पुस्तक अंश | दोहरी सियासत का शिकार फ़िलिस्तीन

  • 12:41 pm
  • 19 July 2024

‘फ़िलीस्तीन:एक नया कर्बला’ नासिरा शर्मा की नई किताब है, कल दिल्ली में जिसका लोकार्पण होगा. जैसा कि किताब के शीर्षक से ही ज़ाहिर है, नासिरा शर्मा जंग के बीच फ़िलीस्तीनी लोगों की ज़िंदगी और इस जंग को लेकर दुनिया भर देशों के रवैये का विश्लेषण करती हैं, उस पर सवाल खड़े करती हैं. इस किताब का एक अंश हम यहाँ छाप रहे हैं. – सं.

सात अक्टूबर, 2023 में अचानक फ़िलिस्तीन की हमास पार्टी ने 500 रॉकेट इज़रायल पर फेंके. इस हमले से विश्व के लोग चौंके ही नहीं बल्कि कुछ का सदमा लगा कि शेर की माँद में हाथ डालने की हिमाक़त हमास ने किसके उकसाने पर की, ख़ासकर तब जब न उनके पास लम्बी फ़ौजें हैं और न ख़तरनाक हथियार. और जब इज़रायल में घायल लोगों की संख्या और हालत देखी ख़ासकर बच्चों की तो सभी को महसूस हुआ कि एकाएक हमास ने ऐसा क़दम क्यों उठाया और सीधे ही उसकी आतंकवादी गतिविधि पर रोक लगाने के लिए आवाज़ें उठने लगीं जिसमें भारत भी शामिल था. परन्तु इनके बीच ऐसे लोग भी थे जो ताज्जुब कर रहे थे कि आख़िर हमास ने इतनी बड़ी ताक़त जो इंटेलीजेंसी में मशहूर है, उसे हमास द्वारा उठाए गए क़दम की भनक तक न हुई? कहीं यह ख़ुद पर हमला करवाने का इज़रायल का षड़यंत्र तो नहीं है वरना हमास इस तरह के ख़तरे उठाकर अकारण ही एक ऐसे देश को चुनौती क्यों देगा जो सैन्य संगठन में महाबलि है. कुछ को शंका हुई कि इसके पीछे ज़रूर ईरान, लेबनान के हिज़्बउल्लाही का हाथ है. अभी यह अटकलें लग ही रही थीं कि अपने बचाव में इज़रायल ने हमास को जवाब दिया और क़हर फ़िलिस्तीन की आम जनता पर टूटा, जो एक बार नहीं, लगातार चल रहा है.

अभी तक समाचारों में रूस और यूक्रेन छाया हुआ था. अब उसके स्थान पर फ़िलिस्तीन-इज़रायल की चर्चा शुरू हो गई. दिल दहलाने वाले वीडियो से विश्व के संवेदनशील बुद्धिजीवी एवं सोशल एक्टिविस्ट ने अपने-अपने विचार देने शुरू कर दिए. जिसके ऐतिहासिक सन्दर्भ थे इसलिए इज़रायल की हिमायत में उठी आवाज़ें थमने लगीं और इस लम्बे चले आ रहे युद्ध के ऐतिहासिक व वैश्विक कारणों की जिज्ञासा बढ़ गई. ख़ासकर महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व के कथन पढ़कर.

विलियम स्कॉटरिट्टर, जो अमेरिकन लेखक और अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध विशेषज्ञ हैं, साथ ही पूर्व संयुक्त राष्ट्र विशेष आयोग के हथियार निष्क्रिय रहे हैं एवं पूर्व संयुक्त राज्य मरीन कॉर्प्स के ख़ुफिया अधिकारी रह चुके हैं, का कहना है कि इज़रायल को यह हक़ नहीं है कि जान-बूझकर सिविलियंस पर निशाना बाँधे क्योंकि इंटरनेशनल लॉ साफ़-साफ़ यह कहता है लेकिन इज़रायल अपनी मनमर्जी कर रहा है और पूरी दुनिया चुप है. फिर कटाक्ष करते हुए उन्होंने आगे कहा, “इज़रायल असाधारण नेशन है जिसकी जनता भी असाधारण है कि जो नॉर्मल रूल-रेगुलेशन हैं उन लोगों पर अप्लाई नहीं होता है क्योंकि वह ख़ुदा के चुने हुए लोग हैं, वह कुछ भी कर सकते हैं.”

