लॉकडाउन डायरी | अनिश्चितता से निपटने में मनुष्यता का हथियार दहिलापकड़

कुछ डायरीनुमा लिखने की चाह एकांत से उपजती है या कोलाहल से? डायरी के किसी पन्ने की शुरुआत ऐसे ही अमूर्त क़िस्म के किसी औसत वाक्य से होती है. जो लिखने वाले को और कई बार पढ़ने वाले को भी किसी गहरे अर्थ का भ्रम देता है, लेकिन बहुधा वह होता निरर्थक ही है. इलाहाबाद में पढ़ाई के दौरान डायरी लिखने का क्रम कुछ दिन चला. डायरी छुपा कर रखता था, लेकिन एक दिन मित्र के हाथ लग गई. उन्होंने उस पर एक सरसरी निगाह मारी और उसे उछालते हुए कहा कि मनुष्य जाति में सिर्फ़ वही डायरी लेखन थोड़ा बहुत उपयोगी होता है, जिनमें धोबी को दिए कपड़ों के हिसाब या रोज़मर्रा के ख़र्चे लिखे गए हैं. इसके अलावा संसार का जितना डायरी लेखन है, वह आत्महीन पाठक द्वारा आत्ममुग्ध लेखक की दलाली है. हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी उन मित्र के पास इस तरह के विवेचन की कुछ ऐसी क्षमता थी कि अगर उन्होंने साहित्य में हाथ आजमाया होता तो वे हिन्दी आलोचना के सलीम-जावेद होते. और फिर इसके बाद न डायरी और न डायरी की जात. लेकिन कोरोना काल के इस एकांतवास-लॉकडाउन में लेखन का जो हैशटैग चल रहा है, वह कोरोना डायरीज़, क्वारंटीन डायरीज़ या लॉकडाउन डायरीज़ ही है. सो प्रचलन के मुताबिक, इसे डायरी मान लीजिए या कुछ और.

म्यूचुअल फंड की एनएवी और वैराग्य
चीन, यूरोप से काफी दिनों से डराने वाले आंकड़े आ रहे थे. कुछ पत्रकार और कुछ जानकार साथी इस पर चर्चा भी करते थे कि फलां देश में ऐसा हो गया, फलां जगह ऐसा हो गया. अर्थव्यवस्था का क्या होगा? ऐसा ही चला तो मुश्किल होगी. इंक्रीमेंट मिलेगा कि नहीं. कोरोना पर चर्चा मनुष्यता संकट के साथ शुरु होती थी और आखिर में धंधा, कामकाज, नौकरी जैसी चीज़ों तक पहुंचकर विराम पाती.

जीवन का सामान्य होना ऐसा ही होता है. इटली में इतने लोग मरे, स्पेन में यह हो गया. फिर कुछ मार्मिक कहानियां, व्हाट्स एप पर आए उनके वीडियो. और फिर शेयर बाज़ार पर चर्चा कि कोरोना दुनिया के शेयर बाज़ार लुढ़का रहा है और यही टाइम है म्यूचुअल फंड में पैसा लगा दो. मानवता पर संकट की चिंता को म्यूचअल फंड निवेश के संकट में बदलते देर नहीं लगती थी.

लेकिन, कोरोना के मरीज जब शहर में, पास-पड़ोस में मिलने लगे तो चर्चाओं के मुखड़े-अंतरों में डर आने लगा. चिंतायें ग्लोबल से लोकल होने लगीं. दुनिया के हालात पर दुखी होने और दुख के अपने आसपास आ जाने में फ़र्क़ तो होता ही है. बातचीत में वैराग्य का भाव आने लगता है. एक तरफ महामारी की चपेट में आने का भय है तो दूसरी तरफ महामारी के बाद के जीवन का.

