लॉकडाउन डायरी | ग़ुर्बत में कैसा मजहब और कहां की रवायतें

  • 12:21 pm
  • 18 May 2020

सुबह का सूरज ग़रीबों की दहलीज़ पर एक नई जद्दोजहद की मुनादी करने आता है. लॉकडाउन में इस मुनादी आवाज़ और तेज हो गई है. लोगों ने चौका-बर्तन कराना बंद कर दिया है, इसलिए बची रोटियां भी मिलनी बंद हो गईं. तीन रोज़ से चूल्हा नहीं जला, पड़ोस के लोगों की रहमत पर बच्चों के पेट की आग बुझ रही है. बच्चों के लिए आज क्या इंतज़ाम होगा नवजात को दूध पिलाते हुए विमला इसी उधेड़बुन में थी कि मोबाइल की घंटी बजी. मुंबई से पति हीरा ने बुज़ुर्ग पिता चंद्रबली की मौत की ख़बर दी, साथ ही बिहार में रहने वाले दोनों भाइयों के न पहुंच पाने की मजबूरी भी ज़ाहिर की. ससुर के गुज़र जाने का ग़म तो था ही, रोटी को मोहताज विमला लॉकडाउन में सिद्धार्थनगर तक कैसे पहुंच पाएगी, इस ख़्याल से उसकी आंखों के आगे अंधेरा छा गया, गला भर आया लेकिन आवाज जज्ब रही.

मोहल्ले के लोगों को मालूम हुआ तो थाने से चिट्ठी लिखवा दी और चंदा जुटाकर विमला के गांव जाने के लिए ऑटो का इंतज़ाम कर दिया. विमला बच्चों को ऑटो में लेकर गांव के लिए निकली तो तमाम मजबूरियां और दुश्वारियां ज़ेहन में कौंधने लगीं. तिवारीपुर इलाक़े में इमामबाड़े के पास किराए के कमरे में विमला तीन बच्चों और ससुर चंद्रबली के साथ रहती थी. पति हीरा मुंबई में मजदूरी करता है. विमला मोहल्ले के घरों में चौका-बर्तन करती, जिससे दोनों वक्त की रोटी और कमरे के किराए का इंतज़ाम हो जाता. विमला की कमाई और मालिकों की रसोई की बची रोटियों से दिन गुजर रहे थे.

बुज़ुर्ग चंद्रबली तमाम हालात से वाक़िफ़ थे और ग़ुर्बत के थपेड़ों के तजुर्बेकार भी लेकिन जब भी चिंता गहराती उन्हें गांव याद आता. विमला मार्च में मां बनने वाली थी. उसके अस्पताल के ख़र्चे का बंदोबस्त करने के लिए चंद्रबली एक रोज़ गांव चले गए. सिद्धार्थनगर के उस्का बाज़ार के पास गांव में भी चंद्रबली के नाम कोई ख़ास खेती-बाड़ी नहीं थी लेकिन भरोसा था कि कुछ कर्ज़ और उधार मिल जाएगा. चंद्रबली गांव से लौट नहीं सके थे कि लॉकडाउन शुरू हो गया. यहां विमला को प्रसव पीड़ा हुई तो पड़ोस के लोगों ने अस्पताल में दाख़िल करा दिया. विमला चौथे बच्चे के साथ अस्पताल से लौटी तब तक चूल्हा भी ठंडा पड़ चुका था. एक तो लॉकडाउन दूसरे प्रसव के घाव. विमला का काम पूरी तरह बंद. प्रसव के 17 दिन बाद आज वह गांव के सफ़र पर थी.

गांव-कस्बों में चर्चाएं ख़ूब होती हैं, चर्चाओं में चिंताएं भी होती हैं लेकिन चिंताओं से आगे मदद के हाथ हैसियत देखकर बढ़ते हैं. चंद्रबली की मौत भी चर्चा बदस्तूर जारी थी. किसी ने कहा, ‘कहने को चार बेटे राम मिलन, हीरालाल, विष्णु और मोहन. कहते हैं एक व्यक्ति ने बेटे का नाम नारायण रखा था, आख़िरी वक़्त में बेटे को पुकारा तो उद्धार हो गया. चंद्रबली ने भी तो सांसों के तार टूटते वक्त बेटों को याद किया होगा.’

