आई राइट ऐज़ आई फ़ीलः अब्बास

  • 8:58 am
  • 1 June 2020

ख़्वाजा अहमद अब्बास की शख़्सियत के बारे में राजिंदर सिंह बेदी लिखते हैं -‘‘एक चीज़ जिसने अब्बास साहब के सिलसिले में मुझे हमेशा विर्त-ए-हैरत (अचंभे का भंवर) में डाला है, वह है उनके काम की हैरतअंगेज़ ताकतो-कूव्वत. कहानी लिख रहे हैं और नाविल भी. क़ौमी या बैनुल-अकवामी (अंतरराष्ट्रीय) सतह पर फ़िल्म भी बना रहे हैं और सहाफ़त को भी संभाले हुए हैं. ‘ब्लिट्ज’ का आख़िरी सफ़हा तो बहरहाल लिखना ही है. साथ ही ख़्रुश्चेव की सवानह (जीवनी) भी हो गई. पंडित नेहरू से भी मिल आए, जिनसे अब्बास साहब के जाती मरासिम (व्यक्तिगत संबंध) हैं. फिर पैंतीस लाख कमेटियों का मेंबर होना समाजी ज़िम्मेदारियों का सबूत है और यह बात मेंबरशिप तक ही महदूद नहीं. हर जगह पहुंचेंगे भी, तकरीर भी करेंगे. पूरे हिन्दुस्तान में मुझे इस क़िस्म के तीन आदमी दिखाई देते हैं – एक पंडित जवाहर लाल नेहरू, दूसरे बंबई के डॉक्टर बालिगा और तीसरे ख़्वाजा अहमद अब्बास, जिनकी यह कूव्वत और काबिलियत एक आदमी की नहीं.’’

तरक़्कीपसंद तहरीक से जुड़े हुए कलमकारों और कलाकारों की फ़ेहरिस्त में ख़्वाजा अहमद अब्बास का नाम बहुत अदब से लिया जाता है. तरक़्क़ीपसंद तहरीक के वे रहबर भी थे और राही भी. हरफ़नमौला तबियत के मालिक ख़्वाजा अहमद अब्बास ने फ़िल्में बनाईं, डायरेक्टर रहे, कथाकार, पत्रकार, उपन्यासकार, नाटककार, पब्लिसिस्ट और तक़रीबन 52 साल तक चले कॉलम ‘द लास्ट पेज’ के लेखक थे. भले ही फ़िल्मकार के तौर पर अब्बास को अंतर्राष्ट्रीय पहचान मिली, लेकिन बुनियादी तौर पर वह अफ़सानानिगार थे. वह ऐसे अदीब थे, उन्होंने सभी विधाओं में लिखा और अंग्रेजी, उर्दू और हिन्दी तीनों भाषाओं में जमकर लिखा. उनकी सौ से ज़्यादा कहानियां हैं, ज़्यादातर का दुनिया की तमाम भाषाओं में अनुवाद हुआ. मानीख़ेज़ कथानक, क़िरदारों का हक़ीकी चित्रण और लाजवाब क़िस्सागोई उनकी ख़ूबी है. कहानी संग्रह ‘नई धरती नए इंसान’ की भूमिका में अब्बास लिखते हैं, ‘‘साहित्यकार और समालोचक कहते हैं, ख़्वाजा अहमद अब्बास उपन्यास या कहानियां नहीं लिखता. वह केवल पत्रकार है. साहित्य की रचना उसके बस की बात नहीं. फ़िल्म वाले कहते हैं, ख़्वाजा अहमद अब्बास को फ़िल्म बनाना नहीं आता. उसकी फ़ीचर फ़िल्म भी डाक्युमेंट्री होती है. वह कैमरे की मदद से पत्रकारिता करता है, कलम की रचना नहीं. और ख़्वाजा अहमद अब्बास खुद क्या कहता है? वह कहता है- ‘‘मुझे कुछ कहना है..’’ और वह मैं हर संभावित ढंग से कहने का प्रयास करता हूं. कभी कहानी के रूप में, कभी ‘ब्लिट्ज’ या ‘आख़िरी सफ़ा’ और ‘आज़ाद कलम’ लिखकर. कभी दूसरी पत्रिकाओं या समाचार-पत्रों के लिए लिखकर. कभी उपन्यास के रूप में, कभी डाक्युमेंट्री फ़िल्म बनाकर. कभी-कभी ख़ुद अपनी फ़िल्में डायरेक्ट करके भी.’’

