कहानी | चाँदनी-सी बातें

पापा, क्या यह ठीक बात है कि हम कार को उतना प्यार कर नहीं सकते जितना कि घोड़े को? उसके नन्हे से मुँह से इतना वज़नी सवाल सुनकर मैं चौंका. जब तक मैं कुछ समझूँ-सँभलूँ वे दूसरा सवाल जड़ चुके थे – ‘ये मानवीय भावनाएँ क्या होती हैं पापा?’
यह उनकी आदत बन गई है. मैं कभी भी कहीं से किसी हालत में घर लौटूँ, वे दरवाजे से मेरे साथ चिपक लेंगे. न कपड़े जूते उतारने तक की तसल्ली, न बैठने देने तक का सब्र! अक्सर उनकी बातों की शुरुआत घर में घटी किसी घटना से होती है. पर आज जहाँ से वे शुरू हुए उसने मुझे चक्कर में डाल दिया. मैं तुरन्त कुछ नहीं बोल पाया. अपने किसी सवाल पर उन्हें मेरी जरा देर की भी चुप्पी बर्दाश्त नहीं होती. सोफे तक पहुँचते-पहुँचते उन्होंने दोनों सवाल फिर से दोहरा दिए. मैं नहीं समझ पाया कि वे क्याह सुनना चाह रहे हैं और इन सवालों को वे लाये कहाँ से हैं. सोचने को थोड़ा समय लेने के इरादे से मैंने उत्तर देने की बजाय उनसे प्रश्न किया- ‘किसने कहा आपसे ऐसा?’ सवाल के लिए जैसे वे तैयार थे-‘कहा किसी ने नहीं. मैंने पढ़ा है आज यह.’ ‘कहाँ पढ़ा? किसी ने तो कहा होगा न इस बात को?’ ‘आपकी इस मैग्जीन में पढ़ा था.’ लगा कि वे अपनी आज की पढ़ाई को प्रमाणित करके आज की शिकायतों का असर कम करना चाह रहे हैं. तभी सुनाई दिया-‘आइंस्टीन ने कही है यह बात!’ आइंस्टीन का नाम सुनकर जो कहना चाह रहा था वह भी नहीं कह पाया. पूछा -‘किसी खास जगह किसी विशेष बात पर ही कहा होगा न यह?’ उन्होंने तुरन्त मेज पर रखी मैग्जीन निकाली और उलट-पुलट कर सम्बन्धित पेज ढूँढ़ने लगे.
थोड़ी देर में वह पेज उन्हें मिल गया. मेज पर से मेरा चश्मा उठाकर मुझे देते हुए वह पेज मेरे सामने कर दिया. पढ़ा तो समझ आया कि आइंस्टीन के इन कथनों का आशय क्या है. मानव, मानवीय, भावना, जीवधारी और मशीन को लेकर अनेक तरह से देर तक उन्हें समझाने में जुटा रहा. इस बीच वे सवाल पर सवाल करते रहे. आधे घण्टे बाद जब समझाना रुका तो लगा यही कि वे पूरी तरह आश्वस्त नहीं हुए हैं और फिर किसी दिन तैयारी के साथ इन सवालों को लेकर वे अचानक मेरे सामने होंगे.
चाय आते ही उनकी शिकायतों का वह दौर शुरू हुआ जिसे आज के सवाल ने दूसरे नम्बर पर कर दिया था- ‘पापा आज मैं खेल कर आधे घण्टे में आ गया था फिर भी दीदी कह रही थीं कि सारे दिन बाहर रहा है. बड़े पापा से शिकायत करूँगी तेरी… ‘क्रिकेट सम्राट’ और ‘क्रिकेट भारती’ पढ़ रहा था तो भैया डॉट रहे थे कि दिन भर इन्हीं में लगा रहता है. स्कूल की किताबें नहीं पढ़ता. रिज़ल्ट आएगा तो रोएगा बैठकर…! क्या मैं पढ़ता नहीं हूँ पापा? क्योंज रोऊँगा रिजल्ट आने पर मैं? क्या कभी इतने ख़राब मार्क्स आए हें मेरे?..’ चुप बैठकर उन्हें सुनता मैं उनकी चातुरी, उनके हौसले पर अन्दर-अन्दर हँस रहा था. इससे पहले कि कोई और उनकी किसी शरारत या गलती का जिक्र मुझसे करे, वे ऐसे ही अपने ढंग से उन बातों को मुझ तक पहुँचा देते हें. बाद में जब घर के लोग उनकी शिकायतें मेरे सामने रखते हें तो वे अपने बड़े भोले-मासूम तर्कों के बल पर तब तक सबसे टक्कर लेते रहते हैं, जब तक कि उन्हें यह नहीं लगता कि मैंने उन्हें गलत नहीं माना है.
