जाँ निसार अख़्तर | वो अलबेला शायर जिसे चीख़ते रंग पसंद नहीं
जाँ निसार अख़्तर बोहेमियन थे. हर क़िस्म की रूढ़ियों और कर्मकांड से आज़ाद. सही मायने में तरक़्क़ीपसंद, आज़ादख़्याल! शख़्सियत भी उनकी बड़ी दिल-आवेज़ थी. बिखरे-बिखरे खिचड़ी बाल, उन बालों को सुलझातीं उंगलियां, होठों के बीच सिगरेट, चौड़े पांयचे का पाजामा और मोटे कपड़े की जवाहर जैकेट.
उनके अज़ीज़ दोस्त जोय अंसारी ने एक मजामीन में उनकी दिलकश शख़्सियत का ख़ाका कुछ इस तरह पेश किया है, “जाँ निसार अख़्तर बेदाग़ शेरवानी, बेतक़ल्लुफ़ जुल्फ़ों, दिलकश गोल गंदुमी चेहरे और अदब-आदाब के साथ जब मुशायरे के स्टेज पर क़दम रखते, तो एक तरहदार नौजवान नज़र आते थे. उनके हुलिये में महबूबीयत थी. अंदर से भी ऐसे ही थे. किसी को रंज न पहुंचाने वाले, कम बोलने वाले, हालात से ख़ुश रहने वाले और चाहे जाने वाले. उनके इस रखरखाव और नफ़ासतपंसदी को बंबई का धुंआ और एक घुटा हुआ कमरा दीमक की तरह चाट गया. बाक़ी गुण उन्होंने धूनी दे-देकर संभाल कर रखे.”
इस हरफ़नमौला शायर ने ज़माने को शानदार ग़ज़लें दीं, नायाब नज़्में, रुबाइयां और फ़िल्मी नग़मे भी. यों सैयद जाँ निसार हुसैन रिज़वी उर्फ़ जाँ निसार अख़्तर को यह फ़न विरसे में मिला मगर सोहबतों से भी इसमें निखार आया. उनके वालिद मुज़्तर ख़ैराबादी और दादा मौलाना फ़ज़ले हक़ ख़ैराबादी भी आला दर्जे के शायर हुए. माँ भी शायरी करतीं. घर के माहौल का असर कि कम उम्र में उन्होंने भी शेर कहने शुरू कर दिए.
जिन दिनों पढ़ाई के लिए वह एएमयू पहुँचे, यूनिवर्सिटी में अली सरदार जाफ़री, ख्वाजा अहमद अब्बास, मज़ाज, सिब्ते हसन, मंटो, मुईन अहसन जज़्बी, अख़्तर उल ईमान, हयातउल्ला अंसारी और इस्मत चुग़ताई भी पढाई कर रहे थे, अपने अदब और तख़्लीक के ज़रिए आज़ादी की तहरीक़ में भी शरीक होते रहते थे. तरक़्क़ीपसंद शायरों और अदीबों के मर्कज में रहते हुए अदबी माहौल का उन पर यह असर हुआ कि अपने तमाम साथियों की तरह वह भी मार्क्सवादी ख़्याल के हामी हो गए.
इस नई समझ का नतीजा यह कि उनकी ग़ज़लों और नज़्मों में एहतिजाज और बग़ावत के सुर सुनाई देने लगे. द्वंद्वात्मक भौतिकवाद जैसे फ़लसफ़ाना मौज़ू पर उन्होंने ‘मुवर्रिख से’, ‘दाना-ए-राज’, ‘पांच तस्वीरें’ और ‘रियासत’ जैसी तवील नज़्में लिख डालीं. एएमयू से एमए करने के बाद वह ग्वालियर लौट गए. पहले ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज और फिर भोपाल के सैफिया कॉलेज में कुछ साल पढ़ाया.
मगर वह नौकरी के लिए कब बने थे! 1952 में उन्होंने नौकरी और भोपाल दोनों छोड़ दिए. अब उनका नया ठिकाना बंबई था. जहां कृश्न चंदर, इस्मत चुगताई, ख्वाजा अहमद अब्बास, मुल्कराज आनंद, साहिर लुधियानवी, सरदार जाफ़री, कैफ़ी आज़मी, मजरूह सुल्तानपुरी, अख़्तर उल ईमान वगैरह सिनेमा और अदब में एक साथ अपना झंडा पहले ही बुलंद किए हुए थे. साहिर से उनका गहरा याराना था सो बंबई में ज्यादातर वक़्त साहिर के साथ ही गुज़ारा.
