वामिक़ जौनपुरी | प्रगतिशील शायरों में रौशन मीनार

  • 3:21 pm
  • 21 November 2020

उर्दू की प्रगतिशील धारा के कवियों में जनाब वामिक़ जौनपुरी एक रौशन मीनार की तरह दीप्तिमान हैं. एक प्रगतिशील कवि होने के नाते वामिक़ साहब विचारधारात्मक प्रोपगंडे को साहित्य के लिए ज़रूरी मानते हैं पर उनकी शायरी में नारा अपनी कलात्मकता के साथ इस तरह दिखलाई पड़ता है कि वह काव्य सौन्दर्य का एक अंग बन जाता है.

प्रगतिशील आंदोलन के दौर में हिन्दी और उर्दू जितना क़रीब आईं न पहले न कभी बाद में. वामिक़ जौनपुरी इस दृष्टि से न सिर्फ़ बाक़ी सबसे अलग बल्कि सबसे ऊपर दिखाई देते हैं. ‘भूका बंगाल’ जिसने उर्दू शायरी में उनकी पहचान बनाई, हिन्दी बल्कि बोली की रचना है. उनके प्यारे शहर जौनपुर की बोली की. इस गीत का भारत की तमाम भाषाओं में अनुवाद हुआ और इसे सड़कों पर गा-गा कर जन नाट्य मंच (इप्टा) ने बंगाल रिलीफ़ फ़ंड के लिए अस्सी हज़ार रुपये इकट्ठा किए. ख्वाजा अहमद अब्बास ने अपनी प्रसिद्ध फ़िल्म ‘धरती के लाल’ में इसका उपयोग किया. सज्जाद ज़हीर ने अपनी किताब ‘रौशनाई का सफ़र’ में लिखा है, ‘वामिक़ की यह नज़्म उर्दू अदब के इतिहास में सुनहरी हर्फ़ों में लिखी जाने लायक है.’

‘भूका बंगाल’ की सफलता का एक बहुत बड़ा कारण यह भी है कि अख़बारों में बंगाल के अकाल को ख़बरें पढ़कर ही उन्होंने इसे नहीं लिख दिया बल्कि अकाल की विभीषिका को अपनी आंखों से देखने के लिए कलकत्ता को यात्रा की. अगस्त-सितंबर 1943 में अलीगढ़ प्रवास के दौरान उन्होंने एक अख़बार में अकाल की विस्तृत रिपोर्ट पढ़ी. बेकारी के दिन. पैसों का अभाव. घर आए. बीवी से कुछ रुपये क़र्ज़ लेकर सीधे कलकत्ता पहुंचे. वहां का हाल उन्हीं के शब्दों में, “हावड़ा स्टेशन से निकलते ही फुटपाथ पर दो-तीन लाशें नालियों में सर लटकाए दिखाई दीं. फ़ज़ा में उफ़ूनत (बदबू ) का भी अहसास हुआ. बड़े इन्तज़ार के बाद एक टिन टिन रिक्शा मिला. उस पर अपनी अटैची रख कर बड़ा बाज़ार होता हुआ मैं ज़करिया स्ट्रीट पहुंचा. नाख़ुदा मस्जिद के सामने अमजदिया होटल में पांच रुपया रोज़ पर एक कमरा लिया. अटैची जिसमें चंद जोड़े कपड़े थे, कमरे में बंद करके फिर निकल खड़ा हुआ.

जिधर से गुज़रता था लाशों पर लाशें मिलती थीं. मुर्दा और दम तोड़ते हुए बूढ़े, बच्चे, मर्द, औरत, जवान और मिस्कीन (यतीम ). जिनमें भीक माँगने की अभी सकत बाक़ी थी, उनके चेहरों पर अलावा दांतों के कुछ नज़र न आता था. हद ये है कि इस्प्लानेड, चौरंगी और मैदान में भी इसी तरह के दिल दहला देने वाले मनाज़िर (अनेक मंज़र) दिखाई देते थे. गली-कूचों में तंगी की वजह से फूंक-फूंक कर क़दम रखना पड़ता था. कहीं कोई खाना या चावल तक़सीम करने वाले भंडार या शामियाने नज़र न आते थे. होटल खुले हुए थे मगर दरवाजे बंद किए बैरे सीढ़ियों पर बैठे दिखायी दे जाते थे. ….म्यूनिस्पैलिटी के ट्रक भी मिले जिन पर सड़ी हुई लाशें बोरों की तरह कहीं ले जाई जा रही थीं. दुनिया की चौथी सबसे बड़ी आबादी वाले शहर पर हू का आलम और क़ब्रिस्तान से कहीं ज़्यादा ख़ौफनाक सन्नाटा छाया हुआ था.”