साबुन की बट्टी ही इस समय सबसे सच्ची है
ट्रैक्टर एसेसरीज़ बनाने वाले एक कारख़ाने के कुछ मजदूर-कारीगर वहीं कुछ पका रहे हैं. उनके चेहरे उदास हैं, लेकिन उदासी उनका स्थायी भाव नहीं है. आजकल उस गली में विविध भारती साफ सुनाई पड़ता है. उस फ़ैक्ट्री के मालिक उसी गली में कुछ आगे रहते हैं. आजकल घंटों अख़बार पढ़ते रहते हैं. दुआ- सलाम के अलावा उनसे मेरा कुछ ख़ास परिचय नहीं है. लेकिन, एक दिन पूछ बैठे – एक चीज सही-सही बताओ, क्या अख़बार में कोरोना हो सकै. मैंने कहा – ऐसा नहीं है. ऐसे तो ब्रेड के पैकेट खाने के सामान सब पर होने की बात कही जा सकती है. यह सब अफवाह है. उन्होंने कहा – यही मुझे भी लगै. और ख़ैर आप तो अख़बार में हो, आप अपनी चीज़ को ग़लत क्यों कहोगे. मेरी तो आदत है, पढ़ना पड़ता है. लेकिन अख़बार उठाने-पढ़ने के बाद दो-तीन मिनट साबुन से हाथ धोता हूं. और फिर अख़बार गायब. बालकों को हाथ भी ना लगाने देता.

मैंने कारोबार पर असर के बारे में बात करनी चाही तो उन्होंने कहा कि ज़िंदा बच जाएंगे तो कुछ कमा ही लेंगे. फिर उन्होंने कोरोना के बारे में तापमान, चीन के जैविक हथियार होने या कोरोना के महज अफ़वाह होने की बारे में कुछ बातें कीं. मैंने कहा कि ये सब ग़लत बातें हैं. उन्होंने कहा कि भाई साहब, झुठ्ठा से झुठ्ठा आदमी भी एकाध बात सच बोल देता है. कुछ भी हो सकता है. फिर वे अपने गेट पर लगे नल पर हाथ धोते हुए बोले – इस समय बस यह साबुन की बट्टी ही सबसे सच्ची लागे है. इसके आगे सब फेल हैं. दुनिया कोरोना को न मार पा रही. ये तीस सेकेंड में उसका खेल ख़राब कर दे.

सामूहिक चेतना जैसा भी कुछ होता है, क्या
जिसे हम मानवता कहते हैं, उसके पास आज सब कुछ है. वह दुनिया का मनोविज्ञान, राजनीति सब समझने का दावा करता है. और इन्हीं सब आधारों पर मानवता के प्रगति करने या उसके संकट में होने की घोषणा करता है. इस घोषणा के लिए पूरी दुनिया के पास भाषा है, भाषण हैं. उन्हें सुनकर एकबारगी भ्रम होता है कि यह मनुष्य की सामूहिक चेतना बोल रही है. 21 दिनों के लॉकडाउन की घोषणा के बाद एक जानने वाले फ़ोन करके चिंता जताते हैं कि अरे, यार इससे तो गरीब आदमी मारा जाएगा. लेकिन, उसके दो दिन बाद टीवी पर आनंद विहार पर जुटने वाली भीड़ की ख़बरें देखकर कहतें हैं कि अरे, यार सरकार इनको रोक क्यों नहीं रही है. ये कोरोना बम है. हर गांव-शहर में फैला देंगे. मार देंगे सबको.

मनुष्यता की सामूहिक चेतना देश के राजमार्गों पर विखंडित हो गई. वहां एकत्र लोगों में से कुछ पैदल, कुछ बसों में अपनी चेतना, अपने दुख लेकर चले गए. उनके बारे में यह माना गया कि यह कभी सामूहिक चेतना का हिस्सा ही नहीं रहे. बाक़ी लोग या तो टीवी देखने लगे या फिर फ़ेसबुक पोस्ट लिखने लगे. जिन्हें सरकारों का विरोध करना था, उन्होंने उसके विरोध में लिखा. जिन्हें सरकार का समर्थन करना था, उन्होंने सरकार के समर्थन में लिखा. सामुदायिक स्वास्थ्य और महामारियों पर काम करने वाले पर्चे पहले भी लिखते ही रहे होंगे, लेकिन वह इस समय में चर्चा में आए. इन पर्चों में भी यही लिखा था कि महामारियों की सबसे ज्यादा क़ीमत हमेशा गरीबों ने चुकाई है और वह ही इस बार भी चुकाएंगे.

