तंज़ की दुनिया के बादशाह पतरस बुख़ारी साहेब अपनी कहानी “मरहूम की याद में” में एक जगह लिखते है –
एक दिन मिर्ज़ा साहब और मैं बरामदे में साथ-साथ कुर्सियाँ डाले चुप-चाप बैठे थे. जब दोस्ती बहुत पुरानी हो जाए तो गुफ़्तुगू की चंदाँ ज़रूरत बाक़ी नहीं रहती [….]