संस्मरण | शरत के साथ बिताया कुछ समय
याद आता है, स्कूल-जीवन में, जब से उपन्यास और कहानियाँ पढ़ने का शौक हुआ, मैंने शरत बाबू की कई पुस्तकें पढ़ डालीं. एक-एक पुस्तक को कई-कई बार पढ़ा और आज जब उपन्यास अथवा कहानी पढ़ना मेरे लिए केवल मनोरंजन का साधन ही नहीं, वरन् अध्ययन का प्रधान विषय हो गया है, तब भी मैं उनकी रचनाओं को अक्सर बार-बार पढ़ा करता हूँ. उनकी रचनाओं को मूल भाषा में पढ़ने के लिए ही मैंने बाँग्ला सीखी. सचमुच ही, मैं उनसे बहुत ही प्रभावित हुआ हूँ.
उनके दर्शन करने मैं कलकत्ता गया. परिचय होने के बाद, दूसरे दिन जब मैं उनसे मिलने गया, मुझे ऐसा मालूम पड़ा जैसे हम वर्षों से एक-दूसरे को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं.
इधर-उधर की बहुत-सी बातें होने के बाद एकाएक वह मुझसे पूछ बैठे, “क्या तुमने यह निश्चय कर लिया है कि आजन्म साहित्य-सेवा करते रहोगे?”
मैंने नम्रतापूर्वक उत्तर दिया, “जी हाँ.”
वे बोले, “ठीक है. केवल इस बात का ध्यान रखना कि जो कुछ भी लिखो, वह अधिकतर तुम्हारे अपने ही अनुभवों के आधार पर हो. व्यर्थ की कल्पना के चक्कर में कभी न पड़ना.”
आरामकुर्सी पर इत्मीनान के साथ लेटे हुए, सटक के दो-तीन कश खींचने के बाद वह फिर कहने लगे, “कॉलेज में मुझे एक प्रोफेसर महोदय पढ़ाते थे. वह सुप्रसिद्ध समालोचक भी थे. कॉलेज से बाहर आकर मैंने ‘देवदास’, ‘परिणीता’, ‘बिंदूरछेले’ (बिंदू का लड़का) आदि कुछ चीजें लिखीं. लोगों ने उन्हें पसंद भी किया. एक दिन मार्ग में मुझे वे प्रोफेसर महोदय मिले. उन्होंने मुझसे कहा, ‘शरत, मैंने सुना है, तुम बहुत अच्छा लिख लेते हो. लेकिन भाई, तुमने अपनी कोई भी रचना मुझे नहीं दिखलाई.”
संकोचवश मैंने उन्हें उत्तर दिया, “वे कोई ऐसी चीजें नहीं, जिनसे आप ऐसे पंडितों का मनोरंजन हो सके. उनमें रखा ही क्या है?”
उन्होंने कहा, “खैर, मैं उन्हें कहीं से लाकर पढ़ लूँगा. मुझे तो इस बात की बड़ी प्रसन्नता है कि तुम लिखते हो, परंतु शरत मेरी भी दो बातें हमेशा ध्यान में रखना. एक तो कभी किसी की व्यक्तिगत आलोचना न करना और दूसरे, जो कुछ भी लिखना वह तुम्हारे अनुभवों से बाहर की चीज न हो.” कहते-कहते उन्होंने एक क्षण के लिए अपनी आँखें बंद कर लीं. फिर वे मेरी ओर देखकर बोले, “यही दोनों बातें मैं तुम्हें भी बतलाता हूँ, भाई.”
किसी एक बात को बहुत आसानी के साथ कह जाना, उनकी विशेषता थी. बातचीत करते-करते वे हास्य का पुट इस मज़े में दे जाते थे, जैसे कोई गंभीर बात कह रहे हों.
ग्रामोफ़ोन पर इनायत ख़ाँ सितारिये का रेकार्ड बज रहा था. आख़िर में उसने अपना नाम भी बतलाया. वे मुस्कराए, फिर हुक्क़े का कश खींचते हुए बोले, “भाई, तबीयत तो मेरी भी करती है कि मैं अपना रेकार्ड भरवाऊँ. और आख़िर में मैं भी इसी लहजे के साथ कहूँ, मेरा नाम है, श्रीशरच्चंद्र चट्टोपाध्याय.”
मस्ती, भोलेपन और स्नेह की वे सजीव मूर्ति मालूम पड़ते थे. दुबला-पतला, छरहरा बदन, चाँदी से चमकते हुए उनके सिर के सफेद बाल, उन्नत ललाट, लंबी नाक और बड़ी-बड़ी आँखें – उनके व्यक्तित्व की विशेषता थी.
हिन्दी पर बात आते ही उन्होंने कहा, “तुम लोग अपने साहित्य-सम्मेलन का सभापति किसी साहित्य-महारथी को न बनाकर, राजनीतिक नेताओं को क्यों बनाया करते हो?”
