इंसान का क़द बढ़ाते कलाकारों की स्मृतियाँ

हर साल की तरह इस बार भी पद्म पुरस्कारों की घोषणा का इंतज़ार था, कला-संस्कृति और साहित्य के नामों को लेकर ज़्यादा जिज्ञासा भी रहती है. इस बार पद्म सम्मान पाने वालों की सूची में तीन ऐसे नाम मिले, जो मेरे नज़दीक ख़ास हैं. ऐसी विभूतियाँ जिनको थोड़ा-बहुत जानता-पहचानता भी हूँ. आदिवासी लोक कला अकादमी के पूर्व निदेशक कपिल तिवारी, शिल्पी सुदर्शन साहू और चित्रकार भूरी बाई.

सन् 2001 में अप्रैल या मई की बात है. उत्तर-मध्य सांस्कृतिक केंद्र (एनसीज़ेडसीसी) इलाहाबाद में कार्यक्रम अधिकारी का काम संभालने के बाद पहली बार भोपाल जाने का सरकारी कार्यक्रम बना. सरकारी काम के साथ ही व्यक्तिगत तौर पर मेरी डायरी में तीन काम दर्ज थे – आदिवासी लोक कला परिषद और भारत भवन जाना और कपिल तिवारी जी से मिलना.

कपिल तिवारी से मुलाकात आदिवासी लोक कला परिषद के दफ़्तर में हुई. यह हमारी पहली मुलाकात थी. कला-संस्कृति की बातचीत शुरू होने भी पहले कुछ ऐसा घटा, जो कपिल जी की शख़्सियत को समझने में मददगार बनी, साथ ही मेरे ज़ेहन में एक ख़ुशनुमा तजुर्बे की तरह हमेशा के लिए बस गई. श्री तिवारी के शीशे वाले क्यूबिकल के बाहर कोई कलाकार बैठा था, जो काले शीशे वाले उस कमरे में दाख़िल होने में संकोच कर रहा था.

उन्होंने जब देखा तो उस लोक कलाकार को अंदर बुलवा लिया. पूछा, “कहां से आए हो.” उसने जवाब दिया कि वह दतिया से आया है. तिवारी जी ने कहा था – दतिया की बीड़ी बहुत अच्छी होती है. क्या तुम बीड़ी लाए हो. उन्होंने उस कलाकार से बीड़ी मांगी. उन्होंने दो बीड़ियाँ सुलगाईं, एक उसकी ओर बढ़ा दी और दूसरी ख़ुद पीने लगे. बीड़ी पीते हुए उससे आने की वजह पूछी, उसकी कला के बारे में देर तक उससे बात करते रहे. अब तक उस कलाकार का सारा संकोच तिरोहित हो गया था. वह उनसे उन्मुक्त होकर बात करता गया.

जब वह लौट गया तो उन्होंने कहा – लोक कलाकारों से मिलते हुए जब तक आप उनके बराबर नहीं जाएंगे, वह आपके सामने खुलेंगे नहीं. उनसे बात करके ही उनके बारे में जानकारी साझा की जा सकती है. उनका दिया हुआ यह मंत्र मैंने गाँठ बाँध लिया. लोक कलाकारों से पहली बार मिलते हुए मुझे यह मंत्र हमेशा काम आया है, बहुत काम आया है.

लोक कलाओं में नवाचार के, नव प्रयोगों के वह प्रबल पैरोकार रहे हैं. मुझे याद है कि सन् 2004 में गणतंत्र दिवस के मौक़े पर ‘लोक तरंग’ कार्यक्रम के लिए एनसीज़ेडसीसी की तरफ़ से राजपथ पर राई लोक नृत्य की प्रस्तुति का प्रस्ताव रखा गया. बच्चों को प्रशिक्षण देने के लिए सागर के राई कलाकार राम सहाय पांडे को चुना गया.