उनकी आज की कलाबाजी का रहस्य तब खुला जब उनकी दीदी ने बताया कि आज विभु की मम्मी ने उनकी शिकायत की है. यह और बच्चों के साथ उनकी छत पर खेलने जा पहुँचा और उनकी पानी की टंकी पर चढ़ गया. ऐसी स्थितियों में वे चुप्पी साध जाते हैं. चुप बैठे वे मेरे द्वारा कुछ कहे जाने का इन्तज़ार कर रहे थे. उनकी ऐसी चुप्पियों के बाद जब भी मैंने कुछ कहा है, हमेशा लगा है कि उन्हें वह पहले से पता था कि मैं यही कहूँगा. मेरे कहे जाने को सिर झुकाए चुप-चुप सुनते रहते हैं और अन्त में जिस ढंग से समर्पण करते हैं, उसके बाद हमेशा यही लगा है कि पराजित मैं ही हुआ हूँ. उनके समर्पण क़े बाद मैं कुछ कहने की स्थिति में ही नहीं रहता. आज भी वही हुआ. मैंने पूछा-‘क्या यह सब ठीक था जो आज आपने किया?’…‘नहीं पापा! सब बच्चों में शर्त लगी धी कि कौन चढ़ सकता है…सो मैं चढ़ गया…आगे नहीं चढ़ूंगा कभी!’ उनकी उस धीमी-धीमी आवाज, ऐसे भोले अन्दाज और दृढ़ता के साथ किए उनके ऐसे वादे के बाद मैं क्या कहूँगा, यह उन्हें भी मालूम है और घर के अन्य सदस्यों की भी. इसीलिए ऐसे क्षणों में वे उठकर अन्दर चले जाते हैं और बाकी लोग उनके दिन भर खेलने, किसी की न सुनने और बिगड़ते जाने का पूरा दोष मुझ पर मढ़ते हुए इधर-उधर हो जाते हैं. उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि ऐसे हालात पैदा हो जाने के कितनी देर बाद उन्हें फिर कहाँ से कैसे शुरुआत करनी है. कुछ देर इस-उस कमरे में चक्कउर काटेंगे फिर कॉपी-पेंसिल लेकर मेरी बगल में आ बैठेंगे-‘आज क्या लिखना है पापा?’ दरअसल पिछले साल हिन्दी और गणित में उनके नम्बर कुछ कम आए. घर भर ने उनके साथ मेरी भी आफ़त बुला दी. उनके भैया ने वादा किया था कि अस्सी पर्सेण्ट से ज्यादा ले जाओगे तो तुम्हें साइकिल मिल जाएगी! इत्तेफ़ाक कि आधा पर्सेण्ट से वे साइकिल हार गए. उस आधे पर्सेण्ट के लिए सारे घर ने हिन्दी-गणित में कम आए नम्बरों को जिम्मेदार ठहराया. बाद में महीनों तक उन्होंने जोर लगाया कि कैसे ही आधे पर्सेण्ट कम रह जाने के बावजूद भैया साइकिल दिलवा दें, पर न घर में किसी ने उनका साथ दिया और भैया थे कि उन्होंने आखिर तक मानकर ही नहीं दिया. तय हुआ कि अब खेल और टी.वी. का समय कम होगा. पढ़ाई ज्यादा की जाएगी. हिन्दी-गणित पर ध्यान दिया जाएगा. अगले साल अगर इससे ज्यादा नम्बर आएंगे तो साइकिल तो मिलेगी ही, नया बैट और बढ़िया वाली बॉल भी मिलेगी. तभी यह भी तय हुआ कि शाम को वे एक घंटे मेरे साथ बैठकर हिन्दी-गणित का काम किया करेंगे. जिस जोश से वह सिलसिला शुरू हुआ, वह बहुत दिनों तक नहीं चल पाया. पर बन्द भी नहीं हुआ-अटकते-लड़खड़ाते चलता रहा. बन्द नहीं क्यात हुआ, होने नहीं दिया. बन्द करने के लिए उनके पास युक्तियों-योजनाओं की कोई कमी थोड़े ही थी. कभी उसी समय वे होम वर्क के नाम पर कुछ करने बैठ जाते. कभी कोई क्रिकेट मैच आ रहा होता. कभी घर के काम के नाम पर इधर से उधर घूमकर तय समय निकाल देते. कभी पता लगता कि आज उन्हें नींद आ गई. उनको जगाना सब इसलिए टाल देते कि उनका टैम्पो वाला सवा छह बजे आ जाता है और उसके लिए उन्हें सुबह पाँच बजे जगना होता है.