दूसरी ओर, फ़िलिस्तीन में हो रहे नरसंहार के बारे में नॉरमैन फिंकेलेस्टीन की है जो अमेरिकन पॉलि‍टिकल साइंटिस्ट, एक्टिविस्ट हैं और इज़रायल-पेलेस्टाइन कॉन्फ़्लिक्ट और होलोकस्ट पर जिनका महत्त्वपूर्ण काम है, उनका कहना है कि “इज़रायल ने हमेशा ज़िम्मेदारियों को नकारा है और यूएस गवर्नमेंट और ब्रिटिश गवर्नमेंट पर आप कभी विश्वास न करें.”

ताज्जुब की बात यह है कि अमेरिकन ज्यूश की संस्था ‘प्रो पैलेस्टाइन’ है. उन्होंने ग़ाज़ा में युद्ध-विराम की माँग करते हुए कहा, “फ़िलिस्तीन को आज़ाद करो!”

इसी के साथ पूरे विश्व में एक प्रश्नावली चल पड़ी है कि आप किसके साथ हैं? यह विचित्र-सी बात है कि जब शान्ति की माँग होनी चाहिए उस समय इस तरह के गेम खेले जा रहे हैं. बहरहाल, सैकड़ों लोग अमेरिकन राजधानी वाशिंगटन डी.सी. के स्टेट डिपार्टमेंट के सामने बैनर और फ़िलिस्तीन झंडे लेकर फ़िलिस्तीन के सपोर्ट में खड़े हुए. इसी बीच क़तर के शेख़ तमीम बिन हमद-अल-थान ने फ़िलिस्तीन में होती तबाही को देखकर कहा, “अब बहुत हो चुका, अब बस! क्योंकि इस जंग ने सारी हदें तोड़ते हुए ख़ून बहाया है.”

इन सारी हमदर्दी का जवाब डिफेंस मिनिस्टर ने यह कहकर दिया कि यूएस झिझकेगा नहीं गाज़ा युद्ध अगर इलाक़ाई लड़ाई में बदलता है.

हॉवर्ड की फ़िलिस्तीनी अकादमी ने कहा, “वह हमें गाड़ना चाहते हैं मगर वह नहीं जानते कि हम बीज हैं.”

जो ख़बरें हमें वीडियो द्वारा फ़िलिस्तीन की दिखाई जा रही हैं, उन्हें झुठलाया नहीं जा सकता है क्योंकि यह सच्चाई को सनद बनाकर पेश करता है. शिफ़ा व दूसरे अस्पतालों पर गिरे बम से जो बचे ज़ख़्मी लोग आ रहे थे उनमें से ज़्यादा तादाद उन बच्चों की थी जो दूध पीते थे. उनसे बड़े बच्चों का हाल अजीब था. वह सहमे और काँप रहे थे. कुछ चकराए हुए थे. कुछ स्कूल बस में थे. जो भी देखा उससे महसूस हुआ कि कई दशकों से चल रही लड़ाई ने उन्हें यह सन्देश दे दिया है कि अब यही और ऐसी ही हमारी ज़िन्दगी है.

एक वीडियो में बच्चे अपने हाथ पर नाम इस तरह लिखवा रहे हैं जैसे अंजाम जानते हैं. तभी एक लड़के ने बताया कि यदि वह जंग में मरता या मलबे में दबता है तो नाम लिखे जाने से पहचान लिया जाएगा. बात यहीं ख़त्म नहीं होती बल्कि सूखी कच्ची नहर की तरह ख़ुदी ज़मीन पर मिट्टी से लड़के खेल रहे हैं और जो पूछा जाता है, ‘यह कैसा खेल है?’ तो हँसते हुए जवाब देते हैं कि इसलिए मिट्टी से खेल रहे हैं कि कल यहीं दफ़न होना है. उनकी बात की सच्चाई तब पता चलती है जब इस नहरनुमा क़ब्र में एक साथ सफ़ेद चादरों में लिपटे शव पंक्तिबद्ध लिटा दिए जाते हैं. उस पर बुलडोज़र से मिट्टी डाली जाती है. उनकी कमर पर लिपटे कफ़न पर भी कुछ लिखा दिखता है. यह सब देखकर किसी को भी जंग से नफ़रत हो जाएगी और उसका सबसे तीखा सवाल होगा‍ कि आख़िर मानवाधिकार कमेटी क्या अपना कर्तव्य भूल चुकी है? या फिर जो यह माँग कर रहे हैं कि युद्ध विराम हो वह यह सवाल क्यों नहीं उठाते कि आख़िर हथियार सप्लाई पर रोक क्यों नहीं लग पा रही है? अमेरिका हथियार और पानी एक साथ भेज रहा है.

