यादों में शहर | सड़क विवेकानंद की, गली मानिक सरकार की और मकान देवदास का

  • 1:27 pm
  • 29 June 2020

तिलका मांझी टॉवर से विवेकानंद मार्ग के लिए फूटने वाली सड़क को पाकड़ के घने और उदार पेड़ों की शाखाओं ने अपने आँचल से ढांप रखा है. बीच-बीच में यूकैलिप्टस के लम्बे दरख़्त इसके प्राकृतिक सौंदर्य को और भी गहरा कर देते हैं. ‘दीपप्रभा’ सिनेमा हॉल लेकिन प्रकृति की इस अमृत वर्षा पर आधुनिक तकनीक की रोक लगा देता है. इसी सिनेमा हॉल के बग़ल से गंगा घाट जाने के लिए एक पतली सी सड़क उग आई है. ‘मानिक सरकार घाट गली’ कही जाने वाली इसी सड़क पर आधा फर्लांग भीतर घुस कर बांए हाथ पर पड़ता है स्व.अघोरनाथ गांगुली का मकान. बँगला साहित्य के ‘मसीहा’ शरतचंद चट्टोपाध्याय का यही ननिहाल है. उनकी मां मोहनीदेवी के पिता थे अघोरनाथ. यहीं रहकर 17 साल की उम्र में उन्होंने रचा था ‘देवदास’. जी हाँ ‘देवदास’, जो दुनिया की ‘असंख्य’ भाषाओं में प्रकाशित हुआ है और जिस पर तीन अलग-अलग काल की कुल सात भाषाओँ में फ़िल्में बनी है.

आहिस्ता-आहिस्ता मैं गांगुलियों के मकान की तरफ बढ़ रहा हूँ. मेरे भीतर ग़ज़ब की उत्तेजना है. मुझसे ज़्यादा उत्तेजित संजीव हैं. पेशे से पत्रकार संजीव झा भागलपुर में जन्म से ही बसे हैं. भागलपुर में मेरा प्रवास लंबा है और मेरे बेटों की उम्र के संजीव ने मेरे फ्रेंड, फ़िलॉसफ़र और गाइड की सभी ज़िम्मेदारियां सँभाल रखी हैं.

दरवाज़े पर शांतनु गांगुली से मुलाक़ात हो जाती है. शांतनु अघोरनाथ की चौथी पीढ़ी के हैं. उम्र का पांचवा दशक छूने जा रहे शांतनु के पास युवा शरतचंद को लेकर गांगुली परिवार में पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रहे क़िस्सों का ख़ज़ाना है. प्रवेशिका (हाई स्कूल के समकक्ष) तक की परीक्षा शरत बाबू ने ननिहाल की छाँव में बैठकर ही पूरी की थी. इसके बाद वह कलकत्ता चले गए. शांतनु के दादा सुरेन्द्रनाथ कहने को शरत के मामा थे लेकिन हमउम्र होने के नाते मामा-भांजे में ख़ूब पटती थी. दोनों का खाना-पीना, खेलना-कूदना सामूहिक था तो दोनों की शैतानियां भी सामूहिक थीं लेकिन पकड़े जाने पर शरत अपना अबोधत्व दिखाकर साफ़ बरी हो जाता, बालक सुरेंद्र बच नहीं पाता और तब उसकी जमकर “कूटा-पीसी” होती. मां अपराधबोध महसूस करतीं. मायके में रह कर पुत्र के कारण भाई को पिटवाना उन्हें स्वीकार्य नहीं था लेकिन शरत को ननिहाल के इन ‘अहसानों’ की क्या परवाह? गंगा इस घर से सट कर बहने जितनी दूरी पर है. तभी रात में अक्सर बिस्तर से उड़ी लगाकर नदी से मछलियों का शिकार करने की फ़िराक में शरत ग़ायब हो जाता. लौटता तो झोले में जमा की हुई मछलियों को जूट के टाट में छिपाकर उस पर पानी छिड़क कर सो जाता. सुबह-सवेरे जाग कर जब मां और घर वाले देखते तो मछलियों की इस आमद को ‘ईश्वरीय अनुकम्पा’ मान लेते.