आज अन्दर से लौटे तो यह नहीं पूछा कि क्या लिखना है. पहले कभी का लिखवाया एक पेज दिखाते हुए बोले, -‘पापा, आपने तो यह वर्ड ऐसे लिखना बताया था, पर मैम ने आज इसे ऐसे लिखा…!’ मेंने सोचा कि आज फिर वे अपनी किसी शातिरी का प्रदर्शन करना चाह रहे हैं. मैंने पेज हाथ में लिया ही था कि पूरा कमरा जैसे किसी बच्चे की बड़ी डरावनी-सी चीखों की आवाज़ से भर गया. दोनों की निगाहें टी.वी. स्क्रीन पर जा टिकीं थीं. रुँआसे, डरे-से चुप खड़े वे अब मुझसे चिपकते जा रहे थे. टी.वी. पर एक शिक्षिका छोटी-सी एक लड़की को बाल पकड़कर लात-घूँसों से लगातार पीटे जा रही थी. वे इतने सहमे-डरे हुए थे कि अब रोए कि अब रोए. विचलित कर देने वाले उस दृश्य ने पिछले दिनों में जरा-जरा से बच्चों को बेरहमी से पीटे जाने के कई समाचारों की याद दिला दी थी. उफ, शिक्षक-शिक्षिकाओं की ऐसी क्रूरताएँ कि किसी के हाथ की हड्डी टूटी, किसी के पैर में प्लास्टर चढ़ा, किसी की देह सूजी है तो किसी के शरीर पर यहाँ-वहाँ जख्म ही जख्म! और कुछ नहीं तो दस-बीस रुपए या मोबाइल-साइकिल जैसा कुछ चुरा लेने के नाम पर भीड़ या पुलिस पेड़ पर लटका-बॉधकर या सड़क पर घसीट-घसीट कर इतना पीट रही है कि कोई बेहोश हो गया, किसी का मानसिक सन्तुलन खत्म हो गया या फिर कोई मर ही गया…! याद करते-करते मेरे भीतर तेज-सी एक कंपकंपी छूटी. अपने कन्धे पर सिर टिकाए डरे-सहमे, चिपके बैठे उस बच्चे के चेहरे की ओर देखा तो लगा कि यह अब रोया, अब चीखा. उसकी उस स्थिति पर तरस आया. उफ, इस पर क्या गुजर रही होगी यह सब देखकर? ये भीड़, ये तन्त्र, ये सरकारें, ये सब लोग-गरीबों, लाचारों, कमजोरों या बच्चों पर ही क्यों् दिखाते हैं अपनी ताकत? धनियों, बलियों, गुंडों, अपराधियों के सामने क्यों अपंग-से, चूहे-से हो जाते हैं ये सब अपने आप?
चैनल बदलकर उनका ध्यान हटाने के लिए मैंने उनका दिया पेज पढ़ना शुरू किया. पहला वाक्य पढ़ते ही ध्यान आया कि अभी कुछ दिन पहले ही तो लिखवाया था इस विषय पर. जब भी उनसे क्रिकेट या अन्य किसी खेल पर लिखकर लाने को कहा जाता है, वे जल्दी-जल्दी, खुशी-खुशी कुछ ज्यादा लिख लाते हैं. तब उनके वाक्य ठीक होते हैं और वर्तनी या विराम चिह्नों की भी उतनी गलतियाँ नहीं होतीं. वैसे भी जब से उन्होंने शाम को लिखना शुरू किया है, उनकी भाषा और अभिव्यक्ति में अन्तर आया है. मैंने बोलकर पढ़ना शुरू किया-आपके लिखे का शीर्षक है-‘बच्चों को क्योंा पढ़ना चाहिए? आपने लिखा है-उन्हें पढ़ना चाहिए. क्यों्कि बिना पढ़े तो चोरी भी नहीं होती. पढ़ने से उनका ज्ञान बढ़ता है. वह बड़े आदमी बनेंगे. उन्हें सब पूछेंगे. सिर्फ खेलने से वह कुछ नहीं कर पाएँगे. ज्यादा टी.वी. देखने से उनका ज्ञान नहीं बढ़ेगा. बल्कि उनकी आँखों व बुद्धि पर असर पड़ेगा. अगर उनको किसी के सामने अंग्रेजी बोलनी पड़ी और नहीं बोल पाए तो उनका मज़ाक उड़ेगा. उनको खेलना कम और पढ़ना ज्यादा चाहिए. कुछ बनने के लिए उन्हें पढ़ना पड़ेगा….’ गलतियों के निशानों की ओर इशारा करते हुए मैंने उनसे पूछा था कि बताओ कहाँ क्याे गलती बताई थी उस दिन! जैसे वे वहाँ न होकर कहीं ओर थे. मेरा कहा जैसे उन्होंने सुना है नहीं था. सिर सहलाते-सहलाते मैंने सवाल दोहराया. जैसे नींद से जागे थे वे-‘हाँ पापा, एक तो बलकि और दूसरा हल का निशान उल्टा था. और हाँ, वह और वे का अन्तर ठीक नही किया था…’ और फिर एकदम चुप! साफ था कि उन पर डर हावी था. पीठ सहलाते-सहलाते पूछा-‘क्यों, क्या हुआ बेटे?’ वे सुबकने लगे. देर तक पुचकारा-समझाया. बड़ी देर बाद आवाज़ निकली-‘पापा, वे टीचर लोग, पुलिस वाले या बड़े आदमी ऐसे क्योंव मारते हैं बच्चों को? इन सब पर बच्चों को सताने के अलावा और कोई काम नहीं है क्या? इन सब बड़े लोगों…’ मैंने गौर से उनके चेहरे की ओर देखा-उनकी आँखों में गुस्सा था, नफ़रत थी और थी खुद के बच्चा होने की लाचार-सी एक मजबूरी!
