कहानी | डरों के बीच दिखती रोशनी

भीषण भयानक उस महामारी का जानलेवा वह लम्बा दौर. यहां-वहां से मृतकों बीमारों के रोज़-रोज़ थोक में मिलते समाचार, हिला देने वाली तस्वीरें. डर-डर और डर. तमाम तरह की आशंकाएं चिंताएं. डरों में दबा अवसन्न-सा हुआ मन और हिमशिला हो चुका पूरा जिस्म. जमी, निष्क्रिय हो चली देह—जैसे देह न होकर एक ऐसा हिमखंड हो, जहां पहुंचने से पहले ही धैर्य व आश्वासन के हर ताप को धुआं-धुआं होकर उड़ जाना हो. किसी के छींकने-खांसने की आवाज़ या बुख़ार आने की ख़बर सुनकर धड़कनें बढ़ने लगतीं, अनगिन आशंकाएं आ घेरतीं. अजीब-अजीब चिंताएं लाचारगी और छटपटाहट. ऊपर से शरीर से जुड़ी दिन-प्रतिदिन की नई-नई दिक्क़वतें-परेशानियां. बहुत कुछ जैसे-तैसे झेला-टाला, लेकिन पेट और यूरीन की बढ़ती गई तकलीफ़ ने कई बार खाना-पीना-सोना, सब दुश्वार कर दिया. आने-दिखाने की सोचते ही डरों से ठुंसे-भरे दिमाग़ में आने के लिए कई और डर ज़ोर-आजमाइश शुरू कर देते—कहीं यह तो नहीं हो रहा, वह तो नहीं हो रहा. कहीं आना-जाना या दिखाना भी तो इतना आसान नहीं. जाओ भी तो कहीं तुरंत ऑपरेशन के लिए न कह दे डॉक्टर. डॉक्टरों, अस्पतालों, जांचों के बारे में सोच-सोचकर अधम डर. महामारी के दौर में तरह तरह की लूट, ठगी, बेईमानी, धोखाधड़ी की ख़बरों का ध्यान आने के बाद के डर. फिर भी मित्रों-परिचितों से सही डॉक्टर और अस्पताल का पता-ठिकाना जानने के बहाने सलाह लेना शुरू किया. अकेले में पड़े-पड़े इस काम के लिए ख़ुद की स्मृति व बुद्धि को ख़ूब दौड़ाया-भगाया.

उसी बीच अचानक एक दिल के डॉ. भाटिया को फ़ोन मिलाया. दिक़्क़त सुनकर तुरंत बोले- ‘डॉ. सेन को क्यों नहीं दिखा लेते? डॉ.सेन का नाम सुनते ही मेरी ख़ुशी, हैरानगी, मुंहज़ोर हो उठी – “क्या? वे अभी हैं? मरीज़ देखते है??

‘हां, हां, वे अभी भी दो घंटे के लिए सचदेवा हॉस्पीटल में आते हैं और मरीज़ देखते हैं. जी, पहले की तरह ही बिना कोई फ़ीस लिए.’

देर तक हम दोनों डॉ. सेन की ही बातें करते रहे. डॉ. भाटिया उनके छात्र रहने के अपने काल को याद करते हुए उनके अध्यापन, समर्पण, सेवाभाव का गुणगान करते रहे. बीच-बीच में डॉ. सेन के चिकित्सा से जुड़े पंद्रह-बीस बरस पहले के अपने कुछ अनुभव उन्हें बताता रहा. लगा कि जैसे मन को बहुत तसल्ली हुई है, उम्मीद भी बंधी है.

डॉ. भाटिया से हुई बातचीत के बाद भी आज-कल करते-करते कई दिन निकल गए. अकेले घर से निकल पाने की हिम्मत ही नहीं हो रही थी. महामारी और लॉकडाउन के कुछ बाद के दिन थे. लोगों ने हादसों व मन के जख़्मों से बेजान हो चली-सी अपनी देह की तमाम बिलबिलाहटों-छटपटाहटों को ज्यों-त्यों धकिया-बिसराकर ज़िंदगी को ढर्रे पर ला सकने की कोशिशें शुरू कर दी थीं. उसी दौर में एक दिन जैसे-तैसे हिम्मत जुटाकर भाई के साथ मैं ग्यारह बजे से पहले ही डॉ. सेन से मिलने जा पहुँचा. वही प्राइवेट अस्पताल. उनके बैठने का वही कमरा. कमरे के दरवाज़े के ठीक सामने वही रिसेप्शन और उस पर पहले की ही तरह मरीज़ों को सुनती, पर्चा बनाती एक लड़की. इस बार अंतर यह दिखा कि पर्चा हाथ से नहीं, कम्प्यूटर की मदद से बनाया गया. पहले की तरह दस रुपये में. उत्तर भी वही पहले की तरह – ‘आने ही वाले होंगे. कभी-कभी थोड़ी देर हो जाती है. बारह तक नहीं आए तो फिर पता नहीं.’

इंतज़ार करना ही था. कुछ देर ऊपर की मंज़िल पर दड़बों की तरह बने डॉक्टरों के चेंबर्स को देखा. वैसे ही कुछ कमरों में भर्ती मरीज़ों के लिए बिछे तीन-तीन फ़ोल्डिंग पलंग. बेहद छोटी-तंग जगह वाली वह दूसरी मंज़िल के ऊपर के हिस्से में विस्तार निर्माण के लिए की जा रही तोड़-फोड़ की तेज़ आवाज़ों को सुनते हुए मरीज़ों की आवाजाही से होती घिस-पिच को झेला. बाहर धूप दिखी तो ठंड का ध्यान आया. नीचे आकर घूम-फिरकर इधर-उधर मकानों के दुकानों, शो-रूम में बदल जाने को देखा. तभी गाड़ी की ड्राइविंग सीट से उतरकर बाहर आते वे दिखे – अस्सी पार की अच्छी-भली उम्र. मास्क लगाए चेहरा. सीधी तनी पीठ. एहतियात और आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ते क़दम. हाथ में छोटा-सा एक बैग. घुटनों तक लम्बा खुला-ढीला ऊनी कुर्ता. उसके ऊपर काली जैकेट. सिर पर फ़र वाली सफ़ेद टोपी. चलते-चलते एक निगाह हम पर डाली. पलांश को रुकी-पहचानती-सी लगी. अगले ही क्षण उनका सारा ध्यान और ताकत स्लोप के साथ बनी उन तीन सीढ़ियाँ पर चढ़ने की ओर लग गया.