आर्थिक विपन्नता के चलते युवा मोहनी देवी अपने पति मोतीलाल और नन्हे शिशु शरत को लेकर हुगली (प.बंगाल) से मायके आ बसी थीं. यह उन्नीसवीं सदी का अंतिम काल था और तब भागलपुर भी बंगाल का ही हिस्सा था. बिहार की स्वतंत्र अस्मिता के रूप में विकसित होने के लिए महाभारत कालीन कर्ण के इस ‘अंग प्रदेश’ को अब भी नई सदी और उसके 36 सालों उदय का इंतज़ार करना था. भागलपुर ‘सिल्क सिटी’ कहलाता है. शरत के बाल्यकाल में घर-घर में रेशम के करघे होते थे. अब काफी कुछ चीन से ‘आर्टीफीशियल’ रेशम का धागा आने लगा है. भागलपुर के बाज़ारों में समा गया है यही कृत्रिम रेशम. चीन से शुरू होकर बरास्ता नेपाल, आंध्र और सुदूर दक्षिण भारत को पहुंचने वाला सिल्क रुट आज भी भागलपुर से होकर ही गुज़रता है.

भागलपुर की याद और विष्णु जी की तरलता

हिन्दी के वरिष्ठ साहित्यकार विष्णु प्रभाकर ने शरत की जीवनी ‘आवारा मसीहा’ के रूप में लिखी है. कैसी विडंबना है और हिन्दी के लिए कैसी गौरव की बात है कि बांगला के कथा सम्राट की हिन्दी में लिखी गयी जीवनी ही आज भी बांगला भाषा की भी अकेली ‘मानक’ जीवनी है. कथा शिल्पी की जीवनी के शोध के लिए विष्णु जी ने देश और दुनिया के जिन-जिन शहरों की धूल फांकी थी, भागलपुर भी उनमें शामिल है. अपनी टीवी श्रंखला के निर्माण के दौरान सन् 2001 में जब मैं विष्णु जी की डॉक्यूमेंट्री शूट कर रहा था, तब उन्होंने मुझसे भागलपुर के नैसर्गिक सौंदर्य का वर्णन किया था. आधे शतक से ज़्यादा का वक़्त बीत चुका था लेकिन विष्णु जी की आँखों में जैसे भागलपुर का भूगोल अब भी नाच रहा था. गांगुली परिवार की दूसरी और तीसरी पीढ़ी के साथ बातचीत में उन्होंने लम्बा समय गुज़ारा था. विष्णु जी की स्मृतियों में इस परिवार के पुरुषों और महिलाओं से की गई वार्ता, उनके लंबे-लंबे इंटरव्यू, शरतचंद के लिए उनकी स्मृतियाँ, उनके बारे में सुनी हुई बातें और गल्प, जितना गांगुली परिजनों को याद थे, उससे ज़्यादा विष्णु जी की यादों में बने हुए थे. मेरी फ़िल्म के एक अंश में वह इन लोगों की बाबत बातचीत करते-करते द्रवित हो उठते हैं.

शांतनु को लेकिन विष्णु जी का संदर्भ नहीं ज्ञात. यह उनके जन्म से पूर्व की घटना है. उन्होंने विष्णु प्रभाकर की ‘आवारा मसीहा’ देखी भी नहीं है. शरतचंद की सिर्फ़ ‘श्रीकांत’ और ‘परिणिता’ ही छिप-छिप कर पढ़ी है. उनकी लिखी इक्का-दुक्का कहानियां जो स्कूल के कोर्स में थीं. लड़कपन में हर पारम्परिक पिता की तरह यहां भी बाबा (पिता) की सख़्त हिदायत थी – गल्प न पढ़ने की. “पढ़ना है तो कोर्स की किताबें पढ़ो.” जब बड़े हुए तो पढ़ने की रूचि विस्तार न ले सकी. ‘चरित्रहीन’ और ‘परिणिता’ पर बनी फ़िल्में वह नहीं देख सके. न बांगला में, न हिन्दी में. अलबता शांतनु को यह ज़रूर पता है कि ये फ़िल्में अपने टाइम की ज़बरदस्त ‘हिट’ थीं. ‘देवदास’ भी बहुत बाद में पढ़ा, जब दिलीप कुमार की फ़िल्म बन कर हिट हो गई और हिट होकर उतर भी गई. कॉलेज में, बाकी जगह जो कोई सुनता कि शरतचंद के परिवार के हैं तो पूछता, “तुमने देवदास पढ़ा?” और तब उस झेंप में मजबूरन ‘देवदास’ भी पढ़ लिया.

