मोहन राकेश सुशीला जी की नज़र में

  • 3:10 pm
  • 18 December 2022

(मोहन राकेश की डायरी में उनकी पहली पत्नी सुशीला के बारे में मुख़्तसर-सी बातें मालूम होती हैं, वह भी संबंध-विच्छेद के मसले पर. अलग होने के बाद देहरादून चली आईं सुशीला जी ने नवनीत डोभाल से ब्याह कर लिया और नौकरी के साथ ही सामाजिक कार्यों में जुटी रहीं. बरसों पहले उनसे यह छोटी-सी मुलाक़ात उनकी शख़्सियत को रेखांकित करती है, साथ उनकी नज़र से मोहन राकेश की शख़्सियत का पता भी देती है. -सं)

विद्यार्थी जीवन से ही मेरे मन में मोहन राकेश के रचनाकार के प्रति प्रशंसा का भाव रहा है. उनके कुछ पात्रों के प्रति सम्मोहन से उन दिनों मन को महीनों मुक्ति नहीं मिला करती थी. बाद में उनकी व्यक्तिगत ज़िंदगी के बारे में कुछ और पढ़-जान कर, राकेश जी की ज़िंदगी में आये लोगों से मिलने, बातें करने की अक्सर चाह होती रही है. ‘चन्द सतरें और’ की किस्तें ‘सारिका’ में पढ़ते समय अनीता औलक से मिलने को बहुत मन हुआ था, पर सम्भव न हुआ. कई बार के असम्भव को इस बार मैं अलग तरह से सम्भव होते देखना चाहता था. इसीलिए देहरादून जाना हुआ तो मैंने राकेश जी की पूर्व पत्नी सुशीला डोभाल जी से मिलने की कोशिश की. जिस कॉलेज में मौखिकी की परीक्षा लेने गया था, वहाँ की हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ.कनक शुक्ला के आत्मीय सहयोग से देर रात फ़ोन करके मिलने का समय ले पाना सम्भव हुआ. डॉ.शुक्ला सुशीला जी के व्यक्तित्व के कई पक्षों की प्रशंसा करती रहती थीं. उन्होंने ही मुझे वहाँ के एक प्रतिष्ठित एडवोकेट डोभाल जी से सुशीला जी के बाद में विवाह कर लेने की बातें बताई थीं. उनसे यह जानना सुखद था कि देहरादून में सुशीला जी का उनके व्यक्तित्व और सामाजिक कार्यों के चलते अद्भुत सम्मान है. मुझे ज्ञात था कि वे देहरादून के प्रतिष्ठित कन्या महाविद्यालय की प्राचार्य रही हैं और उन्होंने गढ़वाल विश्वविद्यालय के कार्यवाहक कुलपति के रूप में कुछ दिनों कार्य करके सम्मान पाया है. फ़ोन पर मैंने उनके अध्यापन काल के अलीगढ़ से जुड़े हिस्से का स्मरण कराते हुए अपनी इच्छा बताई थी, ‘वर्षों से मेरा आपसे मिलने का मन है. आपने बहुत पहले शुरू में टी.आर.कॉलेज, अलीगढ़ में भी कुछ दिन पढ़ाया था. मैं अलीगढ़ से आया हूँ.’

‘हाँ, हाँ! आप आ जाइए! ठीक है, कल मौखिकी कराकर लौटते समय पाँच बजे.’
उन्होंने जरा भी देर नहीं लगाई, ज़रा भी टाला नहीं. मीठी, आकर्षक, स्नेहपूर्ण, उत्साहित आवाज़. फ़ोन रखने से पहले वे पहुँचने का तरीक़ा और घर का रास्ता बताना नहीं भूली थीं.

इसके बाद से मोहन राकेश की पत्नी रही एक शख़्सियत से मिलने की ख़ुशी और उत्साह ने मन में विचित्र प्रकार का आवेग और आतंक भरना शुरू कर दिया था. भवन की भव्यता ने आतंक व संकोच में अपनी तरह से वृद्धि की थी. देहरादून के अति श्रेष्ठ हिस्से में, क्रॉस रोड से सटी खड़ी दो मंज़िला आलीशान इमारत पर नवनीत डोभाल की नेम प्लेट लगी थी. घंटी बजाने पर दरवाज़ा दो प्यारे बच्चों ने खोला था. सोफ़े पर बैठकर उनके आने का इंतज़ार करते समय तक आतंक व संकोच की गिरफ़्त ढीली नहीं हुई थी.