मरीज़ों और उनके साथ आए लोगों को भीड़ में कम ही लोग मास्क लगाए दिखे. हम दोनों घर से ही मास्क लगा कर चले थे. बच्चों और बुज़ुर्गों को ज़्यादा ख़तरा होने वाला भय हमारे मन से निकला नहीं था अभी. पहले की तरह ही दरवाज़ा एक महिला कर्मचारी ने खोला. फ़र्क यह कि यह मास्क लगाए थी. डॉक्टर साहब के अंदर जाते ही और पहले की तरह ही डॉक्टर साहब के पूजा करने की सूचना के साथ थोड़ा इंतज़ार कर लेने को कहकर वहां से ग़ायब. पूजा के नाम पर पहली बार आने पर डॉक्टर साहब के हाथ में थामी धुआं छोडती उस धूपबत्ती को इधर-उधर कोनों में घुमाते-घूमने वाला दृश्य याद हो आया. पहले की तरह हंसी आई, अजीब भी लगा. दुकानदारों-व्यापारियों की तरह ऐसे पेशों से जुड़े लोगों द्वारा यह सब किया जाना रुचता तो नहीं ही है. और फिर जब इन्हें यहां से कुछ पाना-कमाना नहीं है तो चिरौरी करती यह याचकता क्योंद? कोई और लालच या फिर भय …?

कुछ देर बाद वह कर्मचारी पहले की तरह ही, ट्रे में कॉफ़ी का मग लिए वापस आई. पर्चा अंदर पहुंचाने के लिए कहा तो पहले जैसा ही उत्तर- ‘नहीं, वे अपने आप बुलाएंगे कुछ देर में कॉफ़ी पी लेने के बाद.’ दरवाज़ा खुला तो उसने हमें अंदर चले जाने का इशारा किया. हम लोग अंदर गए. प्रणाम किया. मेरे कुर्सी पर बैठते-बैठते भाई ने उनके पैर छुए और पिछले इलाज के पर्चों व अल्ट्रासाउंड वाली फ़ाइल उनके सामने रख दी. उनके फ़ाइल को उलटने-पलटने के बीच में पहले दी दवाई से हुए लाभ और पिछले दिनों फिर से बढ़ती गई अपनी दिक़्क़त के बारे में, बोलता रहा. उनकी नज़र फ़ाइल से नहीं हटी. लगा कि जैसे उन्होंने सुना ही नहीं. फ़ाइल लौटा देने के बाद प्रश्न करती-सी निगाह से मेरी और देखा. बताना शुरू किया, लेकिन सुने जाने जैसा कोई संकेत नहीं. उन्होंने कुछ बोला. पूरी काशिश और ध्यान के बाद भी उनका बोला ढंग से मैं समझ नहीं पाया. पास बैठे भाई को ठंड के इन दिनों में नई-नई शुरू हुई कान की परेशानी मालूम थी इसलिए उनका कहा थोड़ी ऊंची आवाज़ में मुझ तक पहुंचा दिया.

‘हां, अब बताइए क्या दिक़्क़त है?’

मैंने पिछले ढाई साल में प्रोस्टेट के बढ़ने और झेली गई पीड़ा दर्द मिली आवाज़ में बताना शुरू किया. सुने जाने जैसा फिर भी कोई संकेत नहीं. उनका सिर थोड़ा आगे झुका. अंगूठे से दाहिने कान को सहलाते-खुजाते मेरी आवाज़ की दिशा में किया. मेरी आवाज़ को पकड़-सुन लेने के लिए कुछ और कोशिश करते से दिखे. जान लिया कि कान की परशानी वे भी झेल रहे हैं. मेरी आवाज़ को अब थोड़ा तेज़ और उसकी गति को मंद हो ही जाना था. देर तक धैर्य से उन्होंने सब सुना. फ़ाइल दोबारा लेकर फिर से उलटी-पलटी गई. नए पर्चे पर पेन चला. ब्यौरा लिखते-लिखते पहले की तरह ही कहा गया, ‘अल्ट्रासाउंड करा लें. यह गोली है. रात को सोने से पहले लेनी है. सात दिन बाद आकर हाल बताएं.’

आदर और कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए उनकी तारीफ़ में ज्यों ही कहना शुरू किया लगा कि मुझमें जामवंत की आत्मा उतर आई है. अनजाने ही जैसे मैं अपने सामने बैठे संकटमोचक से अधिकाधिक करा-पा लेने के लालच में इन शब्दों के साथ इस भाव और इतने आवेग में आता जा रहा हूं. कुछ हुआ कि स्नेहिल आश्वस्त करती-सी एक निगाह, आहिस्ता-आहिस्ता तेज़ बोली गई आवाज़ मुझ तक आई -‘देखिए, दवा लम्बी चलेगी. लेकिन, ऑपरेशन की ज़रूरत नहीं पड़ेगी. मेरी गर्दन उनके सामने कुछ और झुकी. सुनकर लगा कि जैसे पिछले बरसों में बढ़ती गई दुश्चिताओं, आशंकाओं, भयों के ढेर-ढेर कूड़े-कचरे का बोझ एकदम से ग़ायब हो गया है. मालूम था कि पहले की तरह किसी डाक्टर की लिखी दवाई अब हर जगह नहीं मिलती. केवल उसी डाक्टर के क्लीनिक या उसके पास के मेडिकल स्टोर पर मिलती है. हॉस्पीटल के काउंटर से दवाई ली. रैपर देखा. नाम पढ़ा. वही छोटी-सी एक गोली, जो बरसों पहले पहली बार में लिखी थी. ख़ुश-ख़ुश लौट रहे हम पूरे रास्ते डॉ. सेन की प्रशंसा करने के साथ-साथ, आज की पाढ़ी के चिकित्सकों के भाव-व्यवहार में बदलाव, बढ़ती जा रही धनलिप्सा के चलते मरीज़ को बेवजह डराने-भगाने-बहकाने से जुड़ी कितनी ही बातें करते आए थे.

