व्यंग्य | नियति निर्देशक की कारिस्तानी

ये मई का महीना है. साल है दो हज़ार इक्कीस. इस वक़्त भारत में लॉक-डाउन लगा हुआ है. मैं घर में हूँ, और कर्म गति पर चिंतन कर रहा हूँ. कबीरदास जी याद आ रहे हैं – करम गति टारे नाहिं टरी.

सब-कुछ वही है. वही सेट. वही लोकेशन. पात्र भी वही. वही स्टोरी. वही स्क्रिप्ट. मेरा लिखा हुआ पूरा स्क्रीनप्ले वही है. बस रोल उलट-पलट गए हैं. कास्टिंग बदल गई है.

जिस शॉट में हीरो (मैं) को ड्रॉइंग रूम में, सोफ़े पर पाँव पसारे, टीवी का रिमोट हाथ में लिए आवाज़ देनी थी – एक गिलास पानी लाना! उस शॉट में हीरो (हाँ, मैं ही) रसोई में, हाथ में चिमटा पकड़े कह रहा है – जी, एक मिनट में लाता हूँ.

फिर आवाज़ आती है- इतनी देर क्यों लग रही है, क्या इतनी देर लगती है ज़रा सा खाना बनाने में?

यह डायलॉग भी मेरा है. मुझे ही बोलना था. मैं ही बोलता रहा हूँ हमेशा. पर इस बार सुन रहा हूँ. नियति निर्देशक ने रोल बदल दिए हैं. मेरी एक्शन फ़िल्म, मेरे लिए ट्रेजिडी बन गई है, और आपके लिए कॉमेडी.

सब्ज़ी में नमक कम है, पराँठा एक तरफ़ से जल गया है, रोटी दूसरी तरफ़ से कच्ची रह गई है, ठीक से खाना नहीं बना, तुम्हारा किसी काम में मन नहीं लगता, तुमसे एक काम ढंग से नहीं हो सकता- ये सारे मेरे डायलॉग थे. मुझे बोलने थे. मैंने अच्छे से याद भी किए. रिहर्सल भी की. पर सब गड़बड़ हो गया. अब मैं ये डायलॉग सुन रहा हूँ. सब नियति निर्देशक की कारिस्तानी है. निर्देशक ने बहुत सारे सहायक कलाकार भी भर रखे हैं. जो मेरे लिए ‘असहायक’ कलाकार बन गए हैं.

ज़िद्दी चावल, पितृसत्ता को नीचा दिखाने के लिए या तो कच्चे रह जा रहे हैं या ख़ुद का हलुआ बना कर शहीद होने को तैयार बैठे हैं.

निकृष्ट दाल कुकर की सीटी से म्यूज़िकल फाउंटेन की तरह बाहर निकल कर मेरी असफलता का मधुर संगीत उत्पन्न कर रही है. रोज़ रसोई में संगीतमय फव्वारा चल रहा है.

दग़ाबाज़ दूध नज़र चूकते ही श्रीमती जी के चरण चूमने निकल पड़ता है.

नमक, असहयोग करता हुआ सब्ज़ी में थोक के भाव कूद कर जौहर रहा है.

बर्तन, सविनय अवज्ञा आंदोलन करते हुए एक दूसरे के पीछे छुप जाते हैं. छोटी पतीली, भगौने के नीचे और कड़ाही कहीं परात के पीछे.

आटा अनशन पर है कि साले कुछ भी कर ले, मैं गुथूंगा ही नहीं. या तो बिल्कुल सूखा रहूँगा या परात में तैरूँगा.

मिर्च तो सशस्त्र क्रांति कर ‛मिर्च-मसाला’ की तरह आँखों में घुसने को तैयार है. और उसे स्मिता पाटिल (श्रीमती जी) की भी ज़रूरत नहीं है.

पूरी रसोई पितृसत्ता के ख़िलाफ़ संघर्षरत है. रोटी गोल न बनने के लिए कृतसंकल्पित है. मसाले, गुरिल्ला युद्ध करने के लिए मराठा सैनिकों की तरह रसोई की दराजों में कहीं छिप गए हैं. मेरे हाथ में ख़ाली मसालदान आया है.

मैं संधि-प्रस्ताव भेज रहा हूँ. कह रहा हूँ कि मैंने स्त्रियों के लिये इतने लेख लिखे, कविताएँ लिखीं, भाषण दिए, कम से कम उनका तो ख़्याल करो. कुछ तो उनकी इज़्ज़त रखो. मैं पक्का नारीवादी हूँ! बेलन की कसम! हाँ, ये बात अलग है कि मैं रसोई में उसी तरह जाता हूँ, जिस तरह कोई भी सामान्य पुरुष जाता है.