मैंने उत्तर दिया, “हिंदी में स्वयंभू कर्णधारों का एक ग्रुप है जो अपनी तबीयत से यह सब किया करता है, वरना हमारी हिन्दी में भी प्रेमचंद, जयशंकर ‘प्रसाद’, मैथिलीशरण गुप्त, ‘निराला’ आदि कुछ ऐसे व्यक्ति हैं, जिन पर हम गर्व कर सकते हैं.”
उन्होंने कहा, “हमारे यहाँ बंगाल में भी अधिकतर साहित्य-सम्मेलन के सभापति बड़े-बड़े जमींदार ही बनते रहे हैं, लेकिन यह बात मुझे पसंद नहीं. जिन्हें साहित्य शब्द के वास्तविक अर्थ का ही ज्ञान नहीं, उन्हें सम्मेलन का सभापति बनाना महज हिमाक़त है.”
प्रेमचंद जी के संबंध में एक बार बातचीत चलने पर उन्होंने मुझसे कहा था, “वे बहुत अच्छे आदमी थे. मैं उनसे दो-तीन बार मिला हूँ. उन्होंने मुझे बतलाया था कि हिन्दी में लेखकों को अधिक पैसा नहीं मिलता. बँगला में भी पहले यही हाल था. अब सुधर चला है. देखो न, साहित्य-सेवा के बल पर ही आज मैं भगवान की दया से दो कोठियाँ, मोटर, टेलीफ़ोन आदि खरीद सका हूँ.”
उनकी बातों से मैंने कई बार यह अनुभव किया कि उनमें स्नेह की मात्रा अधिक थी. कई बार बातचीत के सिलसिले में उन्होंने मुझसे कहा, “देखो अमरीत, तुम अभी बच्चे हो, फिर तुम्हारे सिर से तुम्हारे पिता का साया भी उठ चुका है. दुनिया ऐसे आदमियों को हर तरह से ठगने की कोशिश किया करती है. तुम्हारे साथ गृहस्थी है. इसी से मैं तुमसे यह सब कहता हूँ. …और इस बात को हमेशा ध्यान में रखना कि अगर तुम्हारे पास चार पैसे हों तो अधिक से अधिक तुम उन्हीं चारों को ख़र्च कर डालो, लेकिन कभी किसी से पाँचवाँ पैसा उधार न लेना. यह भी मेरे उन्हीं प्रोफेसर महाशय का उपदेश है.”
शरत बाबू के जीवन में कितने ही परिवर्तन आए. उन्हें अनेक परिस्थितियों का सामना करना पड़ा – यह बात तो प्रायः बहुतों को मालूम है. हुगली जिले में उनका एक पुरखों द्वारा बनवाया हुआ मकान है, परंतु वहाँ वे बहुत कम जाया करते थे. कलकत्ते के कालीघाट पर ‘मनोहर पुकुर’ नामक स्थान में उन्होंने अपनी एक कोठी बनवाई.
हावड़ा से बत्तीस मील दूर, बी.एन.आर. लाइन पर ‘देउल्टी’ स्टेशन से लगभग दो मील और आगे ‘पानीबाश’ नामक एक गाँव है. ‘देउल्टी’ स्टेशन से एक कच्ची सड़क प्रायः सीधी ही वहाँ तक चली गई है. आसपास दोनों तरफ या तो खेत अथवा तलैया हैं. कच्चे-सुंदर मकान, परचून की, करघा बीननेवाले की, पान-सिगरेट, चाय-बिस्कुट आदि की दुकानें, एक पक्का छोटा-सा स्कूल, केले और खजूर के पेड़ आदि बड़े अच्छे लगते हैं. एक पगडंडी से उतर कर सामने ही डॉक्टर बाबू की सफेद रंग से पुती हुई झोंपड़ी (दवाख़ाना) – सामने ही से एक मेज़, एक कुरसी, एक लंबी तिपाई और दो अलमारियाँ दिखाई पड़ती हैं. दवाख़ाना के दोनों तरफ तलैया हैं. यह सब कुछ देखने से आदमी सहज ही में समझ जाएगा कि यह शरत का देश है. उससे लगभग दो फरलाँग और आगे चलकर पक्का दो-मंज़िला मकान है. फाटक के ठीक सामने ही कमलों से भरी हुई एक पुष्करिणी, और बंगले के बाईं ओर विशाल रूपनारायण नद बहता है. यही शरत बाबू का गाँववाला, अपना बनवाया हुआ मकान है. वे अधिकतर यहीं रहना पसंद करते थे.
उन्होंने मुझे अपनी लाइब्रेरी दिखलाई, बहुत काफी किताबें हैं.
“देखो अमरीत, यह मेरी मेज़ है. इसी पर मैंने अपनी प्रायः सभी किताबें लिखी हैं.” – बाँस के डंडे में लकड़ी का एक चौड़ा तख़्ता एक कोने से पिरोया हुआ था. आरामकुर्सी पर बैठकर वह प्रायः उसी पर लिखा करते थे.
बँगले के बरामदे में रूपनारायण नद के सामने ही बैठना उन्हें पसंद था. वह बड़े चाव और उत्साह के साथ मुझे एक-एक चीज़ दिखलाते थे.