होटल में लौट कर बैरा से मालूम हुआ “देहात से आया हुआ गल्ला तो शहर के गोदामों में छत तक लगा हुआ है मगर हुकूमत और गल्‍ला व्यापारियों को क्या ग़रज़ कि वो अपनी दौलत को बिला एवज मुआवजा लुटा दें. इन भुकमरों के पास दाम कहाँ. जो अपनी जवान औरतों और कामकाज करने वाले लड़के-लड़कियों को बेच लेते हैं वो बच जाते हैं.” खाना मेज़ पर रखवा कर बिस्तर पर लेटे और सो गए. सपना देखा कि “सब लाशें उठ-उठ कर चलने लगीं, देखते-देखते उनके जिस्मों का गोश्त पोस्त पिघल-पिघल कर ज़मीन पर गिरने लगा और चलते-फिरते हड्डियों के ढाँचे सड़कों पर दौड़ने लगे. थोड़े वक्‍फ़े के बाद वो सफें बाँध कर फ़ौजों की तरह मार्च करने लगे. गोदामों और दुकानों के ताले तोड़-फोड़ कर अंदर दाख़िल होने लगे. चावल के बोरे निकाल-निकाल कर बाहर फेंकने लगे और उनके कच्चे चावलों को फाँकने लगे. और डलहौजी से होते हुए गवर्नमेंट हाउस की जानिब शोर मचाते हुए जाने लगे. उनको आते देख कर पहरे के सिपाहियों ने मशीनगनों की बाढ़ खोल दी और आँख झपकते ही हज़ारों ढाँचे ज़मीन पर ढेर हो गए और फिर सब पर गोश्त पोस्त चढ़ गए और फिर लाशों से पटा हुआ एक मैदान नज़र आने लगा.”

अब सुनिए दूसरे दिन का हाल – “मुँह हाथ धोने के बाद नाश्ता कर के फिर निकल खड़ा हुआ. आज सियालदह की तरफ़ गया. उधर की हालत हावड़ा और चौरंगी मंतिक़े (इलाक़े) से भी ज्यादा ख़राब थी. वहाँ एक बूढ़े-बूढ़ी का जोड़ा चलते-चलते गिरकर मरता हुआ देखा. पहले से पड़ी हुई सड़ती लाशों का तो कोई ज़िक्र नहीं. बालाख़ानों से फेंके हुए कूड़े करकट में तरकारियों के छिलके, रोटियों के बचन-खुचन पर कुत्तों और आदमियों को झगड़ा करते देखा. मवेशियों और बिल्ली-कुत्तों की लाशें भी देखीं. किसी गोदाम के सामने शोर मचाते हुए भूकों पर पुलिस और फ़ौजी सिपाहियों का लाठीचार्ज भी देखा. कहते बंगाल को पूरी बहीमाना (जालिमाना) शक्ल में देख कर मज़ीद कुछ और देखने की अपने में ताब न पाकर उसी दिन वतन वापस लौट जाने का मुसम्मम (पक्का) इरादा कर लिया. ट्रेन में बैठ जाने के बाद ऐसा महसूस हो रहा था कि मैं सड़ती हुई लाशों के एक बहुत बड़े दलदल से निकल कर आ रहा हूँ.”

और इस तरह लिखी गई शाहकार रचना – “वतन पहुँचने के कई दिन तक काबूस (नाइटमेयर) का शिकार रहा. रफ़्ता-रफ़्ता जब तबीयत मामूल पर आने लगी तो मैंने क़लम सम्हाला और कई दिन तक मंसूबा बनाता रहा कि इतने बड़े अलमिया को किस अंदाज से नज़्म (पद्यबद्ध) किया जाए कि मेरे ज़ेहन में जो तास्सुरात और तस्वीरें हैं मिन्‍नोअन्न (ज्यों की त्यों) क़ारी (पाठक) के ज़ेह्नो असाब (स्नायु) पर छा जाएं कि एक शब बिस्तर पर लेटते ही यह मिसरा ज़ेहन में आया ‘भूका है बंगाल रे साथी भूका है बंगाल’. ज़बान सीधी सादी और आम फ़हम थी चुनांचे गीत का पूरा ढाँचा इस मिसरे की बुनियाद या रिफ़्रेन पर मेरे क़ाबू में आ गया. गीत का मुखड़ा तो हाथ आ ही गया था जिससे दिल को तक़वीयत (दृढ़ता) सी महसूस हुई. अब पहले बोल या मिसरे को ज़हन में कुरेदने लगा और वह भी जल्द ही ज़ेहन में आ गया. ‘पूरब देस में डुग्गी बाजी फइला सुख का काल’. इसके बाद तो बोल इस तरह ढल-ढल कर क़लम से तरश्शी (प्रवाहित) होने लगे जिस तरह अंगुली कट जाने पर ख़ून के क़तरे. शायद इसी को इस्तलाहन इल्का (नाज़िल होना) कहते हैं. ज़्यादा करके डेढ़ दो घंटों में गीत का मसौदा तैयार हो गया और दो-एक मसविदा की काट-छाँट के बाद उस सूरत में आ गया जिसने मुल्क में इस मौज़ू पर तमाम नज़्मों में सरे फ़ेहरिस्त जगह हासिल की और तारीख़ का नाक़ाबिले फ़रामोश बाब (अविस्मरणीय अध्याय) बन गई. मुल्क की हर ज़बान में उसका तर्जुमा हुआ और ‘क़ौमी जंग’ पार्टी के अख़बार में इसकी अशाअत (छपने) के बाद मुझको वह शोहरत और हैसियत मिली कि उसकी गूँज अब तक उसी देरीना शिद्दत (रोज़ की तेज़ी) से सुनी जा सकती है स क़दर आगाज़ में थी. इसके बाद मुझको अपनी तख़लीक़ात(रचनाओं) पर वह एतमाद (भरोसा ) पैदा हुआ जो फ़न को अज़मत (महानता) की सरहद तक पहुंचाने के लिए इन्तेहाई ज़रूरी है.

