यादों में शहर | रेलगाड़ी से लखनऊ का वह पहला सफ़र 

  • 12:22 am
  • 22 February 2021

(जोश मलीहाबादी की आत्मकथा ‘यादों की बरात’ में दर्ज यह यात्रा-संस्मरण रेलगाड़ी के पहले और 13 मील के छोटे-से सफ़र की याद भर नहीं है, यह उस दौर के लखनऊ का ऐसा मंज़र-नामा भी है, जो लखनवी तहज़ीब, शहर के भूगोल, वहाँ के लोगों और खान-पान के सलीक़े की बानगी पेश करता है. ऐसा ब्योरा जो शायद थोड़े से लोगों की स्मृति में अब भी बचा हुआ हो. -सं )

लखनऊ जाने के वास्ते जब हम सब मलीहाबाद स्टेशन पहुचे. रेलवे के अमले में हलचल मच गई. स्टेशन मास्टर दौड़ा आया, मेरे बाप को झुक कर सलाम किया. वेटिंग-रूम नहीं था, प्लेटफार्म पर कुर्सियां, बेंचे और स्टूल रख दिए गए और हम सब अपने मर्तबे के मुताबिक़ उन पर बैठ कर रेल का इंतजार करने लगे. गाड़ी का इंतजार. एक-एक लम्हा लाखों सदियों जैसा लंबा. किसी के रह-रह कर ऐंठन-सी हो रही थी. कोई कलेजे को मथे डाल रहा था. जिधर से गाड़ी आने चाली थी, उधर घबरा-घबरा कर देखता, बार-बार मुशीर अहमद ख़ां से पूछता कि अब गाड़ी कब आएगी? और वह हर बार मुस्कुरा कर जवाब देते कि बस अब आ ही रही है.

मैं अभी ऊब ही रहा था कि रेलवे के एक बंगाली मुलाज़िम ने टन-टन, टन-टन घंटी बजा कर आवाज़ लगाई कि ‘रहीमाबाद से गाड़ी छोड़ा. ‘मैंने मुशीर ख़ां से पूछा, ‘यह गाड़ी छोड़ा क्या कह रहा हैं?’ उन्होंने हंस कर कहा, ‘यह आदमी बंगाली है. बंगाली इसी तरह बोलते हैं.’ ‘मैंने फिर पूछा कि अब गाड़ी में कितनी देर है? उन्होंने कहा बस पांच मिनट की देर है. मेरा दिल बल्लियों उछलने लगा. थोड़ी देर में देखा कि गाड़ी कमर लचकाती और धुआं उड़ाती घड़-घड़, घड़-घड़ चली आ रही है. मुझे उसके धुएं में जैसे फूल से नाचते नज़र आने लगे और जब वह ऐन प्लेटफार्म से धन-धन, धड़-धड़ करती गुज़रने लगी, तो प्लेटफार्म थर्राने लगा. प्लेटफार्म की थरथराहट मेरे ख़ून में दौड़ने लगी. इर्द-गिर्द के ज़रें उछलने, कूदने लगे और मेरा दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा.

जब हम सब सुकून के साथ बैठ गए, गार्ड ने झंडी हिलाई. उसकी झंडी देख कर भरी उमंगें नाचने लगीं. झंडी हिला कर गार्ड ने सीटी बजाई. हाय! क्या सुरीली सीटी हैं. उसके जवाब में इंजन ने सीटी दी. चूं-चूं के साथ पहियों को हरकत हुई और गाड़ी बड़े ठस्से के साथ चलने लगी छक-छक, छक-छक. जब गाड़ी की रफ़्तार में तेज़ी आ गई तो हवा के ठंडे झोंके मेरे चेहरे से यूं टकराने लगे कि मेरे दिल में एक अनोखा सुरूर सरसराने लगा और जब रफ़्तार और भी तेज़ हो गई तो पटरी के खंभे और आमों के बाग़ घूमने, झूमने और नाचने लगे. पटरी के नीचे की नाली इस क़दर तेज़ी के साथ दौड़ने लगी जैसे रेल से रेस कर रही हो.

