तमाशा मेरे आगे | नामालूम पते वाली वह गंध

माँ को अस्पताल या डॉक्टर के पास जाना क़तई अच्छा नहीं लगता. उनकी तबियत अगर ठीक न हो तो वो ज़िद्द कर घर वाले या फ़ोन वाले इलाज से ही काम चलाने की कोशिश करती है. उनके इस रवैये से हमारी परेशानी और बढ़ जाती है. क्योंकि माँ डॉक्टर के पास जाना नहीं चाहतीं जाती तो हम डॉक्टर को माँ के पास ले आते हैं. ऐसा हमने एक संस्था से जुड़े डॉक्टरों की टीम के साथ राब्ता बना कर कर लिया. शुक्र हैं कि उन सब का, जो माँ को देखने, उनकी जाँच करने के लिए आ जाते हैं.

माँ को देखने और उनकी जांच करने डाक्टरों की एक टीम आज घर आई थी. एक फ़िज़ीशियन है, एक काउंसलर, एक ऑर्थोपेडिस्ट और एक फ़िज़ियोथेरेपिस्ट. ये चारों महिलाएं हर 15 दिन में घर आती हैं. इनके आने से जितनी तसल्ली हमें मिलती है, उससे कहीं ज़्यादा माँ को ज़हनी सुकून मिलता है. उनके आने का दिन सिर्फ़ माँ की सेहत चेक करने का ही नहीं होता, ये दिन होता है बातें करने का, गप्पें लगाने का, दो कप चाय पीने का, पुराने-नए दर्द टटोलने का और इस सब के बीच माँ का शारीरिक और ज़ेहनी चेकअप ये चार लोग हँसते-खेलते कर लेते हैं. थोड़ी देर के लिए ही सही, माँ को लगता है ‘पुराने दोस्त’ मिल जाते हैं, वो हँसती-खिलखिलाती हैं और उन्हें लगता है कि वो ठीक हैं और उन्हें कोई बीमारी नहीं है.

डाक्टरों की इस टीम का बुज़ुर्गों और मरीज़ों से बात करने का तरीक़ा ही कुछ ऐसा है, जिससे सामने वाले को एहसास ही नहीं होता की डॉक्टर उससे बीमारी के मुतालिक़ सवाल-जवाब कर रहे हैं. माँ से सवाल पूछने और उनकी तबियत के बारे में जानने के लिए इस टीम के तरीक़े अलग ही हैं, बिलकुल वैसे ही जैसे कोई दोस्त हालचाल पूछता है. माँ के साथ बैठ डॉक्टर उनके बाज़ुओं, कंधों, पीठ और टांगों को हाथ में ले या धीरे से दबा कर ही समझ लेते हैं कि मुश्किल क्या और कहाँ है. ज़हनी परेशानियों को लेकर डाक्टरों के सवाल पहेलियों या कहानियों से होते हैं जिस से सही जवाब कुछ देर में ही अपने आप बाहर आने लगते हैं.

इस बार टीम की डॉक्टर किरतने ने उनके साथ बैठते ही उनका मुँह खुलवा कर गले के अंदर झाँका और फिर आँख को टॉर्च की रोशनी में देखा. उनको माँ की साँस में और मुँह से आ रही गन्ध अच्छी नहीं लग रही थी. डॉक्टर ने उनके हाथ को भी सूंघा. घर पे हम लोग उस बारे में पहले ही बात कर चुके थे. वो एक बासी-सी गन्ध थी, बदबू नहीं. टीम ने माँ की नर्स सोम्या को कह कर कमरे की खिड़कियाँ खुलवा दीं, दोनों दरवाज़े पहले से ही खुले थे, पंखा तेज़ करवाया, कमरे में रूम फ्रेशनर का हल्का स्प्रे करने को कहा और कैमोमाइल तेल की प्लेट माँ के सिरहाने रखने को कहा.