जो कुछ आज फ़िलिस्तीन में हो रहा है, उसे सीरिया, इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान में हम देख चुके हैं. यह बारूदी खेल इनसानों के साथ पर्यावरण और महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक धरोहरों को जिस तरह ध्वंस कर रहा है उसका भ‍विष्य में क्या परिणाम देखने को मिलता है, यह तो हमारी आनेवाली पीढ़ियाँ झेलेंगी. अभी जो सबसे ख़तरनाक काम हो रहा है वह आतंकवाद को ख़त्म करने के नाम पर आतंकवाद है, जो बच्चे इस समय फ़िलिस्तीन में बच गए हैं वह उनकी यादों का हिस्सा बन चुका है और बड़े होने पर वह अपने साथ हुए ज़ुल्म का जवाब किस तरह देंगे? हमास को ख़त्म करने के नाम पर ग़ाज़ा के आम आदमी पर आफ़त टूट रही है और यह बात ख़ुद एक आम फ़िलिस्तीनी मलबे के ढेर पर खड़ा होकर कह रहा है, “यह हमारे साथ इज़रायल क्या कर रहा है? हम हमास नहीं हैं?” दूसरी ओर, एक दस-ग्यारह वर्ष की एक लड़की जिसने अपनी माँ को खोया है वह क्रोध में रोते हुए कह रही है, “मैं तुम्हारा पैर चूमने को तैयार हूँ हमारे ऊपर बम मत गिराओ!”

यह सारे दृश्य जो हम वीडियो के जरिए देख रहे हैं यह सिनेमा नहीं, यथार्थ है और इस यथार्थ को जिसे हम नरसंहार कह सकते हैं या फिर हठ जो कि एक बेहद वहशतनाक, ग़ैर-इनसानी कार्य है; लेकिन सभी महत्त्वपूर्ण देश जो हमदर्दी भरे सन्देश भेज रहे हैं उसकी जगह उन्हें ठोस क़दम उठाना चाहिए मगर सब आराम से बैठे इस ख़ूनी लड़ाई को देख रहे हैं.

इज़रायली एम्बेसेडर यू.एन. गीलाड इरडान और उनकी टीन ने यलोस्टार लगाया जब यू.एन. सिक्योरिटी कौंसिल की मीटिंग चल रही थी. उनके इस अन्दाज को चेयरमैन याद बाशीम, दानी दयान ने कंडॅम किया मगर एम्बेसेडर का कहना था ‘ज्यूश पोलैंड में पीला स्टार लगाते थे; जब नाज़ियों ने पोलैंड पर 1938 में क़ब्ज़ा कर लिया था फिर उन्हें जर्मनी में पहनना पड़ा था इसलिए वह पीला स्टार तब तक लगाए रहेंगे जब तक यू.एन. सिक्योरिटी कौंसिल के मेम्बर हमास के आतंकवादी गतिविधियों को कंडेम नहीं करेंगे और हमारे होस्टेजेज़ की रिहाई की माँग नहीं करेंगे.”

गीलाड इरडान को नाज़ि‍यों का ज़ुल्म तो याद आया परन्तु जिस होलोकॉस्ट से ज्यूश क़ौम गुज़री है, क्या वही सब कुछ ग़ाज़ा में दोहराना चाहती है, उनके साथ जिन्होंने उन्हें पनाह दी थी? ग़ाज़ा में आम आदमी पानी, ईंधन, बिजली के न होने से परेशान है. अस्पतालों पर बम गिराने से पहले इज़रायल सेना ने एलान के साथ कहा गया, “डॉक्टर अस्पताल छोड़कर बाहर आ जाएं.” मगर किसी डॉक्टर ने इस एलान को नहीं माना और डॉक्टर अल-देरगान ने कहा कि “यह कैसे मुमकिन है कि हम बीच ऑपरेशन में अस्पताल शिफ़्ट करें और मरीज़ों को छोड़ जाएँ. बम बरसता है तो बरसे हमारे सिरों पर.’

