तमाशा मेरे आगे | मेट्रो-बुक-फ्रेंड

कार में अकेले बैठे, ग़ुस्सा करते, ख़ून जलाते दिल्ली की सड़कों पे हर रोज़ लगने वाले सुबह-शाम के ट्रैफ़िक जाम से मैं तंग आ चुका था. मैं इस सब से ऊब चुका था, थक चुका था और इस से निजात पाना चाहता था. बीस सालों से मैं यही कर रहा था. हर रोज़ गुड़गांव में अपने घर से कनॉट प्लेस दफ़्तर तक कार चला कर जाना अब दुश्वार होता जा रहा था. दस साल पहले तक एक तरफ़ का सफ़र जो 40 मिनट से भी कम हुआ करता था, अब बढ़कर डेढ़ घंटे का हो गया है. नए बन रहे एक्सप्रेसवे पर सिर्फ़ 27 किलोमीटर की दूरी तय करने में दो घंटे से भी ज़्यादा लगने लगे थे.
फिर एक दिन न जाने कहाँ से हिम्मत आई और मैं मेट्रो रेल स्टेशन जा पहुंचा. मुझे सिर्फ़ मेट्रो रेल की भीड़ से परेशानी थी, और परेशानी थी उसमें बैठे लोगों के खाँसने की, उसके अंदर की बासी हवा से, लोगों के मोबाइल पर ज़ोर-ज़ोर से बातें करने और गाने आदि सुनने से, या फिर हो सकता है इस सब की मुझे आदत नहीं थी. पर इसके बदले मुझे मिल रहा था गुड़गांव से कनॉट प्लेस कुल 37 मिनट में, सर्दी, गर्मी या बरसात में फर्राटे से भागती मेट्रो पे मौसम का कोई असर नहीं था. मेट्रो ट्रेन में सफर करने के और बहुत फ़ायदे हुए. ब्लड प्रैशर नॉर्मल हो गया. रास्ते की दो सिगरेट बंद, बाहर देखते हुए ग़लत गाड़ी चलाने वालों पे चिल्लाना बंद. सड़क पे फैले धुएँ और गाड़ी में अंदर के धुएँ और पॉल्यूशन से मुक्ति. दफ़्तर या घर पहुँचने पर पारा नहीं चढ़ा होता था. पर सब से बड़ा फ़ायदा हुआ सुकून से 40 मिनट किताब पढ़ पाने का.
आख़िर एक सोमवार सुबह मैंने हाथ में किताब ली, मेट्रो के डिब्बे में चढ़ा और उस दिन से कार की ओर देखा ही नहीं. बाय-बाय सड़क.
भीड़, क्लॉस्ट्रोफ़ोबिया और सीट न मिलने जैसी शुरुआती परेशानियाँ दूर हो गईं क्योंकि मैंने जल्दी ही अपने पैरों पर खड़े रहकर संतुलन बनाना और मेट्रो की लय में रहना सीख लिया, बिना बार या ऊपर लगे हैंगर को पकड़े. मुझे बस एक कोने की ज़रूरत थी, थोड़ा-सा खुला कोना, ऊपर एक लाइट और मोबाइल फ़ोन की आवाज़ों से दूर. जैसे ही मैं मेट्रो में चढ़ता किताब खोल लेता. मेरे लिए फिर पढ़ने के अलावा और कुछ मायने नहीं रखता था. मेट्रो कोच में बैठ कर पढ़ने का आनंद, बढ़िया ए.सी. ट्रैफ़िक या मौसम की चिंता से बेख़बर, बिना तनाव, बिना ट्रैफ़िक लाइट, बिना हॉर्न, बिना धुएं, बिना गियर, क्लच या ब्रेक के साथ जूझते, और फिर कार चला कर प्रदूषण बढ़ाने का कोई अपराध-बोध भी नहीं. एक और ख़ास बात, ये सब सिर्फ 40 रुपये में. कार से कहीं सस्ता.
