छठा दरिया | फ़िक्र तौंसवीं, माँ, और तक़सीम

कुछ किताबों को एक ख़ास माहौल में पढ़ने से उनमें छिपे कई पहलुओं को एक साथ समझा और जाना जा सकता है. पर ये भी याद रहे कि वो किताब वो मज़मून उस ख़ास माहौल में आपको दुगना-चौगुना परेशान और बेहाल भी कर सकता है. मैंने यह तब महसूस किया जब पिछले हफ़्ते मुझे माँ के नज़दीक बैठकर लम्बा वक्फ़ा उनके साथ बिताना पड़ा, जिस दौरान एक ऐसी क़िताब मेरे हाथ लगी जिसका माँ के बचपन और भयानक त्रासदी वाले दौर से गहरा ताल्लुक था.
पिछले दस-बारह रोज़ से माँ की तबियत फिर से ख़राब है. शरीर में फिर से वो ही केमिकल्स का खेल— कभी सोडियम नीचे है तो कभी पोटेशियम. कभी अम्ल ऊपर है तो कभी क्षार या नमक. वो रात-रात भर सो नहीं पातीं, सिर चकराता रहता है, रक्त चाप बहुत ऊपर, हर दो मिनट में वो बाथरूम जाना चाहती हैं, खाना खाने का मन नहीं करता. चिड़चिड़ी और सूख कर काँटा होती जा रही हैं. डॉक्टर कहते हैं सिवाय ग्लूकोस ड्रिप लगाने के और कुछ कर नहीं सकते जो वो लगवाना नहीं चाहतीं.
दिन-रात बस बिस्तर पे लेटी रहती हैं, पीठ के बल, बिना हिले-डुले. कन्धा भी नहीं मोड़तीं, बस एक जग़ह बेसुध- सी पड़ी रहती हैं. आँख खोलती हैं तो मेरा नाम लेती हैं, मुझे पूछती हैं और मुझे देखकर फिर से आंखें मूँद लेती हैं. उन्हें दिलासा देने और उनकी तसल्ली के लिए मैं उनके साथ ही रहता हूँ, उनके बाईं ओर, बस एक हाथ दूर.
चूँकि मेरे लिए कुछ और करने को है नहीं सो एक किताब मेरे हाथ में ही रहती है और उस किताब के ज़रिये साथ रहते हैं किताब में चल रहे बर्बर तबाही के दिन, उस वक़्त के कुछ नामी-गिरामी शायर और उस किताब का लेखक जो चार महीने तक यह नहीं तय कर पा रहा कि उसे नई खींची गई सरहद के इस पार रहना है या उस पार. उसके शहर में चारों तरफ मौत का मंज़र है, बारूद और आदम ख़ून की मिली जुली गंध है, मौत की गंध है.
यहाँ माँ के कमरे में भी एक गंध लटकी है, यकीनन वो माँ की गंध है. वो एक ख़ास गंध है, जो मेरे कमरे में नही है, बाहर लॉबी या रसोई में नहीं है, ड्राइंग रूम में नहीं है ऊपर वाले कमरों में नहीं है. वो सिर्फ़ माँ के कमरे तक ही है. वो गंध सिर्फ़ इस कमरे में रहती है, तैरती है, उड़ती है, कभी सोफ़े पर बैठी मिलती है तो कभी गावतकिये या पर्दों से लिपटी. दवाओं के डिब्बे का ढ़क्कन खोल के मैं उसे सूंघता हूँ, वो गंध वहां नहीं थी, उसमें दवाओं वाली गंध थी. हम सब जानते हैं कि दवाओं वाली गंध कैसी होती है. और तो और खिड़की और दरवाज़ों में भी वो ही गंध है.
उनके कमरे में पहले कभी हरसिंगार, गेंदे, चांदनी या गुलाब के फूलों की महक होती थी. आजकल उनके बिस्तर के सिरहाने मैं मोतिये और रात की रानी के फूलों की एक टहनी गुलदान में लगा कर रख देता हूँ.
जिन दिनों वो पिताजी की तस्वीर के सामने धूप या अगर बत्ती जलाती थी, उन दिनों दूसरे तरह की महक कमरे में तैरती थी, जिसे महसूस किये हुए लम्बा अरसा हो गया. माँ अब धूप या अगर नहीं जलाती. पिता की तस्वीर भी अब मायूस-सी कोने में पड़ी है, माँ शायद उन्हें पहचानती भी नहीं है. माँ का हाथ पकड़कर मैं उनकी क़मीज़ का कोना सूंघता हूं, वो गंध वहां नहीं हैं. ये क्या, मैं असमंजस में पड़ जाता हूँ.