यह अब सामान्य हो चुका है. और गरीबों की सामुदायिक चेतना ने भी मान लिया है कि ऐसी चीज़ों की क़ीमत हमें चुकानी ही पड़ेगी. गरीबी से निकले बिना इससे छुटकारा नहीं. दुनिया भर की गगनचुंबी अर्थव्यव्स्थाओं का खेल इन्हीं नियमों के तहत है. जहां सबके लिए सांप-सीढियों की तरह मौक़े हैं. सांप-ज्यादा हैं, सीढि़यां कम हैं. जो सीढ़ियां हैं भी, उन्हें इस्तेमाल करने वाले गिरा ही देते हैं ताकि उनके पीछे कोई दूसरा न आ सके.

कुनैन की गोली और महाशक्ति
कोरोना एक विषाणु है. जीवित और निर्जीव के बीच की कड़ी. वह इस खेल को अभी इन नियमों के तहत खेलने के बजाय फ़्री स्टाइल से खेल रहा है. दुनिया के संभ्रात नेतृत्व की चिंता यही है. लोग कहते हैं कि कोरोना के बाद दुनिया बदल जाएगी. लेकिन, दुनिया कितनी बदलेगी यह वैक्सीन बनने और उसको लेकर शुरु हो चुके विवादों से ही समझा जा सकता है.

दुनिया की महाशक्तियों के विमर्श में कभी कुनैन की गोलियां चर्चा में आएंगी, यह किसने सोचा था. लॉकडाउन बहुत सारी मिटती जा रही स्मृतियों से पर्दे हटाता है. कुनैन की गोलियां की चर्चा जिला अस्पतालों में बने मलेरिया रोधी केंद्रों की याद दिलाता है. जहां मलेरिया की दवा फ़्री में बंटने की बात लिखी होती थी. सरकारी वाले पीले रंगों से पुती ये इमारतें एक विचित्र क़िस्म का अवसाद पैदा करती थी और याद दिलाती थी कि हम विकाससील देश हैं. पता नहीं ये इमारतें हमारी स्मृतियों से लुप्त हुईं है या वाकई हम विकसित होने की राह पर बढ़ गए हैं.

मूंदहु आंख कतहु कछु नाहीं
पढ़ाई-लिखाई की दुनिया से ताल्लुक़ रखने वाली साथी सलाह देते हैं कि कामू की ‘प्लेग’ फिर पढ़ो. लोगों को ‘लव इन द टाइम ऑफ कॉलरा’ याद आती है. क्वांरंटीन में एकांत के सौ वर्ष पढ़ने की भी सलाह मिलनी ही चाहिए. किताबें दुनिया के अतीत-वर्तमान में झांकने की खिड़की होती हैं. लेकिन, कई बार लगता है कि हम किताब पढ़ते-पढ़ते इस खिड़की में झांकने में इतना मुब्तिला हो जाते हैं कि दरवाजे के बाहर भी एक दुनिया है, इसका भी ख्याल नहीं रहता.

डायरी लेखन पर दुत्कारने वाले उन्हीं मित्र से (जिनका ज़िक्र शुरुआत में किया है) सालों बाद बात होती है. किताबों पर चर्चा होती है. उनका लहजा पहले के मुक़ाबले गंभीर लगता है,लेकिन उनकी आलोचक उच्छृंखलता बरकरार है. कामू के ‘प्लेग’ की चर्चा होती है. वे कहते हैं कि हो सकता है कि उस प्लेग के माहौल को किसी ने कामू से भी ज़्यादा अच्छी तरह से देखा- समझा हो, लेकिन उसकी लिखने-पढ़ने में कोई दिलचस्पी न रही हो. दुनिया का सबसे अच्छा साहित्य तो उन अज्ञात कुलशीलों के नाम है, जिन्होंने कभी लिखा ही नहीं. ऐसे लोगों के प्रति हमें विनम्र और कृतज्ञ रहना चाहिए. मैंने पूछा कि फिर क्वारंटीन का वक्त कैसे कट रहा है? उनका जवाब था – दहिलापकड़. फिर उन्होंने बताया कि कैसे दहिलापकड़ ने दशकों से बेरोजागारी से उपजे अवसाद से बचने में मनुष्यता की मदद की है और अब कैसे कोरोना के उदासी भरे दौर में यह बावन पत्ते काम आ रहे हैं.