वे मुस्कुराते हुए कमरे में प्रविष्ट हुईं. ‘बैठिए! बैठिए!! अरे, पंखा नहीं चलाया?’ बैठते ही पानी और चाय का आदेश. ‘आप इधर बैठिए! यहाँ धूप आ रही है.’ ख़ुद उठकर पर्दा खींच दिया. आत्मीय, स्नेहपूर्ण अन्दाज़ में जल्दी-जल्दी बोले जा रहे मधुर-मधुर शब्द! उन्हें देखते-सुनते हुए मैं अपनी बात कहने का अवसर तलाश रहा था. धवल वस्त्र, श्वेत केश. आकर्षक, स्वस्थ-सुव्यवस्थित, शालीन व्यक्तित्व. लकदक नहीं, आभूषण नहीं. कानों में कुंडल नहीं, पैरों में बिछुए नहीं. चेहरे की आभा बढ़ाता हुआ गोल्डन फ़्रेम का चश्मा. भीतर के किसी तेज़ से जैसे सारी देह रोशन थी, दमक रही थी. उम्र का बोझ और आतंक कहीं दूर तक नहीं. उन्होंने अपनी तरफ़ से ही डी.ए.वी. कॉलेज के हिन्दी विभाग के बारे में पूछना शुरू कर दिया. मुझसे घर-परिवार-बच्चों के बारे में कई सवाल किये. मैं उनके बोले हर शब्द को लिख लेने के लिए आतुर था. बड़ी हिचक के साथ मैंने कुछ प्रश्न करने और उन्हीं बातों को लिखने की अनुमति माँगी. ‘ क्यों? क्याु करेंगे आप?’ के बाद आश्वस्त होने की-सी मुद्रा में उन्होंने कहा था, ‘ठीक है.’ तरह-तरह के सवालों का मस्तिष्क में जमघट लगा था.

अपनी व्यस्तताओं और अनुभवों के बारे में कुछ बताइए.
सुबह दस-ग्यारह तक अति व्यस्त होती हूँ. नहाना, कुछ व्यायाम और फिर बच्चों के काम. शाम को शैक्षणिक व अन्य सामाजिक कार्यों की व्यस्तता. सुबह-शाम नातियों के साथ टीवी देखना. आध्यात्मिक पुस्तकें पढ़ना. नातियों के ही इतने काम होते हैं कि पूछिए मत! मैं अब सुख-शान्ति से जीना चाहती हूँ और बच्चों के माध्यम से सुख से जीती हूँ…नहीं, नहीं-यह मोह नहीं है. अपने को बच्चों के साथ बाँट देना है. आप कहीं तो बँटेंगे, व्यस्त होंगे न! कुछ तो करेंगे न! बिना दबाव-तनाव के सुख पाने के लिए बच्चों के साथ जीना एक अच्छा तरीका है. हाँ, यह कार थोड़े दिनों पहले ली है. नहीं, यह अनिवार्यता नहीं है. एक अध्यापक को इन सब चीजों के पीछे दौड़ने की ज़रूरत नहीं है.

क्या आप इन दिनों साहित्य की पुस्तकें या पत्रिकाएँ पढ़ती हैं?
अब मैं और तरह का साहित्य पढ़ रही हूँ. शान्ति के लिए उपनिषद्‌, गीता, महाभारत पढ़ती हूँ. कविता-कहानी बहुत दिनों से नहीं पढ़ी. हिन्दी की कोई अच्छी पत्रिका इन दिनों नहीं दिखती. ‘हंस’ के कुछ अंक देखे, अच्छे नहीं लगे. ‘नवनीत’, ‘सारिका’, ‘धर्मयुग’ जैसी पत्रिकाएँ कहाँ निकल रही हैं अब! ‘कादम्बिनी को देख लें, तन्त्र-मन्त्र से भरी रहती है. क्याध कहें, अब साहित्य का वह स्तर नहीं है. उस दौर में जब धर्मवीर भारती थे, राकेश थे और राजेन्द्र भी रहे, तब तक अच्छा था. कहानी के बारे में बता रही हूँ. राजेन्द्र से अपेक्षाएँ थीं. मन्नू बहुत अच्छा लिखती थीं. आपको पता है, जब राकेश ‘सारिका’ के सम्पादक थे, उसका सम्पादन बहुत अच्छा था. रूप बहुत अच्छा था. अच्छी पत्रिकाओं में ले आये थे वे उसे. बाद में गिरती गयी. हिन्दी की सारी अच्छी पत्रिकाएँ धीरे-धीरे बन्द हो गयों. उस समय की पत्रिकाएँ घर की अनिवार्यता थीं. अब ‘इंडिया टुडे’ या ‘रीडर्स डाइजेस्ट’ जैसी भी नहीं हैं.

