रचनात्मकता की दुनिया में बसने वाले एक निरे मनुष्य का जाना..

  • 12:07 pm
  • 23 December 2022

जब किसी व्यक्ति से आपका सघन आत्मीय रिश्ता हो और उनकी रचनात्मकता और हुनर के आप एक अरसे से प्रशंसक रहे हो, तब उसका तटस्थ और निरपेक्ष मूल्यांकन सहज नहीं होता. राकेश श्रीमाल नामधारी व्यक्ति और उनकी कविताओं से मेरा परिचय एक साथ हुआ. सामान्य से ऊंचा कद, ढीला-ढाला वस्त्र विन्यास, तिरछी भंगिमा, हर एक और हर बात से तुरंत सहमत न होता हुआ दिल और दिमाग़ कुछ इसी तरह की तबियत से लबरेज़ राकेश श्रीमाल से मेरी पहली मुलाकात वर्धा में हुई.

ग्वालियर में लगभग 15 वर्ष की सरकारी सेवा के बाद अप्रैल 2007 में मैं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में एक और नौकरी करने पहुँचा था. जिन लोगों का वर्धा की प्रकृति से वास्ता है या रहा है, वे वखूबी जानते हैं कि मार्च के बाद वहां का तापमान असहनीय हो जाता है. संभवत: दो वर्ष पूर्व ही विश्वविद्यालय दिल्ली से वर्धा स्थानांतरित हुआ था, उसकी बड़ी रोचक और सनसनीख़ेज़ कहानी है जिसका अवसर फ़िलहाल नहीं है. विश्वविद्यालय की इसी स्थानान्तरण प्रक्रिया का हिस्सा बनकर राकेश श्रीमाल भी अपनी सारी कलात्मक खूबियों और रचनात्मकता के साथ वर्धा आ धमके थे.

सीकरी यानि दिल्ली से वर्धा स्थानांतरित सहयोगियों के लिए बैठने की व्यवस्था जाजूवाड़ी में किराए के भवन में की गई थी. जिसके एक कमरे में प्रकाशन विभाग का काम राकेश श्रीमाल संभालते थे. दिल्ली रहते हुए बहुवचन, हिंदी (जो अंग्रेजी में छपती थी) और पुस्तक वार्ता ने हिंदी समाज और साहित्य की दुनिया में अपनी अलहदा पहचान बना ली थी. वर्धा आते ही इन तीनों पत्रिकाओं का प्रकाशन एक निश्चित अंतराल के लिए स्थगित कर दिया गया. प्रकाशन विभाग को लेकर नई योजनाएं बननी शुरू हुईं, जिनको लेकर राकेश श्रीमाल की अपनी असहमतियां थी, जिनके साथ उनकी अलग तरह की ऊभ-चूभ शुरू हुई.

उनकी रचनात्मकता के लिए स्पेस लगातार कम होता गया. उनका भरसक प्रयास रहता कि विश्वविद्यालय के कामों को एक रचनात्मक स्वरूप मिले, पर पूर्व कुलपति से उनकी नजदीकियां आड़े आ जाती और बात फिर-फिर बिगड़ जाती और फिर इंदौर, गुना, भोपाल, बम्बई और दिल्ली में किये गए अनेक रचनात्मक कार्यों की स्मृतियों में वे डूब जाते. रस रंजनी राकेश श्रीमाल की स्मृतियों की इस यात्रा का सहयात्री जब-जब मैं बनता तो उनके व्यक्तिव की बनावट और बुनावट की कई परतें खुलतीं. उनका जीवन संघर्ष, शहर-दर-शहर की यायावरी और काम करने के अनेक अवसर, रंगमंच, संगीत, साहित्य और फ़िल्मों की बारीक जानकारियां हासिल होतीं.

