सहारनपुर शराब कांडः कुछ गिनतियां, कुछ चेहरे

  • 6:35 am
  • 25 September 2019

इस साल तीन ऐसे हादसे हुए, जिनमें ज़हरीली शराब पीने से तमाम लोगों की जान चली गई – कुशीनगर, सहारनपुर और फिर बाराबंकी में. मजदूर तबक़े के लोग ही इन हादसों का शिकार होते हैं, इस बार भी हुए. ऐसा तबक़ा, जो जीता है तब भी और इस तरह मरने के बाद भी आकंड़े से ज्यादा की हैसियत नहीं रखता. यह रिपोर्ट ऐसी ही कुछ गिनतियों का चेहरा है.

सहारनपुर-मुजफ़्फ़रनगर हाईवे से थोड़ा नीचे उतरते ही एक गांव है – कोलकी कलां. सूबे के इस हिस्से के दूसरे गांवों की तरह ही दिखाई देने वाले कोलकी कलां में यों कुछ ख़ास नहीं लगता, मगर यह वही गांव है, जो इस साल की शुरुआत में अचानक सुर्ख़ियों में आया और फिर कई दिनों तक चर्चा में बना रहा. सात फरवरी की शाम को ज़हरीली शराब पीने से इस गांव में 18 लोगों की मौत हो गई थी. और जैसा कि हमेशा ही होता है, हादसे के वक़्त सरकारी अमले की गहमागहमी, नेताओं की आवाजाही और मीडिया की सक्रियता कुछ दिनों तक बनी रही. मरने वालों में कुछ सरकारी दस्तावेज़ में जगह पा गए और कुछ इससे भी महरूम हुए. जो पीछे रह गए हैं, वे सदमे और ज़िंदगी के सवालों से जूझ रहे हैं, पोस्टमार्टम रिपोर्ट, आधार कार्ड और दूसरे दस्तावेज़ जुटाकर इमदाद की उम्मीद में सरकारी दफ़्तरों के चक्कर लगा रहे हैं या फिर गुमसुम से घर में पड़े हुए हैं. क़रीब 650 घरों वाले इस गांव की बड़ी आबादी मजदूरी के भरोसे ही ज़िंदगी बसर करती आई है.

अगस्त की उस सुबह गांव जाने के रास्ते की पटरी पर दुकानें अभी लगनी शुरू हुई थीं. थोड़ा आगे बढ़ते ही मंदिर के क़रीब एक सरकारी एम्बुलेंस खड़ी दिखाई दी. मालूम हुआ कि किसी प्रसूता को अस्पताल पहुंचाने के लिए बुलाई गई थी. गांव के प्रधान के बेटे जयदीप मिल गए और अपने पिता से मिलाने ले गए. गांव में हुए हादसे और प्रभावित परिवारों के बारे में जानने के लिए उनसे मिलना ही था. रामगोपाल वालिया ने हालांकि कमोबेश वही सब बताया जो अख़बारों में आ चुका था. मगर उन्होंने गांव में मरने वालों की जो तादाद बताई, सरकारी दस्तावेज़ में दर्ज़ आंकड़े उससे बिल्कुल मेल नहीं खाते. पहले उन्होंने शराब से 17 लोगों की मौत होना बताया, फिर कुछ सोचते हुए एक और नाम जोड़ा. अफ़सरों के मुताबिक कोलकी कलां में कुल छह लोगों की मौत हुई थी. प्रधान ने यह भी बताया कि मृतकों में से पांच लोगों के परिवारों और शराब पीने के बाद दृष्टिहीन हो चुके तीन लोगों में से अब तक एक को ही मुआवजा मिल सका है.