इस मुश्किल समय में जब दवा के साथ दूसरे मेडिकल एक्यूपमेंट्स ख़त्म हो रहे हैं और हर दो मिनट बाद कोई-न-कोई जख़्मी आ रहा है. यू.एन. के अधिकारी ने बताया कि 7 अक्टूबर से 25 अक्टूबर तक मरने वालों की जो लिस्ट है वह डेढ़ सौ पन्नों की है जिसमें से छह पन्ने इन बच्चों के नामों की है जो एक साल से कम के हैं.

ग़ाज़ा में रहनेवाले दरअसल एक खुली जेल में रह रहे हैं, ऐसा कहा जा रहा है. अब उनकी संख्या कितनी रह गई है उसकी भी लिस्ट या आँकड़ा मिल जाएगा. लेकिन जो लोग संयुक्त राष्ट्र के राहत कार्य में (यूएनआरडब्लूए) में जुटे उनमें से लगभग 70 लोगों के मरने का आँकड़ा सामने आया है. एशियन एड, रेडक्रॉस में जो काम कर रहे हैं और जो अस्पतालों में काम कर रहे हैं वह हमास से नहीं हैं मगर मानवीय स्तर पर अपना कर्तव्य निभा रहे हैं. जबकि हमास को वह उस तरह ढेर नहीं कर पा रह हैं.

रिचर्ड बोएड बार्रेट आयरिश एंटी मूवमेंट के चेयरमैन का कहना है : “इज़रायल का जो नक़्शा मैंने देखा उसमें न फ़िलिस्तीन था न ग़ाज़ा था. पहले से ही ऍथेनिकली ग़ाज़ा को साफ कर दिया जैसे वह धीरे-धीरे कर रहे हैं. कोई भी दुनिया का नेता ऍथेनिकली क्लींजिंग को डिफेंड नहीं कर सकता है.”

इज़रायली प्रोफ़ेसर ईलान पापे जो हिस्टोरियन और ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी और हिब्रो यूनिवर्सिटी यरूशलम से सम्बन्धित है, उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में नक़ाबा के बारे में बताया है जिसका डर ज्यूश के दिलों में रहता है कि फिर वह नये संकट का सामना न करें. प्रोफ़ेसर ईलान पापे ने नक़ाबा का अर्थ बताते हुए कहा, “नक़ाबा ऍथॅनिक क्लींजिंग है जो व्यवस्थित रूप से हो, जो फ़िलिस्तीन में करनी है जिसमें उनके चले जाने के बाद जो भी उनसे सम्बन्धित अवशेष बचे उन्हें सिरे से साफ़ करना है जो 1948 से शुरू हुआ. नक़ाबा अभी चल रहा है क्योंकि 50 प्रतिशत लोग फ़िलिस्तीन से हटे हैं और इज़रायल केवल 80 प्रतिशत ज़मीन ले पाया है. नक़ाबा रोज़ हो रहा नबुलस, ग़ाज़ा, गैलीली, नक़ाबा. हमको फ़िलिस्तीन की बर्बादी पर बातचीत करनी चाहिए.”

