यादों में शहर | मरुउद्यान की मेहमानी

  • 2:21 pm
  • 20 June 2020

जैसे किसी बस के माथे पर वाल्वो लिख भर देने से वह वाल्वो नहीं बन जाती, हेयर स्टाइल की नकल भर से कोई भी चेहरा रनबीर कपूर नहीं हो सकता, जॉनी लिवर शत्रुघन सिन्हा या नाना पाटेकर नहीं बन सकते, दिन भर किताबों से घिरे रहने वाला हर शख्स विद्वान नहीं हो जाता, ट्रेक्टर पर बैठकर फोटो खिंचा लेने से अमिताभ बच्चन किसान नहीं बन जाते, उसी तरह, ठीक उसी तरह शीशे की दीवारों से घेरकर किसी जगह का नाम ‘ओएसिस’ रख देने से वह नख़लिस्तान नहीं बन सकता. हां, गोरखपुर में इसी नाम का एक रेस्तरां है. सन् 1613 में लैटिन ज़बान में पहली बार इस्तेमाल हुए इस शब्द ‘ओएसिस’ के मायने के बारे में पता नहीं संचालकों को ख़बर है या नहीं मगर यहां बैठकर खाने का तर्जुबा इसके हिन्दी अर्थ ‘मरुउद्यान’ सरीखा तो हरगिज नहीं निकला. उल्टा वहां से लौटते हुए कई बार मन में आया कि डिक्शनरी में इसका अर्थ बदलकर ‘मरुस्थल’ दर्ज कराने की कोशिश करनी चाहिए.

उस रोज़ मुंबई के दोस्त रामसहाय दफ़्तर आए. साथ में उनके चाचा भी थे. खाने का वक़्त हो रहा था. अकेले रामसहाय होते तो बिना किसी तकल्लुफ़ के घर चले गए होते. चाचा की वजह उस ‘बैचलर्स होम’ जाने-खाने में संकोच हो रहा था. तो सहयोगी अरुण चंद के मशविरे पर तय हुआ कि खाना ‘ओएसिस’ में ही खाया जाए. अरुण ने इसे शहर में खाने के कुछ बेहतरीन ठिकानों में एक बताते हुए काफ़ी तारीफ़ भी की. हम सारे ‘ओएसिस’ पहुंच गए. शीशे के उस दरवाज़े के पार ऐन दरवाज़े के सामने वाली मेज़ खाली दिखी सो इधर-उधर तलाश के बजाय वहीं जाकर जम गए. पानी के गिलास रखकर वेटर ऑर्डर लेने भी आ पहुंचा, प्लेटें सज गईं. तभी जाने कहां से दो मक्खियां भी तशरीफ ले आईं. मेहमाननवाज़ी का यह इंतज़ाम देखकर हैरानी हुई और कोफ़्त भी. तमाम कोशिशों से यह यक़ीन पुख़्ता हुआ कि मक्खियां पक्के इरादे से आई थीं और वहां के हटने के मूड में बिल्कुल नहीं थी.

रिसेप्शन पर हिसाब-किताब लेकर बैठे हज़रत से मक्खियों की इस गुस्ताख़ी की शिकायत की तो उन्होंने हमारी मेज़ की तरफ़ चेहरा घुमाया, जैसे मक्खियों को डांटने का इरादा रखते हों. फिर जाने क्या हुआ, दीवार से सटी मेज़ों की क़तार के दूसरे छोर की ओर इशारा करते हुए बोले, ‘अब दरवाज़ा खुला है तो मक्खियां तो अंदर आएंगी ही न! आप ऐसा करें कि वो सबसे आख़िर वाली मेज़ पर चले जाइए.‘ उनके इस आत्मविश्वास ने काफी प्रभावित किया. इससे एक तो यह पता चला कि उन्हें मक्खियों की पसंद वाली मेज़ों के बारे में काफ़ी मालूमात है, शायद इसलिए भी कि ‘रेग्युलर विजिटर’ तो वे ही हैं. धंधे का उसूल है कि ‘रेग्युलर विजिटर’ को नाराज़ नहीं करते. हमारे सरीखे लोग जो कभी-कभार आते हैं, उन्हें कहीं भी बैठाया जा सकता है. दूसरा यह कि मक्खियां क़बूल मगर दरवाज़ा बंद करना उन्हें हरगिज़ गवारा नहीं.

उनकी बात मानने के सिवाय कोई चारा नहीं था क्योंकि ऑर्डर दे चुके थे और भूख भी लगी थी. उनकी बताई जगह जाकर बैठ गए. बैरों को प्लेट-गिलास लगाने की मशक्कत फिर से करनी पड़ी. दीवार की तरफ़ वाली कुर्सी पर बैठे इंतज़ार में थे मगर खाना आने से पहले पसीना आना शुरू हुआ. इस बेइंतिहा पसीने पर भूख भारी पड़ गई. ए.सी. की मशीन ख़ामोश पड़ी थी और ऊपर दीवार पर लगा पंखा जिन लोगों को हवा दे रहा था, उसमें अपन का शुमार नहीं था. जैसे-तैसे खाना पूरा हुआ तो बिल के लिए वहां बैठे रहकर इंतज़ार करने के बजाय रिसेप्शन पर ही जा पहुंचे. एसी नहीं चलने की शिकायत की तो जवाब मिला, ‘अब आप तो देख ही रहे हैं, बिजली नहीं आ रही है. बिजलिए नहीं है तो एसी कैसे चलाएंगे.‘ उनकी बात में उलाहना का भाव था मानो बिजली लाना उनके यहां खाने के लिए आने वालों की ज़िम्मेदारी है, उनका काम केवल ‘एसी रेस्तरां’ का बिल्ला उठाए रहना हो.

जिज्ञासावश पूछ डाला कि फिर तो एसी के लिए चार्ज भी नहीं करना चाहिए. ऐसी लानत के लिए लक्ज़री टैक्स भी हम क्यों भरें? उन्होंने ख़ासी हिकारत से देखा. फिर बोले, ‘ये तो हम नहीं जानते. आप मालिक से बात कर लीजिए.‘ उन्होंने होटल के जिस हिस्से की इशारा किया, उस तरफ़ मिले दो लोगों ने मालिक होने से साफ इन्कार कर दिया. हम भी नया तजुर्बा साथ लेकर हीरामन की तरह की क़सम खाते हुए लौट आए कि आइंदा हम किसी रेगिस्तान में ही अपने लिए कुछ तलाश कर लेंगे मगर बहुत ज़रूरी होने पर भी इस ‘नख़लिस्तान’ का रुख़ हरग़िज़ नहीं करेंगे.

कवर|ज्ञानप्रकाश


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.