कहानी एक लफ़्ज़ की | ने’मतख़ाना

  • 11:49 am
  • 28 November 2022

शब्द सामर्थ्य और शब्द भंडार हमारी अभिव्यक्ति की हद तय करते हैं. और अभिव्यक्ति की हमारी भाषा नए-नए शब्दों को समाहित करके समृद्ध होती रही है. ऐसे शब्द जिन्हें बरतने में लोक सहज हो, फिर वे शब्द किसी और ज़बान से आए हैं, सैलानियों के साथ आए हैं या व्यापारियों के साथ, लोक उनकी व्युत्पत्ति के बारे में जानने-सोचने का ज़िम्मा विद्वानों पर छोड़कर उसे अपनी बोलचाल का हिस्सा बना लेता है. यह कॉलम शब्द की व्युत्पत्ति की खोज नहीं है, उन शब्दों का परिचय भर है.

ने’मतख़ाना | अरबी का लफ़्ज़ ने’मत बोलचाल में ख़ूब बरता और समझा जाता है. इसका अर्थ वरदान है, ईश्वर की देन, उसकी रहमत है, धन-दौलत, सुख, आनंद, सम्मान है और सुस्वादु भोजन भी.
हफ़ीज़ जालंधरी के इस शे’र से समझते हैं,
ये दुख-दर्द की बरखा बंदे देन है तेरे दाता की
शुक्र-ए-नेमत करता जा दामन भी फैलाता जा

अकबर इलाहाबादी की अभिव्यक्ति में यूं आया है,
हर-सू ने’मत रक्खी देखी
शहद और दूध की मक्खी देखी

इसी का देसज रूप है – नियामत. हिंदुस्तानी ज़बान में इसका सिर्फ़ बदला है, मायने वही हैं, जैसे कि डॉ.वीरेन डंगवाल की कविता ‘इलाहाबादः1970’ में,
छूटते हुए छोकड़ेपन का ग़म, कड़की, एक नियामत है दोसा
कॉफ़ी हाउस में थे कुछ लघु मानव, कुछ महामानव

हिंदी में नियामत के मायने तोहफ़ा है, प्रसाद है, आशीर्वाद, बरक़त, सदक़ा और कृपा भी हैं.

ख़ाना यानी घर-मकान या इमारत जैसे कि डाकख़ाना, मुसाफ़िरख़ाना, जेलख़ाना, कारख़ाना. किसी बड़ी चीज़ का छोटा हिस्सा मसलन शतरंज में मोहरों के ख़ाने, अलमारी का ख़ाना, रजिस्टर का ख़ाना, किसी चीज़ की तयशुदा जगह. संदूक़ या छोटा बक्सा भी है. ख़ानाआबाद दुआ है, आशीर्वाद. ख़ानाआबादी यानी ब्याह, शादी. और ख़ानाख़राब यानी अभागा, भाग्यहीन.
ग़ुलाम अली की आवाज़ में सुनी हुई नासिर काज़मी की ग़ज़ल का शे’र याद करते हैं,
शोर बरपा है ख़ाना-ए-दिल में
कोई दीवार सी गिरी है अभी.

इन्हीं दोनों अलफ़ाज़ से मिलकर बना है – ने’मतख़ाना. लकड़ी का जालीदार संदूक या अलमारी, जिसमें भोजन रखा जाता है, इसका एक और मतलब रसोईघर भी है. शौकत जमाल की यह नज़्म आपके लिए,
दादी का था दौलत-ख़ाना/ घर क्या था इक जन्नत-ख़ाना/ बचपन मेरा गुज़रा इस में/ बे-शक था वो शफ़क़त-ख़ाना/ बावर्ची-ख़ाने में इस के/ लकड़ी का था ने’मत-ख़ाना/ ख़ाने इस में इतने सारे/ समझो जैसे हैरत-ख़ाना/ खाने पीने की चीज़ों का/ लगता था वो बरकत-ख़ाना/ शीरीनी भी नमकीनी भी/ हर ख़ाना था लज़्ज़त-ख़ाना/ दूध इस में और लस्सी उस में/ और इस में इक शर्बत-ख़ाना/ फल और सब्ज़ी की ख़ुशबू से/ हर दम जैसे निकहत-ख़ाना/ याद आते हैं दिन बचपन के/ और दादी का ने’मत-ख़ाना.

इसी नाम से आए ख़ालिद जावेद के उपन्यास का उर्दू से अंग्रेज़ी तजुर्मा ‘पैराडाइज़ आफ़ फ़ूड’ नाम से हुआ, जिसे हाल ही में जेसीबी प्राइज़ फ़ॉर लिटरेचर मिला है.

सय्यद ज़मीर जाफ़री ने अपनी नज़्म ईद का मेला में ऐसा ख़ाका खींचा है,
हर ढंग के सस्ते खाने हैं हर रंग के फ़िल्मी गाने हैं
कुछ चलते फिरते छोटे छोटे गश्ती ने’मत-ख़ाने हैं

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