नंदन | गाँव का ढह गया वह घर, जिसमें अब रह नहीं सकते

पाँच सितम्बर 1997 का दिन था. मदर टेरेसा के निधन की ख़बर रेडियो पर आ रही थी. इधर हॉस्पिटल वालों ने भी कह दिया कि मेरी नानी अब कुछ घंटों की मेहमान हैं. उनको गाँव ले जाने की तैयारी हो रही थी. इस ख़बर के आने से कुछ ही देर पहले मैं बाज़ार से ‘नंदन’ लेकर लौटा था.

मेरे घर में पापा-मम्मी सबको ननिहाल ले जाने की तैयारी कर रहे थे. भले ‘नंदन’ ख़रीदने के लिए घर वाले पैसा देने लगे थे मगर फिर भी खुलेआम पढ़ना अपराध जैसा था. एक ही बैग में सबका सामान पैक हो रहा था. उसमें छुपा कर ‘नंदन’ नहीं ले जा सकते थे. मम्मी-पापा की नज़र पड़ ही जाती. इसलिए हम दोनों भाई-बहन पिछले कमरे में जाकर जल्दी-जल्दी ‘नंदन’ पढ़ने लगे. पूरा पढ़ना तो संभव नहीं था इसलिए हड़बड़ी में ज़ोर-ज़ोर से पेज पलट कर पढ़ कर रहे थे. मैं अपनी बहन पीकू को देखता और वो मुझे. हम पन्ने भी पलट रहे थे और सुबक-सुबक कर रो भी रहे थे.

हमने दिनमान, धर्मयुग, रविवार, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान जैसी पत्रिकाओं का युग नहीं देखा, सिर्फ सुना है. हम जब बालपन में पत्रिकाओं से जुड़ रहे थे, तब मेरे शहर सहरसा में कुल पत्रिका के नाम पर बाल भारती, ‘नंदन’, चंपक, नन्हे सम्राट, सुमन सौरभ, मुक्ता, बालहंस, क्रिकेट सम्राट, सत्यकथा, सरिता, माया, सरस सलिल, मनोहर कहानियाँ जैसी पत्रिकाएँ ही उपलब्ध हो पाती थी. इनमें से कई पत्रिकाएँ तो ‘एडल्ट श्रेणी’ की घोषित कर दी गई थीं, जिनसे बच्चों को दूर रखा जाता था. आज की पीढ़ी को जिस तरह से पबजी या ब्लू व्हेल जैसे ऑनलाइन गेमों के प्रति दीवानगी है, उसी तरह का जुनून हम नाइनटीज़ के बच्चों को ‘नंदन’ जैसी पत्रिकाओं को लेकर था. ‘नंदन’ 1964 ईस्वी से लगातार छपता आया था. इसका पहला अंक जवाहरलाल नेहरु को समर्पित था.

मेरे पड़ोस के मिश्रा लॉज में एक भैया रहते थे, जिनकी कहानियाँ ‘नंदन’ में छपती थीं. बाद में उनका एक जासूसी धारावाहिक नन्हें सम्राट में भी छपा. उनके पास डाकिया बार-बार आता था. यह जान कर तो हमें और भी आश्चर्य होता कि उनको कहानी लिखने के पैसे भी मिलते थे. वो अपने कमरे में बहुत कम रहते थे. लेकिन मैं इंतज़ार करता रहता था, जैसे ही वो आते मैं उनसे चिपक जाता. कई बार तो उन्होंने छपने से पहले ही कुछ कहानियां मुझे सुनाईं. जब वो कहानियाँ ‘नंदन’ में छप गईं तो मैं घूम-घूम कर सबको बताने की कोशिश करता कि मैंने वो कहानी पहले ही पढ़ ली थी हालांकि कोई विश्वास नहीं करता. उनका नाम पंकज था लेकिन उनकी कहानी किसी और नाम से छपती थी. मेरे अलावा वो बाक़ी लोगों से अपनी पहचान छिपाकर रखते थे, इसलिए लोग उन्हें विद्याथी ही समझते थे. मेरे लिए वो लेखक नहीं बल्कि एक अजूबा आदमी थे. हालत ये थी वह जो कहते हम वही करने को तैयार हो जाते. बाद में वह अचानक कहीं चले गए.