सात जून, 1914 को पानीपत में पैदा हुए ख़्वाजा अहमद अब्बास के दादा ख़्वाजा ग़ुलाम अब्बास 1857 की आज़ादी की लड़ाई में शरीक पानीपत के पहले ऐसे क्रांतिकारी थे, जिन्हें हुकूमत ने तोप से बांधकर उड़ा दिया. कम लोग जानते होंगे कि ख़्वाजा अहमद, मशहूर शायर मौलाना अल्ताफ़ हुसैन हाली के परनवासे थे. अदब से मुहब्बत की तालीम उन्हें विरासत में मिली थी. उनकी शुरूआती तालीम हाली मुस्लिम हाई स्कूल में और आला तालीम अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी में हुई. अपनी रचनात्मक बैचेनी को राहत देने के लिए उन्होंने कलम को अपना हथियार बनाया. छात्र जीवन से ही वे पत्रकारिता से जुड़ गए. ‘अलीगढ़ ओपिनियन’ नाम की पत्रिका शुरू की, जिसमें उन्होंने देश की आज़ादी के लिए चल रही तहरीक के बारे में कई लेख छापे.

एएमयू से पढ़ाई पूरी करने के बाद अब्बास जिस सबसे पहले अख़बार से जुड़े, वह ‘बॉम्बे क्रॉनिकल’ था. इस अख़बार में संवाददाता और फिल्म समीक्षक के तौर पर उन्होंने 1947 तक काम किया. अपने दौर के मशहूर साप्ताहिक ‘ब्लिट्ज़’ से उनका नाता लंबे समय तक रहा. इस अख़बार में छपने वाले उनके कॉलम ‘लास्ट पेज’ से उन्हें देश भर में शोहरत मिली. अख़बार के उर्दू और हिन्दी संस्करणों में भी कॉलम ‘आज़ाद कलम’ और ‘आख़िरी पन्ने’ के नाम से छपता. ‘बॉम्बे क्रॉनिकल’ और ‘ब्लिट्ज़’ के अलावा वह ‘क्वेस्ट’, ‘मिरर’ और ‘द इंडियन लिटरेरी रिव्यू’ के लिए भी लिखते रहे. अपनी कलम के जरिए उन्होंने समाजवादी विचारों का प्रसार किया, साथ ही अपने दौर के तमाम महत्वपूर्ण मुद्दों पर कलम चलाई. तरक़्कीपसंद तहरीक का अब्बास के विचारों पर काफी असर रहा. बंबई में विक्टोरिया गार्डन के नज़दीक उनके छोटे से कमरे में प्रगतिशील लेखक संघ की बैठकें होतीं, जिसमें हिन्दी, मराठी, उर्दू, गुजराती और कभी-कभी कन्नड़ और मलयालम के जाने-माने लेखक शरीक होते. अब्बास ने इप्टा के संगठनात्मक कामों के अलावा उसके लिए कई नाटक लिखे, कई का निर्देशन भी किया. ‘यह अमृता है’, ‘बारह बजकर पांच मिनिट’, ‘जुबैदा’ और ‘चौदह गोलियां’ उनके मक़बूल नाटक हैं. वह उन नाटककारों में से हैं, जिनकी वजह से भारतीय रंगमंच में यथार्थवादी रुझान आया. यथार्थवादी रंगमंच को प्रतिष्ठा मिली. उनके नाटकों के बारे में बलराज साहनी ने लिखा है, ‘‘अब्बास के नाटकों में एक मनका होता है, एक अनोखापन, एक मनोरंजक सोच, जो मैंने हिन्दी-उर्दू के किसी और नाटककार में कम ही देखा है.’’