सन् 1955 में आई फिल्म ’यासमीन’ के लिए लिखे गीतों ‘बेचैन नजर बेताब जिगर’, ‘मुझ पे इल्जाम-ए-बेवफ़ाई है’ और ‘आंखों में समा जाओ’ से उनके फ़िल्मी कॅरिअर की शुरूआत हुई. फ़िल्म और उनके गीत दोनों कामयाब हुए. ओ.पी नैयर के संगीत निर्देशन में उन्हें फिल्म ‘बाप रे बाप’ के लिए गीत लिखने का मौका मिला. इस फ़िल्म के गीत, ख़ासतौर पर ‘पिया पिया मेरा जिया पुकारे’ भी सुपर हिट हुआ.
इसके बाद तो जाँ निसार अख़्तर और ओ.पी. नैयर की जोड़ी ने ‘नया अंदाज़’, ‘उस्ताद’, ‘छूमंतर’ ‘रागिनी’ और ‘सीआईडी’ वगैरह फ़िल्मों में साथ काम किया. ‘सीआईडी’ में उनके लिखे ‘ऐ दिल है मुश्किल जीना यहां..’, ‘आँखों ही आँखों में इशारा हो गया..’ आदि गाने ख़ूब चले. जाँ निसार अख़्तर का शुमार मकबूल गीतकारों में होने लगा. ‘अनारकली’, ‘सुशीला’, ‘रुस्तम सोहराब’, ‘‘प्रेम पर्वत’, ‘त्रिशूल’, ‘रजिया सुल्तान’, ‘नूरी’ आदि फ़िल्मों समेत तकरीबन 80 फ़िल्मों में उन्होंने गीत लिखे.
ख़य्याम के लिए भी जाँ निसार अख़्तर ने शानदार गीत लिखे हैं – ‘‘आप यूं फ़ासलों से गुज़रते रहे…’’, ‘‘ये दिल और उनकी निगाहों के साये..’’, ‘‘ऐ दिले नादां …’’ जैसे तमाम सदाबहार नग़मे उम्दा शायरी की वजह से ही लोगों की पसंद बने. ‘नूरी’ के गीत के लिए उन्हें फ़िल्म फ़ेयर अवार्ड मिला.
कृश्न चंदर ने जाँ निसार अख़्तर के क़लाम के बारे में लिखा है, ‘‘जाँ निसार वो अलबेला शायर है, जिसको अपनी शायरी में चीख़ते रंग पसंद नहीं हैं, बल्कि उसकी शायरी घर में सालन की तरह धीमी-धीमी आंच पर पकती है.’’ वह बहुत ही मिलनसार, महफ़िलबाज़ और ख़ुशमिज़ाज इंसान थे. अपने वालिद को याद करते हुए जावेद अख़्तर ने एक इंटरव्यू में कहा है, ‘‘उन्होंने हमेशा मुझे यह सीख दी कि मुश्किल ज़बान को लिखना आसान है, मगर आसान ज़बान कहना मुश्किल है.’’ जावेद अख़्तर की इस बात से शायद ही कोई नाइत्तेफ़ाकी जता सकता है.
जाँ निसार अख़्तर ने शायरी को रिवायती रूमानी दायरे से बाहर निकालकर, ज़िंदगी की तल्ख़ हक़ीकतों से जोड़ा. उनकी शायरी में इंक़लाबी अनासिर तो हैं ही, सरमायेदारी की भी मुख़ालिफ़त भी. वह कहते हैं – “मैं उनके गीत गाता हूं/ जो शाने पर बग़ावत का अलम लेकर निकलते हैं/ किसी ज़ालिम हुकूमत के धड़कते दिल पे चलते हैं. क़ौमों में एकता का उनका तसव्वुर यूं है – “एक है अपना जहाँ/ एक है अपना वतन/ अपने सभी सुख एक हैं/ अपने सभी ग़म एक हैं/ आवाज़ दो हम एक हैं/ ये है हिमालय की जमीं, ताजो-अजंता की ज़मीं.”