यह समां देखकर मेरे दिल पर एक अजीब कैफ़ियत तारी हो गई. मेरे लब गुनगुनाने लगे, छक-छक, छक-छक, गाने दो. छक-छक, छक-छक, गाने दो, गाने दो, छक-छक, छक-छक, जाने दो, जाने दो, जाने भी दो. यह मेरी शायरी के आग़ाज़ का पहला लम्हा था. जब गाड़ी काकोरी के पुल से गुड़म, गुड़म करती गुज़रने लगी तो मेरे दांतों के नीचे दीवाली की मिठाई के खिलौने टूटने लगे कुड़म, कुड़म. मलीहाबाद और लखनऊ के बीच फ़ासला ही क्या है, ले देकर सिर्फ़ 13 मील और इस नज़दीकी की बिना पर हमारी गाड़ी सैकड़ों खड़ी हुई गाड़ियों की क़तारों के दरम्यान से घड़म-घड़म, शायं-शायं करती हुई और बार-बार लाईन लगातार बदलने वाली पटरियों को खच-खच-ख़चाक, खच-खच-ख़चाक और कट-कट-कटाक काटती और तराशती हुई कोई 30 मिनट के अंदर ही चारबाग़ लखनऊ जंक्शन पहुंच गई.

चारबाग़ की तूफ़ान जैसी क़यामत पैदा कर देने वाली हलचल, गहमा-गहमी, धक्कापेल, अफ़रा-तफ़री, चीख़-पुकार फिर उस पर दौड़ते ठेलों की जिगर ख़राश घड़घड़ाहटें, क़ुलियों की, क़ुली-क़ुली के नारों की, टिकट चेकरों, पुलिसवालों, रेलवे मुसाफ़िरों, बोझ उठाए कुलियों आंर बच्चों को कंधों पर बिठाये बदहवास मुसाफ़िरों के बीच धक्कम-धक्का. शंटिंग के धमाके, हज़ारों सीटियों की आवाज़ें, धुएं के लच्छे, लच्छों में घिसे हुए तर-ब-तर पुरज़ोर और जले हुए तेल की बदबू, फ़िरंगियों के छिछोरे गुरूर में ढले हुए, रूखे, फीके चंगेज़ी चेहरे.प्लेटफ़ार्म पर क़दम रखते ही मैं तो दीवाना हो गया.

फ़िरंगियों की अकड़फ़ूं देखता था, तो मेरी पठनोली की ज़बान पर मोटी-सी गाली आ जाती थी और मेमों की तरफ़ निगाह उठाता था, तो मेरे नन्हें से शायर के मुंह से ‘हाय जानी’ निकल जाता था और जब स्टेशन का शोरो-ग़ुल हवास पर दबाव डालता था तो मेमों की कमरें निगाह से ओझल हो जाती थीं और ख़ौफ़ मेरा घेराव कर लेता था. मैं अभी इस शेर की दहाड़ जैसै शोर, ग़ूं-गां और उस भीड़-भाड़ में घिरा हुआ खड़ा था कि मुशीर अहमद ख़ां ने दौड़ कर मेरी उंगली पकड़ ली और हमारा काफ़िला अपने सिपाहियों के साथ उस भीड़-भाड़ से बाहर निकलने के वास्ते रेंगने लगा.

अभी हम चंद क़दम ही चले होंगे कि हामिद अली ख़ां बैरिस्टर दौड़ कर मेरे बाप के गले लग गए. इतने में एक बेहद चमकते साइनबोर्ड ने मेरी आंखों में ज़ंजीर डाल दी. मैं नज़र जमा कर उसे देखने लगा. बाप से कहा, ‘मियां, हमको यह बोतल ले दीजिए.’  मियां, अंग्रेज़ी नहीं जानते थे. उन्होंने हामिद अली ख़ां से पूछा, “यह किस चीज़ का इश्तेहार है?” उन्होंने ज़ोर से क़हक़हा मार कर कहा, ‘होनहार बिरवा के, चिकने चिकने पात, मुबारक हो ख़ां साहब कि साहबज़ादे ख़ुदा के फ़ज़ल से अभी से शराब की बोतल मांग रहे हैं.’

ख़ैर, हज़ार दुश्वारियों के बावजूद हम बाहर आ गए. हम लोग तय की हुई घोड़ा गाड़ियों से और हमारे मुलाज़िम इक्कों से अपनी मंजिल की तरफ़ रवाना हो गए. मियां की गाड़ी में मुशीर अहमद ख़ां थे और मैं. मियां सामने की सीट पर और हम दोनों कोचवान के तरफ़ की सीट पर बैठ गए. मियां का भरा हुक़्क़ा उनके सामने और पानी के कटोरे से ढंका हुआ लोटा नीचे रख दिया गया. चिलम की आग से मुझे तकलीफ़ पहुंच रही थी, मगर लखनऊ आने की ख़ुशी इतनी ज़्यादा थी कि मुझको असल तकलीफ़ में भी मज़ा आ रहा था और जब सड़क के उतार-चढ़ाव से लोटे पर ढंका हुआ कटोरा खनखनाता था, तो मेरे दिल में घुंघरू से बजने लगते थे.