गांव के लोगों से बातचीत करते ही अफ़सरों की उस कहानी की हक़ीक़त भी मालूम हो जाती है, जो उन दिनों कई बार दोहराई गई थी, और जिसके मुताबिक उत्तराखंड की सीमा से लगे रुड़की के गांव बालूपुर में तेरहवीं के मौक़े पर जुटे लोगों ने शराब पी थी, जिसकी वजह से उनकी तबियत बिगड़ी थी. थोड़ा ठहरकर चार फरवरी को कुशीनगर में ज़हरीली शराब पीने से तमाम लोगों के बीमार होने और 11 लोगों की मौत के बाद एडीजी (क़ानून और व्यवस्था) का वह बयान भी याद कर सकते हैं, जिसमें उन्होंने बिहार से शराब लाए जाने का अंदेशा जताया था. फ़ौरी तौर पर किसी तरह की ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ने की ऐसी कोशिश की असलियत यह भी है कि सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक सहारनपुर में देवबंद थाने के चार, नागल थाने के पांच और गागलहेड़ी थाने के सात गांवों के लोग ज़हरीली शराब से प्रभावित हुए थे और वहां 46 लोगों की मौत हुई. कोई भी आसानी से समझ सकता है कि इतने सारे गांवों के लोग तो बालूपुर नहीं गए रहे होंगे. बाद में पुलिस ने अवैध शराब का धंधा करने के आरोप में जिन लोगों को पकड़ा है, उनमें कोलकी कलां की बबीता और उसके पति सुबोध भी शामिल हैं.

गांव के कुछ लोगों ने कहा भी कि वे बबीता के यहां से शराब ख़रीदकर लाते थे. बड़ी उम्र के ओमी और इंद्रपाल ने भी उस रोज़ शाम को गांव से ही लेकर शराब पी थी. थोड़ी देर बाद ही उन्हें दिखाई देना बंद हो गया. बाद में तबियत और बिगड़ी तो ओमी को सहारनपुर मेडिकल कॉलेज में भर्ती कराया गया. इंद्रपाल को इलाज के लिए मेरठ ले गए. दोनों ही क़रीब दो हफ़्ते तक अस्पताल में रहे. ज़िंदगी तो ख़ैर बच गई मगर आंखों की रोशनी हमेशा के लिए चली गई. अपनी तसल्ली के लिए आंखों के कई डॉक्टरों को दिखा चुके हैं, मगर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा है. ज़िंदगी भर इमारतें बनाते आए मिस्त्री इंद्रपाल की रोज़ी का यह ज़रिया तो जाता रहा. दो बेटों का ब्याह हो चुका है और दो अभी छोटे हैं. घर में मां भी है. अपने बच्चों पर आश्रित रहकर ज़िंदगी काटने के बारे में वह नहीं सोचते मगर क्या करेंगे, यह भी नहीं सूझता. बड़ी उम्र में दूसरों की तरह मजदूरी नहीं कर सकते, इसलिए ओमी ने गाय पाल रखी थी. इससे किसी तरह उनका गुज़ारा चल जाता था. घर में बेटा-बहू हैं, पोता है तो घर की ज़रूरत भी पूरी हो जाती थी. मगर ऐसे में जब बेटे का हाथ पकड़े बिना राह चलना भी दूभर है, गाय की देखभाल उनके बस की बात नहीं तो अब गाय बेच दी है. सरकार की ओर से घोषित मुआवज़ा फिलहाल इन दोनों को ही नहीं मिला है. 52 साल के प्रमोद भी उस शाम को शराब पीने वालों में हैं. इन दोनों लोगों के मुक़ाबले वह इस लिहाज़ से क़िस्मत वाले हैं कि उनकी आंखें सलामत हैं अलबत्ता सुनाई देना बंद हो गया. उनसे बात करने के लिए काफी ऊंचा बोलना पड़ता है.