कल से माँ के साथ उनके पलंग पे अधलेटा, अधबैठा मैं एक ऐसी किताब पढ़ रहा हूँ, जो पहली बार सन् 1948 में छपी थी. असल क़िताब उर्दू में थीं, मैं उसका अंग्रेजी तर्जुमा पढ़ रह हूँ. (शर्म आती है – उर्दू सीख ली होती तो असल ज़बान की बारीकियां भी समझ में आ जातीं). किताब क्या इसे डायरी ही समझिये – रोज़-ब-रोज़ एक-एक दिन में बंधा इस मुल्क की तारीख़ का ख़ाका है उस साल का, उस दौर का जो माँ ने भी देखा, सहा और जिया और किताब लिखने वाले ने भी. तारीख़ तो बहुत से लोग जीते हैं पर एक ख़ास तस्सवुर में अपने आसपास घट रहे हर पल को बयान करने का हुनर सिर्फ़ इसी इंसान को ही था. लाइव रनिंग कमेंट्री ऑफ़ ए कार्नेज.
यह डायरी लिखी गई थी सन् 1947 की 9 अगस्त से 8 नवंबर तक. मुल्क़ आज़ाद होने के सात दिन पहले से आज़ादी मिलने के ढ़ाई महीने बाद तक. लिखने वाला अदीब पैदाइश ही से लाहौर में रहता है, जिसके यार बेलियों में कुछ-कुछ नाम ये भी थे – साहिर लुधियानवी, क़तील शिफ़ाई, मुमताज़ मुफ़्ती, आरिफ़ अली मुहम्मद, राही और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ – सब शायर और इन सब का ज़िक्र क़िताब में आता है.
यह दूर के दोस्त नहीं थे, सब क़रीबी थे, सब वहीँ लाहौर में थे, लेखक के साथ उठते-बैठते, चाय और सिगरेट पीते, सोचते, मायूस होते, ग़ुस्साते, रोते और अपनी-अपनी ख़ैरियत और जान की फ़िक्र में ये न तय कर पाते कि उन्हें अब करना क्या है. उनकी आइडेंटिटी अब क्या है? क्या वो बस सिख, हिन्दू या मुस्लमान हैं? उनका उस शहर से रिश्ता क्या है, जहाँ वो पैदा हुए, बड़े हुए और जिस शहर को ही उन्होंने अपना मादरे-वतन कहा? क्या कोई और वतन है, जहाँ वो इस हिन्दू-मुसलमान के झगड़े से बाहर निकल कर रह सकते हैं? उन्हें कहाँ रहना है, कहाँ जाना है और सबसे बड़ा सवाल था कि लाहौर छोड़ कर ‘क्यों जाना है?’ उन्हीं दिनों बिलकुल यही सवाल माँ और पिता जी के सामने भी रहा था.
आजकल माँ भी ज़्यादा समय लाहौर में ही बिताती है. बीते, पुराने वक़्तों में. अपने घर और वहां की गलियों में, अपनों के बीच, अपने स्कूल और घर के बीच के मैदान में खेलती, खो जाती और फिर अपने आप को ढूंढ लेती बिल्कुल वैसे ही, जैसे यह लेखक जो अपने शहर की गलियों में ही रास्ता भूल जाता है. उसे कुछ गलियों में जाने से ख़ौफ़ है, कुछ में जाने को वो मजबूर है.
यह डायरी उन वक्तों का आँखों देखा और आप बीता कच्चा चिठ्ठा है, जिसके बारे में लेखक ने पहले पन्ने पर ‘बाद’ में दर्ज़ किया “अँधेरे के रेले में”. ये वो दिन थे, जब इन सब दोस्तों ने अपने प्यारे शहर लाहौर में क़त्ले-आम, आगज़नी, लूट-पाट, मार-काट, अपहरण, अगवाई, बलात्कार और दुनिया का हर वहशियाना गुनाह होते देखा, जिसके बारे में सिर्फ़ सुन कर भी आपको शर्म आ जाये.