जब हमारी गाड़ी ऐशबाग़ के मोड़ से गुज़रने लगी तो सामने के एक बहुत बड़े तालाब को देखकर मैंने पूछा, ‘मियां, अगर हम इसमें कूद पड़े तो क्या डूब जाएंगे?’ यह सुनना था कि उनके चेहरे का रंग हल्दी का सा हो गया और उन्होंने फ़रमाया, ‘बेटा बदशगुनी की बात कभी ज़बान पर नहीं लानी चाहिए. अल्लाह तुम्हारी उम्र दराज़ करे.’  मियां, काश आपकी दुआ क़ुबूल न हुई होती और मैं जवानी में ही इस दुनिया से रुख़सत हो जाता. आप ख़ुशकिस्मत थे कि आपको जवानी में ही मौत आ गई. मैं बदनसीब हूं कि बूढ़ा होकर रूह को डसने वाली बेशुमार यादों और ज़िंदगी के तपते रेगिस्तान में पड़ा एक मुद्दत से एडियां रगड़ रहा हूं.

अब हमारी गाड़ी अकबरी दरवाज़े के सामने जाकर खड़ी हो गई और हमारा सामान बांस वाली सराय में जाने लगा. लखनऊ के लोग हमारे अफ़ग़ानी रंग-ढंग, हमारी जिस्मानी बनावट, हमारे सिपाहियों की सज-धज, उनके बड़े-बड़े पग्गड़ और उनके मोटे-मोटे लट्ठ देखने के लिए म़जमा लगा कर हमारे आसपास जमा हो गए. मैंने अकबरी दरवाज़े के अंदर जैसे ही क़दम रखा तो यह देखा उस चौड़े, चकले दरवाज़े के दायें-बायें लकड़ी के तख़्तों पर मिट्टी के इस क़दर साफ़, हसीन और इस क़दर नाज़ुक खिलौने ऊपर-नीचे रखे हुए हैं कि एक बार तो उन्हें देखकर यह ख़्याल होने लगा कि क़रीब जाऊंगा तो हर खिलौना पलकें झपकाने और मुझसे बातें करने लगेगा, गुजरिया भाव बताने लगेगी और पानी पिलाने वाले खिलौनों को अगर ज़रा-सा भी छू लिया, तो उनकी भरी हुई मश्कों से भी धल-धल पानी बहने लगेगा.

खिलौने खरीद कर जब मैंने चौक में क़दम रखा अगरबत्ती और लोबान की लपटों ने मेरा स्वागत किया. आगे बढ़ा तो सोने-चांदी के वर्क़ कटने की खटाखट ने मेरे पैरों में ज़ंजीर डाल दी. वह नपी-तुली खटाखट ऐसी मालूम हुई – जैसै तबले पर बोल कट रहे हैं. फिर हार वाले की सुरीली आवाज़ आई, ‘हार बेले के, फूल, चंपा के.’ वहां से आगे बढ़ा तो क्या बताऊं क्या-क्या देखा. हाय! पान वालों की वह झलझलाती तेज़ी, तेज़ आवाज़ें, उनकी वह दो पल्ली टोपियां, उनके शरबती अंगरखे, वह घने-घने पट्टे, वह चूड़ीदार पाजामे, कंधों पर वह रेशमी बड़े-बड़े रुमाल, उनकी आड़ी-तिरछी निकली हुई मांगें, कल्लों में दबी हुई ख़ुशबू में तर पान के बीड़े, लोगों के हाथों में ख़ुशबूदार तंबाकू के हुक़्क़े. हुक़्क़ों पर लिपटे हार. हारों से पानी के क़तरों का वह टपकना, वह बजते कटोरे, वह सारंगियों की थरथराहट के हवाओं में हिलोरें, वह गमकते हुए तबले, घरों के ऊपरी छज्जों से वह हसीनों के मुखड़ों की बरसती चांदनी और ज़ुल्फ़ों के गिरते हुए स्याह बादल.