प्रो. ईलान पापे चूँकि बुद्धिजीवी हैं और वह संवाद से इस समस्या का हल ढूँढ़ना चाहते हैं…“और इज़रायल और उनके मित्र देश लगातार शान्ति वार्ता के बाद भी हथियार देते हैं और एक युद्ध समाप्त नहीं हो पाता कि दूसरा शुरू हो जाता है. मुझे 1978 में पी.एल.ओ. के चेयरमैन यासिर अराफ़ात का इंटरव्यू याद आ रहा है जिसमें उन्होंने कहा था कि वेस्ट मीडिया और इज़रायली इस इलाक़े में तुम्हारा बेबी है. कोई ऑर्गेनाइज़्ड टेररिज़्म पर ध्यान नहीं दे रहा है. जिस तरह के ख़ौफ़नाक़ हमले हुए यू.एन. की सिक्योरिटी में उसकी आलोचना करनी चाहिए; और जो मानवाधिकार की बातें करते हैं, जब बात फ़िलिस्तीन और लेबनान की आती है तो वह कहाँ चले जाते हैं? हमारे फ़ैक्स देखें, लेबनान के गाँवों पर हमला हुआ, उसमें से कुछ गाँव पूरे के पूरे साफ़ कर दिये गए मगर वैस्टर्न प्रेस ने अपने कैमरे ऑन नहीं किए क्योंकि इज़रायल उनका बेबी है.” इसमें कोई शक नहीं है कि वेस्टर्न वर्ल्ड के साथ कुछ हो जाता है तो उसको इतना बढ़ा-चढ़ाकर बताया जाता है कि उनका पल्ला न केवल सही नज़र आने लगता है बल्कि भारी हो जाता है. यह भी सच है कि अरब दुनिया में जो ख़बरें छपती हैं चूँकि अरबी में रहती हैं इसलिए बाक़ी दुनिया उन्हें नहीं पढ़ पाती है और एक तरफ़ा दृष्टिकोण अपना लेती है.

इस समय प्रश्न उठ रहा है कि अरब देश इस कठिन समय में क्यों नहीं साथ दे रहे हैं. ग़ाज़ा में हुए हमले से तबाह एक बेबस फ़िलिस्तीनी ने कहा कि ‘अरब देश मुर्दा हो चुके हैं’. यह सही नहीं, वह जाग रहे हैं और अपना-अपना लाभ और नुक़सान देख रहे हैं क्योंकि 16 सितम्बर, 2020 को अरब-इज़रायल के बीच ‘इब्राहम समझौता’ हुआ था जिसकी मध्यस्थता की भूमिका अमेरिका ने की. इस समझौते का मुख्य मक़सद रहा कि अरब-इज़रायल के बीच आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक स्तर पर सम्बन्धों को सामान्य बनाया जाए. तब हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि कोई अरब देश 1967 की तरह एकजुट होगा और इज़रायल के क़ब्ज़े वाला हिस्सा लौटाएगा क्योंकि दुनिया अपना रुख़ बदल रही है और नए तरह के मापदंड वजूद में आ रहे हैं.

जैसे कि यदि पहले की तरह भागे या खदेड़े फ़िलिस्तीनी इन देशों की तरफ़ भागे थे और बस गए थे मगर इस बार यह देश इसलिए भी ऐसा नहीं कर रहे हैं कि यदि फ़िलिस्तीनियों ने जगहें ख़ाली छोड़ी तो इज़रायल को आगे बढ़ने का मौक़ा मिल जाएगा और इस तरह फ़िलिस्तीन कुछ वर्षों में इज़रायल स्टेट में बदल जाएगा. इसलिए इज़रायली एसेम्बली के मेम्बर की बेहद कड़वी ज़बान से यह आवाज़ निकली है कि ग़ाज़ा में कम बच्चे मरे हैं, इसकी संख्या इससे भी ज़्यादा होनी चाहिए. लेकिन वह यह नहीं देख पाई है कि अस्पतालों में घायलों को देखते हुए डॉक्टर और पत्रकार जिस तरह जख़्मी माँ के बिना बच्चों को वह सीने से लगा थपकते हैं और उन्हें बहलाते हैं और जो बड़े बच्चे हैं उन्हें टॉफ़ी या खिलौने देते हुए हँसाते हैं. फिर मुट्ठी से मुट्ठी टकराकर उन्हें कहलाते हैं—फ़िलिस्तीन ज़िन्दाबाद! वही बच्चे गाते हैं जो ग़ाज़ा के हीरो हैं—“जब तक हम जीत नहीं जाते/ हम राह ढूँढ़ लेंगे/ बाग़ का दरवाज़ा खोल देंगे/ हमें ज़िन्दा रहना पसन्द है/ जीत का मार्च तब तक निकालेंगे.”