‘कैसा लगा?’ पूछने पर जैसे शरमा जाते हैं “श्रेष्ठ गल्प.” समालोचना के दो शब्द मुश्किल से निकलते हैं. शरतचंद के जीवन से जुड़ी घटना-अघटना वे सब याद हैं. बचपन से घर में सुनते आए हैं. जब कोई आगंतुक शरत पुराण छेड़ता – मां, बाबा सब शुरू हो जाते. वो सारा कुछ याद है. चाहे जितना बुलवा लें.

स्मारक जैसी गांगुली बाड़ी

बचपन से ही आगंतुकों के सवाल सुनते आ रहे हैं. देश के कोने-कोने से लोग आते रहे हैं. जो भागलपुर आता और यह जान लेता है कि ‘देवदास’ का जन्म इसी शहर में हुआ था तो धड़धड़ाता हुआ गांगुली परिवार तक चला आता है. उसके स्मृति पटल पर ‘देवदास’ अंकित है और अंकित हैं ढेरों जिज्ञासाएं. फिल्म स्टूडिओ के सेट के रूप में बने ‘देवदास’ की अभिजात अट्टालिका उसके ज़ेहन में है. गांगुली जन का ‘लोअर मिडल क्लास’ मकान देख कर उनमें से कइयों को थोड़ी निराशा और हताशा भी होती है लेकिन इससे उनके मन में उमड़ते-घुमड़ते सवालों पर विराम नहीं लग पाता. अम्मा-बाबा जवाब देते-देते थक गए. अब इन भाइयों की बारी है. ये भी अघा चुके हैं. अब उनके बाद की पीढ़ी भी यही जवाब दोहराना सीख रही है.

सवाल भी एक से एक माशाअल्लाह. पारो के फ़ैमिली मेंबर्स कौन-कौन बचे हैं? ऐ शांतनु दा, पारो का मैरिज कहाँ को हुआ था? शांतनु दा तनमना जाते हैं. घंटा बताएं! उन्होंने पारो को देखा हो तब न! पारो को इत्ता जास्ती ऐज वाले के साथ काए को मैरीज कर दिया? पारो किस गली की थी? उसका मकान कौन सा है?

मज़े लेने के लिए कभी-कभी किशोर गांगुली बंधु गली के सुदूर ‘एन्ड’ की तरफ़ हवा में संकेत करके बताते कि वोssss वाला मकान! और तब उन्हें रुख़सत करके, अपने दरवाज़े बंद करके बैठ जाते. पारो तक तो ग़नीमत है, बहुत से जिज्ञासु चंद्रमुखी का मोहल्ला भी जानना चाहते हैं. अब उसका क्या जवाब दें? ‘देवदास’ की चंद्रमुखी कोठे वाली ‘बाई’ थी. वह कोठे वाली थी तो उसका कोठा भी कहीं होगा? लोगों के सवाल होते हैं – वह मोहल्ला कौन सा है?

चंद्रमुखी का मुहल्ला अब कहाँ

गांगुलियों के घर से कोई आधा किलोमीटर दूर है मोहल्ला जोगसर. यह वस्तुतः तीन मोहल्लों – जोगसर, मंसूरगंज और नया बाज़ार का बहुत बड़ा क्लस्टर था और यहीं मुग़ल काल से भागलपुर का ‘रेड लाइट एरिया’ बसा हुआ था. यहां वेश्याओं के सैकड़ों मकान थे. यह दक्षिणी बिहार का सबसे बड़ा ‘रेड लाइट ज़ोन’ और इनके रहवासियों की बड़ी तादाद कलकत्ता से आया करती थी. बताते हैं कि इस पेशे से जुड़े लोग ‘वर’ बने कलकत्ता से नेपाल तक घूम-घूम कर अपने लिए ‘उचित’ कन्या ढूंढते. उनके साथ विवाह रचाते और फिर जोगसर, मयूरगंज और नया बाज़ार की बदनाम गलियों के हाथों उन्हें सौंप जाते. शरतचंद के बारे में जो जनश्रुतियां मशहूर हैं, उनमें यह भी है कि जोगेसर की एक वेश्या के यहां ही वह रहने लग गए थे और कि ‘देवदास’ की रचना उन्होंने यहीं पर की थी. कोठे पर नियमित आने-जाने का उल्लेख विष्णु प्रभाकर भी ‘आवारा मसीहा’ में करते हैं.