कोठेवालियों में कोई गोरी, कोई चंपई, कोई सांवली-सलोनी. नैन-नक़्श इस क़दर बारीक़ जैसे हीरे के क़लम से तराशे हुए. कोई कड़ियल जवान, कोई नौजवान और कोई इन दोनों के दरम्यां जैसे हमकती हुई उठान. कोई गठे जिस्म की और कोई धान-पान. किसी की नाक में नथ, किसी की नाक में नीम का तिनका. तमाशाइयों का हुजूम, कंधे-से-कंधा मिलाकर चलते रेले और कोठों पर नज़र जमाये हुए अलग-अलग दिशाओं से आने-जाने वालों के सीनों का टकराव और टकराव पर हाथ जोड़ कर वह माफ़ी मांगना. मैं अभी इस तिलिस्म के दरिया में ग़ोते खा रहा था कि मुशीर ख़ां ने मेरा हाथ पकड़ कर अपनी तरफ़ खींचा और मैं ख़्याली दरिया से निकल कर किनारे पर आ गया. सारा तिलिस्म टूट गया और मैं सबके साथ मियां के पीछे-पीछे सर झुका कर सराय आ गया.

सराय में क़दम रखते ही दम घुटने लगा. मैंने बड़ी ख़ुशामद के साथ कहा, ‘मियां, हम सिपाहियों को साथ लेकर नीचे घूम आएं?’ मुशीर ख़ां मुस्कुराये और मियां ने बड़ी डराने वाली संजीदगी से कहा, ‘चौक बच्चों के टहलने की जगह नहीं है.’ मै कलेजा मसोस कर रह गया. इतने में सालेह मुहम्मद ख़ां ढोरे को साथ लेकर आ गए. वह लखनऊ का मशहूर कुल्फ़ी वाला था और लेफ़्टिनेंट गवर्नर तक की पार्टियों में बुलाया जाता था. उसने दोनों हाथों की हथेलियों में बड़ी-बड़ी कुल्फ़ियों को बड़े माहिराना अंदाज़ से घूमा-घुमाकर और मलाई को मिट्ठी की सोंधी-सोंधी रक़ाबियो में खोल-खोल कर पेश किया. उसने मिट्टी के कोर-कोरे चमचे भी सामने रख दिए.

क्या बताऊं उन कुल्फ़ियों और उन मिट्टी के बर्तनों की लज़्ज़त और मुलायमियत. ज़बान ने इससे पहले कभी ऐसी कोई चीज़ चक्खी ही नहीं थी. उसके मज़े को बयान करूं तो कैसे और मिसाल दूं तो किस चीज़ से. उनकी मुलायमियत का तो यह आलम था कि उनको सिर्फ़ होंठों, तालू से खाया और नज़र की हरारत से पिघलाया जा सकता था. रात होते ही हमारे बावर्ची के पकाये हुए पकवानों के साथ-साथ अब्दुल्लाह की दुकान की पूड़ियां-कचौड़ियां, अहमद की मेवा, दूध और मक्खन से बनी चपातियां. सआदत की शीरमालें, शुबराती के 18-18 परतों के पराठे, झम्मन रकाबदार के भुने हुए मुर्ग़, शाहिद का बटेरों का पुलाव, हैदर हुसैन ख़ां के फाटक की गली का अनन्नास का मीठा पुलाव. ग़ुलाम हुसैन ख़ां के पुल के क़बाब, कप्तान के कुएं की पिस्ते-बादाम की मिठाई, हुसैनाबाद की मलाई और न जाने क्या-क्या नेमतें हमारे दस्तरख़्वान पर चुन दी गई थीं. फिर मैं खा-पीकर सो गया.

भोर का उजाला तो पड़ ही चुका था. मैं सबसे पहले जाग कर छत पर चढ़ गया. सुबह का स्वागत करने को जब आसमान की तरफ़ नज़र उठाई, शहर की ऊंची-ऊंची इमारतों की वजह से सुबह की रंगीनी दूर-दूर भी नज़र नहीं आई. आंखें मुर्झा गईं. मैंने देखा पौ तो ज़रूर फ़ट रही है और मुर्ग़ भी बांग दे रहे हैं, लेकिन पौ फटने में न तो वह सुहानापन है और न ही मुर्ग़ों की बांग में ही वह ज़ोर हैं. ज़मीन से आसमान तक एक फीकापन छाया हुआ है. सांस लेता हूं, तो धांस भरी मोटी-मोटी हवा सीने को खुरच कर दिल पर और बोझ डाल रही है. सुबह की हवा चल रही है मगर उसके झोकों में बिल्कुल धार ही नहीं है. जैसे क़ुदरत की दुल्हन बेनूर है. उसके पांव में न चांदी के घुंघरू हैं, न सर पर दुपट्टा.

