क़मर जलालाबादी | जिनके गीत ने पहली तारीख़ को उत्सव बना दिया

  • 5:33 pm
  • 9 March 2021

अगर आप रेडियो सुनते हुए बड़े हुए हैं तो ‘‘दिन है सुहाना आज पहली तारीख़ है, ख़ुश है ज़माना..’’ वाला गाना आपने ज़रूर सुना होगा. आपने यह गाना सुना भी हो तो मुमकिन है कि ओम प्रकाश भण्डारी को न जानते हों. यह ओम प्रकाश अमृतसर के जलालाबाद क़स्बे में पैदा हुए. कम उम्र में ही शायरी में मुब्तला हुए तो क़मर जलालाबादी कहलाए. और अब तो आधी सदी से ज़्यादा वक़्त गुज़रा कि हर महीने की पहली तारीख़ को सुबह-सुबह किशोर कुमार की चुलबुली आवाज़ में रेडियो पर बजने वाला यह गाना उन्होंने ही लिखा था.

अपने नाम के मुताबिक़ फ़िल्मी दुनिया के आकाश पर चमकने वाले ऐसे क़मर (चाँद) थे, जिनके गानों से दिल आज भी मुनव्वर होते हैं. चार दशकों तक फ़िल्मों से उनका वास्ता रहा और इस दौरान उन्होंने बेशुमार सदाबहार, मदहोश करने की तासीर वाले नग़्मे दिए. उनके अंदाज़ की छोटी-सी मिसाल ’हावड़ा ब्रिज’ के उनके लिखे हुए दो गानों से दी जा सकती है – ‘आइए मेहरबाँ, बैठिए जाने जाँ’ और ‘मेरा नाम चिन चिन चूं’.

यह सही है कि उन्होंने नौ बरस की उम्र में ग़ज़लें कहना शुरू कर दिया था मगर वे तुकबंदी से ज़्यादा कुछ नहीं थीं. घर में ऐसा माहौल भी नहीं था सो अमर चंद ‘अमर’ से इस्लाह लेनी शुरू की. उन्होंने ही ‘क़मर’ तख़ल्लुस दिया. पढ़ाई पूरी करने के बाद घर वालों के कहने पर उन्होंने नौकरी की तलाश शुरू कर दी.

लिखने-पढ़ने के शौक के चलते से जर्नलिज़्म में आ गए. लाहौर के अख़बार ‘डेली मिलाप’ और ‘डेली प्रताप’ में कुछ दिनों काम किया. ’निराला’ पत्रिका और वीकली अख़बार ’स्टार’ के एडिटर रहे. मगर अख़बारनवीसी उनकी मंज़िल नहीं थी. वह तो रोजी का ज़रिया भर बना. उनका मन तो शायरी के लिए बेक़रार रहता. 1942 में ड्रामा-निगार सैयद इम्तियाज अली ’ताज़’ की सिफ़ारिश पर पंचोली पिक्चर्स की फ़िल्म ’जमींदार’ में उन्हें गीत लिखने का मौका मिला. इस फ़िल्म के सारे गाने हिट हुए. ख़ासतौर पर शमशाद बेगम का गाया गीत ‘‘दुनिया में ग़रीबों को आराम नहीं मिलता’’.

इस कामयाबी का नतीजा यह कि उन्हें पूना में प्रभात फ़िल्म कंपनी में काम मिल गया. ‘प्रभात पिक्चर्स’ के साथ उन्होंने फ़िल्म ‘चांद’ साइन की. संगीतकार हुस्नलाल भगतराम की भी यह पहली फ़िल्म थी. इस फिल्म के गाने भी मकबूल हुए. ‘‘दो दिलों को यह दुनिया मिलने नहीं देती’’ गाने ने ख़ूब धूम मचाई. ‘चांद’ के बाद ‘गोकुल’, ‘रामशास्त्री’ और ‘गोकुल’ के गाने भी क़मर जलालाबादी ने लिखे. ‘गोकुल’ ने सिल्बर जुबली मनाई.

‘गोकुल’ के गानों की कामयाबी ने बंबई की उनकी राह आसान कर दी और 1946 में वह बंबई पहुंच गए. शुरू में ही ‘प्यार की जीत’, ‘शहीद’ और ‘शबनम’ फ़िल्मों में गाने लिखने का मौका मिल गया. 1948-49 में रिलीज हुई ये तीनों ही फ़िल्में के गानों ने देश भर में धूम मचा दी. ‘‘इक दिल के टुकड़े हज़ार हुए’’, ‘‘इतने दूर हैं हुजूर’’, ‘‘ओ दूर जाने वाले, वादा न भूल जाना’’ (प्यार की जीत), ‘‘बदनाम न हो जाए मुहब्बत का फ़साना’’ (शहीद), ‘‘तुम्हारे लिए हुए बदनाम’’, ‘‘क़िस्मत में बिछड़ना था’’ (शबनम) उस वक्त गली-गली में गूंजे.