मैंने अभी मेट्रो के नए मज़े लेना और आराम से पढ़ना सीखा ही था कि उसका एक और अंजाना फ़ायदा सामने आया वो था मेट्रो और किताब के ज़रिये नए दोस्त बनाने का.
मेट्रो-बुक-फ्रेंड संख्या 1. इतिहास के टीचर से मिलना
पहली दोस्ती जनवरी की एक ठंडी सुबह में हुई. यह उन कम भीड़ वाले दिनों में से एक था, जब मेरी इस नई पाई ख़ुशी को शुरू हुए कुल डेढ़ महीने हुए थे. उस रोज़ एक कोने में खड़ा मैं ‘बाबरनामा’ पढ़ रहा था. ‘बाबरनामा’ का ये अँग्रेज़ी तर्जुमा ख़ासा मोटा था, क़रीब 700 पन्ने का. मुझसे दस क़दम की दूरी पर एक भद्र महिला अपने हाथों में काग़ज़ के पुलिन्दे संभालते उन्हें पलट-फेर रहीं थीं. बीच-बीच में उन पर कुछ लिख या निशान भी लगा रहीं थीं. मेरी नज़र उन पर तब पड़ी जब गाड़ी ने झटके से ब्रेक लगाया और वो महिला अपना संतुलन खो बैठीं. इसकी वजह से वो अपने सामने खड़ी महिला से टकरा गईं, जिसने उन्हें कुछ गलत-सलत कह दिया. उस बेचारी ने अपने काग़ज़ों और फ़ाइल आदि को गिरने से किसी तरह बचा कर अपनी छाती से लगा रखा था. मैंने उन्हें इशारा किया कि वह मेरे सामने वाले साइड पैनल का सहारा लेकर खड़ी हो जाए. अपने काग़ज़ों को संभालती और जमा के पैर रखती वो मुझ से तीन क़दम दूर खड़ी हो गई. इस सब में उन्होंने मेरे हाथ में पकड़ी किताब का नाम पढ़ लिया. अपना काम ख़त्म करने के पाँच मिनट बाद वह एक क़दम पास आई और मुस्कुराते हुए पूछा कि ‘क्या आप इतिहासकार हैं?’ हैरान होकर मैंने कहा- ‘नहीं जी.’ ‘तो फिर इस किताब में आपकी रुचि क्यूँ? ‘मुझे इतिहास पढ़ना अच्छा लगता है मदाम, बस.’
अब उनका तर्क सुनिए, ‘इन दिनों ‘सार्वजनिक रूप से’ कोई बाबरनामा क्यों पढ़ेगा?’ यह सवाल मेरे द्वारा चुनी गई किताब के बजाय हमारे समय का आईना था. उनकी बात मैं समझ गया और सचेत होकर आसपास बैठे लोगों को ध्यान से देखने लगा, अपने-अपने मोबाइल पर मस्त सब रोबोट से दिख रहे थे. कुछ स्टेशन आगे पहुँचकर मुझे पता चला कि वह जानकी देवी कॉलेज में मध्यकालीन इतिहास की लेक्चरर हैं. बातों-बातों में ये भी पता चला कि जब वह पीएचडी कर रही थीं और उनके गाइड अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के वरिष्ठ इतिहासकार प्रो. इरफ़ान हबीब थे. प्रो. इरफ़ान हबीब के साथ मैं करीब 20 साल से जुड़ा था और उनके साथ हमारी संस्था ने अयोध्या के इतिहास पर काम किया था. तारीख़ को पढ़ना और हबीब साहब की वजह से हमारी दोस्ती उन मोहतरमा से हो गई. उस महिला का स्टेशन आने से पहले जल्दी से फ़ोन नंबर लिए-दिए गए और हो गई दोस्ती. उस दिन मुझे वो मिला, जिसे मैं अपना पहला ‘मेट्रो-बुक-फ्रेंड’ कहता हूँ.