बक़ौल जयदीप, ‘वे लोग ही बच पाए, जिन्होंने उस रोज़ एक पउवा या कम शराब पी थी. इससे ज्यादा पीने वालों में से तो कोई लौटकर गांव नहीं आया.’ उस रात वह अपनी ननिहाल में थे, जब उन्हें फ़ोन पर गांव का हाल पता चला. वह बताते हैं, ‘फ़ौरन लौट पड़ा. आते ही गांव में एनाउन्समेंट कराया कि शराब पीने वालों में जिसकी भी तबियत ख़राब हो रही हो, तुरंत बताएं. एम्बुलेंस आ गई थीं. कई-कई लोगों को अस्पताल ले जा रहे थे. इतनी बड़ी त्रासदी मैंने तो पहले कभी नहीं देखी. लगता था जैसे भूकंप आया रहा हो. एक के ऊपर एक रखके लाशें आईं. हिन्दू या मुसलमान, गांव में किसी के घर में दो रोज़ चूल्हा तक नहीं जला.

कई कुनबे ऐसे हैं, जहां इस हादसे के बाद अब भी चूल्हा जलना दुश्वार ही है. अकेले कमाने वाले के चले जाने के बाद किसी मजदूर के परिवार का हाल समझना बहुत मुश्किल नहीं, ख़ासतौर पर तब जब घर में बचे रह गए लोगों के लिए बाहर कोई काम ही न हो. शशि कुमार अपने भाई राकेश की पासपोर्ट साइज़ की फ़ोटो मंगाकर दिखाते हैं. बताते हैं कि सहारनपुर के अस्पताल से राकेश को मेरठ भेजा गया था, मगर नौ फरवरी को वह चल बसा. छठी और पांचवीं क्लास में पढ़ने वाले दो बेटे हैं. घर चलाने और बच्चों को पढ़ाने के लिए राकेश की पत्नी ने एक कारख़ाने में काम करना शुरू भी किया था मगर महीने-डेढ़ महीने बाद वह कारख़ाना बंद हो गया. अपने बेटे के बारे में बताते हुए चंद्रसेन बहुत मज़बूत दिखने की कोशिश करते हैं मगर धीरे-धीरे भीगती उनकी आंखों से दिल का हाल मालूम होता रहता है. दिलीप मजदूरी करता था और दूसरे मजदूरों की तरह ही थकान उतारने के लिए वह भी कभी-कभार शराब पी लेता था. चंद्रसेन के पास दिलीप की कोई ढंग की फ़ोटो भी नहीं है, 32 वर्षों की स्मृतियां भर हैं. कमरे के अंदर जाकर वोटर कार्ड निकाल लाए, जिसके साथ काग़ज़ात का एक बंडल भी है. थाने की रिपोर्ट, अस्पताल के काग़ज़ और पोस्टमार्टम की वह रिपोर्ट जिसमें डॉक्टर ने मृत्यु का कारण अस्पष्ट बताते हुए बिसरा सहेजने की बात लिखी है.

रेशमा दूसरी गली में रहती हैं. पंद्रह साल पहले विश्वास कुमार के साथ ब्याह करके यहां आई थीं. विश्वास का शराब पीना रेशमा के लिए हैरत या परेशानी की बात कभी नहीं रही. मगर यह वाक़या कुछ अलग था. सात फरवरी को रात भर गांव में मची रही चीख़-पुकार और दोस्तो के मना करने के बावजूद अगले रोज़ वह शराब पीने से बाज़ नहीं आया. बीमार पड़ा और दो रोज़ बाद उसकी मौत हो गई. अब रेशमा पर तीन बच्चों को पालने की ज़िम्मेदारी है और किसी मदद की उम्मीद कर सकें ऐसा न कोई नातेदार और न ही रिश्तेदार. प्रधान की पहल पर ग़रीब विधवाओं के लिए सरकारी योजना में तीस हज़ार रूपये ज़रूर मिल गए, मगर वह इमदाद भला कितने दिन तक काम आएगी? माया की गोद में डेढ़ साल की अवनि है. ढाई साल का बेटा लकी. रेशमा के मुक़ाबले माया का हाल इस लिहाज़ से बेहतर मान सकते हैं कि अरुण की मौत के बाद उनकी मां यानी कि माया की सास ने घर की ज़िम्मेदारी अपने सिर ले ली है. बहू को घर छोड़कर वह ख़ुद मजदूरी करने जाती हैं.