साहित्य का शौक आपको कब से लगा? आपको साहित्य से जोड़ने में क्या मोहन राकेश की भी कुछ भूमिका रही? राकेश जी के साथ आपकी शादी के निर्णय में उनकी रचनाओं और उनकी प्रसिद्धि का भी क्या कुछ हाथ रहा हैं?
साहित्य का शौक तो मुझे बचपन से था. मैं इलाहाबाद में पढ़ी. माता-पिता पढ़ने वाले थे. ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’, ‘धर्मयुग’ आदि पत्रिकाएँ जो घर में उपलब्ध थीं, पढ़ लेती थी. कई कहानियाँ उन दिनों पढ़ीं. बहुत शौकीन नहीं रही, पर पढ़ा. मैं शादी से पहले उनके सम्पर्क में नहीं आयी थी. मेरी तो ‘अरेंज्ड पैरिज’ हुई थी. तब वे जालन्धर में थे और मैं इलाहाबाद में थो. पिताजी से किसी ने ज़िक्र किया था उनके बारे में. पिताजी व हमारे कुछ अन्य पारिवारिक मित्र उनके रचनाकार के प्रशंसक थे. शादी से पहले मैंने उनकी कुछ कहानियाँ पढ़ी थीं. एक ‘नवनीत’ में छपी थी तब, वह पढ़ी थी. दरअसल राकेश बहुत मेहनत से लिखने वाले, बहुत पढ़ने वाले, दूसरी भाषाओं के साहित्य में रुचि रखने वाले तथा ख़रीदकर किताबें पढ़ने वाले साहित्यकार थे.

बहुत संकोच और सम्मान से यह प्रश्न पूछ रहा हूँ. राकेश जी से अलग होते समय की आपकी मन:स्थिति के बारे में कुछ जानने का मन है. उनकी मृत्यु के इतने वर्षों बाद आज आप उस अलग होने पर किस तरह सोचती हैं? एकान्त है किन्हीं क्षणों में क्या कभी अपने और उनके मूल्यांकन का ख़याल आपको आया?
इस प्रश्न को सुनकर उनमें एकाएक कई परिवर्तन तेज़ी से होते दिखे. पहले एक संकोच, एक लज्जा का-सा भाव चेहरे पर आया. अजीब-सा भोला बचपन और परिपक्वता की दमक की अभिव्यक्ति – दोनों एक साथ. तेज़ी से उठकर कमरे के शो-केस का शीशा हटाकर, उसमें रखी कुछ पुस्तकों में से किसी पुस्तक को वह तलाशने लगी थीं. मोहन राकेश की सम्पूर्ण कहानियों के मोटे संकलन को हाथ में लेकर वे फिर से मेरे सामने थीं. साफ़ था कि तब वे अपने अतीत में डूब-उतर रही थीं. संग्रह को उलट-पुलटकर राकेश की कहानियों के शीर्षक तलाशते-बताते हुए वह कमरे में पूरी तरह उपस्थित नहीं लग रही थीं. उन कहानियों और उनके रचनाकार के साथ शायद उन्होंने अपना क़रीबी सम्बन्ध और मौन संवाद स्थापित कर लिया था. बहुत शीघ्र ही सहज, सामान्य और संवेदनशील होकर वह बताने लगी थीं-