पुरुष रसोई में ऑडिट करने जाता है. वह रसोई का ऑडिटर है. वह घर का ऑडिटर है. पुरुष, स्त्री का स्थायी ऑडिटर है. जब कोई पुरुष कहे- आज मैं खाना बनाऊँगा, तो इसका अर्थ है- आज मैं रसोई में कमियाँ निकालूँगा.

वह रसोई में कुछ यूँ घुसता है जैसे कोई वरिष्ठ सर्जन ऑपरेशन थियेटर में घुसता हो. वह चाहता है कि पत्नी रूपी कम्पाउंडर उसके बगल में खड़ी रहे और उसके नमक, हल्दी, चमचा बोलने पर तत्काल उसको पकड़ाती जाए.

वैसे पुरुष का रसोई में सर्जन/डॉक्टर की तरह जाना, एक पुरुष लेखक की सौम्य कल्पना है. उसकी स्त्री से पूछा जाए तो ये ऐसा है जैसे किसी क़ीमती, नाज़ुक फ़ानूसों की दुकान में कोई बंदर घुस जाए. जैसे किसी सुंदर उपवन में, जहाँ तरह-तरह के रंग वाले सुंदर सुवासित पुष्प खिले हों, कोई गधा चरने पहुँच जाए.

स्त्री चाहती है कि पुरुष रुक जाए. वह कहती है- “प्राणनाथ आप क्यों कष्ट करते हैं? आप स्त्रियों की दशा पर लिखे जा रहे अपने अधूरे लेख को पूरा कर लीजिए. आपको जो चाहिये, मैं प्रस्तुत कर दूँगी.” स्वगत कथन- “तेरे चार घण्टे में किए गए को मुझे साफ़ करने में चार दिन लगेंगे. मत जा भीतर!” परन्तु पुरुष रुकता नहीं है. उसके मासिक रोस्टर में दर्ज है- आज रसोई में जाकर स्त्री, घर, और सम्पूर्ण सभ्यता पर महान अहसान करना.

रसोई में वह भले ही आज जा रहा है; सार्वजनिक जीवन में वह कट्टर नारीवादी है. इतना नारीवादी है कि पत्नी के अतिरिक्त, अन्य नारियों की भी निरंतर चिंता करता रहता है. व्हाइट मेंस बर्डन से बड़ा, मेंस बर्डन है. स्त्री जाति के उद्धार का सारा दारोमदार उसके कंधों पर है. वह किसी की नहीं सुनेगा. वह सबसे अक्लमंद है. वह आज रसोई में जाकर रहेगा. उसकी पत्नी भी मानती है कि वह अक्लमंद है, परन्तु एक अलग तरीके से.

उसका मंद, संस्कृत वाला है, न कि फ़ारसी वाला. वह पहले अक्ल बोलती है, फिर एक छोटे वक़्फे के बाद मंद बोलती है. वह कहती है- “हमारे ये तो बड़े अकल-मंद हैं. इनके जैसा अकल-मंद तो ढूंढे न मिलेगा. ऊपर वाले (हट फिट्टेमूँ) ने बड़ी किरपा करी जी हम पर जो मेरी ज़िंदगी में इन्हें भेज दिया.” फिर वह भाग-भाग कर काम करती रहती है कि कहीं पत्नी की पोस्ट से सस्पेंड न कर दी जाए. कभी-कभी रोस्टर मुताबिक़ उसके नियुक्तिकर्ता मा-बदौलत पुरुष निरीक्षण के लिए पधारते रहते हैं. ये सब चलता रहता है. यही नियति रही है. फिर एक दिन नियति पलटती है. वह अपनी ताक़त पहचान जाती है और अपने पत्नी के पद से इस्तीफ़ा दे देती है. यही मेरे घर में हुआ है. मैं आपको शूटिंग लोकेशन पर वापस ले चलता हूँ.

वही रसोई है जहाँ कभी आता था तो पार्श्व से आवाज़ आती थी- ख़बरदार! होशियार! जिल्लेसुब्हानी, सुल्तान-ए-फ्लैट तशरीफ़ ला रहे हैं! फिर जिल्लेसुब्हानी आकर अपनी वार्षिक चाय बनाते, फोटो खींचते, और सोशल मीडिया पर डालते. कविता होती-

स्त्री भी चाहती है सुबह की चाय,
जब कलरव करते हों पाखी,
अंगड़ाई लेती हो वो बिस्तर पर,
तब कोई प्यार से रख दे एक कप,
जिसमें हो अहसासों की गर्मी,
मुहब्बत का गाढ़ा रंग,
और ज़ुबाँ की मिठास.

