इस्मत चुगताई | मदर ऑफ़ मॉडर्न स्टोरी

  • 12:01 am
  • 24 October 2020

उर्दू की मॉडर्न कहानी के चार स्तंभ रहे. तीन का भार मर्दाने कन्धों पर था – कृश्नचन्दर, राजिंदर सिंह बेदी और सआदत हसन मंटो. चौथा कंधा ज़नाना था. इस अकेले स्तंभ में इतनी ताक़त रही कि इन्हें ‘मदर ऑफ़ मॉडर्न स्टोरी’ कहा गया.

वह चंगेज़ खां के ख़ानदान से आती हैं. ननिहाल उस्मान गनी से मिलता है.

दस भाई-बहनों में नवें नंबर पर थीं. तीन बड़ी ब्याही बहनों के बाद वह भाइयों के साथ बड़ी हुईं. सो उन्हें गुड़िया नहीं खेलनी थी. क्रिकेट खेलना था, गिल्ली-डंडा खेलना था. सीना-पिरोना, बुनाई-कढ़ाई से चिढ़ खाई बैठी उन्हें पेड़ों पर चढ़ना था. हर वक़्त पीठ पे धौल जमाने वाले भाइयों को पलट कर न मार सकने की कसमसाहट थी. मगर उन्हें रोना नहीं था.
कहीं से कमज़ोर भी नहीं दिखना था.

कुछ बड़े भाई अज़ीम बेग़ की शह रही. कहते, खेल में हार जाती हो तो उनको पढ़ाई में हरा दो. तीन दर्ज़े आगे शमीम भाई हर क्लास में फ़ेल होते रहे. हत्ता यह दिन भी आया कि होमवर्क में उनकी मदद करने लगीं. और इस तरह एक दिन वह अचानक शमीम भाई से बड़ी हो गईं.
वह इस्मत चुग़ताई हैं.

ज़िद्दी हैं. अड़ियल हैं. खरखरी. ज़बानदराज़. बेहद सवाल पूछ्ने वाली. खार खाए बैठी अम्मा जवाब के बजाय जूतियाँ फेंक मारती. निशाना हर बार चूकता. अम्मा निशानचीं नहीं थीं. वह भी हस्सास न हुईं. बेशर्मी से हँस के भाग जातीं.

यही बेशर्मी उनके लिये संजीवनी बूटी बनी. ‘लिहाफ़’ छपने के बाद गाली भरे ख़त आने का सिलसिला शुरु हुआ. शाहिद लतीफ़ तब तक ‘मजाज़ी खुदा’ बन चुके थे.
लिहाफ़ पर अख़बारों में मज़मून निकलने लगे. महफ़िल की बहसों में ‘लिहाफ़’ छा गई. लाहौर कोर्ट ने लिहाफ़ को फ़ुहश (अश्लील) करार देते हुए उन्हें सम्मन भेजा.
शाहिद मुक़द्दमों की ज़िल्लत और बदनामी से ख़ाइफ़ थे. ससुर साहब के दर्द, बल्कि गुज़ारिश भरे ख़त में इस्मत के लिये ताक़ीद थी, “दुल्हन को समझाओ. कुछ अल्लाह-रसूल की बातें लिखें कि आक़बत दुरुस्त हो. मुक़द्दमा और वह भी फ़ुहाशी पर. हम लोग बहोत परेशान हैं.”

परेशान तो वह भी थीं. कि इस एक कहानी की वजह से उनसे जुड़े सब लोग परेशान थे और यह भी कि उसी एक ‘लिहाफ़’ की तहों के नीचे उनकी तमाम कहानियाँ दब जातीं हैं.
चूंकि वह कहीं, कभी, किसी से नहीं हारीं. मुक़द्दमा भी जीत गईं.

ज़िंदगी में बज़ाहिर उतार-चढ़ाव कम रहे. या शायद हर बात पर तवज्जोह की ज़रूरत नहीं समझी. ए.एम.यू. में पढ़ने की ज़िद की. कहा, न पढ़ाया तो घर से भाग कर ईसाई हो जाऊंगी. एक आध दिन रूठी हुई हड़ताल पे रहीं. अब्बा मान गए.

