ज़िक्र-ए-बरहज|बरहजिया की याद और क़स्बे का कोलाज

  • 8:45 pm
  • 3 April 2021

यादों में शहर | बरहज को पहली बार गोरखपुर के साथियों से सुने क़िस्सों की मार्फ़त जाना. बरहजिया यानी बरहज से चलने वाली पांच डिब्बों की रेलगाड़ी के आख्यान दिलचस्प लगते. तो इसमें सफ़र का इरादा करके बरहज पहुँच गया था. 31 किलोमीटर की दूरी और सवा डेढ़ घंटे का सफ़र – खेतिहर, मजदूर, दुकानदार, स्टुडेंट, सास-पतोह से लेकर सफ़र में गाकर रोजी कमाने वालों तक – हर किसी की ज़िंदगी में बरहजिया की ख़ास अहमियत है.

फिर तो ट्रेन के सफ़र और मुसाफ़िरों पर एक छोटी-सी फ़िल्म के इरादे से कई बार बरहज गया. तारीख़ पंच करके स्टेशन पर मिलने वाला कार्ड टिकट भी मेरे लिए आर्कषण था – ठहर गए वक़्त की निशानी की तरह.

एक ख़ामोश, उनींदी और अलसायी सुबह में भटनी से आकर बरहज बाज़ार के प्लेटफॉर्म पर खड़ी होने वाली यह ट्रेन पूरे क़स्बे को किस तरह फुर्ती से भर देती है, इसे महसूस करने के लिए यह सफ़र ज़रूरी हो जाता है. इस रेलगाड़ी को लेकर तमाम क़िस्से हैं, लोगों ने कवित्त रचे हैं – चढ़ जइहैं जे टीटी मामा/ सुन्हिहैं खूबै गारी/ई बरहजिया गाड़ी/ढोवै जवरा पे सवारी/ई बरहजिया गाड़ी.

बरहजिया की तरह ही बरहज के अतीत के क़िस्से भी कम नहीं. अनन्त महाप्रभु, बाबा राघवदास, बिस्मिल की समाधि, आज़ादी की लड़ाई और हरदिल अज़ीज़ मोती बी.ए. के क़िस्सों से लेकर पौराणिक आख्यानों में बरहज की अहमियत तलाशते क़िस्से, क़स्बे की समृद्धि के इतिहास और घाघरा में चलने वाले जहाज़ों के क़िस्से ज़ाहिर है कि बरहजिया से बहुत पुराने हैं.

रौशन एहतेशाम की आत्मकथा ‘अपनी ही रोशनी में रौशन’ पढ़ते हुए नदी, जहाज और जहाज बाबू का ब्योरा पढ़ा तो मार्क टुली की किताब ‘अपकंट्री टेल्स’ की प्रस्तावना भी याद आई, जिसमें उन्होंने बाग़ी सिपाहियों से बचकर अपने पुरखों के सलेमपुर से भागने और कुछ मील आगे जाकर नदी मिलने और नाव से सफ़र का ज़िक्र किया है. मार्क टुली की प्रस्तावना में बरहज या घाघरा का हवाला नहीं है मगर मुझे यक़ीन है कि वह जगह बरहज और नदी घाघरा ही है. और यह यक़ीन भी कि बरहज क़स्बे का आपको यह कोलाज भला लगेगा.

अपनी ही रोशनी में रौशन
मैं बरहज में पैदा हुई. बरहज उस समय व्यापार-केन्द्र था. यह देवरिया ज़िले की एक तहसील है. मुग़ल काल की सोलहवीं सदी में बरहज का व्यापारिक केन्द्र के रूप में अभ्युदय हुआ. शुरू में लोहे के बर्तन का निर्माण हुआ. धीरे-धीरे शुद्ध भारतीय चीनी (खाँडसारी) शीरा तथा लकड़ी से बने सामानों का निर्माण व व्यवसाय शुरू हुआ. अंग्रेज़ी शासन के दौरान बरहज का व्यापार चरमोत्कर्ष पर था. इसकी पहचान प्रमुख अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक केन्द्र के रूप में बन गई. ब्रास, लोहा और चीनी प्रमुख उद्योग बन गए. यद्यपि जनपद के रामपुर, सिधुवा जोबना में भी खाँड़सारी की मिलें थीं लेकिन बरहज में इसका व्यावसायिक ध्रुवीकरण हुआ. यहाँ चार सौ छत्तीस खाँड़सारी मिलें थीं. उत्तर प्रदेश गज़ेटियर में भी इसका उल्लेख मिलता है.

