तमाशा मेरे आगे | कोई बतलाओ कि हम बतलाएँ क्या

माँ से बात करना उनसे बात करना कम, पर उन्हीं की पुरानी बातों को दोहरा कर उन्हें कुछ याद कराना होता है. बहाना पहलगाम में हुए हादसे का था जो अभी गर्म है, लोगों में, ख़बरों में, सरकारों में—यहाँ तक कि वो जंग की शक्ल लेते-लेते बचा है. सरहद के दोनों तरफ़ जान और माल का नुक़सान तो लाज़िमी ठहरा, इसके साथ-साथ लोगों के दिलों में फिर से लम्बे वक़्त के लिए डर बैठ जाएगा. पुरानी पीढ़ियों को पहले हो चुकी जंग और उसके साथ जुडी त्रासदियां याद आएँगी, ज़ख्म हरे होंगे, माँ-बाप और बुज़ुर्ग लोग बीती बातें अपने बच्चों से साझा करके मारे गए दोस्तों-रिश्तेदारों और फ़ौजियों को याद कर फिर से दुखी होंगे. मैं जब भी पुरानी यादों के बारे में सोचता हूँ तो पाता हूँ की उनमें दुःख कहीं ज़्यादा होता है, सुख या ख़ुशी न के बराबर.
माँ से पिछले हफ़्ते कश्मीर की बातें हो रही थीं. पहलगाम, गुलमर्ग, अवन्तिपुर और सोनमर्ग की. दो तरफ़ा बातें तो नहीं पर उन्हें कश्मीर याद दिलाया जा रहा था. कश्मीर जिससे उन्हें बहुत प्यार था, शायद अब भी है. साल 1954 से लेकर अब तक के हर सैर-सपाटे के लिए वो वहां दर्ज़नों बार गई. उन्हें कश्मीर की तस्वीरें दिखाई गईं, वहां के क़िस्से याद किये गए, कश्मीरी दोस्त याद किए गए, वहां की वादियां, मौसम और साड़ी पहन कर गुलमर्ग में बर्फ़ पर की गई स्केटिंग और उसी साड़ी में घोड़े की सवारी भी याद कराई गई.
एक तरह से कह सकते हैं कि अपनी तरफ़ से तो हमने ख़ुशी के पल याद कराए ताकि वो कश्मीर की अपनी यादों में थोड़ी ख़ुशी ढूंढ सकें, पर ऐसा होता नहीं है.
उनकी यादों की गुल्लक आवाज़ करने लगी है, खनकती है ख़ाली हो चली है. मिट्टी की गुल्लक में फंसे आख़िरी चंद अनमोल सिक्के निकालने में बहुत मेहनत लगती है, बहुत सलीक़े से कुरेदना पड़ता है. उनसे कुछ पूछने से पहले अपने आप से, ख़ुद से, बहुत सवाल करने पड़ते हैं. एक भूमिका बनानी पड़ती है. ईमानदारी से तारीख़ में पीछे जा कर सच तोलना पड़ता है, ठीक शब्दों का चुनाव करना होता है और फिर उनको उस बारे में पूछना होता है तभी, बस तभी माँ कुछ बोलती हैं, कहती हैं, सुनाती हैं बीते वक़्तों के किस्से.
हम से ज़्यादा उन्हें अपने ज़ेहन पे जोर देना पड़ता है. कल सुबह कश्मीर की बातों के चलते जाने क्यों, अनजाने में ही सही, जो उनके मुँह से निकला हम सब को हैरान कर गया. उन्होंने कहा – ‘किसी दिन जन्नत देखनी है, मैं तो आज तक गई नहीं’. एक बुत जैसे हम सब अपनी-अपनी जगह जम गए. ऐसे लगा जैसे हम सबको किसी ने कहा हो ‘स्टेचू’.
ये क्या चल रहा है उनके दिमाग़ में? ये कौन-सा सपना देख के आज उठी हैं? ये कौन-सी जन्नत का ज़िक्र हो रहा था? वो जिसके बारे में वेद और क़ुरान में लिखा है या किसी और ख़याल की या फिर माँ किसी क़िस्से-कहानी में लिखी जन्नत को खोज रही हैं. इस बारे में हम जितना भी सोचते हैं उतना और ही परेशान होते हैं, कोई नतीजा नहीं निकाल पाते.
‘कौन सी जन्नत?’ मैं पूछता हूँ. वो ख़ाली आँखों से मुझे देखती हैं और फिर किसी सोच में डूब जाती है. आँखें नीचे, माथे पे झुर्रियां, कांपते होंठ सब किसी सोच में डूब जाते हैं. अपने दाएं हाथ की उँगली से वो सिर खुजाने लगती हैं और अनमनी-सी होकर लेट जाती हैं.