मैं उन्हें समझाता रहा, प्यार करता रहा. थोड़ी देर बाद वे अपनी टीचर्स के बारे में शुरू हो गए-‘हमारी फर्स्ट वाली मेम बहुत अच्छी थीं. डॉटती थीं बस! सैकिंड में दो मैम थीं जो बहुत डाँटती थी जरा-जरा बात पर. बच्चों की स्केल से पिटाई करती थीं. थर्ड में तो लोतिका मैम से पूरी क्लास काँपती थी. इतना मारती थीं वो कि बच्चों क॑ कपड़े गीले हो जाते थे पापा. हाँ, सार्थक, मृत्युंजय, तुषार और सुरेखा के तो कई बार कपड़े गीले हुए हैं पापा. इस बार वाली मैम गलती पर मार भी देती थी-पर प्यार भी कर देती थीं. मारती भी थीं तो केवल थप्पड़ या घूँसा-वो भी गाल पर या कमर पर पापा!….’ अन्दर से उनके भाई ने आवाज़ लगाई थी. वाक्य को वहीं छोड़ घिसटती चाल-चलते वे मेरे पास से चले गए थे. चाह मैं भी रहा था कि वह विषय बदले. उनके जाने के बाद कोशिशों के बावजूद में नहीं समझ पा रहा था कि आखिर इतना छोटा ये बच्चा ऐसे क्रूर, अमानवीय दृश्य देखने के बाद क्या सोचेगा? कैसे चैन की नींद ले पाएगा रात को? आखिर कैसे सहज रह पाएगा अपने टीचर्स या अपने बड़ों के प्रति…?
अगले दिन जब उनका समय शुरू हुआ तो उन पर अनेक नई बातें थीं, अनेक नए सवाल थे. मैं अभी कल की घटना से मुक्त नहीं हो पाया था. उनके कहे के ‘सब बड़े लोगों…को सताने के अलावा’ वाले हिस्से मेरे मस्तिष्क में कील की तरह चुभे जा रहे थे. मैं उनके मन पर के प्रभाव को जानना चाहता था. अपनी तरफ से कह दिया कि आज आपको ‘बच्चे पढ़ाई से क्यों बचते हैं…’ इस पर लिखकर लाना है. कुछ पल खड़े-खड़े उन्होंने कुछ सोचा. फिर पेंसिल से होठों को सहलाते हुए वे डाइनिंग टेबिल पर जा बैठे. थोड़ी देर बाद ही जनाब हाजिर. इतनी जल्दी शायद इसलिए कि विषय उन्हें पसन्द आया था. शीर्षक लिखकर उसके नीचे एक लाइन खींची गई थी फिर अलग-अलग पंक्ति में एक-एक वाक्य लिखा था. मैं उनके लिखे को पढ़ रहा था. वे टी.वी. पर आ रहे समाचारों को भी सुन रहे थे और मेरे कहे-बताए को भी-‘कुछ बच्चों को खेल ज्यादा अच्छा लगता है. वह पढ़ाई से बचते हें. वह सोचते हैं कि पढ़ने से कुछ नहीं होगा. उन्हें लगता है कि पढ़ने से उन्हें खेल नहीं मिलेगा. वह टी.वी. ज्यादा देखते हैं. वह खेल और टी.वी. की वजह से होमवर्क नहीं करते हें. वह पढ़ाई को बोझ समझते हैं. वह कहते हैं कि पढ़ाई हमें बोरिंग लगती है. वह चाहते हैं कि वह कुछ बन जाएँ. पर बिना पढ़ाई के सम्भव नहीं है. उन्हें छुट्टियाँ होना पसन्द है. वह स्कूल जाकर भी सिर्फ बातें करते हैं. वह और वे को लेकर फिर चर्चा हुई. उन्हें अपनी गलतियाँ मालूम थीं और हमेशा की तरह सिर हिला-हिलाकर वादा किया था कि आगे वो इसका ध्यान रखेंगे.