इन दिनों माँ के कमरे से मेडिकल वार्ड जैसी गन्ध आती है. कमरे के बाहर और उसके आस-पास भी ये गन्ध दिन भर बनी रहती है. उनके ग़ुसल में कुछ और गन्ध है, जो टेल्कम पाउडर और नारियल के तेल के मेल-सी है, जिसमे डेटोल की महक भी है. और फिर अब माँ के जिस्म से एक अलग तरह की गन्ध आने लगी है जो पहले नहीं थी. इन दिनों उन्हें पसीना भी बहुत आता है क्यूंकि वो बहुत देर तक बिना हिले-डुले एक ही हाल में आराम करती या सोती हैं. कमरे में पंखे और ऐसी चलने के बावजूद अक्सर हम उनकी क़मीज़ को पीछे से गीला और बिस्तर की चादर को भीगा हुआ पाते हैं. उनकी अलमारी जिसमें उनके कपड़े हैं उसमे भी ऐसी गन्ध है जो अच्छी नहीं लगती. आम तौर पर मैं उनकी अलमारी खोलता नहीं हूँ लेकिन जब मैं उनके वॉकर या व्हीलचेयर को तरीके से जमाने के लिए अलमारी के खुले पल्ले को बंद करता हूँ तो वो नाग़वार गन्ध मुझे परेशान करती है.

क्या है ये गन्ध, कहाँ से आई है, क्यूँ आई है, इसकी वजह क्या है ये सब सवाल हम आपस में कर चुके हैं. कमरे में रखे हर सामान का मुआइना कर हम थक हार चुके हैं, उसका हर वाजिब इलाज भी कर चुके हैं फिर भी ये गन्ध कमरे में बरक़रार है जैसे कोई रूहानी हाज़िरी हो या हवा में तैरती अदृश्य मौजूदगी.

इन दिनों उस कमरे से आती हल्की से हल्की गन्ध से भी मैं परेशान हो जाता हूं. कुछ ऐसा है जो मेरी सूंघने की ग्रंथियों को खिजाता है, उत्तेजित करता है. माँ को बिस्तर पकड़े अब डेढ़ साल होने को है. माँ सिर्फ़ चाय पीने, खाना खाने और टॉयलेट आदि जाने के लिए ही उठती हैं और बाक़ी समय लेटी रहती हैं. उनके लेटे रहने की वजह उनकी पीठ का दर्द है जो ठीक ही नहीं हो रहा. उम्र और डिमेंशिया के चलते उनका इलाज मुश्किल होता जा रहा है.

जब हम बच्चे थे तो हमारे दो कमरों वाले छोटे से घर में हमेशा ख़ुशबू बनी रहती थी. गर्मियों के महीनों में नहाने के बाद माँ हम पर लैवेंडर टैल्कम पाउडर की बौछार करती थी. अपने नहाने के लिए माँ सिर्फ़ मैसूर संदल साबुन का इस्तेमाल करती थीं और पूरे दिन उनके शरीर से बहुत अच्छी महक आती थी. टेल्कम पाउडर का इस्तेमाल वो बहुत ज़्यादा करती थीं, इतना कि उनके छिड़कने के बाद हमारे कमरे का फ़र्श बच्चों के लिए स्केटिंग ग्राउंड बन जाता था. वह अपने बालों में जो तेल लगती थीं उसमें भी अर्निका की खुशबू होती थी. मोगरे के फूल जो वो अपने जूड़े पे बांधती थीं उनसे रात भर घर इत्र-सी ख़ुशबू फैली रहती थी. मेरे ज़ेहन में दर्ज बचपन की उन सभी ख़ुशबुओं के साथ आज के उनके कमरे की गन्ध मुझे काफी परेशान करती है.