…बहुत बार, कई लोग पूछ चुके हैं राकेश के बारे में मुझसे. पर इस तरह नहीं पूछा किसी ने. लिखने के लिए भी कई लोगों ने कहा है. लोकभारती वालों ने तथा राजेन्द्र ने कई बार ज़िद की लिखने की. पर मुझे ठीक नहीं लगा कि उनकी मृत्यु के बाद मैं उन पर कुछ लिखूँ. वे ज़िन्दा रहते तो मैं लिखती. अब प्रतिवाद कौन करेगा? सही-ग़लत पर सहमति-असहमति कौन व्यक्त करेगा? ऐसे नहीं लिखना चाहिए. लिखने की अपनी कुछ मर्यादा होती है. देखिए, हमारा अलगाव ‘पर्सनैलिटी का क्लैश’ (व्यक्तियों का द्वन्द्व) था. कोई कटुता नहीं थी. बस, जैसे दो बुद्धिमान लोग अलग हों अच्छे ढंग से, वैसे अलग हुए. सम्मान के साथ अलग हुए. उन्होंने कहा, मैं साथ नहीं रह सकता, अलग रहना चाहता हूँ. मैंने कहा, ठीक है और हम अलग हो गये.

इतना लम्बा समय बीत चुकने के बाद आज आप अलग होने के लिए किसे अधिक दोषी ठहराना चाहेंगी? ख़ुद को या राकेश जी को?

छोड़िए इसे, क्या बताऊँ! देखिए साहित्यकार का सबसे सबल पक्ष यह होना चाहिए कि वह अपने को समाज का अंग माने. सबका मन समझे, जाने. राकेश बहुत मूडी आदमी थे. उसके पीछे उनका बचपन और उनके अभाव थे. बाप की मृत्यु पहले हो चुकी थी. माँ से बहुत लगाव था उन्हें. आर्थिक तंगी रही. उनका मानवीय पक्ष सशक्त था और वे संवेदनशील-अति संवेदनशील थे. मैं थोड़ी दबंग हूँ. झुकने वालों में से मैं नहीं हूँ. आर्य समाजी परिवार में पली मैं स्वतन्त्र प्रकृति की हूँ. वे साहित्यकार व्यक्ति रहे. थोड़ा जो फ़र्क रहा, वह ढंग का रहा. उस समय असन्तोष या नापसन्दगी जैसा कुछ नहीं लगा. अब सोचने पर लगता है, उनकी कुछ अपेक्षाएँ रही होंगी, जो पूरी नहीं हुई होंगी. मनोवैज्ञानिक ढंग से सोचें तो पुरुष यह बर्दाश्त नहीं करता कि स्त्री बराबर की प्रतिभाशाली हो. उसकी तारीफ़ वह कहाँ सह पाता है! साहित्यकार मानता है कि वह समाज का प्रतिष्ठित व्यक्ति है, उसे अलग न माने-जाने पर क्षोभ होता है. उन्होंने कहा, मैं अलग रहना चाहता हँ. अब अधिक लादकर नहीं रख सकता मैं सम्बन्धों को. मैंने भी निर्णय ले लिया. एक ही ज़िंदगी मिली है जीने को. मैं इसे ख़राब नहीं कर सकती. अनुमान कीजिए, आज से पैंतालीस-छियालीस साल पहले-सन्‌ छप्पन के समाज का. तीस इकतीस साल की उम्र. छोटा-सा बेटा साथ में. अजनबी शहर में अकेले रहने के लिए आ गई थी मैं. बेटे की छप्पन की पैदाइश. अट्ठावन में प्रिंसिपल बनी. आ गयी अकेली, जरा से बेटे को साथ लेकर. उस स्थिति में एक औरत का अकेले रहना तब कैसा रहा होगा, आप साचिए! दोष किसे दिया जाए, किसे न दिया जाए, यह तय करना मुश्किल है. पर हाँ, अश्क का बहुत ख़राब हाथ रहा हमारे उस दौर में.