विमला गांव पहुंची तो वहां पहले से मौजूद ननदोई फूलचंद ने बताया कि चंद्रबली उनके घर से लौट रहे थे कि रास्ते में सांसों ने साथ छोड़ दिया. राह चलते मौत हुई थी इसलिए पुलिस उनकी मिट्टी पोस्टमार्टम के लिए ले गई है. फूलचंद ससुराल के हालात से वाक़िफ़ थे, इसलिए उन्होंने विमला से ससुर के अंतिम दर्शन की इच्छा का भी कोई जिक्र नहीं किया. गुरबत की मारी विमला ने भी कोई इच्छा नहीं जाहिर की. अंतिम क्रिया के लिए विमला के 12 साल के बेटे रवि को लेकर फूलचंद निकलने लगे तो गांव के छेदी भी साथ हो लिए.

पोस्टमार्टम के बाद चंद्रबली की मिट्टी लेकर फूलचंद, रवि और छेदी पास के चौदहा घाट पर पहुंचे. न लकड़ी का इंतजाम था, न ही किसी रस्म-ओ-रिवाज का. फूलचंद और छेदी ने नदी के किनारे दो गज़ ज़मीन में गड्ढा खोदा और चंद्रबली को मिट्टी के सुपुर्द कर दिया.

शाम का वक्त. धुंधलका बढ़ रहा था. दादा को मिट्टी देकर रवि लौट आया है. विमला के मोबाइल की घंटी बजती है. मुंबई से हीरा का फोन है. विमला बताती है रुपये थे नहीं, दाह संस्कार के लिए लकड़ी का इंतजाम कैसे होता? परेशान पत्नी को हीरा ने समझाया, ‘मां, दादी और सरस्वती भाभी को भी तो मिट्टी ही दी जा सकी थी. ग़ुर्बत ही हमारा मजहब और रवायत है…’.

भूख से भागती ज़िंदगी

जलती दुपहरी में सड़क से निकलती आंच. मीलों के सफ़र पर निकले दंपति के पांव संतकबीरनगर और गोरखपुर की सीमा पर सहजनवा में बने बैरियर पर थमते हैं. राजू शाह के सिर पर एक मटमैला बैग और गोद में सीने से चिपका चार साल का बेटा. काजल के कंधे से लटकती एक गठरी और उंगली थामे बेटी. बैरियर पर पुलिस की पूछताछ में राजू के कुनबे के सफ़र की दास्तान रूह झकझोर देती है.

छपरा में रोटी और कपड़े के इंतज़ाम की तमाम जद्दोजहद जब नाकाम हो गई तो राजू ने पत्नी और बच्चों के साथ शहर का रुख़ किया था. जोधपुर ज़िले के फाटा क़स्बे में राजू को काम मिला तो काजल भी लोगों के घरों में चौका-बासन करने लगी. राजू और काजल की गृहस्थी की गाड़ी अभी रफ़्तार भी नहीं पकड़ सकी थी कि जनता कर्फ़्यू और उसके बाद लॉकडाउन का एलान हो गया. अब राजू को न कोई काम मिल रहा था, न काजल से ही लोग घरों में काम करा रहे थे.

जनता कर्फ़्यू वाले दिन राजू के बच्चों ने भी थाली बजाई थी लेकिन दिन बीतने के साथ वही थाली सूनी पड़ने लगी. किराए के लिए मकान मालिक का तक़ाज़ा बढ़ने लगा. दिन बीतने के साथ ज़िंदगी मुश्किल होने लगी. आख़िरकार एक रोज़ दंपति ने गांव लौटने का फ़ैसला कर लिया. काजल ने रास्ते के लिए कुछ रोटियां पकाकर रख ली थीं और थोड़ा सा कच्चा चना. हज़ारों मील का सफ़र और राजू की जेब में सिर्फ पांच सौ रुपये.