‘नंदन’ मेरे जीवन की पहली पत्रिका थी. मुझे किसी ने बताया था कि ‘नंदन’ को पहले पेज से पढ़ना पड़ता है. इसलिए मैं मजबूरी में उसके संपादक जयप्रकाश भारती के संपादकीय को भी पढ़ता था. हालांकि मुझे वह उबाऊ लगता था. हाँ, सबसे नीचे गहरे काले अक्षरों में उनका हस्ताक्षर बहुत आकर्षित करता था. उसको देख-देख हम दोनों भाई-बहन भी वैसा ही सिग्नेचर करने की कोशिश करते थे. बाद में जब यह पता चला कि शुरू से पढ़ना ज़रुरी नहीं है तब जो पसंद आता सबसे पहले वही पढ़ते थे. तेनालीराम, चीटू-नीटू, चटपट जैसे कॉलम तो हम एक साँस में पढ़ जाते थे. चुटकुला किसको कहते हैं, इसका पता पहली बार हमें चटपट पढ़ने के बाद ही चला. आप कितने बुद्धिमान हैं स्तंभ में दो समान लगने वाले चित्रों में गलतियाँ ढूँढनी होती थी. पाँच गलतियाँ ढूँढो तो बुद्धिमान और पाँच से ज्यादा तो जीनियस. यही एक कॉलम था जिसमें पापा भी हम लोगों के साथ मिलकर गलतियाँ ढूंढ़ते थे.

‘नंदन’ हाथ आते ही हम बहुत गहराई से परियों और पौराणिक कहानियों की दुनिया में डूब जाते थे. राजा-रानी, जंगल, परी, किसान, डाकू, बाँसुरी, जानवर, एक गाँव, एक गरीब ब्राह्मण, बहेलिया, कुम्हार, नानी, दादी इन सब से संबंधित कहानियाँ ‘नंदन’ में सबसे ज्यादा होती थी. वैसे ‘नंदन’ जैसी पत्रिका का अप्रोच वैज्ञानिक नहीं था. उसमें छपनी वाली कई कहानियाँ बच्चों को भ्रमित करती थीं. उन कहानियों में रूढ़िवादी धारणाओं को बढ़ावा मिलता था. हम लोग अवास्तविक दुनिया में खोये रहते थे. कई बार तो काल्पनिकता को सच मान लेने की वजह से क्लास में टीचर हमारा मज़ाक भी उड़ाते. जब हमारे जीजा जी का असामयिक निधन हो गया तो हम लोग मम्मी और दीदी को भरोसा दिलाते रहते थे कि एक दिन मंगल परी जीजा जी को जीवित कर देगी.

एक बार ग़लती से ‘सत्यकथा’ हमारे हाथ लग गई, जिसमें आधे पेज के एक बॉक्स में खबर थी कि अब मरे हुए लोगों से भी पेजर के जरिये बात की जा सकेगी. हम बार-बार सबको भरोसा दिलाते कि हमारे जीजा जी एक दिन ज़रुर लौटेंगे. हम पूरे विश्वास के साथ ऐसा कहते थे. चमत्कारिक बातें हमें बहुत आकर्षित करतीं. आस्था वाली भावना ज्यादा प्रबल थी. इसलिए बाद में मनोज सर ने पापा को ‘नंदन’ के साथ-साथ ‘सुमन सौरभ’ और ‘विज्ञान प्रगति’ भी ख़रीद कर हम लोगों को देने को कहा.

एक लम्बे समय तक हमारे हॉकर पवन झा हमें ‘नंदन’ देते थे. जैसे ही ‘नंदन’ के आने का समय होता हम झा जी से पूछना शुरू कर देते. मेरे और पीकू में सबसे पहले ‘नंदन’ हथियाने की होड़ होती क्योंकि, जिसके हाथ पहले लगता था वही पहले पढ़ता था. कई बार पत्रिका समय से पहले आ जाती थी. समय से पहले ‘नंदन’ हाथ में लेने के सुख का वर्णन करना कालिदास के बस से भी बाहर की बात है. जो लोग ‘नंदन’ के नियमित पाठक रहे हैं, सिर्फ़ वही लोग जान सकते हैं कि ‘नंदन’ के दीपावली अंक का सबसे ज्यादा इंतज़ार किया जाता था. जो बाक़ी अंकों के मुक़ाबले मोटा भी होता था. ‘नंदन’ पढ़ने के लिए हमउम्र बच्चे हम लोगों से ख़ूब दोस्ती करते थे.

‘नंदन’ में लिखे एक-एक शब्द पर मेरा पूरा भरोसा था. जब मेरे भांजी का नाम ‘स’ पर रखा जा रहा था तो मैंने भी ‘नंदन’ से खोजकर सुर्याशी नाम रखने का प्रस्ताव दिया. किसी ने भी इसे नहीं माना. मुझे बहुत दुःख हुआ. मुझे लगा कि ये लोग ‘नंदन’ को महत्व क्यों नहीं दे रहे? मैं तब ‘नंदन’ को बहुत बड़ी पत्रिका मानता था. उसमें एक फ़ोटो प्रतियोगिता भी होती थी, जिसमें चयनित तस्वीर छपती थी. एक बार हम लोगों ने अपनी भांजी सुषमा की तस्वीर भी उसमें भेजी थी लेकिन वो छपी नहीं. फिर हमें लगा कि वो लोग और होते होंगे, जिसकी तस्वीर ‘नंदन’ में छपती है.