यह डायरी है अपने वक्त के मशहूर ओ मारूफ़ अफ़साना निगार फ़िक्र तौंसवीं साहब की, जो जब छपी थी तो उसे नाम दिया गया “छठा दरया”; जिसका अंग्रेज़ी नाम है ‘द सिक्स्थ रिवर’. पंजाब की पांच नदियों के बाद नफ़रत की एक और गहरी नदी. इस नदी का नाम क्या है या क्या था—वो था तक़सीम, बँटवारा, पार्टीशन, वंड.
9 अगस्त 1947. तारीख़ दोहराते ही मेरे ज़ेहन में तेज़ बिजली कौंधती है और मैं सहम जाता हूं.
माँ आँखें मूँदे सो रही है, मैं चाहता हूँ कि उसे उठा कर कहूं एक बार फिर वो वाक़िया सुनाओ और अपने दर्द ताज़ा कर लो, ये लेखक भी तुम्हारे साथ का ही है.
एक पुरानी ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्म की रील मेरी आँखों के पीछे चलने लगती है, साउंड ट्रैक में कई जगह बहुत खड़-खड़ है पर आदम शोर नहीं है. टप-टप, टप-टप सी एक आवाज़ है, जानी पहचानी – 9 अगस्त वो ही दिन जिस सुबह माँ और उनके परिवार, मेरे नानके ने लाहौर छोड़ा था. आज़ादी अभी छः रोज़ बाद थी पर वो कूच करने को तैयार थे, आज़ाद होने को आतुर, उस मुल्क में जो पहले से ही उनका था बस इस ओर नहीं था. उस रोज़ उन्हें स्टेशन छोड़ने के लिए तांगा आया था. याद आया, ये टप-टप टप-टप उसी तांगे की आवाज़ है जो बार-बार माँ दोहराती थी. अब तो तांगे भी नहीं दिखते. माँ टप-टप भी भूल रही हैं.
फ़िक्र तौंसवी के लिखे तीन महीने के बयान में तांगा सिर्फ़ एक बार आता है, लाहौर स्टेशन के बाहर, बस एक बार. लाहौर स्टेशन की इमारत उस रोज़ रेलवे स्टेशन कम और मुर्दघाट से ज्यादा मिलती थी. वो लिखते हैं वहां इतनी लाशें थीं कि जिसकी सड़ांध से घोड़ा भी आगे जाने से मुनकर हो गया.
मेरे पिता जी और उनके परिवार ने 10 अगस्त को लाहौर छोड़ा था. फ़िक्र तौंसवी की डायरी में 10 तारीख़ का कोई ज़िक्र नहीं है. 9 से वो सीधे 11 अगस्त पे आ जाते हैं. 10 तारीख को कहाँ थे आप तौंसवी साहेब? जो आपने देखा क्या वो इतना नाक़ाबिले बर्दाश्त था कि उस बारे में लिख भी न सके. आदमी का वहशीपन शायद अपने उरूज़ पे रहा होगा 10 अगस्त 1947 को .
माँ हिलती हैं, गर्दन मेरी तरफ झुका के मुझे देखती हैं और फिर आँखें बंद कर लेती हैं.
किताब के पहले 50 पन्ने पढ़ने तक मुझे ऐसे लगता है जैसे मैंने ये किताब पढ़ रखी हैं, हाँ ये क़िस्से, ये वाक़ये मैंने कई बार सुन रखे हैं, मुझे ये सब याद है, कण्ठस्थ. यक़ीन कीजिए, इसके आगे आने वाले पन्नों पे जो लिखा है मैं आपको वो सब सुना सकता हूँ. शायद हर्फ़-ब-हर्फ़ न कह सकूँ पर तफ़्सील से सब कुछ बता सकता हूँ . हो सकता है तुम्हारे किरदार का नाम सरदार सिंह हो और मेरे का असलम – बस फ़र्क़ इतना ही होगा या फिर गोपी चंद.
पर मैं उस चाक़ू को, उस ख़ंजर को हू-ब-हू बयान कर सकता हूँ. उसका रंग, उसकी तेज़ धार, उस पे लगा गर्म ख़ून जिसे क़ातिल ने अभी दो मिनट पहले ही तो वाण वाली चारपाई से पोंछा है मैं उस सब को जानता हूँ . मैं क़ातिलों को भी जानता हूँ. मैंने उनके नाम पहले भी सुन रखे हैं. याद आ गया— माँ ने कितनी बार दोहराया था उस क़िस्से को और उसके साथ कितने और क़िस्सों को. उन दिनों लोग नहीं, मज़हब मर रहे थे, हर रोज़, सारे मज़हब.