पत्नी और दो बच्चों को लेकर 27 अप्रैल को राजू गांव के लिए निकल पड़ा. पैदल चलकर दिल्ली पहुंचा यह कुनबा कोई मदद न मिलती देख अपनी राह पर बढ़ता रहा. दो रोज़ में सूखी रोटियां ख़त्म हो गईं. अब चना भिगोकर बच्चों को खिला देते और ख़ुद भी खा लेते. कहीं किसी से मदद मांगते तो लोग ‘कोरोना बम’ कहकर बुलाते.

दिन तो चलते गुज़र जाता, रात मुश्किल लेकर आती. बक़ौल काजल, ‘सड़क किनारे सोने में गाड़ियों से कुचल जाने का डर लगता, इसलिए सड़क से सटे खेतों में चले जाते. वहां बच्चों को जानवरों का ख़तरा सताता. पति-पत्नी बारी-बारी से सोते-जागते रात काट देते. चौदह रोज़ में गोरखपुर पहुंचने तक चार सौ रुपये पानी ख़रीदने में ख़र्च हो चुके हैं, फ़िलहाल डेढ़ सौ मील का सफ़र अभी बाक़ी है.

लॉकडाउन में इलाज

संतकबीरनगर ज़िले के धनघटा इलाक़े का कठवतिया गांव. बुज़ुर्ग राजदेव बहू और दो पोतियों संजना और रंजना के साथ रहते हैं. बेटा दिल्ली में रहकर मजदूरी करता है. कोराना का प्रकोप बढ़ने के बाद हुए लॉकडाउन में दिल्ली से घर नहीं आ सका. राजदेव कुछ दिनों से बढ़ती उम्र की तकलीफ़ों से जूझ रहे हैं. एक रोज़ राजदेव की तबीयत अचानक बिगड़ने लगी. कहते हैं गरीब के हज़ार दर्द होते हैं हालांकि उसके बर्दाश्त करने की भी तो एक सीमा होती ही होगी.

दादा को दर्द से कराहते पोतियों से देखा न गया तो पड़ोस के लोगों से दादा को अस्पताल पहुंचाने की मिन्नतें कीं लेकिन कोई तैयार नहीं हुआ. जिसके पास गईं, एक ही जवाब मिलता, ‘जब से कोरोना के मरीज़ बढ़े हैं पुलिस की सख़्ती बढ़ गई है इसलिए जाना ठीक नहीं’. पुलिस की सख़्ती और बीमारी का ख़ौफ़ तो संजना और रंजना को भी था लेकिन दादा की तकलीफ़ का एहसास कहीं ज्यादा.

गोरखपुर का सिकरीगंज बाज़ार गांव से करीब था और वहां के बंगाली डॉक्टर के यहां बच्चियां पहले भी जा चुकी थीं. बच्चियों ने मां से कुछ रुपये लिए, पड़ोसी का ठेला मांगा और दादा को लेकर सिकरीगंज के लिए निकल पड़ीं. गांव से सात किलोमीटर का सफ़र तय करने के बाद सिकरीगंज पुल के पास संजना और रंजना पहुंची ही थीं कि पुलिस का बैरियर देख कर संजना के पांव ठिठक गए. उसने पलटकर दादा की तरफ़ देखा और फिर ठेला आगे बढ़ा दिया.

बैरियर के पास पहुंचते ही सिपाहियों ने बढ़कर बच्चों को घुड़की दी, कहां जा रहे हो? बच्चियां दादा की तकलीफ़ का हवाला देकर गिड़गिड़ाने लगीं. ठेले पर बैठे बेबस राजदेव कभी बच्चियों की तरफ़ देखते तो कभी सिपाहियों के आगे हाथ जोड़ लेते. लेकिन ग़रीब की तकलीफ़ के बारे में क़ानून भला क्यों सुनता? हारकर बच्चियों ने ठेला वापस गांव की तरफ मोड़ लिया.

आवरण फ़ोटो | prabhatphotos.com

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