शौक़त ख़ानम (कैफ़ी आज़मी की बीवी) ने भी पसंद की शादी का इज़हार किया था. वहां भी अब्बा मान गए.

ऐसे वालिदैन ही उनकी शख़्सियत की नींव बनते हैं. तब जा के इस्मत बी.ए., बी.एड. करने वाली देश की पहली मुस्लिम महिला बन पाती हैं.
(हमारे अब्बाओं को इनके अब्बाओं से कुछ सीखना चाहिए. वरना साइंस को अब्बा बदलने की तरक़ीब ईजाद कर देनी थी.)

ख़ुद-मुख़्तारियत की ख़्वाहिश थी. बरेली के इस्लामियाँ गर्ल्स इंटर कॉलेज में प्रिंसिपल की पोस्ट पर लगीं. अम्मा से मिलने आईं.

मुल्क़ के बंटवारे में आधा ख़ानदान पाकिस्तान जा चुका था. दस बच्चों वाली अम्मा तन्हा थीं. हवेली पर फौज़ का क़ब्ज़ा था. अम्मा उसी हवेली के सामने एक छोटे-से कमरे में रहकर शाहजहाँ की तरह अपने ताजमहल को निहारा करतीं.

बेटी को देखा तो लिपट कर ज़ार-ओ-क़तार रो पड़ी. अम्मा के थप्पड़ों, घूँसों की आदी इस्मत यूँ उनका रोना देख कर सिहर गईं. उनके आख़िरी दिनों में इस्मत ही उनका सहारा बनीं.

रिश्तेदार जी का जंजाल थे लेकिन मुसंन्निफ़ों (लेखकों) से रिश्तेदारी कमाल कर गई. हार्डी, चार्ल्स डिकेंस, चेख़व, टॉलस्टाय, दास्तायेव्स्की और बर्नार्ड शॉ को तो जैसे घोलकर पी गई हों. जितना उन्होंने पढ़ा, उससे ज़्यादा बतियाया. दुकानदारों, टैक्सीवालों यहां तक कि भिखारियों से भी. जचगी के बाद अस्पताल में बाइयों से की गयी बतकही ही तो है, ‘मुट्ठी मालिश’.

इस्मत चुन्नी के रूप में एक जिज्ञासु बच्चा हैं. वह अपने कोचवान से शबरी के जूठे बेरों का क़िस्सा पूछती हैं. शेख़ानी बुआ से पूछती हैं, अली असगर को हलक़ में तीर क्यूँ मारा? वह साँवले श्रीकृष्ण पर मोहित हैं. पड़ोसी के घर जन्माष्टमी पर विराजे लड्डू गोपाल को लेकर उनमें हीन भावना है. सोचती हैं, उनके भगवान क्या मज़े से आते-जाते हैं. एक हमारे अल्लाह मियाँ हैं, न जाने कहां छिपकर बैठे हैं.

इस्मत की ज़्यादातर कहानियां मध्य-निम्न वर्गीय औरतों को केंद्र में रखकर बुनी गई हैं. यह आज़ादी से पहले और बाद का दौर है, जब मीना कुमारी का कारूणिक छवि लोगों को मुतासिर करती थी. लेकिन उनकी नायिकाएं मीना कुमारी नहीं हैं. वे सड़क पे कुलांचे मारती, दूधवाले-सब्ज़ीवाले को गरियाती रखैले हैं. बलत्कृत किशोरियां हैं. सास को चकमा दे मियाँ से लप-झप करती होशियार बहुएं हैं. और कभी पति की मार से तंग आकर पलटवार करती बीवियाँ हैं.

कोई औरत मार खाकर आती तो वे कहती मियाँ से तलाक़ लो या पलट के तुम भी मार दो. फिज़ूल रो-धो के मेरा मूड न ख़राब करो.

हमदर्दियों से चिढ़न खाए बैठी इस्मत की भाषा में फिज़ूल फ़लसफ़े का दख़ल नहीं, फिर भी संजीदा है. ज़बान दाल-चावल जैसी सादी लेकिन बीच-बीच में आम के अचार का चटख़ारा है.
बक़ौल जावेद अख़्तर, उनकी कहानियों को पढ़ो तो लगता है इस्मत आपा बात कर रही हैं. इस्मत आपा को सुनो तो लगता है, उनके क़िरदार बोल रहे हैं.