मेरा जोश ऐसी मलगिजी-मलगिजी, खोई-खोई, फीकी- फीकी, उबली-उबली, सीठी-सीठी, गूंगी-गूंगी, भिंची-भिंची और ऊंधी-ऊंधी और बुझी-बुझी सुबह को देखकर गुल हो गया और धुंआ देने लगा. मै उस बदक़िस्मत आशिक़ की तरह, जिसका माशूक़ उसको दग़ा देकर ग़ायब हो गया हो, भारी दिल के साथ नीचे उतर आया और मुंह-हाथ धोने लगा. मुंह पर बार-बार छपाके मारे, मगर दिल की मुर्झाई कली नहीं खिली. इतने में नाश्ता आ गया. रोग़नी रोटी, अंडों के आमलेट, मलाई, शीरमाल और मीठे दूध का नाश्ता करके निबटा तो मेरे बाप ने दो सिपाहियों और मुशीर ख़ां को साथ करके मुझे लखनऊ की सैर करने के लिए रवाना कर दिया.

मैंने लखनऊ के हफ़्ते, दस दिन के क़याम में कई जगह की सैर की, तारीख़ी इमारतें देखीं. हुसैनाबाद की शाही कोठी, इसका क्लाक टावर, हुसैनाबाद का इमामबाड़ा, भूलभुलैया, आसिफ़ुद्दौला का इमामबाड़ा, रूमी दरवाज़ा, हज़रत अब्बास की दरगाह, नजफ़ अशरफ, ताल कटोरा और भूल कटोरे की क़र्बलाएं, बेली गार्ड, अजायबघर, शाह मीर मुहम्मद के टीले की मस्जिद, शाह मीना का मज़ार और मोती महल. इसके अलावा हज़रतगंज, चुनिया बाजार, अमीनाबाद, गोमती, ठंडी सड़क, लोहे का पुल, लालबाग़, सिकंदर बाग़, बंदरिया बाग़, विक्टोरिया बाग़, बनारस बाग़ और छतर मंज़िल का महज़ वह हिस्सा जो सड़कों से नज़र आता हैं, क्योंकि उस वक़्त हिंदुस्तानियों को वहां दाख़िल होने की इजाज़त नहीं थी. हर तौर मेरी लड़कपन की निगाहों में ये तमाम जगहें बड़ी अजीब थीं, लेकिन इन तमाम अजीब जगहों से कईं मंज़र बड़े अजीब नज़र आए.

लखनऊ के रईस, शरीफ़, उलेमा, अदीब, और शायर मेरे बाप के पास आते या वह ख़ुद उनके यहां तशरीफ़ ले जाया करते थे. अल्लाह-अल्लाह! वह उनके लचकीले सलाम, वह उनकी महफ़िलों के बर्ख़ास्त होने के पाक़ीजा अंदाज़. वह उनकी तहज़ीब में डूबे तौर-तरीक़े, वह उनके लिबास की अनोखी तराश-ख़राश, वह अदबी और इल्मी मसलों पर बहस के हंगामे. वह उनके अल्फ़ाज़ का ठहराव, वह उनके लहजों के कटाव, ग़ज़ल ख़्वानी के दौरान वह शेर के मायनों के मुताबिक़ उनकी आंखों का बदलता रंग और उनके चेहरो का उतार-चढ़ाव. वह क़हक़हे और उनकी हल्की-हल्की मुस्कान, वह उनका नरमी के सांचे में ढला हुआ वजूद और बावजूद इसके साथ जोड़-जोड़ कर उनका अपनी बेइल्मी को बयां करना. यह सारी बातें देख कर मैं हैरान होकर रह गया. वह तमाम लोग इस क़दर बा-सलीका, नेक और नरम मिज़ाज थे कि ऐसा मालूम होता था जैसे वह इस मिट्टी से नहीं बने, बल्कि किसी नूर से बने बाशिंदे हैं.