ख़बर आती है कि किसी देश में एक ऐसे बुजुर्ग कोरोना से ठीक हुए, जिन्होंने 1918 के स्पेनिश फ्लू की महामारी भी देखी थी. फिर कुछ वो लोग याद आते हैं जो बताते थे कि चेचक और डिप्थेरिया के टीके लगने के क़िस्से बताया करते थे. मैंने इनमें से एक को फ़ोन लगा लिया कि शायद उस समय के बारे में कुछ पता चले तो उसे लिखा जा सके. लेकिन, वे टीके लगाने गांव-गांव पहुंचती टीमों के गांव के लड़कों द्वारा छकाने के क़िस्से सुनाते हैं. फिर बताते हैं कि कैसे परिवार वालों को समझाकर, उन पर दवाब डालकर बच्चे पकड़ में आते और फिर उन्हें टीके लगे. लेकिन कुल मिलाकर वे उसे एक अपनी एक गुदगुदाने वाली स्मृति के दौर पर दर्ज कराते हैं. मैं पूछता हूं कि लेकिन लोग इन बीमारियों से मरते तो रहे होंगे. वे एकाएक गंभीर हो जाते हैं. कहते हैं – बहुत लोग. तो फिर टीका क्यों नहीं लगवाते थे? कहते हैं- तब ज्ञान नहीं था, गरीबी थी और गरीब आदमी के लिए तो मुंदहु आंख कतहुं कछु नाहीं ( आंख बंद कर लीजिए तो कहीं फिर कोई परेशानी नहीं दिखती.) फिर कुछ हंसी-मज़ाक के साथ फ़ोन कट जाता है.

रिपोर्ट बनाने का मेरा उत्साह ठंडा पड़ जाता है. और ऐसा लगता है कि दहिलापकड़ और सहज विनोद भी अनिष्ट और अनिश्चितता से निपटने में मनुष्यता के हथियार हैं. कम से कम उन लोगों के लिए तो हैं ही, जो कोविड-19 के प्राकृतिक होने या प्रयोगशाला में बनाये जाने, वैक्सीन और महामारी रोकने की सरकार की नीतियों पर विश्लेषण नहीं कर सकते. लेकिन, अब ऐसे लोग कम हैं. जिस सूचना, शिक्षा को आदमी को ज्यादा मानवीय, ज्यादा जागरूक बनाना था, उसने उसे सच्ची-झूठी सूचनाओं के गोदाम में तब्दील कर दिया है, जिसमें केवल खोखलेपन की गूंज सुनाई देती है और सहज बुद्धि नक्कारख़ाने में तूती की तरह है.

ईश्वर मनुष्य की सबसे वैज्ञानिक खोज है
दोस्तों का एक व्हाट्स एप ग्रुप कई दिनों की तालाबंदी के बाद अब फॉरवर्ड चुटकुलों और वीडियोज़ से थक चुका है. रामायण, महाभारत और अलिफ़ लैला के फिर टीवी पर आने वाला नॉस्टलोजिया भी अब उतार पर है. इंजीनियरिंग और प्रबंधन के पेशेवर रिटायर होने से पहले ही आध्यात्मिक होने लगे हैं. सोशल मीडिया पर कंटेंट की भरमार इतनी है कि हर फारवर्ड मैसेज आपको मनीषी जैसा महसूस करा सकता है. पोस्टों के शीर्षक हैं – दुनिया में इतनी तबाही मची है तो ईश्वर कहां है. विज्ञान ही बचा रहा है. कोई लिखता है कि ईश्वर के न होने का यक़ीन अब और पुख़्ता हो चला है. ईश्वर से इस तरह की मांगें की जा रही है जैसे इंसान ने उसे वोट देकर चुना हो. इस तरह की मांग सरकारों से करने का फ़ैशन भी नहीं रहा. ‘तर्कवाद, वैज्ञानिकता बनाम ईश्वर’ की बहसें हो रही हैं.

बहुत देर तक इन बहसों में मूक श्रोता रहने के बाद लगने लगता है कि ईश्वर मनुष्य की सबसे महत्वपूर्ण वैज्ञानिक खोज है. विज्ञान की इस अंधाधुंध प्रगति के बाद भी जो भी अज्ञात, अनिश्चित है, वह ईश्वर है. इस बहस को भी एक सहज विनोद ही ख़त्म करता है. एक मित्र लिखते हैं – ईश्वर है. लेकिन उसने सेल्फ क्वारंटीन कर रखा है. पहले भक्तों को दर्शन देता था, अब वह भी बंद कर दिया है.

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