उनके कई कहानी संग्रह छपे, जिनमें ‘एक लड़की’, ‘जाफ़रान के फूल’, ‘पांव में फूल’, ‘मैं कौन हूं’, ‘गेहूं और गुलाब’, ‘अंधेरा-उजाला’, ‘कहते हैं जिसको इश्क’, ‘नई धरती नए इंसान’, ‘अजंता की ओर’, ‘बीसवीं सदी के लैला मजनू’, ‘आधा इंसान’, ‘सलमा और समुद्र’, और ‘नई साड़ी’ प्रमुख कहानी संग्रह हैं. ‘इंक़लाब’, ‘चार दिन चार राहें’, ‘सात हिंदुस्तानी’, ‘बंबई रात की बांहों में’ और ‘दिया जले सारी रात’ उनके प्रमुख उपन्यास हैं. अपने लेखन के बारे में ख़ुद अब्बास का कहना था कि ‘‘मेरी रचनाओं पर लोग जो चाहें लेबल लगाएं, मगर वो वही हो सकती हैं, जो मैं हूं, और मैं जो भी हूं, वह जादू या चमत्कार का नतीजा नहीं है. वह एक इंसान और उसके समाज की क्रिया और प्रतिक्रिया से सृजित हुआ है.’’ यही वजह है कि अब्बास की कई कहानियां विवादों की शिकार भी हुईं. विवादों की वजह से उन्हें अदालतों के चक्कर ज़रूर लगाने पड़े, मगर लेखन में समझौता नहीं किया. उनका कहना था कि ‘‘वह किसी राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित होकर नहीं, बल्कि इंसान को इंसान की तरह देखकर लिखते और संबंध गांठते हैं.’’

उनकी कहानियों का दायरा पांच दशक तक फैला हुआ है. 19 साल की उम्र में पहली कहानी ‘अबाबील’ सन् 1935 में छपी. और ‘अबाबील’ ने अब्बास को मशहूर कर दिया. बाद में दुनिया की कई ज़बानों में इस कहानी के अनुवाद हुए. इस कहानी में अब्बास ने किसान की ज़िंदगी का जो ख़ाका खींचा है, वह गांवों को क़रीब से जाने बग़ैर मुमकिन नहीं लगता. और ताज्जुब की बात यह कि गांव और किसान की ज़िंदगी का कोई जाती तजुर्बा उन्हें बिल्कुल नहीं था. एक इंटरव्यू में जब कृश्न चंदर ने इसके मुतआल्लिक उनसे पूछा, तो अब्बास ने जवाब दिया, ‘‘कोई जरूरी नहीं कि हर कहानी अनुभव पर आधारित हो. जिस प्रकार क़ातिल के विषय में लिखने से पहले क़त्ल करना ज़रूरी नहीं. या एक वेश्या के जीवन का वर्णन करने के लिए यह ज़रूरी नहीं है कि लेखक ख़ुद भी किसी वेश्या के साथ सो चुका हो.’’

सत्तर साल की उम्र आते-आते ख़्वाजा अहमद अब्बास, तकरीबन सत्तर किताबें लिख चुके थे. उनके महत्वपूर्ण लेखों का संकलन हमें उनकी दो किताबों ‘आई राइट ऐज़ आई फ़ील’ और ‘ब्रेड, ब्यूटी एंड रिवोल्यूशन’ में मिलता है. अब्बास ने अपनी आत्मकथा भी लिखी, जो कि ‘आई एम नॉट एन आईलैंड : एन एक्सपेरिमेंट इन आटोबायोग्राफी’ नाम से 1977 में छपी.