इसके बाद तो उनके पास फ़िल्मों में गाने लिखाने वालों की लाइन लग गई. मसरूफ़ियत इस क़दर कि राज कपूर को भी उन्हें इन्कार करना पड़ा. हालांकि बाद में उन्होंने राज कपूर की फ़िल्म ‘छलिया’ के गाने लिखे. शीर्षक-गीत ‘छलिया मेरा नाम..’ के अलावा ‘डम डम डीगा डीगा’ और ‘तेरी राहों में खड़े हैं दिल थाम के’ जैसे गानों ने फ़िल्मी दुनिया में कमर जलालाबादी का क़द और बढ़ा दिया.

1958 में आई ‘फागुन’ के ख़ूब चले. ‘हावड़ा ब्रिज’ के गानों की तरह ओपी नैयर और क़मर जलालाबादी की जोड़ी ने इस फ़िल्म में भी अपने गीत-संगीत का जादू जगाया. ख़ासतौर पर ‘‘एक परदेसी मेरा दिल ले गया’’, ‘‘मैं सोया अखियां मीचे, तेरी जुल्फों के नीचे’’ और ‘‘पिया-पिया न लागे मोरा जिया’’ गाने खूब चले.

यूं तो हर रंग, अंदाज़ के गीत लिखे, लेकिन जुदाई, ग़म और उदासी में डूबे नग़्मे जैसे क़मर जलालाबाद की क़लम की पहचान बन गए. आम ज़बान में लिखे उनके गीतों में ज़िंदगी के गहरे मायने छिपे मिलते. फ़िल्मी के गीतकार यों ज़िंदगी के तमाम रंग लिए गीत लिखते हैं और उनमें कोई-कोई ऐसा बन जाता है, जो अपने भाव-बोल से हमेशा के लिए अमर हो जाता है. कमर जलालाबादी ने ऐसा ही एक गीत फ़िल्म ’पहली तारीख़’ के लिए लिखा.

सुधीर फड़के के संगीत निर्देशन में किशोर कुमार ने क़मर जलालाबादी के लिखे गीत ‘‘दिन है सुहाना आज पहली तारीख है, ख़ुश है ज़माना आज..’’ को शोखी और मस्ती भरे अंदाज़ में गाकर अमर बना दिया. यह गाना देश के मिडिल क्लास के जज्बात, उम्मीद और आने वाले कल की आशंकाओं की नुमाइंदगी करता है. यह गाना इतना पसंद किया जाता था कि रेडियो सीलोन हर महीने की पहली तारीख़ की सुबह कई दशकों तक इसे बजाता रहा. किसी भी गाने के लिए यह मर्तबा कोई छोटी बात नहीं. ‘पहली तारीख़’ 1954 में आई थी.

क़मर जलालाबादी ने अपने लंबे कॅरिअर में नए-पुराने और बड़े संगीतकारों और लगभग सभी बड़े गायकों के साथ काम किया. एस.डी. बर्मन, सरदार मलिक, हेमंत कुमार ने भी उनके गीतों को आवाज़ दी. गीतों का सादा ज़बान होना उनकी बड़ी ताक़त थी. ज़िंदगी का फ़लसफ़ा और तर्जुबे से लबरेज़ ये गीत जादू की तरह असर डालते. गीतों के अलावा डेढ़ सौ से ज्यादा फ़िल्मों में कहानियां, स्क्रीन प्ले और संवाद भी लिखे. उन्होंने एक फ़िल्म ‘छोटी भाभी’ बनाई भी थी. वह ‘फ़िल्म राइटर एसोसिएशन’ के संस्थापक सदस्य थे.

’रश्क-ए-क़मर’ क़मर जलालाबादी की ग़ैर फ़िल्मी ग़ज़लों का मजमुआ है. ‘‘मत करो यारों इधर और उधर की बातें/ कर सको तुम तो करो रश्क-ए-क़मर की बातें/ जो दिल को छू न सके, गुनगुना न पाऊं मैं/ ग़ज़ल न ऐसी सुना जिसको भूल जाऊं’’. और ज़रा इस फ़लसफ़े पर ग़ौर फ़रमाइए, ‘‘शेर-ओ-सुख़न की ख़ूब सजाऊंगा महफ़िलें/ दुनिया में होगा नाम मगर उसके बाद क्या/…इक रोज़ मौत जीस्त का दर खटखटाएगी/ बुझ जाएगा चिराग-ए-क़मर उसके बाद क्या/ उठी थी ख़ाक ख़ाक से मिल जाएगी वहीं/ फिर उसके बाद किसको ख़बर उसके बाद क्या.’’


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