देश के पहले गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने एक कविता पढ़ी थी – ‘जनतंत्र का जन्म’.. आरती लिए तू किसे ढूंढ़ता है मूरख मंदिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में [….]
हिन्दी रंगमंच की दुनिया में दिनेश ठाकुर की पहचान रंगकर्मी, अभिनेता और नाट्य ग्रुप ‘अंक’ के संस्थापक और निर्देशक के तौर पर है. ‘अंक’ का सफ़र 1976 में शुरू हुआ, जो उनके इस दुनिया से जाने के आठ साल बाद भी जारी है. रंगमंच हो, टेलीविज़न या फिर सिनेमा – हर क्षेत्र में उन्होंने अपनी अलग छाप छोड़ी. [….]
– यों कुछ मैच ऐसे होते हैं, जिनमें कोई हारता नहीं – [….]
‘‘इंसानी ज़िन्दगी का दायरा सिर्फ़ इश्क़ और मुहब्बत तक महदूद नहीं. क्या इसके अलावा और बहुत से मसाइल और बहुत सी दिलचस्प और ग़ैर दिलचस्प चीज़ें नहीं हैं, जिनसे हम बावस्ता हैं? इन चीज़ों को छोड़कर हम खला-ए-महज में रहकर इश्क़ नहीं कर सकते.’’ [….]
हिन्दुस्तानी अदब में सज्जाद ज़हीर की शिनाख्त तरक़्क़ीपसंद तहरीक के रूहे रवां के तौर पर है. वे राइटर, जर्नलिस्ट, एडिटर और फ़्रीडम फ़ाइटर भी रहे. 1935 में थोड़े से तरक़्क़ीपसंद दोस्तों के साथ मिलकर लंदन में प्रगतिशील लेखक संघ की दागबेल डालने वाले सज्जाद ज़हीर [….]
भीत-सी आँखोंवाली उस दुर्बल, छोटी और अपने-आप ही सिमटी-सी बालिका पर दृष्टि डाल कर मैंने सामने बैठे सज्जन को, उनका भरा हुआ प्रवेश-पत्र लौटाते हुए कहा – ‘आपने आयु ठीक नहीं भरी है. ठीक कर दीजिए, नहीं तो पीछे कठिनाई पड़ेगी.’ [….]
मुज्तबा हुसैन से वाक़िफ़ लोग उनकी नज़र और क़लम के जादू के मुरीद रहे हैं. हिन्दी और उर्दू दोनों ही ज़बान के पढ़ने वालों ने उन्हें मुहब्बतों से नवाज़ा. भारतीय उप-महाद्वीप में तंज़ो-मिज़ाह के फ़न के वह आख़िरी मुगल थे. [….]
यूं ऐसा कोई लक्षण नहीं था. इतनी देर से इतने विषयों पर इतनी ऊर्जा और उत्साह के साथ बिज्जी को बोलते देख मैंने पूछ लिया था, ‘आप थक तो नहीं रहे हैं?’ तपाक से कहा गया – ‘नहीं, थकान बिल्कुल नहीं. सत्रह-अट्ठारह घंटे काम के बाद बढ़िया नींद आती है मुझे… और फिर एकदम फ्रेश.’ [….]
एकदम अवसन्न-से… बेहद भावुक हो उठे हैं बिज्जी – मगर उस दिन तो आकाश ही उलट पड़ा था. सपना बिखरने में कुछ भी देर नहीं लगी. तब मेरी उम्र रही होगी पच्चीस या छब्बीस बरस… वहां से थोड़ी दूर सोजती गेट पड़ता है – अब वहां जयनारायण जी व्यास की मूर्ति प्रतिष्ठित है – बहुत उदास-उदास, घूम रहा था [….]
फ़िल्मी गीतों की मार्फ़त ही शैलेंद्र को पहचानने वाले मुमकिन कि यह न जानते हों कि बरसों से सड़कों पर जो नारे वे सुनते आए हैं, दीवारों पर पढ़ते आए हैं, उनमें से कितने ही शैलेंद्र की देन हैं – ‘हर जोर-जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है..’ [….]