कला एक तरह से मृत्यु को जीतने की कोशिशः डॉ. ख़ालिद

  • 4:46 pm
  • 6 February 2024

बरेली | डॉ.ख़ालिद जावेद अदब की दुनिया की ऐसी शख़्सियत हैं, जिनको सुनना हमेशा ही ख़ुद को समृद्ध करने वाला अनुभव होता है. विंडरमेयर उत्सव के दौरान ‘लेखक से मिलिए’ कार्यक्रम में उन्होंने अपनी किताबों के बारे में तो बात की ही, अदब की दुनिया के सवालों पर भी विस्तार से बोले, लोगों के सवालों के जवाब दिए.

कहा कि इधर नई पीढ़ी का किताबों से लगाव बढ़ा है, और शिद्दत के साथ बढ़ा है. पहले ऐसा नहीं था, गुज़रे ज़माने में किताबों पर बातचीत यूनिवर्सिटी के सेमिनार हॉल या बुक डिस्कशन सेशन तक सीमित हुआ करती थी, देखा जाए तो पब्लिक डोमेन में किताबों पर इतनी बातचीत का ट्रेंड नया है. साहित्य उत्सवों में शामिल होने वाले लोगों, या बुक साइनिंग के मौक़ों पर जुटने वालों की भीड़ पर ग़ौर करके देखिए.

अपने पहले उपन्यास ‘मौत की किताब’ के हवाले से उन्होंने अपने अनुभवों और इन अनुभवों के आधार पर अपने नज़रिये को पुख़्ता किया. बक़ौल डॉ.ख़ालिद, उनके समकालीन लेखकों ने ‘मौत की किताब’ की बड़ी लानत-मलानत की, डेंस, डार्क और डिस्गस्टिंग ठहराते हुए इसे ख़ारिज कर दिया. बुज़ुर्ग लेखकों ने अलबत्ता शाबासी दी, पर सिर्फ़ शाबासी. मगर नई पीढ़ी ने इसे हाथों हाथ लिया. हिंदी में इसका अनुवाद उपलब्ध होने के बावजूद रेख़्ता ने नागरी में इसका लिप्यंतर छापा तो उसकी वजह नई पीढ़ी के पढ़ने वालों की ललक ही है. कहा कि उनके ख़्याल से नई नस्ल ही सही क़द्रदान साबित होगी.

बाद के उपन्यासों को मौत की दूसरी किताब या तीसरी किताब कहने को उन्होंने अपनी ज़िद बताया. कहा कि किसी गल्प लेखक के पास अहं के सिवाय कुछ होता ही नहीं. लेखक तो ख़ुद को ही फ़ना करके कुछ लिखता है, रचता है. ‘मौत की किताब’ को जिस तरह गालियाँ मिलीं, उसकी ज़िद में मैंने ‘नेमतख़ाना’ को मौत की दूसरी किताब कहा. एक वजह यह भी कि मेरे हर नॉवेल में मृत्यु का कोई मोटिफ़ होता ही होता है. यों मृत्यु बोध के बग़ैर आप फ़िक्शन लिख भी नहीं सकते. कला के जितने रूप है, एक तरह से मृत्यु को जीत लेने की कोशिश हैं. इसमें कोई कामयाब हुआ कि नहीं हुआ, यह अलग बात है मगर कोशिशें हम कर ही रहे होते हैं. हमारी तमाम ख़ुशियाँ, जश्न, गीत-संगीत ऐसी ही कोशिशों में शुमार हैं.

उनका ताज़ा उपन्यास ‘अरसलान और बहज़ाद’ अभी उर्दू में ही छपा है, इसका हिंदी और अंग्रेज़ी तजुर्मा आना अभी बाक़ी है. इस उपन्यास के कथ्य में लोककथाओं के शुमार और यथार्थ के अपने प्रयोग के बारे में डॉ.ख़ालिद ने कहा कि लेखक को तजुर्बा करने का जोख़िम उठाने और उसके नतीजों के लिए तैयार रहना चाहिए. उपन्यास की मुख़्तसर चर्चा करते हुए उन्होंने बताया कि ‘कारण और प्रभाव’ की साहित्यिक अवधारणा से अलग यह थोड़ी उलझी हुई कहानी है मगर उम्मीद है कि पढ़ने वालों को दिलचस्प मालूम होगी.

डॉ. ब्रजेश्वर सिंह, डॉ. ख़ालिद जावेद, प्रभात

दर्शनशास्त्र की अपनी पढ़ाई और लेखन पर उसके असर के सवाल पर उन्होंने कहा कि उस पढ़ाई ने प्रशिक्षित ज़रूर किया, सोचने और विचारों को शक्ल में मदद तो की ही मगर इसमें एक ख़तरा भी था कि अगर वह फ़िलॉसफ़ी विचारों के रूप में जस की तस मेरे लिखने में आ जाती तो क्या होता? तो मदद तो मिली, पर सोचने के तरीक़े में. और दर्शन की छाया तो पहले ही हमारे यहाँ साहित्य में मौजूद है, मगर वहाँ वह इंसानी नज़रिये की शक्ल में आता है, इंसान वहाँ बेदख़ल नहीं होता. दर्शन में अलबत्ता मनुष्य को निकालकर बाहर कर दिया जाता है और सिर्फ़ सिद्धांत रह जाता हैं.

यों लोगों ने मुझ पर बहुत एतराज़ किए कि इनके यहाँ दर्शन बहुत आ जाता है और मैं पूछता हूँ कि दर्शन कहाँ से आ जाता है, दर्शन की थ्योरी थोड़े ही आती है? अपने बारे में सोचना दर्शन नहीं है. आप अपने और हालात के बारे में तो सोचेंगे ही न! आयन रैण्ड की किताब ‘फ़िलॉसफ़ीः हू नीड्स इट’ के हवाले से उन्होंने कहा कि सोचिए कि अगर आप की आँख खुले और आप ख़ुद को किसी और दुनिया में, किसी और ग्रह पर पाएं तो सबसे पहले जो सवाल आपके ज़ेहन में आएंगे वो यही होंगे कि आप कहाँ हैं, और क्यों हैं. आप ख़ुद पर भी शुबहा करेंगे कि कहीं आप सपना तो नहीं देख रहे हैं. तो ये ही सवाल हैं, साहित्य जिनसे जूझता रहा है.

‘नेमतख़ाना’ के किरदार की ज़िंदगी में आने वाली सारी औरतों के एक ही नाम (अंजुम) का ज़िक्र करते हुए उन्होंने अपनी बात को और साफ़ किया. बताया कि इसकी प्रेरणा प्लेटो और अरस्तू के विचारों में निहित में है. प्लेटो ने कहा कि जो सार्वभौम है, उसका कोई नाम ही नहीं होता है. इस संसार में जितनी भी चीजें हैं, वे असल नहीं हैं बल्कि दिव्य लोक में पाई जाने वाली चीज़ों की अनुकृतियाँ हैं. जबकि अरस्तू ने इसका प्रतिवाद किया, कहा कि आख़िर ये सार्वभौम रहते कहाँ हैं, ये रहेंगे तो विशिष्ट में ही. अंजुम के बहाने मैंने उसी सार्वभौम को विशिष्ट बनाने की कोशिश की है.

तो लेखन में दर्शन होगा, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और विज्ञान भी होगा, मगर साहित्य पहली शर्त होगी.

फ़ोटो | सिद्धार्थ रावल

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