एक बार उन्होंने मुझे बतलाया कि अपने जीवन में उन्होंने दुख का दो बार आंतरिक अनुभव किया है.
सन 1910 ई. में जब शरत बाबू रंगून में रहते थे, एक बार उनके मकान में आग लग गई. उसमें उनकी एक बहुत बड़ी लायब्रेरी तथा एक अधूरा लिखा हुआ उपन्यास जलकर खाक हो गया था.
दूसरी बार सन 1915-16 के लगभग उनकी एक और किताब नष्ट हो गई. शरत बाबू का वह उपन्यास पूरा लिखा जा चुका था, केवल एक अंतिम पैराग्राफ लिखने को शेष रह गया था. एक दिन उन्होंने उसे पूरा कर डालने के लिए बाहर निकालकर रखा. वह सोच रहे थे कि इसकी समाप्ति किस तरह हो. उन्होंने चाय बनाई, पी और फिर उसे सोचते-सोचते ही वह शौच के लिए चले गए.
उन दिनों उनके पास एक कुत्ता था. उसकी यह अजीब आदत थी कि सामने जो चीज़ पाता, उसे नष्ट कर डालने की चेष्टा करता था. शरत बाबू इसी कारण जब कभी कमरे के बाहर जाने लगते, तभी उसे भी बाहर निकालकर कुंडी चढ़ा देते थे. लेकिन उस दिन वह उसी ध्यान में सब कुछ खुला हुआ छोड़कर ऐसे ही चले गए.
पाखाने से लौटकर उन्होंने देखा, पूरा उपन्यास टुकड़े-टुकड़े होकर कमरे में बिखरा पड़ा था और कुत्ता बैठा हुआ उसका अंतिम पृष्ठ फाड़ रहा था.
यह कथा सुनाते हुए उनकी आँखों में आँसू छलछला उठे. कुछ भर्राए हुए स्वर में उन्होंने मुझसे कहा था – “अमरीत, आज भी जब उसके संबंध में सोचता हूँ तब यह ख़याल आता है कि वह प्रकाशित होने पर मेरी सर्वोत्तम रचना कही जाती. मैंने छह महीने में बड़ी संलग्नतापूर्वक उसे समाप्त किया था.”
मरने से लगभग डेढ़ महीने पहले मैं उनसे मिलने पानीबाश गया था. तब वे सूखकर काँटा हो चुके थे. उन्हें संग्रहणी की शिकायत हो गई थी. जो कुछ खाते, वह हज्म नहीं होता था – यहाँ तक कि ‘क्वेकर-ओट्स’ भी नहीं.
मुझे देखकर बहुत खुश हुए, कहा, “तुम्हारे आने से मुझे बहुत खुशी हुई.”
मैंने अनुभव किया, तब भावुकता की मात्रा उनमें बहुत अधिक बढ़ गई दिखाई पड़ती थी.
उन्होंने मुझसे कहा, “अब इस जीवन में मुझे और कोई भी लालसा बाकी नहीं रही. यह शरीर भी प्रायः निर्जीव ही-सा हो चुका है. मैं बहुत थक गया हूँ. यमराज मुझे जिस वक़्त भी ‘इन्वेटेशन-कार्ड’ भेजेंगे मैं उसी वक़्त, निस्संकोच जाने के लिए तैयार बैठा हूँ.”
थोड़ी देर चुपचाप बैठे रहने के बाद वे बोले, “इच्छा होती है कि जलवायु के परिवर्तन के लिए मैं बंगाल छोड़कर बाहर जाऊँ. लेकिन किसी एक जगह जमकर रहने की तबीयत नहीं होती. सोचता हूँ ट्रेन ही ट्रेन में घूमूँ. अधिक से अधिक हर एक जगह एक-एक, दो-दो दिन ठहरता हुआ.”
मैंने कहा, “यह तो शायद आपके लिए, इस वक्त ठीक न होगा. आप बहुत कमजोर हो रहे हैं.”
उन्होंने कुछ उत्तर न दिया. चुपचाप आँखें बंद किए हुए कोच पर लेट-सा गए.
लौटते समय, शाम को जब मैं उनके चरण चूमकर, स्टेशन जाने के लिए पालकी पर बैठने लगा, वे बोले, “ठहरो अमरीत, मैं तुम्हें इस वक्त ‘रूपनारायण’ की शोभा दिखलाना चाहता हूँ.”
पालकी से उतरकर मैं उनके साथ उसके किनारे तक गया.
आकाश में तारे छिटक रहे थे. उस दिन शायद पूर्णिमा भी थी.
हाथ का इशारा कर वह मुझे बतला रहे थे, “जब बाढ़ आती है, पानी मेरे बँगले की सतह को छूता है, तब मुझे बहुत अच्छा मालूम होता है.”
कौन जानता था, उस दिन, अंतिम बार ही, रूपनारायण के तट पर खड़ा हुआ मैं उस महान कलाकार के व्यक्तित्व का दर्शन कर रहा था.
(सन् 1938. ‘जिनके साथ जिया’ से साभार.)
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