बाद के दो-तीन दिन उन्होंने गणित के सवाल किए. बातों के बीच रिजल्ट आने की तारीख का जिक्र किया. नम्बर अच्छे आने पर साइकिल बैट-बॉल दिलाने की याद दिलाई. बाबा-दादी, मम्मी, बहन-भाई के साथ बैठकर भविष्य में क्रिकेट टीम में अपने चुने जाने की चर्चा की बात भी बताई गई. बातों के बीच बहन-भाई ने जब ज्यादा चिढ़ाया-मज़ाक बनाया तो ठुनकते, पैर पटकते बड़े पापा के पास आ बिराजे-‘पापा ये दीदी-भैया इतनी हँसी क्यों उड़ाते है मेरी? क्या मेरा इंडियन क्रिकेट टीम में सलेक्शन नहीं होगा? ये तब मानेंगे जब हवाई जहाज में मेरे साथ जाया करेंगे. किसी मैच में अम्मा-बाबा को ले जाया करूँगा, किसी में आपको, भैया-भाभी, दीदी, मम्मी-पापा को. ठीक है न पापा?’ पापा को पता है कि उन्हें उनके सोचे-कहे पर सिर्फ मुहर लगानी है. इस पीढ़ी के हौसले और मन की उड़ानों पर चकित बड़े पापा ने उनकी हौसला अफ़जाई की-‘उड़ने के इरादे और सपने परिन्दों के पास होते हैं, जानवरों के पास नहीं. जानवर तो उड़ने की कल्पना भी नहीं कर सकते. वे तो बस जमीन पर चल-फिर, उठ-बैठ सकते हैं या जुगाली करते आराम से सोते रह सकते हैं. परिन्दों के उड़ने के हौसले को उनके पंखों का आकार या हवा का रुख भी कहाँ रोक पाता है.‘ ‘हाँ पापा, ठीक बात है!’ कहकर वे लपक कर अन्दर चले गए और फिर अपने भैया और दीदी से बहस में उलझ गए.
सत्रह मार्च को उनका रिजल्ट कार्ड मिलना था. कई दिन पहले से उनकी बातों से दिन में कई-कई बार रिजल्ट की बात जरूर होती. रिजल्ट की चर्चा करते ये अक्सर उदास, उखड़े-उखड़े लगते. शाम का लिखना-पढ़ना किसी न किसी तरह रोज टाला जा रहा था. उस दिन आए-कागज पैन साथ था-पर आज क्यास लिखना है पूछने की जगह उन्होंने पहले का लिखा मेरे सामने कर दिया, ‘ये देखो पापा! तुषार ने एक्ज़ाम डेज में पार्थ को ये दो मैसेज भेजे थे.’ उनका वह जोश और रोज़ वाली चहक उस समय उनके साथ नहीं थी. चश्मा निकाल कर मुझे थमाया और कागज मेरे सामने कर दिया. रोमन में लिखे उन वाक्यों को मैंने पढ़ा—‘एक्जाम के पावन मौके पर अर्ज किया है – पढ़ना लिखना त्याग दे मित्रा, नकल से रख आस. चक रजाई में सोजा बेटा, रब करेगा पास… .’ पढ़कर मुझे हँसी आई. मेरी हँसी देख उनकी हिम्मत बढ़ी. दूसरे मैसेज पर उँगली रखकर बताया कि यह भी है—‘याहू एक्जाम की सब तैयारी हो गई…’ आगे पाँच-छह पंक्तियों के पहले डॉट-डॉट लगाकर खाली छोड़ दिया गया था. अन्तिम पंक्ति में लिखा था-‘पैन, पेंसिल, स्केल, इरेज़र-सब तैयार है….’ यह जानकर कि मैंने मैसेज पढ़ लिया है, उनका बोलना शुरू हो गया— ‘अब आप बताओ पापा ये भी कोई एक्ज़ाम की तैयार हुई?’ फिर उन्हें कुछ ध्यान आया. दूसरी कॉपी लाए. उसके पेज पलटते रहे—‘एक बात पूछनी थी पापा. पार्थ लिखकर लाया था कहीं से. हमने सबने खूब सोचा. पर मतलब समझ नहीं आया.’ मुझे वह उनकी आज के पढ़ने-लिखने को टालने की चाल नजर आ रही थी. खामोश बैठा इन्तजार करता रहा कि देखें अब क्या- पेश करेंगे जनाब. वे ढ़ूँढ़ने में जुटे थे, मेरी जिज्ञासा बढ़ रही थी. पेज निकल आया तो एकदम गम्भीर हो गए-‘ये देखो पापा! यह कैसे हो सकता हे?’ मैंने पढ़ा. एक शेर था किसी का- ‘वही उम्र मेरी, वही उम्र तेरी. कहीं बढ़ रही है, कहीं घट रही है.’ पढ़कर मैं चौंका. किन-किन चीजों को लेकर बहसें होती हैं इन बच्चों में. जरा-जरा से इन सासूम बच्चों की कैसी-कैसी उलझनें और जिज्ञासाएँ हो सकती हैं. उन्हें उतनी देर मेरा चुप रहना खटका- ‘ये कैसे हो सकता है पापा? वही है तो कहीं बढ़ कैसे रही है और कहीं घट कैसे रही है?’ मुझे कुछ तो कहना था, उन्हें सन्तुष्ट करना था. अनेक उदाहरण दिए, तरह-तरह से समझाया. मुश्किल से बहुत देर याद उनके मुँह से निकला—‘हाँ पापा, ये बात तो है.’ वे चले गए पर मेरे मन में कई तरह के सवाल छोड़ गए. उन सवालों के बारे में सोचते समय मुझे पता नहीं क्यों उन पर बेहद लाड़ आ रहा था.