बरहज के जहाज़ घाट, कुटी घाट, थाना घाट, लालचंद आदि घाटों पर आर.एम.एच. कम्पनी भाप तथा पाल के जहाज़ों और नावों पर सामान लाद कर नार्वे, मॉरीशस, बोर्नियो, बर्मा, भूटान, इंग्लैंड, जापान, त्रिनिडाड, अफ्रीका, जावा, सुमात्रा, फारमोसा आदि के लिए जाता था और वहाँ से जहाज़ों द्वारा खाद्य-सामग्री तथा विदेशी मुद्रा लाई जाती थी. व्यापार सोने और चाँदी के सिक्कों से होता था.

मेरे दादा जी बरहज में जहाज बाबू थे. उनकी देखरेख में व्यापार फलता-फूलता रहा. अपनी पत्नी व बच्चों के साथ अखण्ड भारत में रह रहे दादा जी को विभाजन का दंश झेलना पड़ा और अपने परिवार को लेकर पूर्वी पाकिस्तान जाना पड़ा. दादा जी अपने जिन बच्चों को लेकर पूर्वी पाकिस्तान चले गए थे, उन लोगों ने भी बांग्लादेश बनने के बाद देश में शीर्ष स्थान प्राप्त किया. बड़े चाचा पूर्वी पाकिस्तान के मुख्यमंत्री के पद पर रहे फिर बांग्लादेश के प्रधानमंत्री बने. एक चाचा भारत के हाई कमिश्नर और इटली आदि देशों के राजदूत रहे. चौथे चाचा ढाका विश्वविद्यालय के कला संकाय के डीन रहे. मुजीबुर्रहमान साहब से भी बड़े चाचा का पारिवारिक रिश्ता रहा.

अब्बा, उनकी संतानों में तीसरे नम्बर पर थे और भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पूर्वांचल के जाने-माने डॉक्टर (पूरा नाम ख़ान मोहम्मद ज़िल्लुर्रहमान) थे. उन्होंने देश छोड़ना गवारा नहीं किया और बरहज की भूमि को ही अपनी कर्मस्थली मान जीवन-संग्राम में कूद पड़े. बरहज ने भी उन्हें भरपूर प्यार और सम्मान दिया. एक डॉक्टर के रूप में, एक व्यक्ति के रूप में उनका सम्मान आज भी जगमगाता है. अब्बा जीवन भर कांग्रेसी रहे. गाँधी जी के संसर्ग में उन्होंने खादी अपनाई. उस देशप्रेमी का मातृभूमि के प्रति जुनून था कि उनका रुमाल भी खादी का ही होता था. देश के लिए तीन बार जेल गए, जिसमें दो बार तो वह गोरखपुर कारागार में ही बन्द रहे. तीसरी बार जेल-यात्रा में उन्होंने अपने बड़े बेटे को खो दिया.

अपकंट्री टेल्सः वन्स अपॉन अ टाइम इन द हार्ट ऑफ़ इंडिया
इन कहानियों की पृष्ठभूमि में पूर्वांचल के होने की भी ठोस ज़ाती वजहें हैं. पहली बार जब मैं वहां गया, तो मुझे डेजा-वू की अनुभूति हुई, कि मैं पहले वहां आ चुका हूं. उस अनुभव के कुछ साल बाद, मेरे एक चचेरे भाई ने मुझे मेरी परदादी एस्थर ऐनी बेट्स के ख़ासे दिलचस्प संस्मरण भेजे, जो भारत की आज़ादी की पहली लड़ाई या अंग्रेज़ी हुकूमत के नज़रिये से कहें तो सैनिक विद्रोह के दिनों के उनके अनुभव थे.

उन्हीं संस्मरणों को पढ़ते हुए मुझे मालूम हुआ कि मेरी परदादी के पिता आर. निकल्सन ने पूर्वांचल में गोरखपुर ज़िले के सलेमपुर डिविज़न में अठारह महीने तक अफ़ीम एजेंट के तौर पर काम किया था. वह जगह सबसे नज़दीकी यूरोपीय स्टेशन से तीस मील दूर थी. यूरोपियन लोगों की नज़दीकी बस्ती भी वहां से क़रीब बारह मील की दूरी पर थी, हालांकि बाद में चार्ल्स बेट्स नाम के एक व्यापारी ने क़रीब में ही अपना बंगला बना लिया. वह शोरा, चीनी और चमड़े के साथ ही दूसरी ‘देसी चीज़ों’ का कारोबार करते थे, एस्थर तब सिर्फ़ 17 साल की थीं.