कपिल जी विषय-विशेषज्ञ के रूप में उस बैठक में शामिल थे. बहुत से लोगों की राय थी कि चूंकि राई विशेषकर बेड़नियाँ करती आई हैं, भद्र परिवारों में लड़कियां अब भी राई नहीं करती हैं, इसलिए इसे राजपथ पर न कराया जाए. मैंने कहा कि हमारे शास्त्रीय नृत्य भी पहले मंदिरों में देवासियाँ करती थीं. अब वे समाज में समान रूप से किए जा रहे हैं, इसलिए राई को भी इस तरह जन के बीच में लाने के लिए राजपथ से बेहतर कोई और जगह नहीं हो सकती है.

कपिल जी ने न सिर्फ़ मेरी भावना को समझा बल्कि राई कराने के लिए प्रस्ताव पर अपनी सहमति दे दी. कला पारखी तो वह हैं ही, एक खरे और सच्चे इंसान भी. पिछले बीसेक वर्षों में कई आयोजनों, बैठकों में उनसे मिलने और बातचीत के मौक़े मिलते रहे. भोपाल जाने पर उनसे मिलना भी हमेशा ही सुखद अनुभव रहता.

कबीर उन्हें बहुत प्रिय हैं और निजी जीवन में वह ख़ुद कबीर की तरह ऐसे अलमस्त और ज़िंदादिल इंसान हैं, जिन्हें घंटों तक सुना जा सकता है. लोक कलाओं से लेकर कृष्ण के प्रेम के स्वरूप हों या ध्रुव शुक्ल के साथ आधुनिक कविता पर चर्चा या धर्मवीर भारती के सिद्ध साहित्य शोध का विषय. उनसे मिलना कई नदियों के जल से नहाकर अपने आप को परिष्कृत करने जैसा है.

सुदर्शन साहू
सन् 2004 में सांस्कृतिक केंद्र के परिसर में कुछ मूर्ति शिल्प लगाने का का इरादा किया. राजस्थान से पत्थर लाकर ललित कला अकादमी के सहयोग से गढ़ी में एक शिविर की योजना बनी. किसी ने सुझाया कि सुदर्शन साहू से बात करके उन्हें भी शिविर में आमंत्रित करना चाहिए. कोलकाता केंद्र के साथियों की मदद से उनसे संपर्क किया. शिल्प शिविर की योजना के बारे में वह मेरी बात सुनते रहे.

एनसीज़ेडसीसी के पास उस समय बजट कम था. सो मैंने आग्रह किया कि अगर संभव हो तो वह उस शिविर में ज़रूर शरीक हों. यह भी कि उनके हाथों बने शिल्प से एनसीज़ेडसीसी की गरिमा बढ़ेगी. मैंने जब उन्हें मानदेय की रक़म के बारे में बताया तो वह ज़ोर से हँसे. बोले – इतना पैसा तो चार रोज़ काम करने में मेरी छेनी और हथौड़ी पर ख़र्च हो जाता है. मगर आपका आग्रह मैं ठुकरा नहीं पाऊंगा. अपनी बनाई एक मूर्ति मैं आपके केंद्र को उपहार स्वरूप दूंगा.

मुझे लगा था कि शायद मुझे बहलाने या टालने के लिए उन्होंने ऐसा कहा हो. बात आई-गई हो गई. मेरे हैरानी का ठिकाना न रहा, जब एक दिन उनका फ़ोन आया, “मैं सुदर्शन साहू बोल रहा हूं. कल दिल्ली जा रहा हूं. आप की मूर्ति ला रहा हूं. किसी को स्टेशन पर भेजकर मूर्ति मंगा लें.” उनकी सहृदयता, वचनबद्धता, और सबसे ऊपर उनके स्नेह के लिए मैं कृतज्ञता से भर उठा. सच, अच्छा कलाकार ही अच्छा इंसान भी होता है. एनसीज़ेडसीसी के परिसर में उनका वो उपहार आज भी सुरक्षित है.

कवर | शिल्पी सुदर्शन साहू, एनसीज़ेडसीसी में उनकी बनाई सरस्वती की मूर्ति.

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