अलग होने के बाद क्या फिर कभी किसी तरफ़ से जुड़ने की इच्छा व्यक्त की गयी या ऐसी कोई कोशिश हुई? ‘यदि यह न होता तो ऐसा होता’ की दृष्टि से आपने कभी कुछ उसके बाद सोचा?
कभी उस निर्णय पर उन्होंने पछतावा नहीं किया. यह ठीक है, जब एक बार अलग हो गये, तो हो गये. ऐसा तो नहीं है कि मन नहीं हुआ. मन तो हुआ पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैंने दुख की प्रतिक्रिया व्यक्त की हो. हाँ, आज यह तो होता है कि सोचते हैं कि ये होता, तो वो न होता. फिर प्रश्न उठता है कि क्याए न होता तो क्या होता? शायद मैं सर्विस न करती तो यह बात न आती. अश्क के साथ व्यक्तिगत बातें न होती तो यह बात न होती. कई लोगों को बड़ा आनन्द आता है इस तरह की चीजें कराने में. अश्क बड़ा मजा लेते थे ऐसे अवसरों पर. बड़े साहित्यकार थे. अच्छाइयाँ भी थीं. अच्छा लिखते थे. व्यक्तिगत आचरण के स्तर पर… (कुछ रुकती हैं, तुरन्त ध्यान आया है कुछ. कहती हैं-नहीं अब अश्क नहीं हैं इसलिए उनके बारे में भी कोई ऐसी बात नहीं). कुछ अच्छी सलाह देने वाले व्यक्ति होने चाहिए आसपास.

अलग होने के बाद आप लोग फिर कभी एक-दूसरे से मिले या नहीं? यदि मिले तो परस्पर किस तरह कर व्यवहार किया? आपके बेटे ने इस सब पर कैसे अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की?
हाँ, बाद में मिले. ‘आधे-अधूरे’ का जब देहरादून में मंचन हुआ, तो उन्होंने टिकट भिजवाये थे. जाने को मन भी हुआ था. बच्चे के बारे में बातें की. मुझसे पूछा कि आप कैसी हैं? सम्मान का भाव दिखाया था उन्होंने. लोग कहते हैं कि उन्होंने अपनी जो डायरी प्रकाशित करायी, उसमें मेरे बारे में कुछ लिखा है. आपने पढ़ी है क्या? क्याश लिखा है? अच्छा, हाँ, तब ठीक है. ऐसा कुछ नहीं है न मेरे बारे में? बच्चे से वे मिलते रहते थे. दून स्कूल में भी और कभी-कभी बीच में भी. बच्चे को कोई लगाव नहीं है. बोलता ही नहीं था. कभी बात नहीं की उसने. इस विषय पर आज भी कुछ नहीं कहता-बोलता. ‘इंट्रोवर्ट’ है. स्वाभाविक था उसके लिए ऐसा होना. अब दो बेटे हैं उसके. वह प्रैक्टिस करता है. यहाँ मैं और वह साथ रहते हैं.

आपने मोहन राकेश जैसे बड़े लेखक की पत्नी होने के गौरव को भी जिया होगा. आप उनकी कई रचनाओं की साक्षी और श्रोता बनी होंगी. सम्भव है कुछ रचनाओं के लिखने के तुरन्त बाद उन्होंने आपकी प्रतिक्रिया भी चाही हो. इन दृष्टियों से राकेश जी की रचनाओं और रचनाकार व्यक्तित्त्व के बारे में आपके अनुभव और विचार क्याृ हैं?

अपने बेटे को समर्पित उपन्यास ‘अँधेरे बन्द कमरे’ की प्रथम प्रति उन्होंने भिजवाई थी. ठीक है, पर बहुत अच्छा उपन्यास नहीं है वह. उनकी कहानियाँ अच्छी हैं. नाटक बहुत अच्छे हैं. कितने ही मंचन हुए हैं उनके! ‘आषाढ का एक दिन’ और ‘आधे अधूरे’ बहुत अच्छे नाटक हैं. (अन्य उपन्यासों की सूचना दिये जाने पर कहती हैं-मैंने नहीं पढ़े. मैं उनके एक ही उपन्यास से परिचित हूँ.क्या नाम हैं उनके?) उस वक्त राकेश इतने बड़े साहित्यकार नहीं हुए थे. पर नाम था उस वक्ता भी उनका. तब गर्व हुआ होगा. शुरू और बाद में फ़र्क रहा. ठीक है, उनकी पत्नी होने का गर्व था, पर और कई चीज़ों का दुख है. बहुत बार उनके लेखन की मैं साक्षी रही. अनेक बार पहली श्रोता रही. आपने उनका ‘लहरों का राजहंस’ पढ़ा है? ‘उसकी रोटी’ (हाथ में लिए संग्रह के पृष्ठों को उलट-पुलटकर कहानी तलाश रही हैं) बड़ी मार्मिक कहानी है. याद आ रही हैं कुछ अच्छी कहानियाँ- ‘मलबे का मालिक’, ‘एक और ज़िंदगी’, ‘कटी हुईं पतंगें’, ‘फौलाद का आकाश….’ यह पूछे जाने पर कि ‘एक और जिन्दगी’ के बारे में लोग यह कहते हैं कि राकेश ने इसमें अलग होने वाले दौर के एक सच का चित्रण किया है, वे कहती हैं-इसमें बस थोड़ा-बहुत साम्य है. पूरा सच नहीं है.