बात अगर कश्मीर की हो रही हो तो जन्नत का ज़िक्र आना कोई ना-वाजिब बात नहीं है. आख़िर ये भी तो लिखा गया है न, ‘गर फ़िरदौस, बर रूहे ज़मीन अस्त, हमीं अस्तो, हमीं अस्तो, हमीं अस्त.’ अगर इस धरती पर कहीं स्वर्ग है, तो वह यहीं है, यहीं है, यहीं है … हम यह मान सकते हैं कि स्वर्ग और जन्नत एक जैसे ही होंगे, कम से कम सोच में तो एक जैसे ही लगते हैं. कश्मीर है भी तो कितना ख़ूबसरत है. शायद माँ के दिमाग़ में भी फ़ारसी की ये पंक्तियाँ चल रही हों. माँ जोड़-तोड़ के फ़ारसी और उर्दू पढ़ लेती थीं.
मेरा मन किया कि कह दूँ कि आप ने तो कई बार देखी है जन्नत, कश्मीर तो आप दर्ज़नों बार गई हैं, माँ.
यक़ीनन माँ ने कश्मीर में ख़ूब मौज-मस्ती की होगी जो उन्हें वो जगह इतनी पसंद थी, प्यारी थी और जन्नत-सी लगती थी. ऐसा बताया गया है कि अनदेखी-अनजानी जन्नत में भी रूहानी और जिस्मानी सुखों का ख़ूब बोलबाला है. वहां सुन्दर बग़ीचे हैं, बेहतरीन मौसम है, खाने को हज़ारों पकवान हैं, नाच गाने की महफ़िलें हैं, हूरें हैं, मय और साक़ी है, दोस्त हैं और चारों तरफ़ दिव्य आनंद है.
जन्नत की ये सब सहूलियतें सीध-सीधे रूहानी लेन-देन के सिस्टम पे टिकी हैं. अच्छे कर्म लाइए और जन्नत में मौज उड़ाइए. बिलकुल वैसे जैसे कश्मीर में, ढेर सारे पैसे लाइए और ऐश करिए. जन्नत की हर ख़ूबी अक्सर जहन्नम के साथ सीधी बराबरी भी रखती हैं. क़ुरआन में लिखा है जन्नत के सुख और आनंद, जहन्नम के कष्टदायी दर्द और भय से मेल खाते हैं. मैं सोचता हूँ ज़मीन पे, धरती पे जन्नत हो न हो जहन्नम ज़रूर है. अब देखो न ग़रीब, लाचार और असहाय लोग गंदी झोपड़-पट्टी वाली बस्तियों में रहने वालों के लिए, गज़ा पट्टी के लोगों के लिए उनका आसपास जहन्नम से कम क्या होगा. हमारी दुनिया में जहाँ-जहाँ लोग युद्ध झेल रहे हैं वो सब जहन्नम ही है. और शारीरिक आराम या पैसे से मिलने वाली चीज़ों का सुख और आनंद ले रहे लोगों के लिए ये दुनिया जन्नत ही है.

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माँ और उनके क़िस्से
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कश्मीर की वादियां आज भी सैलानियों के दिल में इसी जन्नत वाली भावना को जगाती है. पर माँ का इस उम्र में जन्नत के बारे में बात करना कुछ डर भी पैदा करता है. सब ख़ैर हो, ऐसा कुछ न हो जैसे ग़लत ख्याल दिल में आ रहे हैं. मैंने सिर झटका और उस वाक़ये के बारे में उन्हें याद करने को कहा, जब वो दाल गेट पे डल झील के एक शिकारे में पांव रखते ही डगमगाई थीं और पलट कर पानी में जा गिरीं.
गिरने से पहले माँ ने हम सब बच्चों को एक-एक कर शिकारे वाले को थमा दिया था और हम मज़े से आड़ू खा रहे थे, झील और सड़क के पार पिताजी सिगरेट ख़रीदने या पीने में मशगूल थे. उस बुज़ुर्ग शिकारे वाले ने दो और कश्मीरियों के साथ मिल माँ को पानी से बाहर खींचा और अपनी चादर उन पर लपेट दी. चूँकि वो झील का किनारा था, इसलिए वहां पानी कम ही था पर माँ डर और घबरा गईं थीं. उन्हें तैरना भी नहीं आता था और फिर सारे कपड़े भीग जाने से वो शर्मिंदा हो रही थीं. ग़ुस्सा पिताजी पर निकला, जिन का कोई कुसूर नहीं था, ग़लती माँ की अपनी थी जो उन्होंने शिकारे में पैर रखते हुए शिकारे वाले का हाथ नहीं पकड़ा. ग़नीमत तो ये थी कि उस बार हम हाउस बोट में ठहरे थे और जल्द ही अपनी बोट पर पहुँच गए वरना होटल तक गीली साड़ी में जाने पर उन्हें कितनी परशानी होती.
उन्हीं पे बीता ये क़िस्सा मैंने माँ को सुनाया पर इस बारे में उन्होंने कोई बात नहीं की. उन्हें याद ही नहीं था कि ये सब भी कभी हुआ था. जन्नत कितनी भी ख़ूबसूरत और आरामदायक क्यूँ न रही हो, आदमी की यादाश्त उसे भी भुला देती है.
