नींद से पहले जागने वाला दीवाना सही, पर घटना महानः बाबुषा

  • 8:01 pm
  • 5 February 2024

बरेली | नए तेवर और नए बिंबों वाली कविताओं के लिए पहचानी जाने वाली कवि बाबुषा कोहली ने विंडरमेयर उत्सव में बातचीत के दौरान सृजन को लेकर अपना नज़रिया और ज़िंदगी जीने का अपना फ़लसफ़ा साझा किया. उन्होंने अपनी कुछ कविताएं सुनाईं, और लोगों के सवालों के जवाब दिए. ‘विमर्श’ से पहले रंग विनायक रंगमंडल की प्रस्तुति ‘अवेकनिंग्स’ पर उन्होंने भावपूर्ण टिप्पणी की. कवि मन पर नाटक की इस प्रतिक्रिया को एक सजग दर्शक की समीक्षा मानकर भी पढ़ा जाना चाहिए.

बाबुषा कोहली ने जो कहाः
विलियम! तुम कहाँ हो? तुम्हें मैं पहचानती हूँ क्योंकि एक विलियम मुझमें भी रहता है!
डॉक्टर! तुम्हें मैं पहचानती हूँ क्योंकि एक डॉक्टर मुझमें भी रहता है!

जादू के करतब में कोई सच्चाई होती हो या न होती हो, लेकिन सच्चाई में एक बहुत ही अलहदा क़िस्म का जादू ज़रूर होता है. यह बहुत ही मारक ढंग का जादू होता है, जो इस पूरे नाटक के दौरान सिहरनों की भाषा में ज़ेहन पर लगातार महसूस होता रहा.

आज इस नाटक को देखते हुए अगर आपको मॉर्टन टिलडम, क्रिस्टोफ़र नोलन, मुक्तिबोध या आनंद गांधी की रचनात्मकता की गूँज सुनाई पड़ती हो तो बहुत हैरानी की बात नहीं. बावजूद अनेक अनुगूँजों के यह प्रस्तुति अपनी मौलिकता की आभा नहीं खोती. संभवतः एक समर्थ रचना या कृति ऐसा सेतु निर्मित करती ही है, जिस पर चल कर आप उन कलाकारों से जुड़ते हैं जो एक ही बात को अलग-अलग तरह से सोच रहे थे या किसी एक ही घटना या परिस्थिति को अलग-अलग आयामों में बरत रहे थे. मूल तत्त्व यह है कि उस काल्पनिक सेतु के नीचे बह रहा पानी यथार्थ का होता है.

जब भी मैं किसी बहुत सुंदर कृति को पढ़ती या देखती हूँ तो ऐसा लगता है जैसे यथार्थ कई बार बहुत वायवीय होता है, और शायद कल्पना ही उसे कुछ ठोस रूप दे सकती है. मेरी नज़र में यही वह जगह है, जहाँ हम कलाओं के बल को देख और महसूस कर पाते हैं. जैसा बल बस अभी थोड़ी देर पहले ही हमने इस ऑडिटोरियम में महसूस किया.

इस नाटक को देखते हुए मैं थोड़ा लक्षणात्मक ढंग से भी सोचने लगी थी कि यदि हम दृश्य से व्यक्ति और समाज को हटा दें और केवल जीवन को देखें तो, जीवन की बनावट भी कुछ ऐसी है कि मनुष्य एक सुदीर्घ नींद या मूर्च्छा की अवस्था से गुज़रता ही है. और वह नींद इतनी संक्रामक होती है कि पूरे समाज को जम्हाई आने लगती है.

फिर जिसकी नींद पहले टूटती है, वह थोड़ा पागल जैसा जान पड़ता है. कलाकार, कवि, लेखक, रहस्यदर्शियों का जीवन मेरी इस बात को सहारा देता है. आप चाहे गुरुदत्त का जीवन देखें या वैन गॉ या सत्यजित रे का, या फिर एलन वॉट्स का जीवन देखें या कबीर या बुद्ध का. ये वही लोग तो हैं, जिनकी नींद पहले-पहल टूटी थी, जो एक सामूहिक मूर्च्छा को इनकार कर अपनी राह चल पड़े, जो थोड़ा अटकते-भटकते रहे, पर एक सुविधाजनक नींद में वापस नहीं लौटे. कुछ तो बहुत दूर निकल गए और अपनी जाग की रोशनी से उन्हें भी जगाया, जो अपनी मूर्च्छा को पहचानने लगे थे, थकने लगे थे. ये लोग, जो थोड़े पागल-दीवाने से जान पड़ते हैं, इस धरती पर जिनकी परछाईं दूर तक खिंचती है, ऐसी घनी छाँव की तरह जो कड़ी धूप में चलते उनींदे लोगों को न केवल ठंडक पहुँचाती है बल्कि जगाती भी है. और जो जाग जाता है, सोए हुए लोग उसके विरोध में चले ही जाते हैं, सोए-सोए ही. अब तक तो यही जगत की रीत रही है.

फिर जब हम अभिधा में एक सचमुच की लम्बी नींद को देखते हैं, एक बीमारी की तरह देखते हैं, तब वह और भी विचित्र और रहस्यमय जान पड़ती है. मनुष्य मन की, उसकी मूर्च्छा की, अन्वेषण की इच्छा शक्ति की और साहस की इतनी परतें हैं कि अनंतकाल तक इस पर कथाएँ कही जा सकती हैं, इनसे प्रभावित हुआ जा सकता है, प्रेरित हुआ जा सकता है और सबसे ज़रूरी बात – जागा जा सकता है.

जाग, चाहे अभिधा में हो या कि लक्षणा में, महज़ एक प्रक्रिया नहीं, बल्कि एक महान घटना है, जो मनुष्यता को गुदगुदाती नहीं, सहलाती नहीं, बल्कि सचमुच आँखें ही खोलती है.

इस नाटक को प्रस्तुत करने वाली टीम रंग विनायक को बहुत बधाई व अग्रिम मंचनों के लिए शुभकामनाएँ. यह प्रस्तुति मनुष्यों की बौद्धिकता ही नहीं, वरन् बुद्धिमत्ता के लिए भी अनेक आयाम खोलती है.

जाग की आग जंगल की आग की तरह नहीं फैलती. यह एक दीये की नन्हीं लौ की तरह टिमटिमाती रहती है, अपने इर्द-गिर्द के अँधेरे को नष्ट करते हुए.

(रंग विनायक रंगमंडल के कलाकारों ने डॉ.ऑलिवर सैक के एनेक्डोटल नॉवेल पर आधारित नाटक ‘अवेकनिंग्स:द स्लीपिंग सिकनेस सागा’ का मंचन किया. निर्देशन शुभा भट्ट भसीन और लव तोमर ने किया.)

फ़ोटो | सिद्धार्थ रावल

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