पहले की तरह ही पहले एक सप्ताह में, फिर पन्द्रह दिन में और थोड़ा बाद में एक महीने के बाद आने के लिए कह दिया गया. एक-दो बार के बाद पहले की तरह ही ‘जब कोई परेशानी हो तो आएं’ कहकर आश्वस्त करना चाहा था उन्होंने. इस बीच मेरे अंदर कई बार आज का एकदम आतुर उतावला, तुरत-फुरत ठीक होने क॑ लिए महंगी एवं ज्यादा दवाइयों और जांचों पर भरोसा करने वाले मरीज़ ने करवटें बदलीं, मुंह चमकाने को कोशिश की है. इसीलिए एक बार दबी आवाज़ में कम या धीमा फ़ायदा होने का ज़िक्र करते-करते आज की कोई नई अच्छी दवा या इंजेक्शन लिखने की प्रार्थना की. झट से हर बार की तरह एक ही बात—’नहीं, कोई दूसरी दवा नहीं चलनी. इसी से फ़ायदा होगा.’

इस बार जरूरी लगते रहने पर भी डॉ. सेन के पास तक जा पाना तक़रीबन चार महीने तक टलता रहा. कई दिन पहले से मन बनाने, इतनी दूर आने-जाने के लिए साथ और पहुंचने की व्यवस्था करने की मेहनत-मशक्क त के बाद वहा पहुंचने पर ‘आज न आने’ की सूचना पाकर पहले दो-तीन बार की खिन्ननता, निराशा व थकान जाने से पहले आकर अक्सर डराने लगती. पर्चे पर लिखे अस्पताल के नम्बर पर जब भी फ़ोन मिलाया तो या तो उठा ही नहीं या फिर कृपया नम्बर की जांच कर लें या आउट ऑफ़ रेंज जैसा कोई उत्तर. जैसे-तैसे उस दिन वहां पहुंचे. रिसेप्शन तक जाने वाले रास्ते के बाहर सड़क पर रेत-बदरपुर की ढेरियां और ईंटों के छोटे-छोटे चट्टे. अंदर से लगातार आ रही छेनी-हथौड़ी, बसुली चलाए जाने की आवाज़ें और बाहर तक उड़-उड़ कर आ रही धूल-मिट्टी. रिसेप्शन वाली लड़की आज वहां से कुछ दुर दुपट्टे से नाक, मुंह, सिर ढंके मेज़ पर कम्प्यूटर रखे एक कुर्सी पर बैठी थी. डॉक्टर साहब वाले कमरे का दरवाज़ा बंद था और आवाज़ें बता रही थीं कि अंदर हथौडा ही नहीं, घन भी बज रहा है. मान लिया डॉक्टर साहब से मिलना आज भी नहीं हो पायेगा. आगे मिल सकने की संभावना जानने के सवाल के उत्तर में जो कहा-बताया गया, सुनकर कष्ट हुआ—’ नहीं, तीन महीने हो गए. पहले कुछ चोट लग गई थी, फिर यह तोड़-फोड़ शुरू हो गई. जी, उनके इस कमरे वाली जगह पर लिफ़्ट लगनी है. इस पास वाले कमरे में उनसे बैठने को कहा तो उन्हें पसंद नहीं आया. बहुत अंदर है और छोटा है. हम कुछ नहीं बता सकते. नहीं, उनका कोई फ़ोन नंबर अलग से हम पर नहीं है. बड़े डाक्टर साहब और मैडम पर है. उन्हीं से पता लगता है, हमें उनके आने, न आने के बारे में. बता दें तो देख लें आप …!

पस्तहिम्मत और बुझे मन के साथ मरीज़ों की उस भीड को किसी तरह पारकर स्टाफ़ नर्स के कई बार के इनकार के बाद बमुश्किल बड़े डाक्टर साहब तक पहुंच पाना नसीब हो पाया. देखने के साथ ही लगा कि जैसे बहुत बड़ी गाड़ी की ड्राइविंग सीट पर कोई बहुत बौने-ठिगने कद व दुबले-पतले शरीर वाला व्यक्ति अपने अंदर की समूची ऊब, अस्वस्थता और थकान को छिपाए- दबाए बैठा है. गले में लटका स्टेथस्कोप, मेज़ पर झुकी गर्दन, आंखों पर काले फ्रेम में लगे मोटे लेंस वाला चश्मा. मेज़ पर पड़ती टेबिल लैंप की रोशनी में सामने रखे पर्चे पर चिपकी गड़ी-सी नज़र. मरीज़ के उठने और मेरी दो बार की नमस्ते के बाद उनकी उड्ती-सी वह निगाह मुझ तक आई. भावशून्य चेहरा, पथरा चले से होंठ, माथे की सिलवटों के साथ मेरा मंतव्य जानने की वह शब्द शून्य जिज्ञासा. अधिकाधिक विनम्र होकर मैंने अपने और डॉक्टर सेन की बाबत कुछ कहना शुरू ही किया था कि उनके ज़रा से उस चेहरे पर आती गई झुंझलाहट और लेंस के पीछे से देख रही उनकी कम खुली, छोटी-सी आंखों की मिचमिचाहट के संकेत ने मुझे बरजना चाहा, ‘जी, जी, प्लीज़! मरीज़ इंतज़ार कर रहे हैं बाहर. आप पर्पज़ बताइए अपना.’ यह सब देख-सुनकर मैंने डॉक्टर सेन का फ़ोन नम्बर पा लेने की प्रार्थना के साथ जो, जितना जैसे कहा, उतने भर में ही मैं पसीने-पसीने होने लगा. हांफना भी जैसे शुरू हुआ ही था. मेरी ओर से हटी उनकी निगाह दरवाज़े की ओर गई. बाएं हाथ के अंगूठे ने मेज़ में लगे घंटी के स्विच को दबाया और सीधे हाथ की चारों अंगुलियों ने दरवाज़े पर खड़े मरीज़ को अंदर आने का इशारा किया. मेरे चल देने से पहले, मरीज़ के कुर्सी पर बैठने तक के समय में उनके होठों से बमुश्किल बाहर निकल पा रहे दया कृपा के चाँदी जैसे वर्कों में लिपटे कुछ शब्द थोथे चनों की तरह बजते हुए मेरे कानों तक आए, ‘नहीं, उन्होंने मना किया हुआ है. और हां, वैसे भी वो फ़ोन उठाते नहीं है. जब किसी को करना हो तो मिला देते हैं बस. फ़ोन की आवाज़ से प्रॉब्लम होती है उन्हें. ठीक से सुन नहीं पाते.’