वे औरत को अपने पैरों पे खड़ा और ख़ुद अपनी हिफ़ाज़त करते हुए देखना चाहती थीं. शायद इसीलिये क़ुर्रतुल ऐन हैदर ने उन्हें ‘लेडी चंगेज़ खाँ’ कहा.
उन्होंने फ़ेमिनिज़्म की शुरुआत उस वक़्त की थी, जब लोग इसका एफ़ भी नहीं जानते थे.

दफ़्नाए जाने से ख़ौफज़दा इस्मत ने मरने के बाद उनके जिस्म को जलाने की ख़्वाहिश का इज़हार किया. उनकी ख़्वाहिश का एहतराम हुआ. हालांकि रिश्तेदारों ने काफ़ी विरोध किया.

अपनी आत्मकथा ‘कागज़ी है पैरहन’ में बचपन से लेकर ए.एम.यू. में दाख़िले, आगे की तालीम और नौकरी का ज़िक्र किया है. आलोचक मानते हैं कि यह ईमानदार आत्मकथा नहीं है.
हां, काफी हद तक…या शायद ज़िंदगी के इतने ही हिस्से में वह असल इस्मत रहीं हों. कौन जानता है!

वे बौद्ध धर्म से प्रभावित थीं. आलमारी में कृष्ण की मूर्ति भी थी. उन्हें तोहफ़े में मिली थी. मैं समझती हूँ कि कृष्ण से उनकी गुफ़्तगू को साहिब-ए-मसनद को सुनवाया जाना चाहिए. और पूछना चाहिए कि जिस भारतीय संस्कृति-सभ्यता की ट्रम्प से सराहना सुनते हुए वे गौरवान्वित महसूस करते हैं, उसमें इस्मत आपाओं का क्या कोई रोल नहीं?

“मैं मुसलमान हूं. बुतपरस्ती शिर्क है. मगर देवमाला (पुराण) मेरे वतन का विरसा (धरोहर) है. इसमें सदियों का कल्चर और फ़लसफ़ा समोया हुआ है. ईमान अलहदा है. वतन की तहज़ीब अलहदा है. इसमें मेरा बराबर का हिस्सा है. जैसे उसकी मिट्टी, धूप और पानी में मेरा हिस्सा है. मैं होली पर रंग खेलूं, दिवाली पर दीए जलाऊं तो क्या मेरा ईमान मुतज़लज़ल (हिलना) हो जाएगा. मेरा यक़ीन और शऊर क्या इतना बोदा है, इतना अधूरा है कि रैज़ा-रैज़ा हो जाएगा?”

और मैंने पर परस्तिश की हदें पार कर लीं. तब अलमारी में रखे हुए बाल कृष्ण से पूछा, क्या तुम वाकई किसी मनचले शायर का ख्वाब हो? क्या तुमने मेरी जन्मभूमि पर जन्म नहीं लिया? बस एक वहम, एक आरज़ू से ज्यादा तुम्हारी हक़ीक़त नहीं. किसी मजबूर और बंधनों में जकड़ी हुई अबला के तख़य्युल की परवाज़ हो कि तुम्हें रचने के बाद उसने जिंदगी का ज़हर हंस-हंस के पी लिया?

क्या तुम धरती के हलक़ में अटका हुआ तीर नहीं निकाल सकते?

मगर पीतल का भगवान मेरी हिमाक़त पर हँस भी नहीं सकता कि वह धात के खोल मुंजमिद (अचल) हो चुका है. सियासत के मैदान में एक दूसरे की नाअहली साबित करने के लिए इंसानों को कुत्तों की तरह लड़ाया जाता है.

क्या एक दिन पीतल का यह खोल तोड़कर खुदा बाहर निकल आएगा?

इसका जवाब न इस्मत आपा को मालूम था, न मुझे.

बहरख़ैर, सवाल पूछने की हिम्मत रखने वाली इस्मत आपा को हमारा सलाम!!

सम्बंधित

इस्मत आपा | अदब की दुनिया में नई लीक की पहल


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.