माँ की अपनी डायरी में भी तो लिखा है, “आइए सभ्य समाज की मौत पर शोकगीत लिखें”. बिलकुल वैसे ही जैसा फ़िक्र तौंसवीं ने लिखा है. फ़िक्र तौंसवीं, माँ और पिता जी से कुल 12 साल ही तो बड़े थे और फिर उसी शहर लाहौर के. लाहौर ज़िले के तौंसा शरीफ़ पिंड में पैदा हुए फ़िक्र तौंसवीं का पैदाइशी नाम राम लाल भाटिया था. फ़िक्र अपने अफ़सानों में लिखे तंज़ के लिए जाने गए. ‘छठा दरया’ कोई तंज़ नहीं था.
माँ अभी आँखें मूंदे सो रही हैं, नहीं तो अभी फ़िक्र तौंसवीं के कई रेडियो ड्रामे गिनवा देती. अपने बचपन में मैंने भी उनके लिखे कई अफ़साने हवामहल और उर्दू सर्विस पे सुने थे. ड्रामे छोड़िये, मज़मून पे आइये.
पतझड़ अभी सड़कों पे बिखरी पड़ी है, पेड़ नंगे हो चले हैं जबकि गर्मी कब से ही दरवाज़े पीट रही है. गुडगाँव में पड़ रही शदीद 40 डिग्री गर्मी में सब जल-सा रहा है, बिलकुल वैसे ही जैसे 9 अगस्त 1947 को लाहौर में जल रहा था. वहाँ बिजली तब तक काटी नहीं गई थी पर लोग आगज़नी से बेहाल और डर के मारे अँधेरे कमरों में छुपे बैठे थे किसी ने बत्ती नहीं जलाई थी— आज यहाँ एयरकण्डीशनर के बावजूद माँ असहज है, पैर पटक रही है. मैं उसे उठा देना चाहता हूँ— उठो, दो-एक पन्ने पढ़ के सुनाना चाहता हूँ— उसके घाव फिर से ताज़े करना चाहता हूँ, सिर्फ़ ये देखने के लिए कि क्या उन वक्तों का दर्द अब भी बचा है. आज के माहौल में भी तो कुछ कम तो नहीं हो रहा. पार्टीशन न सही, गले तो आज भी कट ही रहे हैं.
माँ उठ गई हैं. पलट के मुझे ग़ौर से देख रही हैं. वो शायद टॉयलेट जाना चाहती हैं. मैं उनकी अटेंडेंट सानिया को बुलाता हूँ, जो अभी कुछ दिन पहले ही आई है. दस जमात तक पढ़ी हँसमुख सानिया देवरिया की रहने वाली है. उठते ही माँ मुझसे सवाल करती हैं :
“हम कहाँ है? और कितने दिन चलते रहेंगे, मैं बहुत थक गई हूं. हमारे साथ वाले भी सब खो गए हैं कोई लॉरी भी नहीं आ रही. नीचे वाले कमरों में कौन रहता है? हमें कौन रखेगा – तू मैंनू ले जाएगा ना? मेरे पास चाय के भी पैसे नहीं हैं. कोई कपड़े भी नहीं है मेरे पास. अब चलो यहाँ से. ऐसे अच्छा नहीं लगता किसी के घर ठहरना. अपने लोगों को भी तो ढूंढना है.”
ये वही सवाल हैं, जो एक मुल्क से दूसरी तरफ़ जाने वाले लोग उन दिनों कर रहे थे. क़िताब को बंद कर मैं एक तरफ़ रख देता हूँ. अपनी आँख के कोने से माँ अंग्रेज़ी में लिखा छोटे अक्षरों वाला शब्द पार्टीशन (तक़सीम) पढ़ लेती हैं. फिर गौर से कवर पे छपी उस ट्रेन की तस्वीर को देखती हैं, जिसमें ख़ौफ़ के मारे लोग जाने कहाँ पहुँचने का इंतज़ार कर रहे हैं. एक नज़र मेरी तरफ़ देखकर माँ मुँह मोड़ लेती हैं. ज़ाहिर है वो मुझ से या किताब से ख़ुश नहीं हैं. मैं जब उनके कमरे से उठ कर बाहर आता हूँ तो महसूस करता हूँ कि बाहर की हवा और अंदर की हवा में कुछ फ़र्क है, अंदर हवा में भारीपन है, एक गंध है जैसा पहले भी लगा था.