बाहर तक आते-आते ख़ुद के एक सवाल ने जैसे मन पर अंदर जमी धूल-मिट्टी की तमाम परतों को पल भर में उड़ा-भगाकर होंठों पर मुस्कुराहट ला दी -‘क्या ऐसे इन पेशों में भी अन्य बहुत से व्यवसायों की तरह धन और नाम कमाने के लिए, यहां-वहां से डिग्री जुटाकर बहुमंज़िला इमारतें, क्लीनिक, अस्पताल या शिक्षा संस्थान खोलते जाने के लिए बाज़ारू हो चले इस दौर में बुत और बौना होते जाना इतना ज़रूरी है.

डॉक्टर सेन के न मिल पाने वाले दिन के बाद दर्द और डर ने फिर से उग्र, हमलावर होना शुरू कर दिया. रोज़ नई सलाहें, डाक्टरों के नए-नए नाम. लगा कि जैसे मैं फिर में तनाव और यातना के शुरुआती दौर वाले बीहड़-कंटीले जंगल में आ फंसा हूँ. कहीं और जाने से पहले जैसे भी हो डॉक्टर सेन से मिल आने की ज़िद्दी-सी एक धुन भी चैन में नहीं रहने दे रही थी. सोने से पहले बंद आंखों में बीसियों बरस पहले की स्मृति की धुंधली-सी एक तस्वीर उभरती-बनती-शहर की पहली, तब की सबसे बड़ी शानदार कॉलोनी अलकापुरी. दूसरे मोड़ वाला चौराहा. उसके बाईं ओर वह कोठी जिसके बाहर के हिस्से में कॉलेज का एक साथी किराएदार था और बाक़ी हिस्से में डॉक्टर सेन का आवास था. सोने से पहले मन-मन तय कर लेता कि कल जाना ही है, लेकिन कभी कुछ, कभी-कुछ. उस दिन भी उस तेज़ धूप और गर्मी में निकलते-निकलते ग्यारह बज गए थे. कई बार नाम बदल चुकी शहर की मुख्य सड़क के दोनों ओर डाक्टरों, अस्पतालों, पैथोलॉजी लैब्स, स्कूल, कोचिंग सेंटर्स, स्वीट सेंटर्स एवं ज्वेलर्स के विशाल बोर्ड और शो-रूम देख-देखकर हम दोनों ही भाई अपनी हैरानगी और नाराज़गी रास्ते भर एक-दूसरे को बताते-जताते रहे थे. कितना समय बीत गया हमें इधर आए. अलकापुरी में तो जैसे सब कुछ बदल गया है. आए बदलाव ने यहां के रास्तों और उन दो गलियों की पहचान को भी बेपहचान कर दिया है. रास्तों के दोनों ओर शानदार उन पुराने घरों-कोठियों की जगह बहुमंज़िला मकान, फ्लैट्स, दुकानें. चौराहे से पहले लगा वह भीषण जाम. चौराहे तक पहुंचने में ही हालत ख़स्ता हो गई. समझ नहीं आ रहा था कि यहां पुराना वह सब कहां, कितना बचा है. जिधर देखो उधर ज़रा-ज़रा जगहों में बनाए गए फ्लैट्स, बाहर खड़े सुरक्षा गार्ड. इधर-उधर डॉक्टर सेन के बारे में पूछा, कोई सुराग नहीं लगा. उस समय के यहां रहने वाले एक साथी का एकाएक ध्यान आया. मुश्किल से उनका नम्बर खोजा, फ़ोन मिलाया. बहुत खोदने-कुरेदने पर मालूम हुआ कि जहां हम डाक्टर साहब को खोज रहे हैं, वे तब यहां किराए पर रहते थे. अब इसी कालोनो में, वहां उस शो-रूम वाले मोड़ पर अंदर बंद गली वाले रास्ते पर आख़िर में बने अपने मकान में रहते हैं.

ज़रा पहले की थकान व निराशा भूलकर मन यूरेका, यूरेका चिल्ला उठने को मचलने लगा. बड़ी-सी वह कोठी. बाहर लगा लोहे का एक विशाल मजबूत गेट. बाईं ओर लगी डॉक्टर सेन की नेम प्लेट. उसके ऊपर लगे दो स्विच. दोनों को हम दोनों ने थोड़ा रुक-रुक कर बजाया. कोई उत्तर नहीं. एक-एक को देर तक बजाया, फिर भी कुछ नहीं. झुलसाती धूप में पसीने से तर-बतर हम दोनों ने उस गेट को पीट-खटखटाकर ज़ोर-ज़ोर की आवाज़ें कीं, पर सब व्यर्थ. तभी ड्राइवर की निगाह बाहर से लगाए गए उस ताले पर पड़ी. सोचा, आजकल ऐसी जगहों पर बहुत बार बहुत से कारणों से लोग अंदर होने पर भी ताला डाले रखते हैं. मन नहीं माना देर तक आवाज़ें दीं, गेट खटखटाया. लौटने से पहले कुछ जान लेने की उम्मीद में सामने की उस सुनसान-सी कोठी का गेट खटखटाया. देर बाद लुंगी-बनियान में बड़ी-बड़ी मूंछों वाले एक सज्जन आए. पुलिसिया अंदाज में पूछा – ‘क्यों? क्या है?’ पूछने पर झुंझलाते हुए कहा, ‘ताला लगा है तो कहीं गए ही होंगे. नहीं, हमें नहीं पता’ कहकर तुरंत उलटे पांव लौट भी गए. मन को समझाया, आज के इस दौर में दूसरे की ख़बर रखने की भला फुर्सत ही किसे है, ऐसी जगहों पर. हार-थककर झींकते-खिसियाते से लौट आने के अलावा कोई चारा ही नहीं बचा था. लेकिन, हां डॉक्टर सेन के आवास की खोज ने उनसे मिल पाने की उम्मीद और विश्वास को ज़रूर मज़बूत कर दिया था.