साहित्यिक भूख बढ़ने पर बहुत बाद में मैंने ‘कादम्बिनी’ पढ़ना शुरू की. यों मुझे वह साहित्य की पत्रिका लगी नहीं, जैसी उसकी इमेज थी. शायद बाद के दिनों में बाज़ार के दबाव में उसमें बहुत सारी चीज़ों का घालमेल किया गया था. मुझे ख़ासतौर से इब्बार रब्बी का कॉलम याद है, जिसमें हिन्दी के शब्दों और मुहावरों के बनने की कहानी का बहुत तर्कपूर्ण विवरण होता था. उसमें से बहुतों को काट कर मैंने अपनी डायरी में भी चिपका रखा है. ‘अपना उल्लू सीधा करना’ मुहावरा के बनने की कहानी मैंने ‘कादम्बिनी’ के अलावा आज तक दुबारा कहीं नहीं पढ़ी. बार-बार प्रयोग करने के बावजूद इसका सही अर्थ बहुत कम लोगों को ही पता होगा.

जब राजेन्द्र अवस्थी ‘कादम्बिनी’ के सम्पादक हुआ करते थे, तब पापा कोई-कोई अंक ख़रीद कर लाते थे. उसका कलेवर बहुत गंभीर किस्म का था. वे आज भी उनके काल-चिंतन का ज़िक़्र करते हैं. मुझे राजेन्द्र अवस्थी के संपादन में निकलने वाली ‘कादम्बिनी’ की न के बराबर स्मृति है. बस इतना याद है कि मैं पूरी पत्रिका उलट-पुलट लेता था लेकिन समझ में कुछ नहीं आता था. जब मृणाल पांडे इसकी संपादक बनी तभी संयोग से मैं इसका नियमित पाठक बना. जब ऑनर्स के अंतिम वर्ष में मेरी मौखिकी हुई तो प्रो.सुरेन्द्र स्निग्ध ने मुझसे पूछा कि हिन्दी अंग्रेज़ी के मुक़ाबले पिछड़ रही है, आप इसकी क्या वजह मानते हैं? कुछ दिन पहले ही मैंने ‘कादम्बिनी’ में इसी सवाल पर मृणाल पांडे का संपादकीय पढ़ा था. जितना मुझे याद रहा बता दिया. मुझे पच्चीस में से चौबीस अंक मिले थे.

मृणाल पांडे के समय में ‘कादम्बिनी’ और ‘नंदन’ का साइज़ बड़ा कर दिया और उसका पुराना कलेवर बदल दिया. कुछ लोग कहते हैं कि इससे उसकी आत्मा मर गयी. पुराने पाठक उससे कट गए. उनको नए रंग-रूप से लगाव ही महसूस नहीं हुआ. पुरानी ‘नंदन’ का पेज सफ़ेद रंग पर एक पीलापन और भारीपन लिए होता था जबकि नई ‘नंदन’ का पेज चमकीला, झक सफ़ेद और हल्का हो गया. पुरानी ‘नंदन’ का कवर पेज पता नहीं किस कागज का बनता था कि जहाँ पिन लगता था वहाँ से बहुत जल्दी फट जाता था. मुझे याद है जब मैं ‘नंदन’ के पुराने अंक को महीना और साल के हिसाब से संभाल कर रखता था तो अधिकतर के कवर पेज जर्जर हो चुके होते थे. उनसे निकलने वाली ख़ुशबू ऐसी होती कि मन मदमस्त हो उठता. एक बार दिल्ली यूनिवर्सिटी की सेंट्रल लाईब्रेरी में किताब खोजते हुए मुझे ‘नंदन’ के पुराने अंकों वाली ख़ुशबू आई. पास जाकर देखा तो कोई और पत्रिका थी. कई बार कुछ ख़ास तरह की गंध आपकी स्मृति में जीवन भर के लिए रच-बस जाती है और इसकी ज़रा-सी आहट पाकर आप मचल उठते हैं.