फ़िल्मों में तो वह पार्ट-टाईम पब्लिसिस्ट के रूप में आए थे, लेकिन बाद में वे इसमें पूरी तरह रम गए. साल 1936 से उनका फ़िल्मों में सबसे पहले वे हिमांशु राय-देविका रानी की प्रॉडक्शन कम्पनी बॉम्बे टॉकीज़ से जुड़े. सन् 1941 में उन्होंने ‘नया संसार’ की पटकथा भी इसी कंपनी के लिए लिखी. 1945 में इप्टा के लिए बनाई ‘धरती के लाल’ से डायरेक्टर के रूप में उनका करिअर शुरु हुआ. 1951 में उन्होंने ‘नया संसार’ नाम से अपनी फ़िल्म कंपनी खोल ली. इसके बैनर पर उन्होंने कई सार्थक फिल्में बनाईं – ‘राही’ (1953) मुल्कराज आनंद की कहानी पर आधारित थी, जिसमें चाय बागानों में काम करने वाले श्रमिकों की दुर्दशा दिखाई गई थी. वी. शांताराम की फ़िल्म ‘डॉ. कोटनिस की अमर कहानी’ अब्बास के अंग्रेजी उपन्यास ‘एंड वन डिड नॉट कम बैक’ पर आधारित है. ‘धरती के लाल’ में उन्होंने देश की सामाजिक विषमता का यथार्थवादी चित्रण किया. फ़िल्म प्रत्यक्ष रूप से ज़मीदारों, पूंजीपतियों, व्यापारियों की और अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजी हुकूमत की आलोचना करती है. ‘अनहोनी’ (1952) सामाजिक विषय पर एक विचारोत्तेजक फिल्म थी. फिल्म ‘शहर और सपना’ (1963) में फ़ुटपाथ पर जीवन गुजारने वाले लोगों की समस्याएं हैं, तो ‘दो बूँद पानी’ (1971) राजस्थान में पानी की विकराल समस्या पर आधारित है. गोवा की आज़ादी पर आधारित ‘सात हिंदुस्तानी’ भी उल्लेखनीय फ़िल्म है.

ख़्वाजा अहमद अब्बास के लिए सिनेमा सामाजिक प्रतिबद्धता थी. सिनेमा को वह बहुविधा कला मानते थे, जो मनोवैज्ञानिक और सामाजिक वास्तविकता के सहारे लोगों में वास्तविक बदलाव की आकांक्षा को जन्म दे सकती है. राज कपूर के लिए उन्होंने जितनी भी फ़िल्में लिखी, उन सभी में हमें एक मज़बूत सामाजिक मुद्दा मिलता है – चाहे यह ‘आवारा’ हो, ‘जागते रहो’ (1956) या फिर ‘श्री 420’. पैंतीस वर्षों के अपने फ़िल्मी करिअर में अब्बास ने तेरह फ़िल्में बनाईं, चालीस फ़िल्मों की कहानी और पटकथा लिखी.

अब्बास का नज़रिया समझने के लिए उनका वह वसीयतनामा ही काफ़ी है, जो उनकी आख़िरी ख़्वाहिश के मुताबिक एक जून, 1987 को उनके देहांत के बाद कॉलम के तौर पर छापा गया. इसमें उन्होंने लिखा था,‘‘मेरा जनाजा यारों के कंधों पर जुहू बीच स्थित गांधी के स्मारक तक ले जाएं, लेजिम बैंड के साथ. अगर कोई ख़िराज़-ए-अक़ीदत पेश करना चाहे और तकरीर करे तो उनमें सरदार ज़ाफरी जैसा धर्मनिरपेक्ष मुसलमान हो, पारसी करंजिया हों या कोई रौशनख्याल पादरी हो वगैरह, यानी हर मजहब के प्रतिनिधि हों.’’ आगे लिखते हैं,‘‘जब मैं मर जाऊॅंगा, तब भी मैं आपके बीच में रहूंगा. अगर मुझसे मुलाक़ात करनी है, तो मेरी किताबें पढ़ें और मुझे मेरे ‘आख़िरी पन्नों’, ‘लास्ट पेज’ में ढ़ूंढ़ें, मेरी फ़िल्मों में खोजें. मैं और मेरी आत्मा इनमें है. इनके माध्यम से मैं आपके बीच, आपके पास रहूंगा, आप मुझे इनमें पाएंगें.’’

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