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में बंगाल-बिहार के सामंती समाज में स्त्रियों की जो दशा थी, शरतचंद चट्टोपाध्याय उससे बहुत गहरे तक आहत थे. यही वजह है कि उनका पूरा लेखन नारी स्वतंत्रता की सोच और चिंतन के इर्द-गिर्द घूमता है, बार-बार उनके पक्ष में विद्रोह करता है. बाक़ी रचनाओं को कुछ पल के लिए छोड़ कर यदि ‘देवदास’ पर ही केंद्रित हुआ जाए तो इसमें एक तरफ़ जहां देवदास की बाल सखा पारो को चंद रुपयों की ख़ातिर अपनी उम्र से चार गुना बड़े ‘दूजिया’ से शादी के लिए बेचते बताया गया है, वहीँ दूसरी ओर चंद्रमुखी के रूप में एक वेश्या को आदर-सम्मान और सामाजिक स्वीकृति दिलाने की कोशिश में बेचैन देवदास दिखता है. नारी सम्मान और स्वातंत्र्य के लिए शरतचंद का यह दृष्टिकोण उन्हें समूचे बंगला साहित्य का पहला प्रगतिशील और आधुनिक लेखक तो बनाता ही है, शास्त्रीय बांगला साहित्य में बंकिमचंद के मुक़ाबले शरत साहित्य को सर्वथा नई और क्रांतिकारी पहचान भी दिलाता है.

संजीव बताते हैं कि ‘रेड लाइट एरिया’ का क्लस्टर अब वहाँ से से हट गया है. सन् 2001 में एक लंबे ‘सामाजिक आंदोलन’ के बाद उसे ज़मींदोज़ कर दिया गया. इस आंदोलन से जुड़े रहे एक नेता बताते हैं कि पड़ोस के मोहल्ले के एक वक़ील की बेटी के साथ वेश्या के एक बेटे ने भाग कर शादी कर ली थी. “बस इसी बात पर पूरा शहर जाग उठा,” वह बड़े फ़ख़्र से बताते हैं कि ‘’वेश्यालय उन्मूलन संघर्ष समिति’ का गठन हुआ.“ कहा जाता है कि पुलिस-प्रशासन के अधिकारियों ने भी आंदोलनकारियों की ख़ूब मदद की. समाज का कैसा क्रूर मज़ाक है कि हर दिन बाज़ार में दूसरों की सैकड़ों बेटियों की लगने वाली नुमाइश में बोली लगाने को बेचैन भागलपुर वाले अपनी एक बेटी को इस तरह चले जाते देखना बर्दाश्त नहीं कर सके!

जाते-जाते इन बाइयों को औने-पौने दामों पर अपने मकान लोगों को बेचने पड़े. खरीदने वालों में ज़्यादातर वे ही लोग थे जो आंदोलन की रीढ़ थे. कुछ बाइयाँ और उनके साथ की लड़कियां आसपास के ज़िलों में अपने व्यवसाय के साथ बिखर गईं और कुछ पेशा बदल कर भागलपुर के ही दूसरे क़स्बों और तहसीलों में बस गईं. वे भुखमरी के कगार पर पहुँच गई थीं. उनमें ज़्यादातर अब सड़क पर थीं. अव्वल तो उपेक्षा के जीवन में सांस लेकर पली-बढ़ी इन ‘बाइयों’ ने अपने जीवन में ऐसा कुछ भी अर्जित नहीं किया होता है, जिस पर वे अभिमान कर सकें. बहरहाल उनका जो कुछ भी उनके पास था, वह सब भी तहस-नहस हो गया.