मेट्रो-बुक-फ्रेंड संख्या 2. दिखावे वाले
दूसरा हादसा कुछ दिनों बाद हुआ जब मैं अरुंधति रॉय की अँग्रेजी किताब ‘द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैप्पीनेस’ पढ़ रहा था. मेरी सीट के पास अपनी सहेली के साथ खड़ी एक युवा लड़की मुझसे ये जानना चाहती थी कि ‘ये किताब कैसी है?’ सवाल मुझे अच्छा तो नहीं लगा पर हम बातचीत करने लगे. लड़की ने ज़ाहिर तौर पर अरुंधति रॉय का लिखा कुछ भी नहीं पढ़ा था, यहाँ तक कि एक निबंध या अख़बार में उनके लेख भी नहीं. बस वो अरुंधति रॉय के नाम और उनकी सूरत पे फ़िदा थी. मेट्रो ट्रेन में जब तक आपका स्टेशन नहीं आ जाता, ऐसी बातचीत कभी-कभी किताबों के अलावा दूसरे विषयों पर भी भटक जाती है… जैसे राजनीति या मौजूदा हालात. पढ़ने में उनकी रुचि रही हो न रही हो, दोस्ती हो गई. बाद में उस लड़की ने मुझे ई-मेल कर के बताया कि आख़िरकार उसने ‘वो’ किताब पढ़ ही ली जो उसके हिसाब से काफी उबाऊ थी और उसमें कोई ‘कहानी’ नहीं थी. मेरे मेल बॉक्स में वो ई-मेल अब भी मेरे जवाब के इंतज़ार में पड़ी है.
मेट्रो में कुछ लोग सिर्फ़ इसलिए आपसे छोटी-मोटी बात करते हैं क्योंकि आपके हाथ में किताब है और आप पढ़ रहे हैं, जिसका मतलब है आप में कुछ ख़ास है, आप अलग हैं. मुझे ऐसा लगता है कि जब आप पढ़ रहे होते हैं तो शायद आपके सिर के पीछे एक आभा आ जाती है, जिसे देखकर लोग प्रभावित हो जाते हैं. ऐसा होता है क्या? सार्वजनिक स्थलों पर पढ़ना एक अध्ययनशील या संभवतः बौद्धिकतापूर्ण गतिविधि की निशानी हो. भले कोई दिखावा ही क्यूँ न कर रहा हो. कम से कम यह मोबाइल फ़ोन से छेड़छाड़ करने वालों से तो अलग है.
मैं अंग्रेज़ी और हिंदी दोनों भाषाओं के साहित्य को बराबर पढ़ता हूं. हिंदी लेखन हमारी ऐसी विशाल, साहित्यिक और दार्शनिक संपदा है कि पढ़ने में रुचि रखने वाले लोगों को इसका छोटा-सा हिस्सा पढ़ने और समझने के लिए कुछ जन्म चाहिए होंगे. वैसे भी चूंकि मैं अँग्रेज़ी साहित्य का छात्र रहा हूँ और अंग्रेज़ी से मेरी मिलीभगत रही है, उस वजह से बरसों से मैं हिन्दी साहित्य ज़्यादा पढ़ नहीं पाया हूँ. हिन्दी पढ़ने और लिखने वाली कमी की अब पूर्ति हो रही है.
पंजाबी मेरी माँ बोली है पर मैं उसे लिख या पढ़ नहीं पाता सिर्फ़ समझ और बोल सकता हूँ, जोड़-तोड़ के अख़बार या किताब में तुक बना लेता हूँ. उर्दू जानता हूँ ऐसा कह कर मैं अपने आप को झुठलाता हूँ पर उर्दू समझ लेता हूँ. उर्दू और पंजाबी दोनों में लिखता हूँ, कविता करता हूँ पर उनकी लिपि नहीं इस्तेमाल करता. इनके अलावा मैं और कोई भाषा नहीं जानता. काश मैंने उर्दू, ईरानी, अफ़गानी, फ्रेंच, स्पेनिश, इतालवी, रूसी या तुर्की सीखी होती.
अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ने के और भी कई कारण हैं. अंग्रेजी अनुवाद में उपलब्ध दुनिया भर का साहित्य भाषाओं का अंतर पाटने में मदद करता है. बहुत सी भाषाओं से अँग्रेज़ी में इतना अच्छा अनुवाद हो रहा है कि मुझे लगता है कि जब मैं ओरहान पामुक, मार्केज़, या चिनुआ अचेबे जैसे लेखक को पढ़ रहा होता हूं तो मैं उनके लिखे असल से कुछ कम नहीं पढ़ रहा हूं. अब तो भारतीय भाषाओं के लेखकों का भी हिन्दी या अँग्रेज़ी में अच्छा अनुवाद छप रहा है.
मेट्रो रीडिंग के पहले तीन महीनों में मैंने एक दिलचस्प बात देखी. ट्रेन में बैठकर अगर मैं हिंदी की कोई किताब पढ़ रहा होता हूँ तो बहुत कम लोग मुझसे बातचीत करने के लिए रुकते हैं. फिर चाहे वह प्रेमचंद से मंटो या निराला, हरिवंश राय से लेकर मंगलेश डबराल और महादेवी वर्मा तक की महान कृतियों ही क्यूँ न हों. मेट्रो ट्रेन जैसे बहुभाषीय और धर्मनिरपेक्ष स्थान में भी हिंदी पढ़ना दूसरी या निम्न श्रेणी का समझा जाता है. यहाँ भी अँग्रेज़ी का बोलबाला है. अगर आप अँग्रेज़ी की किताब पढ़ रहे हैं तो आप ज्ञानी, पहुंचे हुए और ऊंची पैठ वाले लगते हैं. मैं यह सोच के घबरा रहा था कि अगर मैं उर्दू या गुरुमुखी कि कोई किताब दिल्ली मेट्रो में बैठ कर पढ़ने का नाटक करूँ तो लोगों कि क्या प्रतिक्रिया होगी.
आज के दौर में गुरुमुखी देखकर लोग शायद कुछ न कहें, पर उर्दू देख तो जाने क्या हाल करने वाले हैं. निराशा के डर से इन दोनों भाषाओं की किताब पढ़ने की हिम्मत मैं नहीं कर सका, लेकिन मैंने एक बार एक फ्रेंच उपन्यास के साथ लोगों को आज़माने कि कोशिश की. उस किताब का अंग्रेजी अनुवाद में पढ़ चुका था, कहानी और लेखक के बारे में जानता था, अपने टूटे फूटे उच्चारण और फ्रांसीसी की कम समझ के बावजूद मुझे पता था कि मैं किसी भी मुश्किल स्थिति से निपट सकता हूँ.
तीन दिनों तक मेट्रो में आते-जाते मैंने फ्रेंच किताब को पढ़ने का ढोंग किया, उसे हाथ में थामे रखा, बीच-बीच में कवर दिखाने के लिए उसे खोलता और बंद करता रहा, एक कोने से दूसरे कोने में जाता रहा, डिब्बे में ऐसे घूमता रहा जैसे सीट की तलाश कर रहा हूँ, किताब गिराता रहा और लोगों का ध्यान खींचने की पूरी कोशिश करता रहा. पर एक भी व्यक्ति मुझसे बात करने के लिए आगे नहीं आया, कोई पूछने नहीं आया कि ये भाषा कौन-सी है, किताब कौन-सी है. यह दुःख की बात है कि मेट्रो में न तो प्रादेशिक भाषा और न ही विदेशी भाषाओं कि किताबों पे कोई ग़ौर करता है – वह मेट्रो जो सभी संभावित भाषाओं के लाखों लोगों को जोड़ती है.