उन्हीं बुज़ुर्ग़ों की जूतियां सीधी करके मैंने सलीक़ा सीखा. अदब और ज़बान में नज़र पैदा की और यह ज़रा-सी महारत जो आज मुझे अदब व ज़बान पर हासिल है, यह उन्हीं की सोहबत का असर है. न अब वह लखनऊ है और न वह लखनऊ वाले. एक-एक करके सब चले गए ख़ाक के नीचे. उनके जौहरों को खा गई मिट्टी. बहुत दिन हुए मैंने एक रुबाई कही थी —

जलती हुई शम्ओं के बुझाने वाले, जीता नहीं छोड़ेगे ज़माने वाले
लाशे-देहली पे, लखनऊ ने यह कहा, अब हम भी हैं कुछ रोज़ में आने वाले.

सो, जो मैंने कहा था वही हो गया. पिछले साल जब लखनऊ गया, तो लखनऊ की उदासी देख कर दिल से ख़ून की बूंदें टपकने लगीं. आंखें फाड़-फाड़ कर हर तरफ़ देखा. कोई जानी-पहचानी सूरत नज़र नहीं आई, बल्कि इसकी जगह यह देखा कि बिना तराशे हुई शाख़ों के से खुरदुरे और तिकोने चेहरों के डरे हुए लोग बार-बार अपने उलझे हुए बाल खुजाते और दायें-बायें थूकते चले जा रहे हैं. न वह शानदार गाड़ियां हैं, न उन्दा क़िस्म की बंद घोड़ा गाड़ियां और न ही वह आला दर्जे के तांगे. ले-दे के चंद घटिया क़िस्म के इक्के और बेरंगो-रोग़न के चूं-चूं करते तांगे हैं, जिनमें घोड़ों के बदले चूहे जुते हुए हैं. चंद खड़-खड़ करती रिक्शाएं हैं, जिनको न जाने किस सरज़मीन के हूश लौंडे चला रहे हैं और वह तमाम इस क़दर ज़लील हैं कि उनके रिक्शों पर अगर सिकंदरे-आज़म को भी बिठा दिया जाए, तो वह भी किसी देहाती रंडी का भड़वा नज़र आने लगे.

दोपहर के वक़्त नख़ास (बाज़ार) गया. असली लखनऊ नख़ास तक है. अमीनाबाद और हज़रतगंज वालों को बाहरी समझा जाता है. नख़ास की वह सड़क जो लखनवी तहजीब का गहवारा थी, उदास-उदास नज़र आई. हकीम साहबे आलम के मदरसे के ऊपरी हिस्से की तरफ़ निगाह उठाई, तो जैसे दिल पर किसी ने घूंसा मार दिया. एक-एक करके यारों के वह तमाम जश्न आंखों से गुज़रने लगे, जिन्होंने वहां मेरे साथ रातें जगाईं  और धूमें मचाई थीं और देखा कि ‘यगाना’ चंगेज़ी, हकीम ‘साहब आलम’, ‘मजाज़,’ हकीम ‘मख़मूर’ और अता ‘हुसैन’ क़ज़लबाश कफ़न ओढ़े ज़ीने से उतरने चले आ रहे हैं. आंखों में आंसू आ गए.

आंसू पोंछता बांस वाली सराय की तरफ़ मुड़ा तो पुरानी यादें सर पीटने लगीं और जब इस नई सड़क से गुज़र कर, जो सराय को शहीद करके उसकी क़ब्र पर बनाई गई है, चौक में क़दम रखा तो कलेजा थाम कर रह गया. कभी बे सोचे-समझे उजाड़े हुए चौक ने आंखों में आंसू भर कर मुझे सलाम किया. हाय! वह चौक जो कभी रंगो-बू गुलिस्तान हुआ करता था, अब भायं-भायं कर रहा है. जिन कमरों में परियां रहती थीं और जो फ़जा – सा रे गा मा के झूलों में झूला करती थी, वहां अब काले भूतों को आबाद कर दिया गया है. हाय! जिन छज्जों पर जुल्फ़ें लहराया करती थीं, वहां लंबी-लंबी दाढ़ियां फटकारी जा रही हैं. जहां तबले गमकते थे, वहां ख़ारिशिए कुत्ते भौंक रहे हैं और जहां चांदनी रहा करती थी वहां झुलसाती धूप बसा दी गई है.

(‘यादों की बरात’ का यह हिन्दी तर्जुमा नाज़ ख़ान ने किया है.)

कवर | indianewengland.com से साभार

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