर्भ में कही मगर इसे व्यापक संदर्भ में भी लागू किया जा सकता है.

सूरीनाम में जन्मे और नीदरलैंड में रह रहे राजमोहन पिछले दिनों कुशीनगर के जोगिया जनूबी पट्टी गांव में ‘लोकरंग’ के ‘गिरमिटिया उत्सव’ में शरीक हुए. उनके पुरखे बस्ती ज़िले में हरैया के एक गांव से गिरमिटिया मजदूर के तौर पर सूरीनाम गए थे. राजमोहन के गीत अपने पुरखों की पीढ़ी के इतिहास और उनके संघर्षों की संवेदना भरी अभिव्यक्ति हैं. वह भारतीय शास्त्रीय संगीत में दीक्षित हैं मगर पहचान पॉप गायक की ही है. बकौल राजमोहन, वह चाहते हैं कि ग़ैर-हिन्दी या ग़ैर-भोजपुरी भाषी भी उस भावना को समझने की कोशिश करें, जिसमें उनके गीत पगे हैं. ‘दुई मुट्ठी एक दिन के मजूरी..’ या ‘सात समुंदर पार कराइके, एक नवा देस के सपना देखाइके के..’ सरीखे उनके गीत हिन्दुस्तान में भी ख़ूब मक़बूल हुए हैं. गांव में बातचीत के दौरान गिरमिटिया समाज की संस्कृति, नवाचार और उनके सपनों के साथ ही जड़ों की तलाश की उनकी बेकली जैसे सवालों पर उन्होंने बेबाकी से अपनी राय दी.

बकौल राजमोहन, ‘अगर आप अपना अतीत नहीं जानते तो भविष्य की भूलभुलैया में खोकर रह जाएंगे. आपके मूल की पहचान ही आपका समूचा अस्तित्व गढ़ती है.’ अपने अनुभवों के हवाले से कहते हैं कि मैं गोरा तो हूं नहीं, सूरीनाम में पैदा हुआ हूं, वहां अफ़्रीकी थे, इंडोनेशियन और चीनी थे. उनके रहन-सहन, बोली-बात और व्यवहार से मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि वे हमारे जैसे लोग हैं. तो इसका मतलब हमारी कोई अलग पहचान है. हमारा खान-पान, भाषा, तीज-त्योहार, मुंडन-ब्याह के संस्कार, बैठकगाना या फिर नात शरीफ़ हमें हमारी पहचान देते है. शादी के मौक़े पर हम सब कोंहड़ा या भाटा की तरकारी के साथ, चटनी, दाल या कढ़ी के साथ रोटी या पूड़ी खा रहे होते हैं. धीरे-धीरे समझ में आने लगा कि यह सब हमारी पहचान का हिस्सा है. और यह भी कि आपकी अपनी पहचान बहुत ज़रूरी है, बशर्ते आप ख़ुद को उस मिश्रित संस्कृति का हिस्सा न मान बैठें हों, जहां आप अल्पसंख्यक हैं मगर अपने आपको को उन्हीं में से एक समझने लगे हैं.

अल्पसंख्यकों में नई क़िस्म की चेतना के उभार को वह कई तरह के ऐसे सामाजिक बदलावों-सवालों की परिणिति मानते हैं, जिनसे प्रवासी कभी न कभी दो-चार होते हैं. कहते हैं कि आप परदेस में पैदा हुए हैं, उन्हीं के जैसी बोली-बानी, खान-पान और संस्कार अपना लेने से, उस मुल्क का पासपोर्ट होने भर से आपकी स्वीकार्यता भी हो, यह ज़रूरी नहीं है. मौक़ा पड़ने पर आपको तमाम तरह के सवालों के जवाब भी देने होते हैं. मसलन, कोई पूछ बैठे कि कौन हो, कहां से आए तो यह बताकर पीछा नहीं छुड़ा सकते हैं कि आप वहीं जन्में हैं या आपके मां-बाप सूरीनाम के हैं. फिर सवाल आएगा कि आप तो हिन्दुस्तानी लगते हैं. हिन्दुस्तान में कहां से आए? ज़रूरी नहीं कि इन सवालों का कोई ख़ास मक़सद हो मगर आपको यह अहसास दिलाने के लिए के लिए काफी है कि उनके मुल्क़ में आप ग़ैर हैं, बाहरी हैं. आख़िकार आपको यह अहसास होना ही होना है कि जिन लोगों के बीच आप रहते आए हैं, आपकी सांस्कृतिक पहचान उनसे अलग हैं. यही सवाल सूरीनाम में किया जाए तो आपके बताने पर कोई जिज्ञासु कह सकता है – अच्छा तो तुम्हारे पुरखे इंडिया से आए थे. सो यू पिपुल आर इमिग्रेंट्स. डेढ़ सौ साल हो गए मगर हम अभी तक इमीग्रेंट्स ही हैं. तो ऐसे में अगर आपको यह पता न हो कि आप कौन हैं तो यह कैसे तय करेंगे कि आपकी दिशा क्या हो, किस तरफ जाएं?