लेकिन, फिर आप नहीं जानते कि और क्या-क्या हो सकता है.
मेट्रो-बुक-फ्रेंड संख्या 3. उर्दू पढ़ने वाले का अँग्रेज़ी पढ़ने का लालच
एक देर शाम 9.30 बजे के बाद कोई 27/28 की उम्र का लड़का मेरे बगल में बैठा था. वो मेरे बाएं कंधे पर पूरी तरह झुककर उस किताब को पढ़ने कि कोशिश कर रह था, जिसे मैं पढ़ रहा था. बेझिझक, वो किताब के हर पन्ने को ग़ौर से देख रहा था. वो किताब थी नताशा बधवार कि लिखी, ‘माई डॉटेर्स मम’. कुछ देर बाद मैं इस ताकझांक से उकता गया और मैंने किताब उस शख़्स के सामने रख दी. उस कहा, ‘लीजिये, पहले आप पढ़ लीजिये.’ मेरे ऐसे कहने से वो हैरान और शर्मिंदा था. शर्मिंदगी से बचने के लिए उसने अपना चेहरा दूसरी तरफ़ घुमा लिया. लेकिन मैंने विनम्रता से फिर कहा कि अगर वह चाहे तो इसे पढ़ सकता है. वह झिझका, थोड़ा ठहर कर मुस्कुराया और बोला ‘मुझे किताब में दिलचस्पी इसलिए हुई क्योंकि उसने ‘बेटियों’ के बारे में लिखा है.’
आगे बात करने पर पता चला कि उसकी भी सात महीने की बेटी है. मैंने उससे पूछा कि वह क्या करता है, ‘मैं सेलेक्ट सिटी मॉल, साकेत में एक बड़े ब्रांड की घड़ी के शोरूम में सेल्समैन हूँ. लेकिन सर, मैंने स्कूल के बाद से कोई किताब नहीं पढ़ी है.’ ये सब उसने बड़ी सुरीली-सी हिंदुस्तानी में कहा जो शहर कि हिंदी ज़बान से बिल्कुल अलग थी. मैं सोचने लगा ये शहर किस हिन्दी पर नाज़ करता है?
मैंने उस से पूछा कि तुम मैग्ज़ीन या अख़बार पढ़ते हो, उसने हामी में सर हिला कर कहा ‘हां’. मैंने पूछा कि कौन से… वे थोड़ा घबरा कर हकलाने लगा, जैसे उसे इस बारे में बहुत सोचना पड़ेगा. सीधे सवाल के जवाब में ऐसी देरी या आनाकानी मैं समझ नहीं पाया. मैंने उसे कई नाम गिनवाए पर वो एक को भी नहीं पहचाना. बहुत हिचकिचाते हुए उसने कहा, जिसे मैं पढ़ता हूं ‘वो उर्दू अख़बार है’. कौन-सा मैंने पूछा, मिलाप, प्रताप, सहारा, हिंदुस्तान एक्सप्रेस? फिर कोई जवाब नहीं. आखिर उसने सिर नीचे झुका लिया, आंखें अब भी मेरी किताब पर ही थीं. उसे रोज़ पढे जाने वाले अखबार का नाम भी याद नहीं था. ‘मेरे पिता एक दुकानदार हैं, वो अख़बार ख़रीदते हैं जो मुझे भी पढ़ने को मिलता है.’ पर तुम्हें नाम क्यों याद नहीं ? वो शर्मसार था.