जून, 1967 में छह दिवसीय युद्ध के दौरान, इज़रायल ने फ़िलिस्तीन के ब्रिटिश जनादेश का हिस्सा रहे शेष क्षेत्र पर क़ब्ज़ा कर लिया, जॉर्डन से वेस्ट बैंक (पूर्वी यरूशलम सहित) और मिस्र से ग़ाज़ा पट्टी ले ली. मिस्र और सीरिया द्वारा सैन्य धमकियों के बाद जिसमें मिस्र के राष्ट्रपति नासिर की संयुक्त राष्ट्र से मिस्र-इज़रायल सीमा से अपनी शान्ति रक्षक सैनिकों को हटाने की माँग भी शामिल थी. जून, 1967 से इज़रायली सेना मिस्र, सीरिया और जॉर्डन के ख़िलाफ़ कार्यवाही करने गई. इस युद्ध के परिणामस्वरूप इज़रायल रक्षा बलों ने वेस्ट बैंक, ग़ाज़ा पट्टी, गोलान हाइट्स और सिनाई प्रायद्वीप पर विजय प्राप्त की और सेना के अधीन कर दिया. इज़रायल ने अरब सेनाओं को पूर्वी यरूशलम से पीछे धकेल दिया जहाँ यहूदियों को पूर्व जॉर्डन के शासनकाल में जाने की इजाज़त नहीं थी. इज़रायल ने यरूशलम को अपनी राजधानी बनाना चाहा और शामिल कर लिया? मगर उसे अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता नहीं मिली. इज़रायल ने क़ब्ज़ा की हुई भूमि पर यहूदी बस्ती बसाना शुरू कर दी.

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने ‘शान्ति के लिए भूमि’ फार्मूले को बढ़ावा देते हुए ‘संकल्प-242’ पारित किया जिसमें उपरोक्त अरब लीग देशों द्वारा युद्ध के सभी राज्यों को समाप्त करने के बदले में 1967 में क़ब्ज़े वाले क्षेत्रों से इज़रायल की वापसी का आह्वान किया गया था. लेकिन इस बार इज़रायल और अमेरिका व बाक़ी देश इस सिलसिले में कोई कोई ठोस क़दम नहीं उठा पा रहे हैं और अरब देशों का मंशा भी अभी साफ़ नहीं कि वह 1967 की तरह कोई सामूहिक क़दम उठाएँगे, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है. मिस्र ने फ़िलिस्तीनियों को लेने से इनकार कर दिया है.

इज़रायली गालित अतबरयान का कहना है कि “फ़िलिस्तीन को धरती से मिटा देना चाहिए. इन शैतानों को इजिप्ट या फिर उड़कर उत्तर-दक्षिण पार चले जाना चाहिए वरना मारे जाएंगे और इस बार उनकी मौत बहुत भयानक होगी.”

एमनेस्टी इंटरनेशनल स्काइप ने कहा है, “इज़रायल सफ़ेद फ़ासफ़ोरस का प्रयोग कर रहा है?”

संयुक्त राष्ट्र इस पूरे नरसंहार को अपराध कह रहा है. संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार के ऑफ़िसर क्रेग मुखिबॅर ने इस्तीफ़ा दे दिया है. उनका कहना है कि “जो कुछ ग़ाज़ा में हो रहा है वह इज़रायली नरसंहार है.”
2014 में एक इंटरव्यू में एक अमेरिकन अफ़सर ने आक्रोश में भरकर कहा था, “जागो अमेरिकंस जागो! तुम ऐसी जंग में खींचे जा रहे हो जो अरब वर्ल्ड, मुस्लिम वर्ल्ड है, जिसमें तुम्हें यक़ीन दिलाया जाएगा कि बहुत कुछ भयानक होने वाला है. और यह काम मुस्लिम नहीं करेंगे बल्कि ‘मोसाद’ करेगा जो बेहद चतुर और क्रूर है. अमेरिका पर अटैक ख़ुद करेगा और दिखाएगा ऐसा जैसे अरबों ने किया है. ‘फाल्स फ्लैश’ की मेरी परिभाषा है.”

