कुम्भ मेला | हरिद्वार की गतिशीलता, प्रयाग में ठहराव

कुम्भ मेला दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक मेला भर नहीं है, हिंदुओं की धार्मिक मान्यताओं-परम्पराओं का, उनकी आस्था और विश्वास का सबसे बड़ा शाहकार भी है. इतना ही नहीं, इस जीवन के बाद पारलौकिक दुनिया के बारे में उनके भरोसे और धारणाओं के अतिरेक का प्रमाण भी है. ऐसा नहीं होता तो तमाम असुविधाओं, परेशानियों और यहां तक कि जान का जोख़िम उठाकर भी इतनी बड़ी तादाद में लोग अपने इस जीवन के साथ-साथ परलोक साधने के लिए इसमें शरीक होने के लिए भला क्यों दौड़े चले आते!

दरअसल इस मेले में एक अजब-सा आकर्षण है, जिसके वशीभूत दुनिया के कोने-कोने से लोग खिंचे चले आते है. वे भी जिनकी इसमें आस्था है और वे भी जिनकी कोई आस्था ही नहीं है. चार जगहों पर लगने वाले कुम्भ के मेले अपने उद्भव और अंतर्वस्तु में समान हैं. समुद्र मंथन से निकले अमृत कलश वाली कथा, अखाड़े, उनकी शोभायात्राएं, पेशवाई, शाही स्नान, भजन-कीर्तन, प्रवचन, लाखों श्रद्धालु, साधु-संत और श्रद्धा व आस्था की अबाध धारा. इन चारो जगहों के मेलों का तो पता नहीं पर क्या ही कमाल है कि प्रयाग और हरिद्वार के मेले एक जैसी अंतर्वस्तु और धार्मिक भावना से अनुस्यूत होने के बावजूद अपनी प्रकृति और चरित्र में कितने भिन्न हैं!

हरिद्वार में मानव ने गंगा के प्राकृतिक बहाव को अवरुद्ध कर उस को बांधने का प्रयास किया. उसकी एक धारा को मोड़कर अपने अनुसार दिशा दी और उसके किनारों को ईंट, पत्थर और सीमेंट से बांधकर उसे नियंत्रित करने का प्रयास किया. नाम दिया ‘हर की पैड़ी’. वहां गंगा का बहाव बहुत तीव्र है. उस वेग से जो ध्वनि वहां गूंजती है, उससे सिहरन पैदा होती है. ऐसा लगता है मानो इस बंधन से गंगा नाराज़ हैं, उद्विग्न हैं. इस बंधन से मुक्ति के लिए वेग से वहां से निकल जाना चाहती हैं. वहां पूरे वातावरण में एक अंतर्निहित गतिशीलता है. पूरा वातावरण ही गतिशील है. यहां सिर्फ़ गंगा ही गतिशील नहीं हैं बल्कि गंगा भक्त भी उतने ही गतिशील लगते हैं. यहां स्नानार्थी भी एक तरह की जल्दी में लगते हैं. कोई ठहराव नहीं है. उन्हें जल्दी से जल्दी स्नान पुण्य अर्जित कर के शीघ्रातिशीघ्र वापस जाना है.

इसके उलट प्रयाग में देखिए. वहां गंगा बिना किसी बंधन या रुकावट के अपने प्राकृतिक बहाव में हैं. वहां गंगा शांतचित्त लगती हैं, बेहद सुकून में, मंद-मंद गति से अपनी मस्ती में बहती हुई. इसीलिए वहां के माहौल में गति नहीं है. गतिहीनता की स्थिति है, एक ठहराव है. वहां गंगा भक्तों में भी कोई हड़बड़ी या जल्दबाज़ी नहीं दीखती. वे ठहर जाना चाहते है और ठहरते भी हैं. शायद यही कारण है कि एक महीने के कल्पवास का प्रावधान केवल यहीं है. यह एक महीने का कल्पवास इस ठहराव का सबसे बड़ा वक्तव्य है. प्रयाग में भक्त अपनी भागती दौड़ती-ज़िन्दगी में भी यहां आकर ठहर जाते हैं.

हरिद्वार में सारे निर्माण स्थायी हैं. पक्के घाट हैं. यहां भरपूर चकाचौंध है. यहां रंग-बिरंगा प्रकाश है. यह रोशनी यहां अंधेरा ख़त्म करने से कहीं ज़्यादा सजावट के लिए है. कुल मिलाकर पूरा माहौल एक प्रकार की कृत्रिमता लिए हुए है. यों प्रगति का, आधुनिकता का सूचक है और यहां के माहौल की अंतर्निहित गतिशीलता को और गति प्रदान करता है.

इसके उलट आप प्रयाग को देखिए. यहां के मेला क्षेत्र का कोई भी निर्माण पक्का या स्थायी है ही नहीं. यहां तक कि मुख्य स्नान घाट संगम नोज़ भी हर बार अपनी जगह बदल लेता है. हरिद्वार में हर जगह ईंट और पत्थर हैं और उसकी कठोरता है तो प्रयाग में हर और रेत ही रेत है और उसकी कोमलता है, सहजता है, सरलता है. यहां के घाटों पर रेत की बोरिया हैं और पुआल है. ये सब यहां की ठहराव के ही अनुरूप है और वातावरण को और अधिक गतिहीन करता है.

दरअसल हरिद्वार और प्रयाग के कुम्भ का अंतर पश्चिम और पूरब का अंतर है, आधुनिकता और पररम्परा का अंतर है, शहरी और ग्राम्य संस्कृति का अंतर है. हरिद्वार में धार्मिकता अंतर्निहित होते हुए भी मनोरंजन और देशाटन की भावना प्रमुख है और प्रयाग में मनोरंजन और देशाटन की भावना अंतर्निहित होते हुए भी धार्मिक भावना प्रधान है.

एक ही कथा से उद्भूत और एक जैसी अन्तर्वस्तु लिए दो जगह लगने वाला एक ही मेला भूगोल और इतिहास के चलते अपनी प्रकृति में कितना अलग लगने लगता है!

(लेखक एक अर्से तक इलाहाबाद में रहे हैं. अब देहरादून में रहते हैं और 14 अप्रैल को बैसाखी के मौक़े पर शाही स्नान की कवरेज के लिए हरिद्वार में थे.)

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