‘कहानी लिखते समय कितना काटना-छाँटना. बहुत बार लिखना! बाप रे! कैसा याद आ रहा है सब!’ (इसी उछाह और उमंग में वे राकेश के साथ के कश्मीर के दिनों को याद करती हैं, शिमला की याद करती हैं. यादें बता रही थीं कि राकेश को आज भी वे अपने से एकदम अलग नहीं कर पायी हैं. उस समय वे खुद राकेश के एकदम क़रीब हो गयी लगी थीं.) ‘एक नाम याद नहीं आ रहा. बड़ी अच्छी कहानी थी (संग्रह को बार-बार पलट रही हैं). ‘बिन्दी’ वहाँ की थी. बहुत अच्छा चित्रण था. मैं सहमति-असहमति भी व्यक्त करती थी. असहमति पर वे कभी अच्छी तरह, तो कभी बुरी तरह प्रतिक्रिया व्यक्त करते. कई बार बदलाव भी किये उन्होंने.

क्या राकेश जी के घर के बाहर के तनावों को भी उस दौरान आपने जिया या उन तनावों का कोई असर घर की ज़िंदगी पर भी पड़ा?
घर से बाहर के तनावों की मेरे साथ वह स्थिति नहीं आयी, जिससे कि बुरे असर झेलने पड़े हों. शादी हुई तो वे शिमला में थे. पचास में शादी हुई. बावन में आगरा आ गयी. छप्पन में अलग हो गये. साथ कम रहा. ज़्यादा अलग रहना भी कारण होता है कई बार अलग होने का. शादी के एक साल बाद उन्होंने सर्विस छोड़ दी. सर्विस कहीं टिककर नहीं की उन्होंने. किसी के नीचे काम करना स्वभाव में नहीं था उनके. मुझे सर्विस करनी ही थी. आय के स्रोत स्थायी न होना भी कारण होता है ऐसी स्थितियों का.

मोहन राकेश ‘नयी कहानी’ आन्दोलन के केन्द्र में रहे थे. उस दौर में ‘नयी कहानी’ और राकेश जी के समकालीन अन्य रचनाकारों के अनेक अनुभव और सच आपके पास होंगे. इन बिन्दुओं से आपका कुछ कहना निस्सन्देह महत्वपूर्ण और उपयोगी होगा. आपका क्या कहना है?
देखिए, यदि साहित्यकार नॉर्मल आदमी होकर नहीं जीएगा, तो भुगतेगा. समाज से आप अपने को अलग मानें तो मानें. आप समाज से अलग उसे कुछ देने के लिए हैं. समाज की अपनी प्रक्रिया है. उसमें आप रहेंगे. कोई कुछ कहे, प्रेमचन्द मुझे आज भी इसीलिए अच्छे लगते हैं. उनकी समाज को देन है. नयी कहानी, नयी कविता…आपकी समाज को देन क्याि है? आप पहले कुछ स्थापित तो करें. प्रसाद, पन्त , निराला के सामने ये नये कवि कहाँ टिकेंगे? ‘बीती विभावरी जाग री’, या ‘हाँ, मैंने दुख पाया है, मैं दुख से श्रृंगार करूँगी’ जैसी पंक्तियों को पढ़कर उदात्त भाव तो आते हैं न! आपके यहाँ एक शब्द आता है-उदात्तीकरण. नयी कहानी ने तो ठीक इसका उल्टा किया.