23 अक्टूबर 1909 को कजगाँ (जौनपुर) की गोल कोठी में एक संभ्रांत ज़मींदार घराने में एक सरकार अफ़सर के पहले बेटे के रूप में जन्मे वामिक़ साहब एक अजीब इत्तेफ़ाक़ से शायर बने. फ़ैज़ाबाद में वकालत के दौरान जिस कोठी के आधे हिस्से में आप रहते थे, उसके मालिक के यहाँ हर हफ़्ते शेरो शायरी की महफ़िल जमती. ज़्यादातर शेर फटीचर होते और जो शेर जितना बेकार होता उतनी ही दाद पाता. मज़ाकन एक नौजवान को एक मोहमल (निरर्थक) ग़ज़ल कह कर देदी. ख़ूब दाद मिली. दूसरी बार ऐसा किया तो मकान मालिक हकीम मज्जे ताड़ गए. शेर कहने को प्रेरित किया. फिर जो शायरी का सिलसिला चला, उन्हें भी चलाता रहा. कविता ने अच्छी ख़ासी चल पड़ी वकालत छुड़वाई और फिर सरकार नौकरी भी दिलवाई. ‘भूका बंगाल’ सुनकर एशडीएम बनारस ने सप्लाई ऑफ़िस में इंस्पेक्टर बना दिया. सप्लाई अफ़सरी तक पहुंचे लेकिन फिर शायरी ने निकलवा बाहर किया. गाँव में किसान सभा बनाई. दिल्ली जाकर ‘शाहराह’ की सम्पादकी की. शायरी ने फिर नौकरी दिला दी. उनकी कविता के प्रशंसक डॉ. ज़ाकिर हुसैन ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी बुला लिया इंजीनियरिंग कॉलेज के ऑफिस सुपरिटेंडेंट पद पर. रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज, श्रीनगर के रजिस्ट्रार पद से रिटायर होकर 1969 के अंत में गाँव वापस आए और मृत्युपर्यंत (21 नवम्बर 1998) जम कर लिखा.

उल्लेखनीय है कि जहाँ उनकी पीढ़ी के दूसरे शायर एक बुलंदी पर जाकर ठहर गए या ख़ुद को दोहराने लगे वामिक़ साहब निरंतर पहले से बेहतर कहते रहे. एक नई और सच्ची आज़ादी की ललक उनमें अंत में बरक़रार रही. उनका हाथ ज़माने की नब्ज़ पर रहा. वे उर्दू के अकेले शायर थे जिन्होंने आगे बढ़कर नक्सलबाड़ी किसान क्रांति का स्वागत किया और उसे तेलंगाना किसान क्रांति की अगली कड़ी बतलाया –
वो जिसने पुकारा था हमको नौजवानी में
उफ़ुक़ पे चीख़ रहा है वही सितारा फिर

उनकी इस दौर की शायरी में जो तेज़ धार दिखती है उनके साथ की तो क्या बाद की पीढ़ी में भी नहीं दिखती – “ज़मीं की प्यास थी क्या बुझती आबे तेग़ से जो लहू की नहर का काटा गया किनारा फिर” या “ज़बान कट चुकी जारी क़ताल है फिर भी” या “साहिल से जाके लौट न आएं तो क्या करें/ कब तक कनारे तैरती लाशें गिना करें”. उनके कुछ उल्लेखनीय शेर हैं – “आदमी को क़रीब से देखो/ आदमी दूर जाने वाला है”, “जिस्म बेसर लिए जब हम सरे महशर निकले/ सर निगूँ शर्म से क़ौमों के पयंबर निकले”, “हमारी बातों को देता नहीं जवाब कोई/ उड़ाते रहते हैं बस आँय-बाँय-शाँय सब.”