और फिर लम्बे अंतराल के बाद उन्हीं गर्मियों का बेहद उमस भरा वो एक दिन. लगभग वही समय. आज बाहर वह ताला नहीं था. घंटी बजाई. कोई उत्तर नहीं. दोबारा भी उतर नहीं. गेट बजाया. कोई आवाज़ या हलचल नहीं. धकियाने की एक कोशिश में गेट खुल गया. सहमते-हिचकते अंदर बढ़े. बड़े से पार्क के दाईं ओर दरवाज़े के पास एक स्विच दिखा, दबाया. महिला स्वर सुनाई दिया – “खुला है.’ अंदर ड्राइंग रूम में थोड़ी दूर कुर्सी पर बैठी मोबाइल देख रही उन महिला को हम दोनों ने प्रणाम किया. डाक्टर साहब से मिलन की इच्छा जताई. बेहद बेरुख़ी से कहा गया – ‘नहा रहे हैं.’ थोड़ा और आग्रह किया तो – “नहीं, नहीं. अभी पूजा करेंगे. देर लगेगी. आप बाद में आइए.’ लगा कि जैसे मंज़िल पर आकर पैर फिसल रहा है. नहीं मालूम कैसे, लेकिन तभी चमत्कार की तरह घटता गया था वह सब.

बिना बांहों की खादी की बनियान और पटे का अंडरवियर पहने डाक्टर सेन संभलकर चलते से कमरे में आते दिखे. शायद उन्हें हमारे संवाद की भनक लग गई थी. भाई ने आगे बढ़कर पहले डाक्टर साहब और फिर उनकी पत्नी के पैर छू लिए. उनके द्वारा बैठने का इशारा किए जाने के साथ ही अंदर का सब कुछ एकदम से बदल गया. मुझे सुना, पर्चे देखे और फिर अपने पहले वाले वाक्य के बाद इतना जोड़ दिया – ‘नहीं, दवा यही चलनी है और कहीं और भी नहीं जाना है.’

चलने से पहले अस्पताल न जाने के बारे में जानना चाहा. पत्नी की ओर देखा और अबोले बैठे रहे. जैसे उन्हें मालूम था कि उत्तर को उधर से आना था और सचमुच आया भी -‘हम तो कब से मना कर रहे थे. हमेशा एक ही बात – समय आराम से बीत जाता है दोपहर तक का, आने-जाने और वहां बैठने में. फिर इतनी मोटी रक़म पेंशन की आती है, तो कुछ तो फ़र्ज बनता है हमारा. उनकी सोचो, जिनकी इस उम्र में कोई आमदनी नहीं है.’

लेकिन वहां तो अब तोड़-फोड़ …?’

डॉक्टर सेन की निगाह अब भी पत्नी के चेहरे पर टिकी थी. पत्नी की आवाज़ सुनने के बाद उन्होंने हमारी ओर ऐसे देखा जैसे कह रहे हों कि अभी आप उन्हें सुनिए – ‘वे दोनों भाई इनके स्टूडेंट रहे हैं. संतान की तरह मानते रहे हैं हम लोग. रिटायर होने के बाद से वहीं बैठते रहे. पर अब आप तो जानते ही हैं भैया कि इनके मरीज़ों को मुफ़्त देखने से अस्पताल को तो कुछ मिलता नहीं है. उल्टा फ़ालतू ख़र्च और करने पड़ते हैं. जगह तो पहले से ही कम है, अब उन्हें वहां बहू-बेटे के बैठने का इंतज़ाम करना है. और हां, बता रहे थे कि लिफ़्ट भी लगेगी. वैसे, जो होता है अच्छे को ही होता है – इनके लौटने तक चिंता ही लगी रहती थी.’

पिछली बार के आने की चर्चा शुरू की ही थी तब भी डॉ. सेन शांत बैठे हमारी ओर देखते रहे. अधिक से अधिक कह देने को आतुरी लिए उनकी पत्नी की आवाज़ फिर सुनाई दी- ‘आपको पता नहीं लगा होगा, फ्रेक्चर हो गया था इनके पैर में. घर में ही फिसल कर मुड़ गया था पैर. हां, घर पर ही इनके एक स्टुडेंट को बुलाकर प्लास्टर कराया जैसे-तैसे. मुझे देख रहे हैं भैया, मेरी ख़ुद की हालत ऐसी कि ढंग से न चल पाऊं, न बैठ-उठ पाऊं. फिसलने के डर से ये वाली मैट डलवा गई थी बेटी हर जगह. फिर भी फिसल ही जाता है हममें से कोई न कोई. वो तो अच्छा है कि भगवान बचा लेता है हर बार. लेकिन, इस बार यह हो गया. पहले बड़ी बेटी आई थी सुनकर, नहीं मानी साथ ले गई. डेढ़ महीने वहां रहे, फिर छोटी ले गई अपने साथ. चलो अब मेरे साथ रह लो कुछ दिन. लेकिन, बेटियों के यहां भी आख़िर कितने दिन रहें इस उम्र में! लौटकर आना तो यहीं था.’

बेटियों के ज़िक्र ने दोनों को ही भावुक कर दिया. एकदम भावविह्वल, गद्गद्‌. गर्वित होता-सा डॉ. सेन का पहला वाक्य सुनाई दिया- ‘हां, बहुत मना किया, मानी ही नहीं.’ पत्नी की ओर से स्नेह और अपनत्व की कुछ फुहारों ने हम तक आकर हमें भिगोना चाहा. ज्यादा से ज्यादा कह-बता देने की उनकी वह चाहत और उम्ंग. जल्दी-जल्दी आते रहने का आग्रह. सप्ताह में एक-दो बार इस घर या हमारे घर में किसी चर्चा अथवा सत्संग की शुरुआत करने की अनुमति भी, आग्रह भी, कैसे बताएं, आपका आज का आना कितना अच्छा लग रहा है. आप आ जाया करें. हम दोनों ने आज बहुत दिनों बाद ऐसे एक साथ बैठकर किसी से बात की है. इतनी देर ज़रा-ज़रा बात पर झल्लाना झुंझलाना. न खाए चैन, न अनखाए? ख़ुद डॉक्टर हैं फिर भी ख़ुद को कुछ न कुछ लगा रहता है और मुझे भी. कितना सोएं, आराम करें. दिन में सो लें तो रात में नींद न आए. नींद न आए तो बुरे-बुरे ख्याल, हज़ार डर. सुबह होने का इंतज़ार करते, करवट बदलते हम दोनों. और फिर वज़नी-सा एक मौन, लम्बा-सा एक सन्‍नाटा.