राकेश श्रीमाल का बचपन और विद्यार्थी जीवन सामान्य से कुछ भिन्न रहा. इस बात की तस्दीक इंदौर और गुना के उनके आरम्भिक दोस्तों ने अपने संस्मरणों में की है. उनके गहरे यार और हिंदी के वरिष्ठ कवियों में से एक कुमार अम्बुज ने एक संस्मरण में इन बातों का जिक़्र किया है, जो राकेश श्रीमाल के कबीरपने की एक बानगी है. उन्होंने परिवार की घोर असहमति के बावजूद प्रेम विवाह करके अपने दाम्पत्य जीवन की शुरुआत की. महज 25 वर्ष की उम्र में भोपाल आकर ‘कलावार्ता’ के संपादक का ओहदा संभाला. लगभग तीन साल तक कलावार्ता के बेहतरीन अंक निकाले. भारत भवन के अनेक साहित्यिक और सांस्कृतिक आयोजनों में उनकी केंद्रीय भूमिका रही. अपनी हुनरमंदी का अधिकतम भोपाल को सौंप वे मुम्बई आ गए. आरंभिक समय कुछ कठिनाई में बीता पर प्रतिभा ने वहां भी गुल खिलाये. छोटे से अख़बार ‘निर्भय पथिक’ का दीपावली विशेषांक निकाल कर लगभग खलबली मचा दी. उसके बाद राहुल देव से प्रगाढ़ता, पृथ्वी थियेटर के नाट्य उत्सव की कलात्मक रिपोर्टिंग करते हुए अंततः जनसत्ता के रविवारीय पत्रिका ‘सबरंग’ में दस वर्षों तक अनेक रंग भरे और फिर दिल्ली की ओर रुख़ किया.

देश की आर्थिक राजधानी से राजनीति की राजधानी पहुँचे राकेश श्रीमाल ने सबसे पहले ‘क’ नाम की पत्रिका निकाली. श्वेत-श्याम कलेवर में निकली इस पत्रिका ने लोगों का पर्याप्त ध्यान खींचा. इसी दौरान हिंदी विश्वविद्यालय की पत्रिका ‘पुस्तक वार्ता’ के संपादक के रूप में काम करना आरम्भ किया. साहित्य से वास्ता रखने वाले प्रत्येक सुधीजन के लिए पुस्तक वार्ता एक अनिवार्य पत्रिका साबित हुई. राकेश श्रीमाल द्वारा संपादित इसके अंक आज भी किसी भी संपादक के लिए रचनात्मक चुनौती के रूप में मौजूद हैं. इसी पत्रिका के अनेक स्तम्भों में से एक ‘पुस्तक और मैं’ बेहद चर्चित रहा, जिसे उन्होंने बाद में पुस्तक रूप में संपादित किया. हिंदी विश्वविद्यालय के सफ़दरजंग स्थित कार्यालय में जब तक उनकी उपस्थिति रही, उन्होंने प्रकाशन विभाग से अनेक मानीख़ेज़ पुस्तकों के प्रकाशन में सहयोग किया. कार्यशालाएं आयोजित की. कला और संगीत की दुनिया के नायाब सितारों से हिंदी जगत का परिचय कराया.

हिंदी विश्वविद्यालय के इलाहाबाद केंद्र की स्थापना से लेकर सन 2018 में वहां से इलाहाबाद विश्वविद्यालय के लिए मेरे कार्यमुक्त होने तक अनेक अवसर आए, जब उनके सहयोग की मुझे ज़रूरत महसूस हुई और उन्होंने कभी निराश नहीं किया. इसी दौरान उनका स्थानांतरण देश के एक और महानगर कहे जाने वाले शहर कोलकाता हो गया. वहां पहुँचकर उन्होंने अलग ढंग से अपने को व्यवस्थित और काम करना शुरू किया. इस बीच राकेश श्रीमाल ने वर्धा स्थित संग्रहालय को नए सिरे से संयोजित किया तथा उसमें संग्रहित कालजयी सामग्री को हिंदी पाठकों के सामने लाए. कलकत्ता में अनेक प्रशासनिक दुरभसन्धियों से अपने को बचाते हुए ‘ताना-बाना’ पत्रिका निकाली. जिसके कुल तीन अंक निकल पाए, ये तीनों अंक अपनी कलात्मक आभा और कंटेंट में प्रभावशाली हैं.