वैज्ञानिक तथ्यों और सत्यों को जिस तरह कविता में ढाल देते हैं पढ़ने से ताल्लुक रखता है. ‘वक़्त’ नज़्म में वे एक वैज्ञानिक दार्शनिक या कहिए एक दार्शनिक वैज्ञानिक की तरह दिक्-काल की खोज-ख़बर लेते हैं तो ‘आफ़रीनश’ में महाविस्फोट से लेकर सृष्टि रचना की समूची कहानी को कविता का जामा पहनाते हैं. ‘ज़मीं’ में न सिर्फ़ धरती का क़सीदा कहते हैं बल्कि उसके जन्म की वैज्ञानिक रूपरेखा को अनुपम काव्य सौंदर्य के साथ बयान करते हैं. उन्होंने जितनी युद्ध विरोधी कविताएं लिखी हैं किसी दूसरे ने नहीं. जिस तरह वे याद किए जाएंगे ‘भूका बंगाल’ के लिए उसी तरह ‘नीला परचम’ के लिए. अधूरी आज़ादी पर कई बड़े शायरों ने अच्छी नज़्में कही हैं पर उके यहाँ सिर्फ़ एक से बस है. वामिक़ ने न सिर्फ़ ‘दूसरी आज़ादी’ नज़्म ही कही बल्कि तमाम ग़ज़लों, गीतों और लोक रचनाओं में यह दर्द बिखरा पड़ा है.

अपने चौथे और आख़िरी संकलन ‘सफ़रे नातमाम’ की भूमिका में वामिक़ साहब ने लिखा है – “हमारे अवाम में सबसे बड़ी तादा हैव नॉट्स (ग़रीबों) और परेशानहाल लोगों की है. बअल्फ़ाज़ दीगर (दूसरे शब्दों में) तरक़्क़ी पसंद शायरी का असली नाम अवामी शायरी है जिसको लेसानी (भाषा संबंधी) एतबार से तीन शक्लों में देखा जा सकता है. एक जो इंटेलेक्चुअल (दानिश्वर तबक़े) के लिए तख़लीक़ की (लिखी) जाती है. दूसरी वह जो दरमियानी और बनिस्पत कम तालीमयाफ़्ता लोगों के लिए होती है जिनका एक सिरा दानिशवरी से मिला होता है और दूसरा बाज़ार और खेत-खलियान से और तीसरी क़िस्म ख़ास मेहनतकश तबक़े के लिए होती है जो बेश्तर मज़दूरों और किसानों पर मुश्तमिल (आधारित) होता है और जो अशरी हालात में कसरत से ग़ैरतालीमयाफ़्ता (अशिक्षित) हैं. शायरी के ये तीनों अक़साम (क़िस्में) तीन मुख़्तलिफ़ लेसानी हैसियतों की हामिल होती हैं. पहली क़िस्म लग़वी और बुलंद अदबी मेयार की होती है जो ज़्यादातर आमफ़हम नहीं होती. दूसरी में रोज़मर्रा की उर्दू बोलचाल का रंग ग़ालिब होता है और जिसमें मेयारी ज़बान और बोलियों का निहायत लतीफ़ इम्तेज़ाज (मृदुल मिश्रण) होता है. और तीसरी में मख़्तलिफ़ मंतिक़ों (इलाक़ों) की मुख़्तलिफ़ डायलेक्ट्स (बोलियों) या बहुत आसान उर्दू हिन्दी की आमेज़िश (मिलावट) का इस्तेमाल होता है. और जिनमें अज़ीम (महान) शायरी के नमूने अगर कसरत से नहीं तो अच्छी ख़ासी तादाद में ज़रूर मिलते हैं. अदब तारीख़ ( साहित्य का इतिहास) जिसकी शहादत देती है. और यही तीसरी सिन्फ़ (विधा) अपनी इफ़ादीयत (उपयोगिता) की ख़ातिर अवामी अदब का अहमतरीन अंग है.”

प्रगतिशील दौर की प्रसिद्ध पत्रिका ‘शाहराह’ में पत्र लिखकर वामिक़ साहब ने अपने साथी शायरों को इलाक़ाई बोलियों में भी लिखने का सुझाव दिया था जिस पर अली सरदार जाफ़री से उनकी लंबी बहस रही. कुछ ने अपनी बोलियों में लिखा भी. ज़्यादातर इससे दूर रहे. वामिक़ साहब बराबर लिखते रहे.

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