कल उनका रिजल्ट आना है. देर तक बहस चली कि रिजल्ट लेने कौन जाएगा. बडी होशियारी से उन्होंने तय कर लिया कि रिजल्ट लेने भैया जाएँगे. बहस के समय भी उनका हमेशा वाला जोश गायब था. लगा कि रिजल्ट को लेकर इस बार वे कुछ अधिक ही चिन्तित हैं. कुछ न कुछ ऐसा जरूर उनके अन्दर है जो उन्हें कई दिनों से परेशान कर रहा है. उस तरफ से ध्यान हटवाने के लिए मैंने उन्हें याद दिलाई कि कई दिन से कुछ लिखकर नहीं दिखाया गया है. उस समय उन्हें मुझसे यह उम्मीद नहीं थी. शायद वे आज लिखने से बचना चाह रहे थे. बोले-‘हाँ पापा, आपको एक बात तो बताई नहीं. इस बार जब हमारी छुट्टियाँ हुई तो सुल्ताना मैम ने हमसे एक बहुत अच्छी प्रतिज्ञा लिखवाई?’ अब न उन्हें जरा पहले की बहस का ध्यान था, न मेरे कहे का. रटे भाषण की तरह उनका बोलना शुरू- ‘पापा उन्होंने लिखवाया कि-काल्ह करे सो आज कर, आज करै सो अब. पल में परलय होयगी बहुरि करैगो कब…अर्थात् हमें अपना काम कल पर नहीं टालना चाहिए. मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि अपना काम कल पर नहीं टालूंगा. अपने काम से अपने माता-पिता तथा शिक्षकों को सदैव सन्तुष्ट रखूंगा…! उनके उस रटने-बोलने पर मुझे हँसी भी आ रही थी और तरस भी. कितनी ईमानदारी ओर भावविह्वलता दिख रही है इस बोलने में. हमारे देश के नेता ओर अधिकारी तो प्रतिज्ञा लेकर कभी याद ही नहीं रख पाते कुछ. लिखने का ध्यान दिलाया तो वे झटपट अन्दर गए और कॉपी-पेन लेकर मेरी बगल में आ विराजे-‘पापा, क्या लिखकर दिखाना है आज?’ पूछने के अन्दाज़ में अजीब-सा अनमनापन था. बहुत देर से उनके चलने, बैठने, बोलने तक में विचित्र-सा ठंडापन और अनुत्साह दिख रहा था. रोज़ की तरह गुनगुनाते-से वे आज नहीं बोल पा रहे थे. गुनगुनाने के लिए भी तो मन में गुनगुनापन चाहिए. उनके कन्धे पर हाथ रखकर मैंने उनका मन जानना चाहा-‘क्यों क्याि हुआ है तुम्हें आज? क्या मन नहीं है कुछ लिखने का?’ गर्दन झुकाए चुप रहे आए. जैसे सोच रहे हों कि क्या कहा जाए और कहा भी जाए या नहीं. आवाज़ में प्यार लाते हुए मैंने प्रश्न दोहराए. चेहरे की उदासी और बढ़ गई-‘रिजल्ट की चिन्ता है तुम्हें?’ मुझे ही नहीं सारे घर को पता है कि एक्ज़ाम देने जाते समय वे कभी उदास या चिन्तित नहीं देखे गए. रिजल्ट पहले सालों में भी आया है पर इतना चिन्तित उन्हें कभी नहीं देखा गया. फिर इस बार…? कई तरह से कई प्रश्न किए. उन्हें कुरेदा, उनके मन में चुभी फाँस तक पहुँचना चाहा. बहुत देर वाद खुले-‘रिज़ल्ट की चिन्ता नहीं है पापा. चिन्ता ये हैं कि इस बार फ़िफ़्थ ए न मिले. सेक्शन को लेकर उनकी इतनी चिन्ता मेरी समझ में नहीं आई-‘क्यों?’