मैंने उसे समझाया कि उस किताब की लेखिक अख़बार में हफ़्तावार कॉलम लिखती हैं और ये किताब उनके लेखों का संकलन हैं. उसने बताया कि उसने कभी कोई अंग्रेज़ी अख़बार नहीं पढ़ा था, हालाँकि उसने दावा किया कि ‘मैं अंग्रेज़ी पढ़ सकता हूँ, तेज़ी से नहीं, पर पढ़ लूँगा’. वो किताब लेखक ने मुझे तोहफ़े में दी थी और उसमें उन्होंने मेरे लिए कुछ लिखा था वरना मैं शायद वो कॉपी उसे दे देता. साकिब अलवी से उस रोज़ दोस्त बन गए.
मेट्रो-बुक-फ्रेंड संख्या 4. किसी लेखक से मिलना
उस दिन मेरे हाथ में वो किताब थी जो अभी तक रिलीज़ नहीं हुई थी. लेखक मेरे दोस्त हैं तो एक हफ़्ता पहले कॉपी मेरे पास पहुँच चुकी थी. उस रोज़ 23/24 साल का युवा लड़का मेरी सीट के ठीक सामने आ खड़ा हो गया जहाँ मैं बैठा पढ़ रहा था. चूंकि मैं बैठा था इसलिए उसका चेहरा नहीं देख सका. उसका दाहिना हाथ जो मेरे सामने झूल रहा था उस पे स्टील का मोटा कड़ा चमक रहा था और उसी हाथ में उसने एक किताब को मज़बूती से पकड़ा हुआ था. अपने बाएँ हाथ से उसने ऊपर लगा हैंडल बार पकड़ा हुआ था. जैसे ही हमारी आँखें मिलीं, उसने एक बड़ी मुस्कान के साथ कहा, ‘हाय’.
बिना वक्त बर्बाद किए उसने पूछा, ‘आप क्या पढ़ रहे हैं, सर?’ मैंने किताब पलट कर उसे कवर दिखाया और पूछा, ‘क्या आपने इसे पढ़ा है?’ ‘नहीं.’ ‘क्या आप लेखक को जानते हैं, जिसकी तस्वीर कवर पर छपी है?’ ‘नहीं, सर.’ अचानक मेरे मुह से निकला, ‘कोई बात नहीं, आप तब पैदा भी नहीं हुए थे जब वह ‘अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है?’ ‘मोहन जोशी हाजिर हों’, ‘सलीम लंगड़े पे मत रो’ या ‘नसीम’ जैसी बेहतरीन फ़िल्में बना रहे थे.’
उस लड़के ने आगे ये पूछना भी ठीक नहीं समझा कि वो शख़्स हैं कौन. अब में सईद अख़्तर मिर्ज़ा का और क्या तार्रूफ़ देता.
‘आप क्या करते हैं सर?’ उस लड़के ने अभी तक मेरी किताब नहीं लौटाई थी, न ही वे उसको पलट कर पीछे के कवर या फ्लैप मैटर को पढ़ने की कोशिश कर रहा था. इससे पहले कि मैं उसके सवाल का जवाब देता मैंने पूछा, ‘आपके हाथ में वो किताब क्या है?’ जल्दी से उसे पलटते हुए उसने मुझे ‘द ड्रीमिंग रियलिटी’ की कॉपी थमा दी. कवर पे एक नाव बनी थी, जिसमें डूबते सूरज की पृष्ठभूमि में एक युवा जोड़ा के हाथ पतवार के ऊपर मिल रहे थे जैसे कि वे साथ में नाव चला रहे हों. उनके चेहरे और शरीर बस एक छाया थी.
मुझे लगा कि वो कवर डिज़ाइन बहुत ही बचकाना-सा था … सबसे ऊपर दो लेखकों के नाम बहुत छोटे अक्षरों में थे. नूर आनंद – करण कपूर. किताब पलट कर मैं पीछे के कवर को पढ़ता हूं, जिसमें कहानी के कुछ अंश हैं. घर, नॉस्टेल्जिया, प्यार, वासना, विश्वासघात, यूटोपिया उस किताब कि कहानी का मुद्दा था. वो 16 साल के लड़के की कहानी थी जो अपनी टीचर के साथ इश्क़ करता था. मैंने किताब उसे वापस दे दी.
