एक समय था, जब बरेली शहर में घोषित तौर पर सिर्फ़ दो लोग ही पढ़े-लिखे हुआ करते थे – सत्यप्रकाश एम.ए. और राजाराम बी.ए.. पढ़ने में दिलचस्पी रखने वाले लोग इनके सिवाय एक और शख़्स को भी जानते थे हालांकि वह यहां रहते नहीं थे – इब्ने सफ़ी बी.ए. [….]
उनकी भान्जी के घर से लौटा तो छ: बज चुके थे. वे तब भी सोने वाले कमरे में थीं. दोस्त जा चुकी थीं. हिम्मत कर मिलने का थोड़ा-सा समय देने के लिए दो बार ख़बर भिजवाई. उम्मीद छूट चुकी थी, पर अब आना अकारथ नहीं लग रहा था. [….]
सलवार-कुर्ते में एक महिला प्रविष्ट हुई हैं. मैडम सबको सुनाकर कहती हैँ – “हुमाँ! भान्जी है मेरी !” रेहाना ने गिलास में शर्बत लाकर मेज़ पर रखा है. कुछ संवाद चला है दोनों के बीच. आवाज़ तुर्श हो उठी, “इसको तुम ठंडा कहती हो? जाओ! मुझसे बहस मत करो!” [….]
इतिहास गवाह है कि क्रांतिकारी बनी-बनाई लीक पर कभी नहीं चले. जहां वे चलते हैं, राहें खुद ब खुद बन जाती हैं. क्यूबा की क्रांति के सितारे अर्नैस्तो चे ग्वेरा ऐसे ही लोगों में रहे. पेशे से डॉक्टर चे ग्वेरा अपनी पढ़ाई और प्रशिक्षण के दौरान पूरे लातिनी अमेरिका में घूमे. [….]
इस बार का रिचर्ड डॉकिंस अवॉर्ड शायर जावेद अख़्तर को दिया गया है. यह पुरस्कार पाने वाले वह पहले हिन्दुस्तानी हैं. [….]
यह गुज़रे ज़माने की बात है, बहुत पहले की बात कि एक थी रॉयल बायस्कोप कम्पनी और एक थे हीरालाल सेन. फ़ोटोग्राफ़ी के शौक़ीन हीरालाल सेन ने भारतीय सिनेमा की दुनिया में अविस्मरणीय काम किए, मगर बदक़िस्मती से उन्हें और उनके काम को फ़िल्म इतिहास में वह मक़ाम नहीं मिल सका, जिसके वह हक़दार थे. [….]
इसके बाद उन्होंने कई मीटिंगों में अपने पुराने चेलों से मिलवाया. “जे हरिमोहन हैं. सुनारी का काम करते हैं….बड़े आदमी हैं….इनकी बला से, इनका ख़लीफ़ा जिये या मरे, इनकी कोई जिम्मेवारी नहीं. [….]
ख़्वाजा अहमद अब्बास की शख़्सियत के बारे में राजिंदर सिंह बेदी लिखते हैं -‘‘एक चीज़ जिसने अब्बास साहब के सिलसिले में मुझे हमेशा विर्त-ए-हैरत (अचंभे का भंवर) में डाला है, वह है उनके काम की हैरतअंगेज़ ताकतो-कूव्वत. कहानी लिख रहे हैं और नाविल भी. [….]
ख़लीफ़ा का जन्मदिन ज्येष्ठ माह में पड़ता था, उनकी मां उन्हें बताया करती थीं. तिथि और दिन उनकी मां को नहीं याद था तो ख़लीफ़ा को कहाँ से याद रहता. जेठ के महीने का वो लम्बे समय से इंतज़ार करते. [….]
‘मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर/लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया’ उर्दू अदब में ऐसे बहुत कम शेर हैं, जो शायर की पहचान बन गए और आज भी सियासी, समाजी महफिलों और तमाम ऐसी बैठकों में कहावतों की तरह दोहराए जाते हैं. [….]