‘क्यों क्या पापा-फ़िफ़्थ ए की क्लास टीचर लोलिता मैम हैं….’…’तो?’ –‘तो क्या पापा वो बहुत स्ट्रिक्ट हैं. बच्चे बताते हैं बहुत तेज़ बोलती हैं. किसी ने अगर बीच में पूछ लिया-व्हाट मैम-तो ग़ुस्से में चीख़ने-फटकारने लगती हैं.’ मैंने उनकी चिन्ता को हलका करना चाहा-‘पहले आप रेणुका मैम को भी स्ट्रिक्ट बताते थे….’ ‘हाँ पापा, स्ट्रिक्ट तो वो भी हैं पर अन्तर है-रेणुका मैम बच्चों से कहती हैं कि पहले काम कर लो फिर चाहे कितनी ही बात करना. लोलिता मैम का काम पूरा कर लो तो भी आपस में बात करने पर तुरन्त पीटने लगती हैं बच्चों को. रेणुका मैम किसी को पीटती भी हैं तो हाथ से, पर लोलिता मैम तो स्केल से पिटाई लगाती हैं बच्चों की…कितना अच्छा हो पापा यदि सी सेक्शन मिल जाए. उसकी क्लास टीचर सुल्ताना मैम है. वो ज्यादा शरारत करो तो डाँट देती हैं बस. बच्चों से प्यार से बोलती हें. दो-दो बार समझाती हैं. कोई पूछे तो डॉटती नहीं हैं. और हाँ पापा, बच्चों से कभी-कभी मज़ाक भी करती हैं-खूब हँसाती हैं सबको….’ उनके चेहरे पर आते-जाते भावों को पढ़ता मैं सोच रहा था कि इन निर्मल मनों की ऐेसी छोटी-छोटी चिन्ताओं की ओर हम बड़ों का ध्यान आख़िर क्यों नहीं जाता? हमें नहीं मालूम होता कि घर, बाहर, स्कूल में अपने बड़ों की किन-किन विकृतियों, तनावों, दबावों को किस-किस रूप में झेलते हैं ये बच्चे? इनके प्रति निर्मम होने के क्षणों में बड़े लोग अक्सर अपना बचपन क्यों भूल जाते हैं?
उनकी चिन्ता दूर करने के लिए जो कर-कह सकता था, किया-कहा. मन हुआ कि कैसे ही जनाब के मन में इस समय झाँका जा पाता. अचानक आज के लिए एक विषय दिमाग में आया. हँसी मिली आवाज़ में उनसे कहा-‘आज आपको लिखना है- बचपन की मुश्किलें.’ सुनकर कुछ देर चुप रहे. फिर विषय को लेकर दो–तीन सवाल किए. उठकर चले तो लगा विषय उन्हें पसन्द आया है. आज लौटे भी जल्दी और अन्य दिनों की अपेक्षा लिखकर भी ज्यादा लाए. चश्मा मेरे हाथ में पकड़ाते हुए उन्होंने तीन-चार पेज मेरे सामने कर दिए. इस विषय पर इतना लिख लाने ने मुझे चकित किया. शीर्षक में मुश्किल की वर्तनी गलत थी- ‘बचपन की मुश्किलें’. आगे निबंध की तरह लगातार लिखा गया था-‘बचपन में बच्चों को परेशानियाँ भी होती हैं. सब उनसे कहते हैं कि इस काम के लिए तुम छोटे हो. उन्हें डराते-धमकाते हैं, उन पर रौब जमाते हैं. उन्हें टी.वी. नहीं देखने देते. उन्हें डाँटते हैं. उन्हें खेलने नहीं देते. अगर ग़लत काम किया तो पिटते हैं. उन्हें चिढ़ाते हैं. काम अधूरा होना पर मैम मारती हैं. किसी से कुछ नहीं कह सकते. किसी से रिमोट लेकर टी.वी. नहीं देख सकते. सब हमारी शिकायत करते हैं. मनपसन्द कार्यक्रम नहीं देख पाते. मैच नहीं देख पाते. किसी से बिना पूछे कुछ नहीं कर पाते. फ़ोन पर देर तक बात नहीं कर सकते. ये हैं बचपन की मुश्किलें. दूसरे और तीसरे पेज की चार लाइनों में पहले कही जा चुकी कई बातें फिर लिखीं थी. पर उन हिस्सों के भाव, भाषा, प्रवाह और कहने का अन्दाज़ एकदम भिन्नत था-‘वर्तमान समय में बच्चों के लिए बहुत सी मुश्किलें हें. एक्ज़ाम सर पर हैं, चारों तरफ से हर कोई यही कहता है पढ़ाई सिर्फ़ और सिर्फ़ पढ़ाई, कोई टी.वी. व खेल नहीं. अगर टी.वी. देखो तो कोई रिमोट छीन लेता है. खेलो तो खेलने नहीं देता, सब हम पर रौब जमाते हैं. न मानो तो डराते-धमकाते हैं अन्यथा यह लो पिटाई खा लो. जी हाँ, आजकल बच्चों के साथ जो मासूम हैं, जो अपने मैच और कार्टून के लिए, खेल के लिए इधर से उधर घूमते हैं. सब चार घंटों तक टी.