कोलकी कलां से निकलते हुए एक बुज़ुर्ग महिला ने रोक लिया. उनका नाम शिक्षा है, और गुज़र गए बेटे का नाम बेनाम था. बेनाम के चार बच्चे हैं, तीन बेटियां और एक बेटा. फ़िलहाल तो रिश्तेदारों की मेहरबानी से घर चल जाता है मगर शिक्षा का सवाल यह है कि उनकी बहू को मुआवज़ा आख़िर क्यों नहीं मिला है? गांव छोड़ने से पहले किसी से पूछा था कि अब तो लोग शराब नहीं पीते हैं? जवाब मिला, ‘जो घर में काढ़ते थे वो बंद है. बाक़ी ठेके तो इतने खुले ही हुए है.

नागल थाने का गांव उमाही यहां से कुछ दूर आगे सड़क के दाहिनी ओर जाने वाले रास्ते पर है. कुछ डामर तो कुछ खड़ंजे वाली गलियों वाला गांव, जो दोपहर होते-होते उनींदा दिखने लगा है. तंग गली के मोड़ पर टोंटी के पास बैठी अंगूरी देवी नहा रही थीं. किसी ने बताया कि शराब-कांड से प्रभावित परिवारों में वह भी शामिल हैं. शराब पीने से उनके पति श्यामलाल की जान चली गई. थोड़ा आगे बढ़ते ही पता चला कि उस रोज़ गांव में एक ही घर के जिन पांच लोगों की मौत हुई थी, श्यामलाल उसी घर के थे – बल्लू सिंह, उनके दो भाई श्यामलाल और राजकुमार और उनके दो बेटे सुरेंद्र उर्फ़ पिंटू और जल सिंह. गांव के लोग बताते हैं कि ज़हरीली शराब ने 14 लोगों की जान ले ली हालांकि सरकारी रिकॉर्ड में दस लोगों के नाम ही हैं. यहां भी शराब गांव से ही ख़रीदी गई थी. मारे गए लोगों के परिवार को दो लाख रुपये के मुआवज़े की मुख्यमंत्री की घोषणा के बाद सरकारी दफ़्तरों की खानापूरी अभी बाक़ी है. मुआवज़े की उम्मीद में अभी कई लोग दफ़्तरों के चक्कर लगा रहे हैं. राजकुमार के बेटे सुखबीर इस बारे में बता रहे थे तो उन्होंने अपने ताऊ श्यामलाल का ज़िक़्र भी किया. अंगूरी देवी इस बात पर नाराज़ हो गईं कि सुखबीर अपने ताऊ के लिए आदरसूचक शब्दों का इस्तेमाल क्यों नहीं कर रहा है?

कच्चे फ़र्श वाले एक घर के सहन में बैठी रुकय्या नकली मोती पिरोकर माला बना रही थीं. अजनबी लोगों को देखकर पास ही बैठी उनकी मां साहिरा ने झट से अपना चेहरा ढांक लिया. रुकय्या के अब्बा मरहूम रिज़वान किसी बैंड में काम करते थे. बकौल साहिरा, ‘फूंक वाला बाजा बजाते थे. घर पर तो कोई बाजा नहीं है. वो तो बैंड वाले ही दिया करे थे.’ रुकय्या हालांकि शादीशुदा हैं मगर ब्याह के कुछ साल बाद अपने बच्चे के साथ ससुराल से लौट आई हैं. उनसे छोटी दो बहनें और दो भाई हैं. उनकी मां कहती हैं कि बड़ा वाला तो ऐसे ही निकल गया. अब छोटे वाले की कमाई से ही जैसे-तैसे घर चलता हैं. थोड़ी दूर की गली में इमरान के घर में ख़ामोशी थी. घर में सिर्फ़ उनकी बेटी शहराना मिलीं. बताया कि मां बाहर गई हैं. शहराना ने आठवीं तक पढ़ाई भी की मगर अब जब इमरान नहीं रहे तो पढ़ाई उसके लिए इतनी ज़रूरी नहीं रह गई है. पांच भाइयों में एक का ब्याह हो गया है. कहती हैं कि ये तो मां और भाई तय करेंगे कि सबकी ज़िंदगी किस तरह पार लगे.