मोहन राकेश सीधे-सादे थे. तिकड़मी नहीं थे. गोटियाँ बिछाने वाले नहीं थे. कमलेश्वर से मेरा ज़्यादा सम्पर्क नहीं रहा. हम ज़्यादा नहीं मिले. राजेन्द्र आगरा के हैं, उनसे ज़्यादा मिले. राजेन्द्र, मोहन राकेश को बर्दाश्त नहीं कर पाये. उनकी महानता और साहित्य में मिले स्थान को देखकर राजेन्द्र को कष्ट होता था. नामवर की उन दिनों मैंने कोई चर्चा नहीं सुनी थी. मेरा उनसे परिचय भी नहीं है. राकेश ने ‘सारिका’ की नौकरी छोड़ी क्यों? कमलेश्वर ने, भारती ने निभाया ‘धर्मयुग’ के उसी वर्ग के साथ. मन्नू जी अच्छा लिखती हैं. मुझे उनकी कहानियाँ पसन्द हैं.

आपने ‘आपका बंटी’ तो पढ़ा ही होगा. अक्सर कहा गया है कि उस उपन्यास में राकेश जी के पत्नी और बच्चे अलग होने की ज़िंदगी के हिस्से को आधार बनाया गया है. आपकी दृष्टि में इसमें कितना सच है?
‘आपका बंटी’ पढ़ा है. पर उसका मेरी ज़िंदगी से सम्बन्ध नहीं है. मैं तब तक मन्नू से मिली नहीं थी. उनकी मुझसे कभी बात नहीं हुई. हाँ, राजेन्द्र से बातें हुई हों, तो अलग है. मैं राजेन्द्र से मन्नू की शादी से पहले मिली थी.

अपने और आज के समय में नारी की ज़िंदगी में आए अन्तर को आप किस तरह देखती हैं? आज की नारी के बारे में आपकी सोच, आपकी आकांक्षा क्या है?
नारी के लिए काम के इतने मौक़े मेरे समय में नहीं थे. तब टीचर भी ईसाई महिला बनती थी. आज मूल्यों में बड़ा बदलाव आया है. आज उसके लिए कार्य के बहुत क्षेत्र हैं. बहुत अवसर हैं. आधुनिकता के नाम पर जो कुछ दूसरे अवसर साथ आ रहे हैं, उन्हें अलग कर दें, तो सही ढंग से जीने के काफी अवसर हैं. पायलट, होटल मैनेजमेंट, कम्प्यूटर, रिसर्च, तकनीक, घुड़सवारी-कितने क्षेत्र उसके सामने हैं. पता है, आई.ए.एस. में लड़कियों का बैठना जब मान्य हुआ, तब मैंने एम.ए. किया. अब व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और व्यक्तित्त्व को निखारने के लिए नारी के सामने बहुत अवसर हैं. आज स्त्री, परिवार और समाज दोनों को ज्यादा दे सकती है. पहले बच्चे की ज़िंदगी बनाने में माँ की भूमिका नहीं होती थी. अब है. वह क्या बने, इस बारे में वह निर्णय लेती है, पहल करती है. यदि टीवी आदि में दिखाए जा रहे मॉडल की तरह के अन्य क़िस्म की ज़िंदगी बिताने वाले कई अवसरों का प्रलोभन छोड़ दें, तो वह पहले से काफी बेहतर स्थिति में है. महिलाओं को मर्यादित जीवन जीकर समाज को कुछ देना चाहिए.

इतना कहकर उन्होंने घड़ी देखी. बोलीं-मैंने किसी को समय दिया है. अभी तैयार होना है. अब बस! बहुत हो गया न! मुझे तो अभी और भी बातें करनी थीं पर लाचारी थी. वहाँ से चलने से पहले मेरे हाथ स्वत: उनके पैरों की ओर बढ़ गये थे…

(साधना से संवाद से साभार)

सम्बंधित

क़ुर्रतुलऐन हैदर | अपने लेखन-सी शख़्सियत की मालिक

संस्मरण | तो इंतिज़ार साहब ने कहा – आपके हाथों में महफ़ूज़ है मेरा घर


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.