और अगर यह भी न मालूम हो कि हिन्दुस्तान में कहां से? तो मुंह लटका के घर लौट आएंगे. और घर में मां को पता हो तभी तो वह बताएं. तब आप अचानक बेचैन हो उठते हैं. चालीस-पचास साल की उम्र में सिर्फ़ अफ़सोस हाथ आता है. आपको अच्छा लगे या न लगे, मगर सच तो यही है. राजमोहन याद करते हैं कि ऐसे कई लोग हैं, जो इस तरह के हालात से दुखी होकर उनके पास आते हैं और सुकून की ख़ातिर उनके गीत सुनने की ख़्वाहिश जताते हैं. साथ ही यह अफसोस भी कि उन्होंने वह भाषा नहीं सीखी. वह कहते हैं कि हालांकि धीरे-धीरे हालात बदल रहे हैं मगर वे क्यों बदलना चाहेंगे? जिनके हाथ में ताक़त है, कुर्सी है वे भला आपको भाव क्यों देने लगे? ‘यानी आप इधर के हुए, न उधर के. तो यह चेतना बहुत ज़रूरी है. हम सब मिलकर इसी दिशा में काम कर रहे हैं – सूरीनाम गए पुरखों के रिकॉर्ड डिजिटाइज़ हुए हैं, प्रवासियों के इतिहास पर किताबें लिखी रही हैं और संगीत के ज़रिये भी. सवाल पूछने वालों के इरादे भले नेक न हों, मगर मुझे इसमें फ़ायदा दिखाई देता है. वे दस क़िस्म के सवाल करते हैं तो कम से कम हमें सोचने को मजबूर तो करते हैं.’

कहते हैं कि नीदरलैंड में अभी राइट विंग की हवा चल रही है. वे हमें वहां नहीं चाहते. दरअसल गोरों के अलावा तो वे किसी और को वहां चाहते ही नहीं. मगर इसका फ़ायदा यह हुआ कि हमारी नई पीढ़ी अपनी पहचान के बारे में सजग हुई है, सोचने लगी है. ऐसे में हिन्दुस्तान की तरफ़ से हुई कोशिशों को राजमोहन कारगर मानते हैं. भारत के विश्वविद्यालयों में गिरमिटिया संस्कृति और इतिहास पर शोध के साथ ही इन विषयों पर लिखी गई किताबें चेतना के विकास का माध्यम बन रही हैं. लोगों को पता तो चले कि हमारा साझा इतिहास क्या है? वह प्रधानमंत्री के दौरे का उदाहरण देकर बताते हैं कि जब उन्होंने मंच से पूछा, ‘का हाल बा’ तो लोग यह सोचकर ही अभिभूत हो गए कि उनके पुरखों के देश से कोई उनका हाल पूछने आया है.

दिन में ‘गिरमिटिया लोक संस्कृति का पुरबिया संबंध’ विषय पर विमर्श में वरिष्ठ कथाकार जय प्रकाश कर्दम ने जातिविहीन गिरमिटिया समाज की छवि के विपरीत मॉरीशस में आर्य महासभा, राजपूत महासभा, क्षत्रिय राजपूत महासभा सरीखे संगठनों की मौजूदगी पर सवाल उठाते हुए तर्क दिया कि सिर्फ 92 गांवों वाले मॉरीशस में करीब दो हजार मंदिर हैं. यह भी कि वहां हिन्दी बोलने वाला ही हिन्दू माना जाता है, मराठी या तमिल भाषी नहीं. और समाज का यह वर्गीकरण मॉरीशस के आजाद होने के बाद हुआ. संस्कृति को संजोने का काम वहां का श्रमिक वर्ग ही कर रहा है. इस वक्तव्य के हवाले से सूरीनाम में प्रवासी समाज के बारे में पूछने पर राममोहन कहते हैं, गोरों को तो खेतों में खटने वाले लोगों की ज़रूरत थी और सवर्ण इस खांचे भी किसी तरह फिट नहीं होते थे. तो हुआ यह कि कुछ ऊंची जाति वालों ने ख़ुद को पिछड़ा बताकर जहाज का टिकट हासिल कर लिया और अपनी मिट्टी की चेतना साथ ले गए कुछ नीची जाति वालों ने भी सूरीनाम पहुंचकर ख़ुद को ब्राह्मण घोषित कर दिया. और फिर लगे जात-पांत करने. मगर पिछले सौ सालों में सूरीनाम में यह सब ख़त्म हो गया है. बकौल राजमोहन, ‘मेरी समझ में वहां दो तरह के लोग रहते हैं, एक तो इंसान और दूसरे ब्राह्मण. आप इस बात से अंदाज़ लगा सकते हैं कि वहां के समाज में ‘जहाजी ब्राह्मण’ विशेषण के तौर पर ख़ूब प्रचलित है यानी वे जिनके बारे में माना जाता है कि वे जहाज पर ब्राह्मण हो गए थे. और धर्म तो घोटाला होता ही है. वह धंधा है और उनका अपना धंधा चल रहा है, बस.’

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