शायद लगातार इतनी देर तक बोलते जाने ने थका दिया था उन्हें या फिर, डर के ज़िक्र ने कुछ डरों का ध्यान दिलाकर चुप कर दिया था उन्हें.

मैंने चलने से पहले घर पर फिर आ सकने की अनुमति चाही. उत्तर में एक ही वाक्य दोहराया गया – ‘एनी डे, ऐट एनी टाइम.’ चल देना चाहा तो बैठे-बैठे हाथ के इशारे से बैठे रहने के लिए कहा गया. पतली की स्नेह भरी आवाज़ सुनाई दी- ‘चाय पीएं तो बनाकर लाऊं?’ शायद कुछ देर और हमें वहां बिठाए रखने के लिए. हां कहलवाने जैसा न तो आग्रह ही था और न कह सकने के लिए अनुकूल स्थिति ही. विषय बदलने और डॉ. साहब के शांत बैठे रहने के उस क्रम से मुक्ति पाने के इरादे से मैंने यूं ही कह दिया- ‘मोबाइल, टी.वी., अख़बार के सहारे भी तो काफी कुछ समय …?’ वाक्य पूरा होने से पहले ही एक लम्बी हूं के साथ एक आवाज़दार हंसी सुनाई दी. जैसे दिए गए सुझाव के बेतुके और खोखलेपन पर हंसी गई हो. हंसी के मंतव्य पर मुस्कान के साथ-साथ चढ़ाते हुए कहा गया- ‘हूं टी.वी.? क्या देखें? उल्टी-सीधी बहसें-बकवासें? या कि यहां वहां की हत्याएं, आगजनी, हादसे या फिर हिंसा, युद्धों, दंगों से जुड़े भयानक दृश्य और धर्म के नाम पर तमाम तरह की दुकानें, ठगी, तमाशे-पाखंड. देखें तो चैन खोओ, तनाव लो, ब्लड प्रेशर बढ़ाओ अपना. अख़बार ऐसे छपते हैं कि बुजुर्गों का पढ़ पाना मुश्किल. देखने में दिक़्क़त, पढ़ने में दिक़्क़त. ज़रा देर में थकान, ज़रा देर में झोंके. टी.वी. कब से बंद पड़ा है. अख़बार भी बंद कर दिया. हां, मोबाइल ज़रूर बेटियों, मित्रों से बात करने या फिर घर का सामान मंगा सकने और बिल जमा करने में मदद कर देता है. कभी-कभी कोई गीत भजन, कथा, सत्संग सुन लेती है वाइफ़. कमाल है उठने-बैठने, चलने करवट बदलने तक तक के लिए ताक़त जुटानी पड़ती है. पैर रखना उठाना कहीं चाहें, पड़ेगा कहीं और. थूको तो वह भी सही जगह न जाकर इधर-उधर पड़ता है. अपनी ही देह के इन हिस्सों पर अब अपना ही ज़ोर नहीं चलता. जैसे यह देह हमारी न होकर किसी और की हो.’

चेहरा तमतमाने की तरह का रक्तिम-सा हो उठा. गर्दन हिलाते-हिलाते हां-जी, हां-जी, करने के अलावा तब कुछ और सूझा ही नहीं. नहाने की देर होने की याद दिलाकर मैंने समय अधिक हो जाने का ध्यान दिलाना चाहा. डॉ. साहब ने तो जैसे सुना ही नहीं. ख़ामोश बैठे रहे. लेकिन, पत्नी कुछ बेचैन हुई-सी तेज़ी से आईं. उस आवाज़ ने जैसे हमें थोड़ी और देर रोक लेना चाहा. अब बेचैनी के साथ कुछ दर्द और उतावली उसमें रल्ती-मिलती सुनाई दी, ‘देखा, भैया तुमने! फिर भी मना करो तो मानते नहीं हैं. ज़िद करते हैं जैसे देह में पहले जैसा दम आ आएगा फिर से. और एकाएक हंसना शुरू किया और धीरे-धीरे उस हंसी ने कुछ ऊंचा और लम्बा होना शुरू किया. हां, बताना भूल गई भैया. तब तो दम ही निकल रहा था, पर बाद में वह सब याद कर ख़ूब हंसी आती रही. इनके फ्रैक्चर से पहले एक दिन मैं फिसलकर गिर गई. उठा न जाये. घर में हम दोनों ही थे, ये आए, उठाने की कोशिश की. मना किया, नहीं माने पैर फिसला और आ गिरे मेरे ऊपर. वो तो ऊपर वाले की कृपा रही, न इन्हें कुछ हुआ, न मुझे. जैसे-तैसे घिसट-घिसट कर बेड तक पहुंचे. उसके सहारे उठ पाए दोनों. इतना कह देने भर को रुकी हंसी फिर शुरू हो गई. ऐसा कुछ ध्यान आया इस बीच की हंसी थमी और चेहरा झट से चिंतित, व्यथितत होता दिखाई दिया – ‘बेटी के यहां से लौट आने के बाद की बात है. आपने आते समय देखा होगा कि यह गली बंद है, इसलिए यहां भीड़-भाड़ नहीं रहती. लेकिन अब इधर दो-एक नए-नए बने रईस आ बसे हैं. तब एक ने घर में कुछ कराने के लिए बालू-बदरपुर मंगाया था. सड़क पर डलवा दिया. ये सुबह टहलने निकले. लौटते में पैरे मुड़ा, गिर गए. उठ ही न पाए. देर बाद कामवाली आई सो देखा. उसने एक रिक्शोवाले को बुलाकर उठवाया. वो बेचारा घर पहुंचाकर गया.’