ये गन्ध सिर्फ़ परेशान करती है किसी भी तरह से बदबू नहीं है. सूंघने वाले मेरे न्यूरॉन्स भी ख़्वाह-मख़्वाह दुगनी स्पीड पर काम कर काफी संवेदनशील हो गए हैं, जो हल्की गन्ध का असर भी पकड़ लेते हैं. अपनी ये परेशानी मैंने एक डॉक्टर से साझा की, जो माँ की जांच करने आए थे. उन्होंने कहा, ‘हाइपरोस्मिया’ गन्ध की बढ़ी हुई भावना की स्थिति है. यह तब होता है जब कोई गन्ध आप पे हावी हो जाती हैं और आप उस से असहज हो जाते हैं या आपको उल्टी होने लगती हैं. हाइपरोस्मिया हमारे स्वाद और चखने की शक्ति को भी प्रभावित करता है’, उन्होंने कहा. ‘बस इसे अनदेखा करो’. अनदेखा? अरे बात नाक की हो रही है आँख की नहीं. अब नाक बंद कर के तो जिया नहीं जा सकता.

हालांकि बाक़ी किसी घर वाले को इस गन्ध से एतराज नहीं हैं लेकिन माँ के कमरे की अस्पताल जैसी गन्ध से मैं असहज महसूस करता हूँ. इसके बावजूद कि उनके कमरे को हर सुबह झाड़ू लगा कर फ़िनायल वाले गीले पोंछे से अच्छी तरह साफ़ किया जाता है. मुझे ऐसा लगने लगा है की माँ के कमरे में पड़ा सामान मुझे मानसिक तौर पर गन्ध महसूस करवाने लगा है.

उनके पलंग के साथ खड़ा आईवी स्टैंड जो उनके कमरे का हिस्सा बन चुका है, उस पर भी एयर फ्रेशनर लटका रहता है. उस पर लगी ग्लूकोस वाली बोतल ख़ाली होने पर झूलती है और भरी होने पर आलसी ढंग से सोई रहती है. इस आईवी बोतल से निकलती दवा माँ के बाएं हाथ की नस में जाती है, जहां कैनुला और हाथ पे लगी टेप ने पक्की जगह घेर ली है. आईवी स्टैंड रात के अंधेरे में भी दिखाई देने वाली अपनी चमकदार स्टील की छड़ के साथ कोने में खड़ा हमें घूरता रहता है. माँ के सिरहाने एक वॉकर और चलने वाली लोहे की छड़ी सदा तैयार खड़ी रहती है. ड्रेसर के आगे व्हील चेयर का अपना पार्किंग स्थान है. इन सब का गन्ध से कोई सरोकार नहीं है.

उनकी बिस्तर पर लगी एयर मैट्रेस और उसका प्रेशर पंप कमरे के दूसरे कोने में पड़ा है. बिस्तर का थोड़ा उठा हुआ सिरहाना बताता है कि उस पर ऊपर-नीचे किया जा सकने वाला गद्दा लगा है ताकि माँ को कुछ हर एक घंटे के बाद बैठाया जा सके. ज़्यादातर, वह लेटने में आराम महसूस करती है, बिस्तर पर या सोफ़े पर. किसी अजीब कारण से उन्हें सोफ़ा पर लेटना पसंद है. शायद सोफ़े का सीधा बैकरेस्ट उनके बाएं कंधे को सहारा देता है जो कुछ महीने पहले गिरने पर चोटिल हो गया था. दिन भर लेटे रहने पर भी वो मेरी तरह छत से बातें नहीं करती, न ही उसको घूरती हैं.

माँ कमरे की दीवारों पर भी ध्यान नहीं देती जहाँ कृष्ण/रांझा की पेंटिंग नीले शरीर पर अपनी काली आँखों से माँ को देखती रहती है. उसके हाथ की बांसुरी में कोई ऐसे सुर हैं जिन्हें सुन माँ हर घंटे पलटती है और उसे देख आँखों से कुछ इशारे करती है. इस कमरे में माँ आठ साल से रह रहीं हैं, यहां की हर चीज़ उनकी जानी-पहचानी और अपनी-सी है. पिछले एक साल में आए हर नए सामान से वो नाख़ुश हैं, ख़ासकर व्हील चेयर से, जिसे वो पसंद नहीं करती. हर बार जब माँ की नज़र व्हील चेयर पर पड़ती है तो वह अपना चेहरा फेर लेती है. इनमें से किसी भी चीज़ का गन्ध से कोई सरोकार नहीं हैं.