मैं याद करता हूँ पंजाब में तो सिर्फ पाँच दरया थे तो फिर ये छठा कौन-सा है. ये गंध उसी छठे दरया की है जो सड़ते ख़ून का, मौत का, विछोड़े का, चीखों का दरया है जो पंजाब के लोगों ने आपसी नरसंहार से बनाया. ये वो बू है जिसके बारे में माँ अक्सर बताती थी, “ये बू जाती ही नहीं है.”
फ़िक्र तौंसवीं की क़िताब द सिक्स्थ रिवर (छठा दरिया) से कुछ अंश
11 अगस्त 1947
चौबीस घंटे के घिनौने और शरीर को थका देने वाले क़र्फ़्यू के बाद, आज सुबह मैं आख़िरकार अपने घर से बाहर निकला. चारों तरफ़ सुस्ती और नीरसता की हलचल शुरू हो गई थी. सड़कों पर आतंक और भय की परतें जम गई थीं. लोग इन परतों को सावधानी से पार कर रहे थे. संदेह और भय – भय और संदेह! ऐसा लग रहा था मानो सड़क पर हर कोई बम या चाक़ू लेकर चल रहा हो और पलक झपकते ही दुश्मन की पीठ में उसे घोंप देगा. सभी लोग पीछे मुड़ रहे थे. उस सड़क पर आदमी नहीं बल्कि दुश्मन चल रहे थे. सैकड़ों डरे और झिझकते दुश्मन अपने घरों से बाहर निकल आए थे.
उनमें कोई मेरा दोस्त नहीं था. इधर-उधर घूमते हुए, मैं आख़िरकार अपने दफ़्तर की ओर जाने वाली सड़क पर आ गया.
यह सड़क मुस्लिम बहुल इलाक़े से होकर गुज़रती थी, जहां तीन दिन पहले बम धमाका हुआ था. इन इलाक़ों से गुज़रना मेरी आदत बन गई थी. यह मेरी मानसिक बनावट का हिस्सा था. मैं और क्या कर सकता था? सुरक्षित इलाक़ों से गुज़रने में मानसिक ख़तरा था. जब तक मैं अपने दफ़्तर पहुँचा, धुआँ और लपटें मुझे घेर चुकी थीं. दफ़्तर के ठीक बगल में एक भव्य इमारत आग में धू-धू कर जल रही थी. वहाँ एक बहुत बड़ी भीड़ थी. यह एक अजीबोग़रीब भीड़ थी – हिंदू और मुसलमान दोनों मिलकर आग बुझाने की कोशिश कर रहे थे.
इस आग ने दो संस्कृतियों, दो धर्मों को एक कर दिया था. मैं ऐसी आग का स्वागत करता हूँ, उसे सलाम करता हूँ. मैं ऐसी आग पर लाखों दार्शनिक, विद्वान और साहित्यिक राय और विचार कुर्बान करने के लिए तैयार हूँ, जिसने 11 अगस्त को मुसलमानों और हिंदुओं को एक समान यातना दी.
इमारत की पहली मंजिल पर बिशन दास बिल्डिंग लिखा था. इमारत की निचली मंजिल पर एक बुक-बाइंडर की दुकान थी, जहाँ दर्जनों कर्मचारी रोज़ाना क़ुरआन की प्रतियाँ बाँधते थे. दोनों जल रहे थे – हिंदू इमारत और मुस्लिम क़ुरआन. कुछ लोग पहली मंज़िल पर एक गर्डर के नीचे दबे सात-आठ साल के लड़के की लाश निकालने की कोशिश कर रहे थे. बिशन दास का बेटा ऊपर जल रहा था और मुहम्मद की क़ुरआन नीचे जल रही थी. ईश्वर का संविधान जल रहा था और हिंदू और मुसलमान मिलकर आग बुझा रहे थे. एक ही म्यान में दो तलवारें थीं.