डॉ.सेन ने हाथ के इशारे से पत्नी का बोलना रोकने के लिए कहा. असहमति जताती-सी हूं, हूं की आवाज़ तीन बार सुनाई दी – ‘अरे, नहीं भाई पैर मुड़ा नहीं, रेत पर फिसला था. उठ तो जाता, पर बार-बार पैर फिसले जा रहा था.’ कृतज्ञ भाव से डॉ.सेन के दोनों हाथ जुड़कर छत की ओर उठ गए थे. उनकी पत्नी भी अपनी उस कुर्सी पर हाथ जोडे नतमस्तक हुई-सी चुप बैठी थी. चलने से पहले तडितगति से क्षण भर को ऐसा कुछ लगा कि जैसे डाक्टर साहन इन पलों में मरीज़ में बदल गए हैं और उनकी पत्नी एक तीमारदार की तरह मरीज़ से छूटे-भूले को विस्तार से बताती जा रही है.

बहुत रोका, नहीं माने, साथ-साथ मेन गेट तक आए. रुकते ही कुछ पढ लेना चाह रही उनकी दृष्टि ने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा. अब उनका दायां हाथ मेरे कंधे पर लेटा-सा आ टिका. आँखों में कोई उमंग जुगनू की तरह चमकी. उम्मीद के किसी सितारे ने टिमटिमाना शुरू किया. होठों पर आई मुस्कान ने चेहरे को जगमगा दिया. इस बीच तेज़ी से बहुत कुछ बदल गया था उनमें. डॉ.सेन अब ज़रा पहले वाले तो नहीं ही लग रहे थे. मेरे कुछ समझ पाने से पहले शब्दों ने उनके होंठों की दहलीज पार कर मुझ तक आना शुरू कर दिया – आपका आना अच्छा लगा. तुरंत बाद यह सवाल – जल्दी में न हों तो कुछ और बात कर लें? सवाल की वजह समझ नहीं आई फिर भी कह बैठा – ‘जी नहीं! बिल्कुल, क्यों नहीं! उन्होंने सुना भी या नहीं, नहीं पता. अगले ही पल फिर एक सवाल – आपने इतना मना किया, फिर भी मैं यहां तक आया, पता है क्यों?

पता होता तो बताता. लेकिन, ऐसा कुछ लगा कि उत्तर न भी दूं तो ये ख़ुद ही बताने वाले हैं. वही हुआ – दरअसल, आज आपसे बात करके लगा जैसे आपके साथ कुछ और भी बांटा जा सकता है. सुनकर हैरान हुआ मैं, जल्दी जान लेने की उतावली में बमुश्किल कह पाया – जी, मुझसे? क्या? कैसा? जी, जी! क्योंम नहीं?

दौड़कर मेरे चेहरे तक आई उनकी दृष्टि ने शायद मेरी आतुरी को भांप लिया था. मंद गति से अपनी ओर आते उनके शब्दो के क़दमताल की आवाज़ सुनाई दी – गौर किया आपने? इतनी देर तक हम सिर्फ़ अपनी बीमारियों-दिक्क़तों का रोना रोते रहे. बीमारी-महामारी के हर दौर में ऐसा होता ही है. आदमी अपने और अपनों के अलावा कुछ सोच हो नहीं पाता – सोचना ही नहीं चाहता. क्यों? आपको क्या़ लगता है?

फिर सवाल! आख़िर क्या सुनना चाह रहे हैं डॉ.सेन मुझसे. उनकी बातों के घुमावों-उलझावों का कोई सिरा मैं पकड़ नहीं पा रहा था. मेरे कंधे पर टिके उनके हाथ ने आहिस्ता से थपथपाया. जैसे कुछ ख़ास कहने-बताने से पहले कोई सुनने वाले को सचेत, सावधान करना चाह रहा हो- क्या आपने ऐसा सोचा है कभी? डर हमेशा कमज़ोर या कायर नहीं बनाते, हिम्मत और ताक़त भी देते हैं. अकेले-अकेल अपने डरों-आशंकाओं को छुपाने-शांत करने में कितना सुख और समय गंवा देते हैं हम. जो लोग डरों से बाहर आकर ताक़त पाना सीख लेते हैं, वे कुछ भी चाहा कर सकते हैं. अपना वजूद, अपना होना बता-जता सकते हैं. प्रमाणित कर सकते हैं.

कारण जो भी रहा हो, बोलना रोककर कुछ पड़ताल-पैमाइश करते-से वे कुछ देर एकटक मेरी ओर देखते रहे. मन हुआ कि कुछ कहूं, पर लगा ही नहीं कि वे कुछ सुनना चाह रहे हैं. अफ़सोस जीती-सी उदास-मायूस-सी लालिमायुक्त आंखें. सुर्ख़ हुआ-सा चेहरा और सुलगते-धुंधलाते से वज़नी हो चले शब्द – कितना अजीब है, अपने डरों में फंसे-घिरे हम. इतना भी नहीं देख-समझ पा रहे कि इस दौर की कोरोना से अधिक भयानक, जानलेवा, उससे अधिक तेज़ी से फैल-बढ़ रही बीमारी कुछ और ही है. आप तो अध्यापक रहे हैं न? क्या आपको ऐसा नहीं लगा कि आज किसी एक कुएं में नहीं, देश-दुनिया के बाक़ी बचे तमाम कुओं में, वावड़ियों, जलाशयों, जलस्रोतों में, सिर्फ़ भांग ही नहीं, अफ़ीम, गांजा, चरस, स्मैक, शराब जैसा बहुत कुछ हर रोज़ डाला-मिलाया जा रहा है.’

सांसों की आवाजाही और आवाज़ थोडी तेज हो रही थी. अल्प-सा वह मौन शायद उत्तेजना पर नियंत्रण पा लेने के लिए ही था. चकित-चकराया-सा मैं उनके बोलने की प्रतीक्षा के उन पलों में उनकी ओर देखे जा रहा था. कुछ-कुछ चैन, शांति, राहत महसूस करता-सा उनका चेहरा. जैसे अंदर-अंदर पल-बढ़ रहा था कोई पीडादायक कुछ दब-चुभ जाने के बाद धीरे-धीरे टीसने लगा हो. अब उनका बायां हाथ मेरे कंधे पर था. धीमी आवाज़ के साथ बोला जाना शुरू हुआ – पता नहीं आप क्या सोचते हैं? मुझे अक्सर ऐसा लगता है जैसे हम लोग फ़ायर हॉक हो गए हैं. जी, जी, वही जो जलती लकड़ी अपनी चोंच या पंजे में दबाकर कुछ दूर जंगल में फेंक आता है. आख़िर क्यों? इसलिए कि आग लगने के बाद जंगल में से छोटे-छोटे जीव, कीड़े, पक्षी, जब बचने के लिए अपने-अपने बिलों-घोंसलों से बाहर निकलकर भागें तो वह उन्हें अपना शिकार बना सकें.’ बहुत लम्बी एक सांस और उसके बाद झटके साथ कहा गया उफ …! जैसे किसी बोतल के तप्त-तरल को बाहर निकालने के लिए उसकी डाट खोली गई हो.