कोरोना की विभीषिका के बीच एक कलाकार की स्थिति को गहरे तक महसूस करते हुए उन्होंने कलाकारों के हाथों में कूची की जगह कलम थमा दी. कलाकारों की इस एकांत यात्रा के अद्भुत और त्रासद किस्से हमारी स्मृतियों में दर्ज हो गए. ये एक ऐसा काम था जिसकी तरफ सिर्फ राकेश श्रीमाल का ध्यान गया और हमनें दुनिया के तमाम कलाकारों की ज़िंदगी को नज़दीक से जाना और महसूस किया. कलकत्ता रहते हुए पिछले चार साल में उन्होंने सात किताबें संपादित कीं. अनेक नए स्तम्भ शुरू किए. अनेक लोगों के रचनात्मक कार्यों को सराहा और सामने लाये.’मिट्टी की तरह मिट्टी’, ‘कलाचर्या’ और ‘कोरोना काल में चित्रकार’ कोरोना काल में संपादित उनकी नायाब पुस्तकें हैं. ये किताबें कला की दुनिया की ऐसी खिड़की खोलती हैं, जहां वैविध्य है, बहुलता का आत्मीय रंग है. सत्ता प्रतिष्ठानों से सवाल हैं. कहने का ढंग मुकम्मल, अनूठा और विशिष्ठ है. कला की दुनिया को जानने के लिए तीनों पुस्तकें टेक्स्ट बुक की तरह पढ़े जाने की मांग करती हैं.

हिंदुस्तान के साहित्य, कला, संस्कृति के साथ समाज, राजनीति और आर्थिकी के केंद्र कहे जाने वाले आठ शहरों के बाशिंदे राकेश श्रीमाल के अनेक रूप हैं. किसी एक को थामिए तो दूसरा किनारा कर लेता है. रचनात्मकता की हरी-भरी दुनिया में बसने वाले राकेश दरअसल निरे मनुष्य थे. उनके सारे रूप इस मनुष्य रूप से छोटे हैं. सर्वप्रथम वे प्रेमी थे. प्रेम उनका स्थायी भाव था. उनकी प्रेम कविताएँ इस बात का विश्वास दिलाती हैं. इसका अनुभव उनके कविता संग्रह ‘अन्य’, ‘कोई आया है शायद’ और ‘नोनी के लिए कविताएँ’ पढ़कर किया जा सकता है. ‘नोनी’ उनकी बेटी का नाम है. उनकी पत्नी अनुराधा जी को मैं सौ सलाम भेजता हूँ, जिन्होंने अपने जीवन के प्रति बेहद लापरवाह और अराजक राकेश श्रीमाल की रचनात्मकता को अनेक विपरीत परिस्थितियों में भी बचाये रखा. अपनी पत्नी अनुराधा जी और हुनरमंद बेटी ‘नोनी’ को दिलोजान से प्रेम करने वाले राकेश श्रीमाल प्रेम की दुनिया के तमाम रहवासियों को उतनी ही शिद्दत से प्रेम करने के कायल थे.

राकेश श्रीमाल गत वर्ष 31 दिसंबर 2021 को जड़ होती जा रही अकादमिक दुनिया से अपने जीवन के साठ बसंत पूरे कर मुक्त हुए थे. पिछले वर्ष उनके नौकरी से मुक्ति दिवस पर उनको प्यार करने वाले हम सब दोस्तों ने उनकी चमत्कृत कर देने वाली योजनाओं और भरपूर रचनात्मकता के लिए अपनी शुभकामनाएं प्रेषित की थीं. आज उन्होंने हम सब को अलविदा कह दिया. बस इतना ही कह सकता हूँ अपने प्यारे दोस्त के लिये…
जिनके किरदार से आती हो सदाक़त की महक,
उनकी तदरीस से पत्थर भी पिघल सकते हैं.

कवर | इलाहाबाद के कॉफ़ी हाउस में सबसे दोस्तों के साथ राकेश श्रीमाल (सबसे बाएं)

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