मुझे यह नज़ारा देखकर बहुत मज़ा आया. इतिहास में मुझे कहीं और इतनी अच्छी रुचि का प्रतिबिंब नहीं मिला था. हम एक नए इतिहास को जन्म दे रहे थे. मैं आगे चला गया. दस क़दम दूर, सड़क के बीचो-बीच एक कमज़ोर, साठ साल का बूढ़ा मुँह खोले बैठा था. उसके मुँह और धड़ के किनारे से ख़ून बह रहा था. उसकी खुली बेजान आँखें आसमान की ओर देख रही थीं. एक सिपाही लाठी लेकर उसकी जान की हिफ़ाज़त कर रहा था. सामने वाले चौराहे पर पाँच-छह सिपाही और एक सब-इंस्पेक्टर की सुरक्षा में तीस साल के एक नौजवान की लाश पड़ी थी. उसके पास एक छोटी थैली में थोड़ा आटा रखा था, जिसमें से कुछ अब ज़मीन पर गिर चुका था. हत्यारा भाग गया था, क्योंकि उसे जल्दी थी. वह भी शायद तीन-चार काफ़िरों को ख़त्म करके आराम करना चाहता था. उसने पुलिस का इंतज़ार भी नहीं किया, बल्कि चला गया. और एक सिपाही कह रहा था: ‘हमने इन लोगों से कितनी बार कहा है कि ख़तरनाक इलाक़ों से न गुज़रें, लेकिन क्या वे सुनते हैं?’
यह जोशीला और चमत्कारिक तूफ़ान अविश्वसनीय रूप से भयावह था. पता चला कि सैकड़ों अन्यायी सैनिकों और चीख़ते-चिल्लाते मुसलमानों से भरी कई ट्रकें आज लाहौर पहुँची थीं. अमृतसर के अधिकारियों ने मुस्लिम सैनिकों को रिहा कर दिया था क्योंकि अब उन्हें पाकिस्तान मिल गया था, और अधिकारियों के अनुसार सैनिक अब हिंदुओं की सेवा की ग़ुलामी में नहीं रह सकते थे. उनके हथियार छीन लिए गए थे. और वे अपनी जान बचाकर लाहौर भाग गए थे. वे हर गली-मोहल्ले में फैल गए थे. और लाहौर की सड़कें अब बाढ़ से भर गई थीं. रक्त की बाढ़, आग का भण्डार.
अंधेरे भी भीड़ से डरावने होते हैं
काली-सफ़ेद दाढ़ी वाले मौलवी साहब ने कहा: ‘हे भगवान! क्या तुमने सुना? लाहौर में आज क़रीब एक सौ बीस हत्याएँ हुई हैं. यह शहर आज अपने विनाश की ओर बढ़ रहा है.’
आरिफ़ घबरा रहा था. उसे अब मेरी सुरक्षा की चिंता होने लगी थी. अचानक होटल बंद होने लगा. लोग उठकर भागने लगे. नारे लगाते हुए भीड़ सड़क से गुज़र रही थी. एक ट्रक भी चीखता हुआ आ रहा था: ‘लाहौर में 12 बजे से फिर से क़र्फ्यू लगा दिया गया है. नब्बे घंटे का क़र्फ्यू.’ मैंने आरिफ़ से कहा: ‘इस बार क़र्फ्यू के घंटों की संख्या बढ़ा दी गई है क्योंकि अपराधों की संख्या भी बढ़ गई है. अपराध और क़र्फ्यू का कोई संबंध नहीं है. वह आटे की बोरी बेवजह मामले को उलझाने के लिए बीच में आ जाती है.’
रात होने को थी, मैं अनारकली की ओर चला गया. घर वापस जाकर फिर से क़ैद होने का ख़याल ही भारी पड़ गया. जब मैं मॉल स्क्वायर कॉफ़ी हाउस पहुँचा, तो कई महान भारतीय कवि और लेखक वहाँ से निकल रहे थे. उनका साहित्य या कला क़र्फ़्यू से ज़्यादा शानदार नहीं था. इसीलिए वे बेचैन और परेशान हालत में अपने घरों की ओर भाग रहे थे: बारी, सलाहुद्दीन, यूसुफ़, मित्तल. अपने ख़ास अंदाज़ में मित्तल ने मुझसे कहा: ‘फ़िक्र, मेरे दोस्त, बताओ तुम भारत आओगे? मैं जा रहा हूँ.’
मैंने उसके सवाल का जवाब न देते हुए कहा “आओ फिर सुबह को ढूंढे”.
(द सिक्स्थ रिवर: अ जर्नल फ़्रॉम द पार्टीशन ऑफ़ इंडिया, फिक्र तौंसवी की उर्दू में लिखी गई किताब ‘छठा दरिया’ का अंग्रेज़ी में किया गया अनुवाद है. माज़ बिन बिलाल का यह अंग्रेज़ी अनुवाद स्पीकिंग टाइगर बुक्स ने छापा है.)
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