मैं स्थानीय लोगों के मुंह से ये सारी बातें तफ़सील से सुनता जा रहा था और सोच रहा था कि अगर 19 साल पहले शरतचंद जीवित होते तो बेघर हो चुकी भागलपुर की इन ‘बेटियों’ को इस हाल में देखकर क्या सोचते और क्या कहते?

संजीव कहते हैं, “सर वह इन्हें इस तरह बर्बाद न होने देते.”

कुदरत ने गढ़ा था देवदास

भागलपुर एक सुन्दर शहर है. एक तो प्रकृति ने इस पर अपना सौंदर्य लुटाया है, दूसरे यहां के लोग प्रकृति की इस संरचना का सम्मान करना जानते भी हैं. प्रकृति की अभ्यर्थना को उन्होंने अपनी संस्कृति का हिस्सा बना लिया है. समूचे उत्तर भारत में ऐसी प्राकृतिक हरियाली मैंने और कहीं नहीं देखी. घरों के बाहर तो है ही, बाज़ारों में भी थोड़ी-थोड़ी दूरी पर दुकानों के सामने छोटे-बड़े पेड़ लगे हैं. दुकानदार जब आकर अपनी दुकान खोलेगा तो उसके तत्काल बाद जाकर पेड़ में पानी देगा और उसके सामने हाथ जोड़ेगा. हिन्दू-मुसलमान कोई इसका अपवाद नहीं. पेड़ों को पानी देना उनके लिए एक धार्मिक परिघटना जैसी है. प्रकृति से प्रेम उनका सांस्कृतिक धर्म है. यही वजह है कि आम, अमरुद, रसभरी, केले, नारियल, पीपल, नीम, पाकड़, बबूल और न जाने कैसे-कैसे अनगिनत वृक्षों से आच्छादित है भागलपुर. शरतचंद के समूचे साहित्य में प्रकृति की छटा यूं ही नहीं उमड़ पड़ती है. यह भागलपुर से प्राप्त उनकी सांस्कृतिक विरासत है, जो वसीयत के रूप में एक-एक शब्द में प्रस्फुटित होती है.

1930 के दशक में जब न्यू थिएटर से जुड़े प्रथमेश चंद बरुआ ने शरतचंद के उपन्यास ‘देवदास’ पर फ़िल्म बनाने की सोची तो शरत उन्हें लेकर भागलपुर आए थे. कलकत्ता जाने के बाद और रंगून से लौटकर जब वह कलकत्ता में बस गए थे, तब भी ‘जगधात्री पूजा’ पर साल में एक मर्तबा नियमित रूप से भागलपुर आते थे. वह कहते थे कि इस भागलपुर में उनके प्राण बसते हैं. बरुआ जब उनके साथ आए तो प्रकृति की इस नाज़नीन बसावट को देखकर हैरान हो गए. उन्होंने शरत से कहा “अब मैं समझा कि कैसे देवदास इतना रोमांटिक हो सकता है. भागलपुर की मिट्टी ही ऐसी है जो उसे ऐसा रूमानी बना सके.”

बरुआ के बारे में शांतनु एकदम से याद नहीं कर पाते. आख़िर तो यह उनके जन्म से तीस साल पुरानी बात है. संदर्भों का स्मरण कराने पर उन्हें याद आता है. वह बताते हैं कि उनके घर में बरुआ और शरतचंद की तब की कोई फ़ोटो थीं, जिन्हें सुरक्षित न रखा जा सका. प्रथमेश चंद बरुआ ने 1935 में सबसे पहले बांगला में ‘देवदास’ बनाई. इसमें देवदास की भूमिका उन्होंने खुद निभाई थी. इसकी सफलता से प्रभावित होकर उन्होंने अगले साल हिन्दी में इसके निर्माण का फ़ैसला लिया और हीरो के रोल के लिए उस समय के सुपर स्टार कुन्दनलाल सहगल को चुना. फ़िल्म सारे देश में बम्पर हिट हुई और इस प्रसिद्धि ने प्रथमेश चंद बरुआ को ‘पीसी बरुआ’ बना दिया. पिक्चर देखने के बाद दक्षिणी कलकत्ता के ‘न्यू थिएटर’ से बाहर निकलते हुए शरतचंद ने बरुआ की पीठ ठोंकते हुए कहा था, “फिल्म देखकर ही समझ में आया कि मेरा जन्म देवदास लिखने को इसलिए हुआ क्योंकि तुम इस पर फ़िल्म बनाने के लिए पैदा हुए थे.“