चेहरे पर उत्तेजना, आवेश और आक्रोश के मिले-जुले रंग. तचे-दहकते तपाते-से शब्द- ‘हम तो आदमी हैं न? इसलिए हमने और भी बड़े व भयानक तरीक़ों से आग लगा सकने की ताक़त, हुनर और तकनीक जोड़-जुटा ली है. और, हां, सिर्फ़ घरों, गांवों, मुहल्लों, शहरों, जंगलों में ही नहीं. हवा, पानी, आसमान तक में, पहाड़ों से समुद्रों तक में. देशों-विदेशों, ग्रहों उपग्रहों, अंतरिक्ष तक में. नाम और लोभ की दिनोंदिन बढ़ रही यह हवस. तभी तो दुनिया भर में अपने-अपने अनगिन, अनाम, अनदेखे डरों से डरे-घबराए कितने ही लोग, कितने ही शासक तरह-तरह से किसम-किसिम की आग लगाने में लगे-जुटे हैं. बिल्कुल नरपिशाचों की तरह नरभक्षी होकर. उफ्‌ …!

उफ्‌ …! के बाद फिर एक लम्बी ख़ामोशी. झुलसाते-से डॉ.सेन के शब्द. आग-सी बरसा रहा दोपहर का वह सूर्य. चलने की इजाज़त मांगनी चाही. आश्चर्य, मैं कुछ कहूं उससे पहले ही वे हाथ जोड़े- ‘थैंक्यू वेरी मच’ कहकर तेज़ी से ड्राइंग रूम की ओर बढ़ गए थे. चंद क़दम ही आगे चल पाया था कि ठहाके के साथ उनकी आवाज़ फिर सुनाई दी – सुनिए प्लीज! एक मिनट और ठहरिए! लौटा … पास आने के साथ हंसी उड़ाती-सी लम्बी एक हंसी हंसी गई, पहले. शायद अपनी, मेरी या फिर दोनों की हंसी उड़ाती एक हंसी. और फिर हंसते-हंसते कहना शुरू हुआ – यह तो हद ही हो गई न? क्यां कहने को आया था यहां तक चलकर और कहता क्या-क्या रहा इतनी देर तक.

एक नज़र मेरी ओर ऐसा देखा जैसे इंतज़ार किया हो कि मैं कुछ पूछूँ. इस बीच इतना मैंने जान लिया था कि मैं कुछ न पूछूँ, तब भी डॉ.सेन को ख़ुद के सवालों का उत्तर ख़ुद से बताना ही बताना है – जी, जब से अस्पताल जाना रुका है, मन और शरीर दोनों बीमार-बेकार होते जा रहे हैं, आफ़तों की जड़ बनते जा रहे हैं. कुछ करने की सोचूं तो वाइफ़ और बेटी तुरंत मना कर देती है. आज आपके साथ हुई बातों के बाद लगा कि बात कुछ बन सकती है. अरसे से मन है, पर अकेले शुरु करने की हिम्मत नहीं हो पा रही. आप साथ होंगे, मदद करेंगे तो … तो शायद वाइफ़ को भी ऐतराज़ नहीं होगा, परेशानी नहीं होगी. हम दोनों के डर एक साथ मिलकर डराने की जगह हमारी ताक़त बढाएंगे, हिम्मत में इजाफ़ा करेंगे …!

माथे पर आ बनी वे लकीरें! भवों पर का वह तनाव. पसीने से लथपथ थक चला-सा जिस्म और लाल हुआ चेहरा. उस पर मानो उनके दो शब्द-साथ, मदद. देखकर मन व्यथित हुआ, सुनकर चिंतित और बेचैन. आख़िर किस-कैसे साथ और मदद के लिए कहने वाले हैं डॉ.सेन मुझसे. चकराया-घबराया मैं मन-मन दुआ करने लगा कि वे ऐसा कुछ न कहें जिसके उत्तर में मुझे ना कहना पड़े. ज्यादा इंतज़ार नहीं कराया डॉ.सेन ने. अंदर की गहराई से मोम की तरह पिघल-बहकर आते उनके शब्दों का मेरे पास तक आना शुरू हुआ. आंखों में जल उठे चराग़ों की लौ में एक थिरकन-एक मचलन शुरू हुई – देखिए, जिस सत्संग-फत्संग की बात वाइफ़ कह रही थी, उस बवाल में आप मत पड़िए. इस बार आने-से पहले आप तो बस इतना कीजिए कि शहर में पांच ऐसी जगह तलाशें, जहां गलियों, फ़ुटपाथों, सड़कों-चौराहों पर ग़रीब, बेघर, बेसहारा लोगों का बसेरा हो. मैं चाहता हूं कि अब अस्पतालों-फस्पतालों का चक्कर छोड़कर उन लोगों के पास चला जाए जो डॉक्टरों, अस्पतालों तक पहुंच नहीं पाते. उन्हें देख-सुनकर छोटी-छोटी दिक्क़तों के लिए अपने पास से दवा दे दिया करेंगे. ज्यादा कुछ हुआ तो सही जगह पहुंचाने में उनकी मदद कर दिया करेंगे. रोज़ नहीं, सप्ताह में पांच दिन केवल. और वह भी शाम को दो-ढाई घंटे. भाई के साथ जाकर तलाश आइए ऐसी पांच जगह…!

मेरे कुछ भी कह सकने से पहले ही डॉ.सेन झट से मुड़े और ड्राइंग रूम की ओर बढ़ चले. ठीक ऐसी एक उम्मीद और विश्वास के साथ जो अपने मरीज़ को पर्चा-फ़ाइल थमाते-थमाते हिदायत देते समय एक डाक्टर को होता है … वह यह कि उसके कहे का हुक्म की तरह पालन होगा ही होगा.

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