‘आप इसके बारे में क्या सोचते हैं?’, उस लड़के ने पूछा. ‘किताब के…? ‘ वह रुक-रुककर स्टेशन इंडिकेटर प्लेट पर चमकती लाल रोशनी को देख रहा था. मुझे लगा उसका स्टेशन क़रीब है. ‘जब तक मैं किताब नहीं पढ़ लेता, मैं कुछ कैसे कह सकता हूं.’ कवर पर नाम की ओर इशारा करते हुए वो कहता है, यह मैं हूं… मैंने ये नॉवेल अपने दोस्त करण के साथ मिल कर लिखा है. उसने किताब का अंदरूनी कवर खोला जिस पे उसकी और उसके दोस्त की तस्वीर छपी थी. मैंने हाथ मिला कर उसे बधाई दी. इस बीच मेरे बगल में बैठा व्यक्ति उठ कर जा चुका था. नूर जल्दी से सीट पकड़ मुझसे सवाल पूछता है, ‘आप कहां उतरेंगे?’ ‘द्रोणाचार्य स्टेशन, और आप?’ ‘ग्रीन पार्क में,’ वह कहता है और जल्दी से मुझे कहानी सुनाना शुरू कर देता है… मैं उसे बीच में ही रोक देता हूं और किताब के प्रकाशक का नाम पढ़ने लगता हूं . मैंने उसे बताया ये अच्छी दिखती है. ‘मैंने सभी डीयू कॉलेजों में बेच दी हैं, सर’. वो बोला
अरे वाह… आपने एक हज़ार कापियाँ बेच दीं… कितने महीनों में… ‘एक महीने में सर, हम दोनों बहुत सारे कॉलेजों में गए’, उसने कुछ का नाम लिया और छात्रों को पचास परसेंट डिस्काउंट पर बेचा’. मैंने किताब को एक बार फिर पलटा और कीमत देखी, 349 रुपये. ‘क्या आपके पास एक और कॉपी है’, मैंने पूछा. फ़र्श पर पड़े उसके बस्ते से नूर ने झटके में एक कॉपी निकाल ली. मुझे देते हुए उसने कहा कि यह आपके लिए है. मैंने अपनी जेब से 250 निकाले और उसे दे दिए. उसने मना किया लेकिन दूसरी बार कहने पर धन्यवाद के साथ रख लिए. किताब खोल कर मैंने उसे कुछ लिखने को कहा.
नूर ने मेरी कलम ली और तेज़ी से लिखा, ‘युद्धों ने 20 वीं सदी में दुनिया बदल दी, इस सदी में, शब्द दुनिया बदल देंगे’. अपनी मेल आईडी को जोड़ते हुए उसने लिखा, प्यार के साथ.. उसके हस्ताक्षर पूरे पन्ने पर फैले पानी के एक बुलबुले की तरह लग रहे थे.
‘अगला स्टेशन ग्रीन पार्क है’, मेट्रो के स्पीकर ज़ोर से बजने लगे.. नूर ने उठ कर मुझसे हाथ मिलाया और कहा… ‘आप मुझे ज़रूर बताएं कि आपको किताब कैसी लगी’. ‘मैं लिखूंगा.’ हाथ हिलाते हुए वो ग्रीन पार्क स्टेशन पर उतर गया… मेरे पास बैठे बाकी यात्री उस युवा लड़के को किताब पर हस्ताक्षर करते देख हैरान हो गए, क्योंकि उन्हें तभी एहसास हुआ था कि लंबे बालों वाला गोरा-चिट्टा वो लड़का कोई सेलिब्रिटी था. सब पलटकर उस जाते देख रहे थे.
मेट्रो रेल में अगर लेखक सेलिब्रिटी हैं तो किताब का पाठक भी कम हीरो नहीं हैं.
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