अमरीकी जनता भी इस बात को महसूस कर रही है कि उसके जवान कहीं-न-कहीं लड़ाई में मारे जाते हैं और उसमें भी विफलता हाथ लगती है और वह देश भी बर्बाद होता है. इसी सिलसिले में हार्ट के स्पेशलिस्ट एवं एक्टर बसीम यूसुफ़ का कहना है कि “एक अमेरिकन नागरिक के नाते मैं यह सवाल कर रहा हूँ कि अमेरिका 4 बिलियन डॉलर सालाना ख़र्च कर रहे हैं और कहीं नहीं पहुँच पा रहा है. हमास के बहाने उसका टारगेट सिविलियंस हैं. इसके लिए पु‍तिन की आलोचना यूक्रेन के सिलसिले से हुई मगर इज़रायल जिसके पास आर्मी है वह बम बरसा रहा उस पर जिसके पास कुछ नहीं है.” उनसे पूछा गया कि “आप अगर इज़रायली होते तो?” इस पर उनका जवाब था कि “मैं जितना भी नरसंहार कर सकता करता क्योंकि दुनिया ने छूट दे रखी है, वह मुझसे यह करवाती’. उन्होंने आगे कहा कि “फ़िलिस्तीनियों को जॉर्डन या इजिप्ट क्यों ले, क्यों न यूरोप ले जिसके 44 देश हैं. क्यों न अमेरिका ले जिसके पचास प्रान्त है? और फिर सारे फ़िलिस्तीन, जॉर्डन और मिस्र में धकेलकर वह फिर जॉर्डन, मिस्र में घुसे?” ग्रेट इज़रायल के सपने को लेकर यह समस्या गहरी और उलझी है और रोज़-ब-रोज़ उलझाई जा रही है हर तरफ़ की राय से. जबकि इज़रायल का निशाना कहीं और है.

इज़रायली पत्रकार जीडियन लेवी का कहना है कि ‘उन लोगों की ज़ुबान सुनें जो टू स्टेट समाधान को सपोर्ट करते हैं कि फ़िलिस्तीनियों का ग़ैर-फ़ौजीकरण कर दिया जाए. क्या उनके पास सेल्फ़ डिफ़ेंस का कोई अधिकार नहीं है. उन लोगों की ज़िन्दगी ख़तरे में है. इज़रायल कोई भी हथियार रख सकता है मगर फ़िलिस्तीन नहीं. यह किस क़िस्म का जस्टिस है? इज़रायल फौजी घर-घर हमास को ढूँढ़ रही है लेकिन कितने घर और इमारतें ग़ाज़ा में बचे हैं? यह जंग बन्द होती है तो जो फ़िलिस्तीनी सड़क पर पनाह लिये हैं. उनका ज़िम्मेदार कौन और उनको कौन फिर से बसाएगा. इसलिए बेहतर है प्रधानमंत्री नेतन्याहू का जाना.
इन विभिन्न स्तरों पर लिखी और कही अभिव्यक्तियों और इस एकतरफ़ा नरसंहार को समझने के लिए हमें इस समस्या को बुनियादी रूप से समझना होगा जिसके लिए हमें यरुशलम में जन्मे तीन धर्मों के साथ उस इतिहास को भी समझना होगा तभी हम अपनी तरफ़दारी को सही तरह से समझ सकेंगे और इस तरह के युद्धों के विरुद्ध आवाज़ उठा सकेंगे जिसका परिणाम पूरा विश्व किसी-न-किसी स्तर पर झेलता है. यह शब्द दूसरे अन्दाज़ से अहमद ख़ालिद स्वाफ़लाह ने कहा है,
यह इज़रायल नहीं क़ब्ज़ा किया हुआ फ़िलिस्तीन है
यह इज़रायली शहर नहीं बल्कि ग़ैरक़ानूनी बसावट है
यह भिड़न्त नहीं बल्कि
यह इज़रायल की डिफेन्स फ़ाेर्स नहीं बल्कि फ़िलिस्तीन पर
क़ब्ज़ा करने की फ़ोर्स है
यह टेररिज़्म नहीं बल्कि फ़िलिस्तीन नरसंहार है
यह इज़रायली लोग नहीं बल्कि ज़बर्दस्ती बसे लोग हैं.

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पुस्तक: फ़िलीस्तीन:एक नया कर्बला
लेखक: नासिरा शर्मा
प्रकाशक: लोकभारती प्रकाशन
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