उन्होंने लिखा है कि उन पांच भाई-बहनों, एक बच्चे, उसके मां-बाप और चाची ने क़रीब दो महीने हर वक़्त इस दहशत में गुज़ारे कि उनके पिता के ख़ज़ाने की हिफ़ाज़त में तैनात सिपाही विद्रोह करके उन सबको मार डालेंगे और ख़जाना लूट लेंगे. ख़जाने से आशय पत्थर की उस छोटी-सी इमारत से था, जहां अफ़ीम उगाने वाले किसानों को बयाना देने और फिर उनकी फ़सल का दाम चुकाने के लिए निकल्सन को मिली अच्छी ख़ासी रक़म रखी हुई थी. बेचैनी और उलझन के उन दिनों में चार्ल्स बेट्स का अधिकांश समय निकल्सन के कुनबे के साथ बीतता. इसी दौरान युवा एस्थर और वह प्रेम में पड़ गए.

ख़ुद निकल्सन अफ़ीम कोठी छोड़ने के लिए तब तक राज़ी नहीं हुए, जब तक उन्हें यह ख़बर नहीं मिल गई कि बाग़ी सैनिकों का एक बड़ा जत्था ख़ज़ाना लूटने के इरादे से उसी ओर बढ़ा आ रहा है. वह इस बात से भी ख़ौफ़ज़दा हो गए कि बाग़ी उनकी और उनके परिवार के लोगों की हत्या भी कर सकते हैं. इसके बाद ही उन्होंने चार्ल्स बेट्स के साथ, पूरे परिवार को कहारों के साथ पालकियों और एक बग्घी में रवाना कर दिया.

निकल्सन वहां तब तक बने रहे, जब तक कि बाग़ी सिपाही काफ़ी क़रीब नहीं आ गए. वहां से निकलकर निकल्सन चार्ल्स और अपने परिवार के साथ शामिल हो गए. बारिश की वजह से कच्चे रास्तों पर उनका क़ाफ़िला धीमे-धीमे ही आगे बढ़ रहा था और उन्हें इस बात का भी डर था कि कीचड़ में घोड़े के खुर और बग्घी के पहियों के निशान का पीछा करते हुए बाग़ी सैनिक कहीं उन लोगों तक पहुंच न जाएं.

लेकिन, जैसा कि एस्थर ने अपने संस्मरण में लिखा है कि ‘थोड़ी ही देर बाद एक चौराहे तक पहुंचकर हम लोगों ने नदी की ओर जाने वाला रास्ता पकड़ा. उनका पीछा करते हुए बाग़ी भी चौराहे तक आ गए और आसपास खेतों में काम करने वालों से दरयाफ़्त किया कि हम लोग किस ओर गए हैं. हमारी हिफ़ाज़त की मंशा से उन लोगों ने बाग़ियों को ग़लत रास्ते की ओर इशारा करते हुए बता दिया कि हम गोरखपुर की तरफ़ गए हैं.’ क़रीब दस मील चलने के बाद वे लोग नदी तक पहुंचे जहां एक नाव पहले से मौजूद थी. इलाक़े से ख़रीदे हुए देसी उत्पाद चार्ल्स बेट्स इसी नाव में कलकत्ते की तिजारती कम्पनियों को भेजा करते थे. तीन दिनों के बाद वे लोग दीनापुर पहुंच गए, जो सुरक्षित था.

इसके साल भर बाद कलकत्ता कैथेड्रल में एस्थर निकल्सन और चार्ल्स बेट्स का ब्याह हो गया. उनके तेरह बच्चों में से एक हर्बर्ट निकल्सन बेट्स मेरे दादा थे. उनका जन्म औरंगाबाद में हुआ, जो अब पूर्वांचल के पड़ोसी प्रांत बिहार में है. पूर्वांचल से अपने परिवार के अतीत के रिश्ते जान लेने के बाद जब मैं अपनी पहली यात्रा के उस अजीब एहसास को याद करता हूं तो मेरा यह भरोसा और मज़बूत हो जाता है कि पुनर्जन्म हमारे इंतज़ार में रुका हुआ भविष्य है. पूर्वांचल मेरे लिए बेहद ख़ास बन गया, और अपनी कहानियां लिखने के लिए मैं वहीं लौट गया.

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