हम में से कोई जब उनसे बात करने उनके पास आता है तो माँ अपनी टांगों और कंधों पर पतली सूती चादर खींच लेती हैं . नंगे पैर या खुले कंधे उन्हें अब भी बुरे लगते हैं जब वो 92 से ऊपर की हो गई है और अपने बेटे और पोते के साथ रहती है. उनके कमरे का दूसरा या पिछला दरवाज़ा, जो पूर्व की ओर है, दिन में बंद रखा जाता है. यह मई का महीना है. इस गर्मियों में तापमान कुछ ज़्यादा ही रहा है जो 37 से 40 के बीच उतर-चढ़ रहा है. बाहर, सुबह 10 बजे ही बहुत गर्मी हो जाती है. उस तरफ से लू जैसी तेज गर्म हवा कमरे में आती-जाती है. यहां तक कि मां के कमरे में हल्की धूल भी उसी दरवाज़े से ही आती है. इतने हवादार कमरे में किसी तरह की गन्ध रुकना मुमकिन ही नहीं है.

मैं ये भी सोचता हूँ कि क्या ये भी मुमकिन है कि उनकी नर्सिंग अटेंडेंट, हम लोग, घर में काम करने वाले या कोई बाहर से आने वाला भी अपनी सांसों से इस गन्ध को और बढ़ा देता हैं. शाम को हम दो घंटों के लिए दोनों दरवाज़े खोलते हैं लेकिन मुझे नहीं लगता कि कमरे की गन्ध को लेकर उस से कुछ ज़्यादा बदल रहा है.

माँ के बिस्तर के बाएं कोने में साइड टेबल और दरवाजे के सामने वाली गोल टेबल पर दवाइयों के पैकेट, कफ़ सिरप, सैनिटाइजर की एक बोतल, वेट वाइप्स और विटामिन की गोलियों वाले पत्ते रखे हैं. एक थर्मस जैसी पानी की बोतल और बीच-बीच में घूँट लेने के लिए इलेक्ट्रल, नारियल पानी और जीरा पानी जैसे पीने की चीज़ें छोटी बोतलें भी वहीं आती-जाती रहती हैं. थ्रेप्टिन बिस्कुट के डिब्बे पर एक काला हेयरबैंड रखा है जिसे वो उठाने नहीं देती. माँ के बालों में लगाने वाले पिन, एक पॉकेट-बुक हनुमान चालीसा, विक्स वेपोरब आदि अपनी-अपनी जगह बनाने के लिए आगे पीछे होते रहते हैं. माँ ऊंचा सुनती हैं, अपनी हेयरिंग ऐड उन्होने कोने में धकेल दी है जिसे वो इस्तेमाल नहीं करतीं, उसका चार्जर अभी भी सॉकेट में है. इन सब से भी किसी तरह कि गन्ध आने का सवाल ही नहीं होता, तो फिर कहाँ कि है वो गन्ध!!!

ताश के पत्तों की एक गड्डी उनके सेहतमंद होने का इंतज़ार कर रही है. इन दिनों मोबाइल फ़ोन का इस्तेमाल वो कम ही करती है, लेकिन जब फ़ोन चमक कर बजता है तो उस पर नज़र ज़रूर रखती है. फ़ोन उनके बगल में टेबल पर पड़ा रहता है. शरीर में बची थोड़ी ताकत के साथ वह बहुत धीरे बोलती है और कई बार हम यह नहीं समझ पाते कि वह क्या कह रही है क्यूंकि माँ अब डेन्चर भी नहीं पहन पाती.