उन्हें हरफ़नमौला मानने वाले उनकी शायरी के अलग-अलग शेड्स की नज़ीर पेश करते हैं, जिनमें कभी वह रूमानी लहजे के शायर नज़र आते हैं, कभी फ़लसफ़ी तो कभी बग़ावत का परचम उठाए. “अशआर मेरे यूं तो ज़माने के लिए हैं/ कुछ शेर फ़क़त उनको सुनाने के लिए हैं/ जब ज़ख्म लगे तो क़ातिल को दुआ दी जाए/ है यही रस्म तो ये रस्म उठा दी जाए/हम से पूछो कि ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फन क्या/ चंद लफ़्ज़ों में कोई आग छुपा दी जाए.”
उनको अच्छी तरह से जानने-समझने के लिए उनकी शरीक-ए-हयात सफ़िया अख़्तर के ख़त भी पढ़ सकते हैं, जो उन्होंने जाँ निसार को लिखे हैं. जाँ निसार, उनसे भले ही दूर रहे, लेकिन सफ़िया की उनके जानिब मोहब्बत कभी कम नहीं हुई. सफ़िया अख़्तर की बेवक्त हुई मौत ने जाँ निसार अख़्तर पर गहरा असर डाला. दिल को झंझोड़ देने वाली उनकी नज़्में ‘ख़ामोश आवाज़’ और ‘ख़ाके-दिल’ सफिया अख़्तर की मौत के बाद ही लिखी गईं.
‘ख़ाके दिल’ में उनका अंदाज बिल्कुल जुदा है, “आहट मेरे क़दमों की सुन पाई है/ इक बिजली सी तनबन में लहराई है/ दौड़ी है हरेक बात की/ सुध बिसरा के रोटी जलती तवे पर छोड़ आई है/ डाली की तरह चाल लचक उठती है/ ख़ुशबू हर इक सांस छलक उठती है/ जूड़े में जो वो फूल लगा देते हैं/ अन्दर से मेरी रूह महक उठती है/ हर एक घड़ी शाक गुज़रती होगी/ सौ तरह के वहम करके मरती होगी/ घर जाने की जल्दी तो नहीं मुझको मगर…/ वो चाय पर इंतज़ार करती होगी.”
नेहरू के कहने पर उन्होंने ‘हिंदुस्तान हमारा’ नाम से किताब लिखी, जो दो वॉल्यूम में छपी. यह किताब तीन सौ सालों की हिंदुस्तानी शायरी का अनमोल सरमाया है. वतनपरस्ती, क़ौमी यकजहती के साथ-साथ इस अहमतरीन किताब में मुल्क की कुदरत, रिवायत और उसके अजीम माज़ी को उजागर करने वाली ग़ज़लें, नज़्में हैं. हिंदोस्तानी त्योहार, तहज़ीब, ऐतिहासिक स्थल, मुख़्तलिफ़ शहरों, आज़ादी के रहनुमाओं, देवी-देवताओं यानी हिंदुस्तान की वे सब बातें, वाक़यात या किरदार जो हमारे मुल्क को अज़ीम बनाते हैं, के बाबत शायरी एक जगह मौजूद है. इस किताब के ज़रिए उर्दू शायरी का ऐसा चेहरा नुमांया होता है, जो अभी तक छिपा हुआ था.
‘खाक-ए-दिल’, ‘ख़ामोश आवाज़’, ‘तनहा सफ़र की रात’, ‘जाँ निसार अख़्तर-एक जवान मौत’, ‘नज़र-ए-बुतां’, ‘सलासिल’, ‘तार-ए-गरेबां’, ‘पिछले पहर’, ‘घर-आंगन’ (रुबाईयां) उनकी अहम् किताबें हैं. ‘आवाज़ दो हम एक हैं’ उर्दू में छपी उनकी सभी किताबों से ली हुई चुनिंदा रचनाओं का संकलन है. ‘ख़ाक-ए-दिल’ के लिए 1976 में उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. महाराष्ट्र अकादमी पुरस्कार के अलावा सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से भी नवाज़े गए.
अपने एक ख़त में उन्होंने लिखा है, “आदमी जिस्म से नहीं, दिल-ओ-दिमाग़ से बूढ़ा होता है.’’ यह बात उन पर भी लागू होती थी. ज़िंदगी के आख़िरी वक्त तक उन्होंने अपने ऊपर कभी बुढ़ापा हावी नहीं होने दिया. रात में देर तक चलने वाली महफ़िलों और मुशायरों में वे ख़ुद को मशगूल रखते थे – ‘‘फ़िक्रो फ़न की सजी है नयी अंजुमन/ हम भी बैठे हैं कुछ नौजवानों के बीच.”
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