वी. देखते हैं, घूमते हैं. बड़ों की क्या है, कभी भी कुछ भी करते हैं तो क्या हम थोड़ी देर भी अपने मन का काम नहीं कर सकते. हर कोई बड़े होने का फ़ायदा उठाता है. यही छोटे होने की ख़राब वजह है.’ इस पंक्ति को रुककर मैंने कई बार पढ़ा-बड़े होने का फ़ायदा…छोटे होने की खराव वजह. आगे के वाक्य पर पहुँचा तो चौंका- ‘हमें भी हक है अपने मन की बात पूरी करने का. यह तो हम पर एक तरह का अत्याचार है, जिस पर रोक लगानी पड़ेगी. जैसे उदाहरण के तौर पर मेरे दोस्त को ले लीजिए-एक दिन वह खेल रहा था उसके भाई ने उसे डॉट दिया ओर कहा तू मत खेल लेकिन उस पर सार्थक ने कहा-थोड़ी देर और खेल लेने दो, फिर बन्द कर दूँगा पर वे नहीं माने और उसे पीट डाला तो वो रोता हुआ घर गया. अब आप ही बताइए कि अगर वे उसे थोड़ी देर और खेलने देते तो छोटे तो नहीं हो जाते. कभी रास्ते में ग़लती से किसी से टक्कर हो जाए तो डॉट देते हैं. हम अगर खाने के लिए कुछ अलग मांग लेते हैं तो डाँट पड़ती है. अगर कपड़े स्टाइलिश माँगो तो डाँट सुननी पड़ेगी.’ चौथे पेज पर पेंसिल की जगह डॉट पेन से लिखा गया धा-‘मेरे कहने का यह मतलब नहीं कि हमें पूरी छूट दे दें, पर थोड़ी तो छूट हमें दे दें. इससे हमारा पढ़ाई में ध्यान लगेगा ओर खेल में भी. अगर हमसे प्यार से बात की जाए तो भी हमारी समझ में आ जाएगा. पिटाई लगने से हम और जिद्दी और बिगड़ैल हो जाएंगे. मैं उम्मीद करता हूँ कि जैसा सार्थक के साथ हुआ वह और किसी के साथ न हो. क्योंकि बच्चों की भी कुछ माँगे होती हैं जो पूरी न हों, तो उन्हें भी गुस्सा आता है तो बच्चों को इतना न रोकें ओर उनकी माँगे पूरी करें.’ अन्त में अपना, अपनी क्लास और स्कूल का पूरा नाम भी लिखा था.
पत्र पढ़ने के बीच इस पीढ़ी के ज्ञान, साहस, समझ और सजगता पर मैं कई बार रीझा. पहली बार महसूस हुआ कि तमाम तरह की सुविधाओं, सम्पन्नताओं, शिक्षा, विकास और आधुनिकता के नारों-दावों के बाबजूद घरों के अन्दर बड़ा होने की ओर बढ़ रहा बचपन बहुत तरह के तनावों-दबावों-भयों से आक्रान्त है. माना कि उसकी चिन्ताएँ अलग हैं. बड़ों को वे बित्ते भर की लग सकती हैं. पर उन्हें जानने-समझने से बचना, उनकी अनदेखी करना बड़ों का छोटापन नहीं तो और क्या है! मेरे अन्दर से बहुत कोमल, स्नेहिल-सा कुछ उमड़कर बाहर आना चाह रहा था. उन्हें लिखने के लिए शाबाशी देते हुए मैंने अपनी बाँहें फैला दीं. शर्माते-से चुप-चुप वे मेरे सीने से आ चिपके और उन्होंने अपना माथा मेरे कन्धे पर टिका दिया. उस बच्चे की तरह जिसे अपने भरोसे के कन्धे पर टिके-टिके गहरी नींद लेनी हो, ख़ूबसूरत सपने देखने हों. उन पलों में अपना बड़ा होना मुझे चुभ-सा रहा था. उस क्षण लगा कि मेरी बाहों ने उन्हें नहीं, किसी चाँद को अपने घेरे में बाँध-लपेट रखा है. एक ऐसे चाँद को-जो रोज़ कुछ समय के लिए मेरे वज़ूद की ज़मीं पर उतरता है और अपनी चाँदनी-सी बातों से मेरे दिल-दिमाग को भी चाँदनी-चाँदनी कर जाता है.
सम्बंधित
अपनी राय हमें इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.
अपना मुल्क
-
हालात की कोख से जन्मी समझ से ही मज़बूत होगा अवामः कैफ़ी आज़मी
-
जो बीत गया है वो गुज़र क्यों नहीं जाता
-
सहारनपुर शराब कांडः कुछ गिनतियां, कुछ चेहरे
-
अलीगढ़ः जाने किसकी लगी नज़र
-
वास्तु जौनपुरी के बहाने शर्की इमारतों की याद
-
हुक़्क़ाः शाही ईजाद मगर मिज़ाज फ़क़ीराना
-
बारह बरस बाद बेगुनाह मगर जो खोया उसकी भरपाई कहां
-
जो ‘उठो लाल अब आंखें खोलो’... तक पढ़े हैं, जो क़यामत का भी संपूर्णता में स्वागत करते हैं