आहा! क्या डायलॉग, क्या रोल था मेरा! पांच मिनट के इस वार्षिक कार्यक्रम से हिट थे अपन. फिर अपना रोल छिन गया और नायिका को दे दिया गया. अब मैं फ्रिज़ के सामने खड़ा हूँ. अंदर का ऑडिटर अभी भी हिलोरें मार रहा है.

फ्रिज़ को देख कर लगता है जैसे प्रलय की तैयारी चल रही हो. हज़रत नूह की कश्ती बना हुआ है फ्रिज़. एक छोटी सी कटोरी में दाल मखनी है, जो शायद भारत के पहला क्रिकेट विश्वकप जीतने पर बनी थी. अलग-अलग कटोरियों में पांच अलग-अलग तरह के पके हुए चावल भी बतौर नमूना संरक्षित हैं. आने वाली पीढ़ियों के लिए छोटी-छोटी प्लेट्स में केक-पेस्ट्री के सैम्पल हैं. तीन भिन्न प्रकार के बर्तनों में तीन भिन्न प्रकार के दूध हैं. फ्रीज़र में छोटा हिमालय भी बनाया गया है. पांच-छः पदार्थ रॉ के एजेंट्स की तरह अपना परिचय देने से इंकार कर रहे हैं. सूँघ कर, चख कर, हर तरीके से प्रयास कर चुका हूँ. बेहतर होगा उनको वापस यथा स्थान रख दूँ. अब आप लोग कहेंगे कि भैया इतना खटने से अच्छा है कि पूछ लिया जाए.

इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए आपको मेरा लेख- माचिस कहाँ है, जो इस किताब में नहीं है, पढ़ना चाहिए. अतः आप वह पुस्तक खरीदना न भूलें जिसमें यह लेख दिया गया है. और जब आप मेरी दो-तीन पुस्तक खरीदेंगे तो उनमें से किसी न किसी में यह लेख अवश्य मिलेगा. (मैं खुद क्यों बताऊँ?)

यह सब करते हुए छः दिन हो गए हैं. पता नहीं पैकअप कब होगा. एक दिन कुछ महिलाएँ घर आईं और श्रीमतीजी से बोलीं- तुम्हारे पति घूँघट नहीं करते हैं? क्या यही संस्कार हैं? बहुत ढील दी हुई है तुमने. वे एक चुन्नी ले आईं और मुझे ओढ़ाने लगीं. रसोई में बहुत गर्मी थी. मैंने कहा- मुझे नहीं ओढ़नी ये चुन्नी. वे जबरदस्ती करने लगीं. रसोई में झूमा-झटकी शुरू हो गई. मैं चीखते हुए बाहर भागा. रात के तीन बज रहे थे. बहुत भयानक सपना था.

फिर एक दिन फ़रमान निकला कि पंडित जी ने कहा है अगर रसोई में काम करने के दौरान किसी भी प्रकार की शंका का, लघु या दीर्घ, निवारण करने गए तो सिर से नहाकर और नए कपड़े पहन कर ही दुबारा रसोई में प्रवेश करोगे. कल की बात है, मैं रसोई में था और हृदय शंका से शंकालु हो उठा. शंका थी तो लघु, पर बहुत तीव्र थी. मन में दुबारा नहाने और कपड़े बदलने का भय व्याप्त था. जलस्तर बढ़ रहा था और डर के मारे बांध के गेट बंद किये हुए थे. और फिर अचानक बांध टूट गया. शंका बह निकली. रात के दो बज रहे थे. यह भी एक भयानक सपना था.

सपनों पर सपने आ रहे हैं. और उनकी भयानकता बढ़ती जा रही है. सात दिन हो गए हैं. टेस्ट रिपोर्ट तो एक-दो दिन में आ जाती है. मुझे तो कोई सैम्पल ले जाते भी नहीं दिखा. बुख़ार के भी कोई लक्षण नहीं दिख रहे हैं.

“इसमें चीनी कौन डालेगा? तुम्हारा..”

“जी पापा को क्यों कष्ट देना. मैं जल्दी में भूल गया. एक सैकिंड में लाता हूँ.”

ये दमदार डायलॉग भी मेरा ही था. मुझे ही बोलना था.

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