ज़बान | कबाहट, कर्णफूल और साइत

  • 10:56 am
  • 2 December 2022

आम बोलचाल के शब्दों के मूल की तलाश बहुत बार ख़ासी दिलचस्प होती है. उन्हें मूल रूप में या अपनी ज़बान के मुताबिक ढालकर हम बोलते हैं, और वे सुनने वालों पर अपने मायने के साथ ज़ाहिर हो जाते हैं. भाषा की ईजाद भी तो इसी मक़सद से हुई थी.

फ़तवे लिए हैं शैख़ से पीर-ए-मुग़ाँ ने ख़ास
पीने में अब ज़रा भी क़बाहत नहीं रही

फ़रोग़ ज़ैदी के इस शे’र ये जो ‘क़बाहत’ है न, यह अरबी का लफ़्ज़ है. यह लफ़्ज़ हमारी ज़बान तक कैसे आया, यह तो नहीं मालूम मगर नानी-दादी के गांव में अक्सर सुनता आया हूं. मेरी अम्मा इसे ‘कबाहट’ कहतीं. उनके बरताव से इसके अर्थ का बोध तो होता, मगर कभी लगा नहीं कि यह किसी दूसरी ज़बान से आया शब्द है. मसलन, कोंहडउरी बनाना भी कम कबाहट का काम नहीं है, या जो हो गया सो हो गया अब कबाहट करने से क्या फ़ायदा. और लोगों से सुनता कि फ़लां आदमी बहुत कबाहटी है.

अम्मा के मुंह से सुने ऐसे कई शब्द हैं, जिनके मूल बारे में अब जानता हूं तो हैरानी होती है और जिज्ञासा भी. जिस आभूषण को वह ‘करनफूल’ कहतीं, उसे मैं कर्णफूल का देसज रूप समझता रहा. एक रोज़ डिक्शनरी में कुछ खोजते हुए एक लफ़्ज़ ‘क़रन्फ़ुल’ दिख गया, मालूम हुआ कि डेढ़ हज़ार सालों से अरबी ज़बान में बरता जा रहा यह लफ़्ज़ संस्कृत के ‘कर्णफुल्ल’ से बना है – कान में पहना जाने वाला फूल की आकृति का आभूषण. अरबी में यह लौंग है, यानी नाक या कान में पहने जाने वाला लौंग की तरह का आभूषण.

राधेश्याम कथावाचक के इस गीत में और आभूषणों के बीच कर्णफूल भी शामिल है,
बाले बाली, कुंडल, गोशे, दुर्बच्चे, तड़की, झूमट।
बुंदे, पत्ते, कंडे, कुठले, कर्णफूल, चंद्रिका, प्रकट॥
कर सोलह शृंगार हरि, झूला गड़वाया फूलों का।
राधा के लिये श्याम एक दिन, गहना बनाया फूलों का॥

ख़ैर, क़बाहत के मायने हैं – झंझट, ख़लल, कठिनाई, मुश्किल, बुराई, ख़राबी, खोट, ऐब, अनिष्ट और आपत्ति भी. और कबाहट इसी का देसज रूप है.
ज़िंदगी में इंसान का कितनी ही तरह की क़बाहतों से पाला पड़ता है, देर से स्टेशन पहुंचो तो ट्रेन छूट गई, हो गई न क़बाहत! किसी जलसे में वक़्त से पहुंचो और मेहमान-ए-ख़ुसूसी घंटों तक नदारद, लंबे इंतज़ार की उस क़ोफ़्त को और भला क्या कहेंगे. सिर पर पगड़ी सलामत रख पाना भी क्या कम मुश्किल का काम है. अब्दुल्लाह बहार कहते हैं,
पास रखना है कुछ अना का भी
ये क़बाहत है सर झुकाने में

गो सफ़दर मिर्ज़ापुरी ने इसे यूं बरता है,
शैख़ जी रोज़ा तो दिन में होगा
शब को पीने में क़बाहत क्या है.

और, वह जिसे अम्मा ‘साइत’ कहतीं, वह भी तो अरबी का सा’अत है. यह काल की यानी वक़्त की इकाई है, क्षण, लम्हा, मुहूर्त है – निक साइत यानी शुभ मुहूर्त, वही जिसके विचारने के लिए हम पंडित से पत्रा देखने को कहते हैं. पुरनिये यूं ही मुंह उठाकर सफ़र पर नहीं निकल पड़ते थे, बाक़ायदा साइत देखकर चलते. जिन दोस्तों को भारतीय रेल से शिकायत है, वे साइत वाली बात पर ग़ौर कर सकते हैं. और गौने-ब्याह के लिए तो साइत देखी ही जाती है. यह ढाई घड़ी का समय या एक घंटा है. इस्लामी दर्शन में क़यामत का, प्रलय का दिन है.

अब्बास ताबिश ने कहा,
ये अजब साअत-ए-रुख़्सत है कि डर लगता है
शहर का शहर मुझे रख़्त-ए-सफ़र लगता है.

और साग़र सिद्दीक़ी के ख़्याल में,
जब जाम दिया था साक़ी ने जब दौर चला था महफ़िल में
इक होश की साअत क्या कहिए कुछ याद रही कुछ भूल गए

तो हे दोस्तों, ग़ज़ल जाफ़री ने कहा है, और मैं इसे दोहरा रहा हूं,
तुम आते जाते रहो ये बहुत है मेरे लिए
न आ सको जो कभी तुम क़बाहतें लिखना
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