दिन में देर से ही सही पर माँ रोज़, बेनागा, नहा लेती हैं . उन्हें नहाना अच्छा लगता है . मैं जब भी माँ के कमरे से बाहर जाता हूं और उनके कमरे में वापस आता हूं तो मेरे नथुने दो अलग तरह की हवा से भर जाते हैं. वो दो गन्ध जो फेफड़ों, नथुनों और मुंह के लिए साफ़ तौर पे अलग पहचानी जाती हैं. विज्ञान बताता है कि हमारी लार भी गन्ध की वजह से ही बनती है. मैं हैरान हूँ कि क्या एक ही कमरे में अलग-अलग हवाएं तैर रही हैं या यह मेरी नाक और दिमाग हैं जो मेरे साथ कोई चाल चल रहे हैं.

मैंने कहीं पढ़ा था कि हमारे शरीर में हर रोज़ नई कोशिकाएं बनती हैं और पुरानी कोशिकाएं लगातार मरती रहती हैं. क्या कोशिकाओं कि कोई गन्ध होती है? हो सकता है क़ुदरत में किसी भी शय का मरना और सड़ना बराबर चलता रहता हो – जब पत्तियां या जड़ें सड़ जाती हैं तो उनमें एक अजीब गन्ध होती है और जब कीड़े, चूहे, साँप आदि मर जाते हैं तो उनमें दूसरी तरह की असहनीय गन्ध होती है. यहां तक कि जब पानी बासी हो जाता तो उसमें किसी और तरह की गन्ध होती है. सड़ी हुई हवा की बदबू तो हम सभी को पता है.

कोई वॉशरूम या टॉइलेट कितना भी साफ क्यूँ न हो उसकी गन्ध हम सभी को काफी हद तक पता है. दिखने में साफ़ और ताज़ा होने पर उसमे सफ़ाई के लिए लगाए जाने वाले रसायनों की ख़ुशबू होती है, जिसमें उनके ख़ास नीले निशान होते हैं. लाइज़ोल, हार्पिक, रॉफ़, सफ़ेद फिनाइल, डेटॉल और झागदार साबुन – इन सब की गन्ध यहाँ मिली हुई होती है. सब से सफ़ाई के बावजूद वाशरूम में आदम गन्ध बनी रहती है. वॉशरूम में पंखा पूरे दिन चलता है, उसकी जालीदार खिड़की बरामदे की ओर खुलती है. यहाँ अच्छी रोशनी भी रहती है और सुबह के सूरज की किरणें भी दो घंटे के लिए यहाँ रुकती हैं – इसके बावजूद, हाँ इसके बावजूद, बाथरूम में वो गन्ध बनी रहती है.

क्या ये सब सिर्फ़ मेरे दिमाग़ में है? मैं ख़ुद पर शक करने लगता हूँ और अपने आप से सवाल पर सवाल करता हूँ.

मुझे लगता है कि सिर्फ़ सुबह ही नहीं बिस्तर की चादर हमें दिन में दो बार बदलनी चाहिए, सोफ़े के कवर भी. अपनी नाक सिकोड़ता मैं कमरे में इधर-उधर घूमता हूँ और गन्ध महसूस करता हूँ. मुझे लगता है कि ये मैं किसी पालतू जानवर की तरह कर रहा हूँ. मुझे ये करता देख माँ सवालिया निगाहों से मेरी ओर देखती है और एक-दूसरे को देखकर हम दोनों मुस्कुराते हैं.