पालू मजदूरी करते थे. अब अपने घर के अंधेरे कमरे में एक बक्से के ऊपर रखे फ़्रेम में जड़ी तस्वीर भर हैं. उनके घर जाने पर उनके बेटे और चाचा से ही मुलाक़ात हो सकी. पालू के जाने के बाद उनकी पत्नी छोटी अब दूसरों के खेतों में मजदूरी करने लगी हैं. उनके परिवार में तीन बेटियां और दो बेटे हैं. एक बेटा रमेश नवीं में पढ़ता है. मां चाहती हैं कि वह अपनी पढ़ाई पूरी करे. हरीशचंद्र को गांव के लोग काला कहकर ही पुकारते हैं. अपने घर के बाहर चारपाई पर बैठे मिले काला इस हादसे का शिकार होने से पहले देहरादून में एक मिस्त्री के साथ मजदूरी किया करते थे. अब आंखों से लाचार हैं, ऐसे में मजदूरी तो मुमकिन नहीं. ऐसे बैठे-बैठे कैसे चलेगा मगर छह महीने तो इसी तरह निकल गए. डॉक्टर कहते हैं कि आंखों की रोशनी लौटा पाना संभव नहीं.

घर-परिवार की स्थिति ज़ाहिर है कि अलग है मगर भविष्य को लेकर कई परिवार जिन सवालों से जूझ रहे हैं, उनमें काफी समानता है. उमाही में तो प्रधान नहीं मिले मगर हाल ही में जयदीप से फ़ोन पर हुई बातचीत का लब्बो-लुआब यह है कि 17 लोगों के अलावा कोलकी कलां में उस रोज़ जिस लेखू की भी मौत हुई थी, उसका पोस्टमार्टम ही नहीं हुआ था इसलिए मुआवज़े की सूची में उनके परिवार का नाम नहीं है. पांच लोगों के अलावा बाक़ी मृतकों के घर वालों को मुआवज़ा देने के मामले में बताया कि बिसरा जांच की रिपोर्ट आ गई है. उनके मामले में जल्दी ही कार्यवाही की उम्मीद है.

फरवरी में पहले कुशीनगर और फिर सहारनपुर में ज़हरीली शराब से इतनी बड़ी तादाद में मौत के बाद सरकार ने एसआईटी (विशेष जांच दल) बनाई थी, कुछ अफ़सर और उनके मातहत सस्पेंड हुए, पुलिस वाले लाइन हाज़िर किए गए, सूबे भर में अवैध शराब बनाने और धंधा करने वालों की धरपकड़ भी हुई. थोड़े ही समय बाद मई में बाराबंकी में ज़हरीली शराब से कई लोगों की मौत की ख़बर आई. जून के पहले हफ़्ते तक मृतकों की तादाद 26 हो गई थी और इन सबने सरकारी ठेके से शराब ख़रीदी थी. एसआईटी की सरकार को दी गई रिपोर्ट का जो हिस्सा सार्वजनिक हो सका, उसमें अवैध शराब से नुक़सान की बाबत लोगों को जागरूक करने और ज़हरीली शराब पीने वालों के इलाज के तरीक़ों पर अस्पतालों को स्पष्ट निर्देश दिए जाने की सिफ़ारिश शामिल है.


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