श्रद्धांजलि | पापू भाई के जाने से और सूनी हुई खेल की दुनिया

यूं तो शायद ही कोई ऐसा कोई खेल होगा जिसके विकास में, उसे आगे बढ़ाने में, उसे और अधिक लोकप्रिय बनाने में इलाहाबाद का योगदान न रहा हो, पर क्रिकेट को लोकप्रिय बनाने में जो योगदान इलाहाबाद का है उससे क्रिकेट का खेल शायद ही उऋण हो पाए. उसने क्रिकेट को मो.कैफ़, ज्योति यादव,आशीष विंस्टन ज़ैदी, ज्ञानेंद्र पांडेय, हैदर अली और कमाल उबैद जैसे बेहतरीन खिलाड़ी तो दिए ही पर उसका क्रिकेट को सबसे बड़ा योगदान कुछ सर्वश्रेष्ठ कमेंटेटर देना रहा है.

इलाहाबाद ने क्रिकेट को हिंदी कमेंटेटर की एक शानदार चौकड़ी दी. मनीष देब,स्कन्द गुप्त,अमरेंद्र कुमार सिंह और इफ़्तेख़ार अहमद. किसी एक शहर ने इतने सारे उच्च कोटि के कमेंटेटर शायद ही दिए हों. ये चारो लोग मिलकर रेडियो क्रिकेट कमेंट्री की विधा को नई ऊंचाइयों पर ले गए और उसके माध्यम से क्रिकेट की लोकप्रियता को बुलन्दी पर पहुंचाया.

मनीष देब और स्कन्द गुप्त इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में प्राध्यापक थे तो अमरेंद्र कुमार सिंह अर्थशास्त्र विभाग में. स्कन्द गुप्त और मनीष देब अंग्रेजी के प्राध्यापक होते हुए भी हिंदी में ही कमेंट्री किया करते थे. इफ़्तेख़ार अहमद, जिन्हें प्यार से सब ‘पापू’ भाई कहकर बुलाते थे, रेलवे में काम करते थे. कुछ दिन पहले ही वह सेवानिवृत्त हुए थे. मनीष,स्कन्द और अमरेंद्र के बाद आज इस चौकड़ी के अंतिम स्तंभ पापू भाई भी दुनिया को अलविदा कह गए.

पापू भाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक थे और विश्वविद्यालय स्तर तक उन्होंने क्रिकेट खेला थी. जिस समय वो क्रिकेट खेल रहे थे, उस समय रेडियो पर क्रिकेट कमेंट्री अपना स्वरूप ग्रहण कर रही थी और वे ख़ुद क्रिकेट खेलने से ज़्यादा क्रिकेट कमेंट्री की ओर आकर्षित हुए. स्थानीय मैचों में वह शौकिया कमेंट्री करने लगे और जल्दी ही इस विधा में माहिर हो गए. अपने पहले ही प्रयास में वे रीजनल स्तर के पैनल के चुन लिए गए. बाद में वे राष्ट्रीय पैनल में शामिल कर लिए गए.

हालांकि वे विश्वविद्यालय स्तर तक ही क्रिकेट खेले थे,लेकिन उन्हें क्रिकेट की गहरी समझ थी और उसकी बारीकियों को समझते थे. उनकी भाषा पर भी बढ़िया पकड़ थी और इसके चलते वे धाराप्रवाह कमेंट्री करते. जो कोई भी उन्हें सुनता उनका दीवाना बन जाता.

मेरी उनसे पहली मुलाकात खेल पर एक परिचर्चा की रिकॉर्डिंग के दौरान हुई थी. उस परिचर्चा में उनके अलावा खेल जगत के तीन और बड़े नाम शरीक थे और मुझे रेडियो जॉइन किए हुए बहुत ज़्यादा दिन नहीं हुए थे. उस परिचर्चा का संचालन मैं खुद करना चाहता था और मैंने किया भी. हालांकि रिकॉर्डिंग से पहले सभी लोगों को ये बात नागवार लग रही थी कि उन सीनियर लोगों के बीच ये ‘कल का लौंडा’ संचालन कैसे कर सकता है! लेकिन रिकॉर्डिंग के बाद इफ़्तेख़ार भाई ने पीठ थपथपाई और उसके बाद जब भी वे आते तो कहते – आप ही संचालन करो या इंटरव्यू करो.

दरअसल वे शानदार कमेंटेटर तो थे ही पर उससे भी शानदार वे एक इंसान थे. बहुत ही सहज और सरल. वे बहुत मोहब्बत से मिलते. उन्हें जब भी मैंने अपने कार्यक्रम के लिए याद किया वे तुरंत चले आते. जितनी बार उन्हें स्टूडियो में रिकॉर्ड किया, उससे कहीं अधिक बार उन्हें फ़ोन पर रिकॉर्ड किया. जब भी रिकॉर्डिंग के बाद उनको चाय ऑफ़र करते तो वे कहते – नहीं, यहाँ कमरे में नहीं. और फिर आकाशवाणी गेट के बाहर चाय की दुकान पर जाकर महफ़िल जमती, जहां इलाहाबाद के खेलों पर लंबी बहस चलती.

मैंने उन्हें आख़िरी बार अपने कार्यक्रम के लिए फ़ोन पर देहरादून आकाशवाणी स्टूडियो से रिकॉर्ड किया था, जब जसदेव सिंह का निधन हुआ था. और रेडियो पर आख़िरी बार उन्हें कमेंट्री करते हुए सुना 13 से 17 फरवरी तक भारत और इंग्लैंड के बीच दूसरे टेस्ट मैच के दौरान. शायद रेडियो के लिए ये उनकी आख़िरी कमेंट्री थी.

इफ़्तेख़ार भाई सिगरेट बहुत पीते थे. अभी कुछ साल से उन्हें स्वास्थ्य संबंधी समस्या होने लगी थीं. उन्हें हृदयाघात हुआ था. अब वे जल्द ही थक जाते थे. इसका असर उनकी कमेंट्री पर भी पड़ा था. वे अब थोड़ा फ़म्बल करने लगे थे, लेकिन कमेंट्री के प्रति उनका गहरा अनुराग था, उनका पहला प्यार था और उसका दामन उन्होंने आख़िरी वक़्त तक नहीं छोड़ा. वे लगातार कमेंट्री करते रहे. उन्हें मैदान से सीधे कमेंट्री करने के बजाय ऑफ़ ट्यूब कमेंट्री कभी नहीं भायी. वे उसकी खूब आलोचना करते लेकिन वे उसमें भी सिद्धहस्त हो गए थे और जब भी कमेंट्री करते लगता सीधे मैदान से बोल रहे हैं.

इलाहाबाद की क्रिकेट की हिंदी कमेंट्री की समृद्ध परंपरा के आख़िरी स्तंभ को आख़िरी सलाम. इलाहाबाद का खेल जगत थोड़ा और सूना हुआ और हमार हृदय भी. आप बहुत याद आएंगे इफ़्तेख़ार सर.

विनम्र श्रद्धांजलि।

फ़ोटो क्रेडिट| संजय बनौधा


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