हाल ही में हमने माँ के बिस्तर वाले गद्दे का नया जोड़ा लिया है. पिछले कुछ समय से उन्हें ब्लैडर पर नियंत्रण नहीं था. डायपर इस्तेमाल करने और हर आधे घंटे में उन्हें वॉशरूम ले जाने के अलावा ज़्यादा कुछ नहीं किया जा सकता. बिस्तर या कपड़े गीले करने की वजह से माँ अपने आप को दोषी समझती हैं और ये उन्हें बुरा लगता है. हम सब कोशिश करते हैं कि उन्हें इस बारे में हम से कोई झेंप न हो. कभी-कभी रात में वो अपना पजामा भी गीला कर लेती हैं जिसे तुरंत बदल तो दिया जाता है लेकिन वो कपड़े रात भर वॉशरूम में ही रहते हैं, जब तक कि सुबह उन्हें अलग से धोया नहीं जाता.

उनके शरीर से आने वाली ये गन्ध शायद यह उन सभी दवाओं की भी हो सकती है जो उन्हें लगातार दी जा रही हैं, जो पसीने के साथ उनके कपड़ों में समा जाती हैं.

माँ को डायपर से नफ़रत है, लेकिन वो भी जानती हैं कि इसके बारे में कुछ नहीं किया जा सकता – रात में उनके साथ रहने वाली नर्स के लिए उन्हें बार-बार बिस्तर से उठाना और व्हीलचेयर पर ले जाना बहुत मुश्किल है. कुछ हद तक डायपर भी इसका कारण हो सकते हैं – हालाँकि इन्हें भी दिन में चार बार बदला जाता है. बीमारियों के इलाज तो हैं पर उम्र के बारे में कोई क्या कर सकता है? काश, मैं उनके लिए कुछ और कर पाता.

मैं शायद ही कभी परफ्यूम या डीओ का इस्तेमाल करता हूँ. टेल्कम पाउडर या किसी बॉडी एजेंट का कभी नहीं. पसीना की वजह से भी मेरे जिस्म में कोई बदबू नहीं आती. असल में मेरे परिवार और दोस्त मुझसे इस बात से जलते हैं क्योंकि मैं दिन भर ताज़ा दिखता हूँ बिना किसी जिस्मानी बू के. शायद यही वजह है कि मैं अपने आस-पास की गन्धों को लेकर कुछ ज़्यादा ही तुनक मिजाज़ हूँ. मैं ऐसी चीज़ें नहीं खा सकता जिनकी गन्ध मुझे पसंद न हो – जैसे देसी घी, मछली और कई अचार. आटे का गूंथना और खाने वाले तेल का जलना मुझे मुँह फेरने पर मजबूर कर देते हैं. खाने कि कुछ चीज़ें तो ऐसी हैं जिन्हें सूंघते ही मैं कै कर सकता हूँ. अपनी जीभ पर वाइन या व्हिस्की के स्वाद को लेकर भी मैं बहुत सेंसेटिव हूँ. कड़वा करेला खा सकता हूँ, डार्क रम पी सकता हूँ लेकिन मक्खन डला सूप नहीं पी सकता.
मेरी नाक में फिल्टर नहीं है जिसके लिए मैं ख़ुद से नफ़रत करता हूँ, क्योंकि मेरे लिए अभी सबसे ज्यादा ज़रूरी बात माँ और उनकी सेहत है. यहाँ से आगे का रास्ता बहुत लंबा होने वाला है, इसलिए मुझे लगता है कि इस गन्ध, इस बू की हर दिक़्क़त, हर परेशानी, अपनी नाक और अपनी ज़िंदगी कि इन संवेदनशीलताओं को मुझे अभी के लिए नज़रअंदाज़ करना होगा.

दो घंटे माँ के साथ उस कमरे में बैठने के बाद डॉक्टर किरतने ने मेरी ओर देख कर ठंडी सांस ली और कहा, ‘मैं जानती हूँ इसे, इस गंध को, पहले कई बार महसूस किया है इसे, ये उम्र की बू है.’

माँ कि बीमारी, कमज़ोरी, डेमेंशिया और उनकी बढ़ती उम्र को देखते हुए मुझे डर लगता है कि कहीं ये उस अनहोनी की गन्ध तो नहीं?

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