कश्मीर के ये और ऐसे कई क़िस्से जिनके हम गवाह थे या जो हम ने सुन रखे थे वो माँ को याद करना ज़रूरी है ताकि उनकी यादाश्त में कश्मीर को ताज़ा रखा जा सके. घर की बेसमेंट से मैं पिताजी वाला पुराना कोडक बॉक्स कैमरा उठा लाया. उन्हें कैमरा दिखाकर मैं कुछ याद दिलाना चाहता था पर उस कैमरे से जुड़ी कोई बात उन्हें याद नहीं आई. एक वाक़िया कुछ यूँ था.
एक बार हम सब शंकराचार्य मंदिर से वापस लौट रहे थे. मंदिर के आसपास मौज-मस्ती करते हुए हमने कुछ ज्यादा ही वक्त बिताया. क़रीब चार बजे हम वापस जाने के लिए चले. क्योंकि डल झील से शंकराचार्य मंदिर का रास्ता ख़ासा लंबा है तो पिताजी ने सोचा क्यों न पगडंडी के रास्ते छोटा रास्ता ले कर जल्दी पहुंच जाया जाए. वैसे भी शाम होने को थी और ज़बरवान पहाड़ पर धीरे-धीरे पेड़ों की काली छाया लंबी होती जा रही थी और ठण्ड भी तेज़ हो रही थी. तीखी ढ़लान वाली पगडंडी पर संभल कर कदम रखते हम लोग आधा रास्ता पहुँच कर थक गए थे. एक चट्टान के पास रुककर माँ ने पानी देने के लिए पिताजी के हाथ में पकड़ी टोकरी से सब सामान निकाल चट्टान पर रखा और सबको पानी पिलाया.
सामान टोकरी में वापस रखते वक्त माँ उसमें कैमरा रखना भूल गई, यह सोच कर की कैमरा पिताजी उठा लेंगे. बिना पीछे पलट कर देखे हम तेज़ी से नीचे डल झील तक उतर आए. वहां पहाड़ों के पीछे डूबता सूरज देख पिता जी को तस्वीर उतारने का दिल किया तो देखा कि कैमरा तो है ही नहीं. हम सबको वहीं सड़क पर छोड़ पिता जी तेज़ी से उसी रास्ते वापस भागे. अँधेरा होने वाला था उन्हें ऊपर चढ़ने में एक घंटे से भी ज्यादा लगा पर गनीमत थी कि उसी रास्ते कोई और उतर नहीं रहा था और कैमरा वहीं चट्टन पर पड़ा मिल गया.
वापस आ पिताजी सब पर ग़ुस्सा तो हुए पर अपने महंगे कैमरा के मिल जाने की ख़ुशी में उन्हें ने हमें बढ़िया रेस्टोरेंट में खाना खिलाया. वो शायद पहला दिन था जब मैंने भी उसी कैमरे से एक तस्वीर उतारी, माँ और पिता जी की. वो तस्वीर इतनी कलात्मक और बढ़िया बनी कि जिसका कोई जवाब न था. उस तस्वीर में आप दो लोगों की टांगों के बीच में से डल झील और हाउस बोट देख सकते थे, यह जाने बिना की वो दो लोग कौन हैं. तस्वीर से दोनों के सिर ग़ायब थे.
स्वर्ग हो या जन्नत इनमे कोई ज़्यादा फ़र्क नहीं है. स्वर्ग जैसे ही जन्नत को भी किसी भी दुख, कष्ट या मुश्किलों से मुक्त माना गया है. जन्नत में बेहिसाब ख़ुशी का ज़िक्र किया गया है जो उन लोगों को मिलती है जो त्याग का जीवन जीते हैं. हमारी माँ तो इसका जीता जागता उदाहरण हैं. उन्होंने अपनी ज़िन्दगी में बहुत कुछ त्यागा है और था. पहले पहल सब ज़िम्मेदारियों को त्याग दिया. सब काम काज त्याग दिया. रसोई और खाने के विचार तक को त्याग दिया. मौज-मस्ती उनका जन्मसिद्ध अधिकार था, जिसके चलते जन्नत पे उनका पूरा हक़ है. उन्होनें कभी न किसी को कष्ट दिया, न ही कभी कोई कष्ट ख़ुद उठाया.
दोनों जहान की जन्नत पे आपका पूरा हक़ है, माँ, बस हमें, ख़ासकर मुझे, ये नहीं पता कि जन्नत है कहाँ. माँ की उस फ़रमाइश ने मुझे मुश्किल में डाल दिया.
कोई बतलाओ कि हम बतलाएँ क्या.
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कवर फ़ोटो
- डल झील, हाऊस बोट और पीछे की ओर जबरवान पर्वत श्रृंखला. फ़ोटोः राजिंदर अरोड़ा
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