एक समय ऐसा भी था, जब सब बच्चों के लिए ‘नंदन’ या उनके जैसी नियत समय पर आने वाली पत्रिका पढ़ना मज़बूरी जैसा था. छोटे शहरों में तो वैसे भी उनके पास विकल्प कम थे. लेकिन जैसे ही कॉमिक्स आई तो ‘नंदन’ का जलवा पहले जैसा नहीं रहा. ज्यादा रोमांच और नयी तकनीक की तलाश में बहुत सारे बच्चे उधर शिफ्ट हो गए. वहाँ हर दिन एक नई दुनिया उनके सामने खुलती थी, वो भी मात्र एक रूपये के किराये पर. उसमें नई तकनीकें थीं. तरह-तरह की बंदूकें, हवाई जहाज, ऊँची-ऊँची बील्डिंग, शानदार बॉडी वाले पात्र, एक्शन सीन, नए तरह के गेटअप, असीम ताकत का खेल, देश की सीमा से परे कहानियाँ, नए-नए सुपर हीरो. ध्रुव जैसा आम आदमी वाला सुपर हीरो, डोगा जैसा पावरफुल आदमी, नागराज जैसा चमत्कारी, चाचा चौधरी जैसा समझदार, बाँकेलाल जैसा हास्य चरित्र. इन सबके अलावा सबसे बड़ी बात ये कि पत्रिका को पूरा पढ़ लेने के बाद अगले अंक के लिए इंतजार करने की मज़बूरी भी ख़त्म हो गयी थी. हर दिन नयी कहानी पढ़ो. जितना मन करे उतना पढ़ो.

मैट्रिक पास करने तक मैंने ‘नंदन’ पढ़ना जारी रखा था लेकिन उसके बाद ख़ास लगाव के बावजूद छोड़ दिया. उम्र के हिसाब से उसका कंटेंट बहुत आकर्षित नहीं कर रहा था. एक ज़माने में हमें ‘नंदन’ से भले ही बहुत प्यार था लेकिन यह भी सच्चाई है कि अब हम ‘नंदन’ नहीं पढ़ सकते. हमें अब मज़ा भी नहीं आएगा. पंद्रह साल पहले ही हम उससे दूर हो चुके हैं. अब ‘नंदन’ के पुराने अंकों को देखते हुए ऐसा लगता है कि जैसे गाँव का पुराना ढह गया घर हो, जिसकी फ़ोटो खींच सकते हैं, जिसको निहार सकते हैं लेकिन अब उसमें रह नहीं सकते. नई पीढ़ी के पास मनोरंजन और ज्ञानवर्धन के लिए बहुत सारे नए मनोरंजक माध्यम है. भावुकता में हम भले उनसे ‘नंदन’ पढ़ने की उम्मीद रख सकते हैं लेकिन यह उनके साथ अन्याय होगा. बदलाव को स्वीकार कर लेना समय की ज़रुरत है हम ‘नंदन’ के लिए भावुक हो सकते हैं लेकिन उसके लिए कुछ कर नहीं सकते. नई और पुरानी दोनों पीढ़ी ज्ञान और मनोरंजन के दूसरे माध्यमों पर तेजी से शिफ्ट हो रही है.

आधिकारिक तौर पर इन दो पत्रिकाओं के बंद होने की घोषणा नहीं हुई है लेकिन हिन्दुस्तान टाइम्स से जुड़े संत समीर ने फेसबुक पर अपनी नौकरी जाने का ज़िक़्र करते हुए ‘नंदन’ और ‘कादम्बिनी’ के बंद होने की सूचना दी. सोमप्रभ फेसबुक पर लिखते हैं कि “‘नंदन’ जैसी पत्रिकाएँ कहीं से भी चकमक, प्लूटो और साइकिल के आसपास भी नहीं ठहरती.” अगर इस बात को कुछ देर के लिए सच मान लिया जाय तो इसका मतलब यह हुआ कि ‘नंदन’ बाज़ार में पिछड़ रही थी. लॉकडाउन ने भले उनको बहाना दे दिया लेकिन उसका भविष्य बहुत उज्ज्वल भी नहीं था. क्रिकेट सम्राट के भी बंद होने की खबर पिछले महीने ही आई थी.

‘नंदन’ की टैगलाइन थी – ‘जो बच्चे ‘नंदन’ पढ़ते हैं जीवन में आगे बढ़ते हैं.’ हम लोग जीवन में कितना आगे बढ़ पाए, यह तो नहीं पता लेकिन अगर आज हम हिन्दी से प्यार करते हैं और हिन्दी में लिख पाते हैं तो उसकी बड़ी वजह ‘नंदन’ है.

हमारा बचपन ‘नंदन’ ! अलविदा ‘नंदन’ !

(लेखक जेएनयू से डॉक्टरेट कर चुके हैं.)

सम्बंधित

संस्मरण | काग़ज़ पर नहीं, दिलों पर छपता था ‘क्रिकेट सम्राट’


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.