बांग्ला-हिन्दी में अब तक 29 फ़िल्में

शांतनु को अलबत्ता यह तो याद है, बल्कि उनकी आँखों देखी घटना है जब बांगला और हिन्दी के विराट क़द वाले फ़िल्म निर्देशक तपन सिन्हा उनके घर की ‘देहरी’ छूने आए थे. बीती सदी को सलाम करते हुए उन्होंने जिन पाँच अलग-अलग कहानियों लेकर अंतर्राष्ट्रीय चर्चा का सबब बनी अपनी फ़िल्म ‘सदी की बेटियां’ (डॉटर्स ऑफ़ द सेंचुरी) बनाई थी, उसमें पहली कहानी ‘अभागी’ शरतचंद की कहानी (अभागीर स्वर्ग) पर आधारित थी. ‘अभागी’ में मुख्य भूमिका शबाना आज़मी की थी. मशहूर निर्देशक जयंतो साहा भी उनके यहां चुके हैं. जयंतो ने अपनी चर्चित फ़िल्म ‘बालक शरतचंद’ के निर्माण का ज़्यादातर हिस्सा भागलपुर में ही शूट किया था. बांगला में बनी इस फ़िल्म में जाहर रॉय, गुरुदासदास बदोपाध्याय, अजित चटर्जी और ज्ञानेश मुखर्जी प्रमुख भूमिकाओं में थे. शांतनु उंगुली पर ठीक-ठीक गिनती करके बताते हैं कि शरतचंद के उपन्यासों और कहानियों पर कुल मिलका 29 बांग्ला-हिन्दी फ़िल्में बनी हैं. तमिल, तेलगु, असमिया आदि की फ़िल्में इसमें शामिल नहीं हैं.

भागलपुर ने शरतचंद को प्रकृति प्रेमी बनाया था. तमाम रूढ़िवादी सामाजिक मान्यताओं को तोड़-फोड़ डालने का क्रांतिकारी तत्व लेकिन उन्होंने अपने लेखन में कहाँ से ग्रहण किया, इस पर कोई चर्चा नहीं होती. यह सही है कि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में कलकत्ता से निकली उत्तर पुनर्जागरण की गर्म हवाएं समूचे बंगाल में फ़ैल गई थीं. भागलपुर भी ज़रूर इसकी चपेट में आया होगा. भागलपुर तो किन्तु क्रांतिकारी विद्रोहों का अठारवीं सदी से ही रचयिता रहा है.

तिलका मांझी की बग़ावत और शहादत

तिलका मांझी को भागलपुर ने ही जन्म दिया था. आदिवासी विद्रोहों की श्रंखला में तिलका मांझी पहले आदिवासी नेता थे, जिन्होंने ‘ईस्ट इंडिया कम्पनी’ के विरुद्ध विद्रोह किया था. सन् 1771 में तिलका मांझी ने तीर-कमान और अपने संथाल साथियों को लेकर बग़ावत का झंडा बुलंद किया था. यह हिंसक संघर्ष 14 वर्ष तक चला. तिलका मांझी को पकड़ कर जिस जगह सूली पर चढ़ाया गया, वहाँ आज उनकी स्मृति में ‘तिलका मांझी चौक’ है. यद्यपि अंग्रेज़ों और भारतीय सामंतों के गठबंधन के विरुद्ध संथालों का यह पहला विद्रोह कुचल दिया गया लेकिन आने वाले समय में इसने आदिवासी विद्रोहों की जो झड़ी लगाई, वह उन्नीसवीं शताब्दी के विरसा मुण्डा के विद्रोह से लेकर बीसवीं सदी के झारखंडियों के स्वतंत्र राज के आंदोलन तक जारी रही.

क्या सवा सौ साल बाद भी तिलका मांझी शरतचंद जैसों को भी बदलाव में अपनी भूमिका साबित करने की ‘नसीहत’ देते हैं?

कवर| भागलपुर की गांगुली बाड़ी, और शरदचंद्र

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