पुस्तक अंश | सह-सा

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‘सह-सा’ छोटे-छोटे अकस्मातों में बनती व्यापक मानव नियति की कहानी है. रोज़मर्रा के अनाटकीय प्रसंगों की टकराहटों से बड़े सवालों के खुले में आ जाने की कहानी. इस कृति में भी गीतांजलि श्री की भाषा और शैली का अपना वैभव है. बदलती स्थितियों, मनःस्थितियों को उजागर करती कभी चुटीली, नुकीली, कभी प्रशांत, उदास और दार्शनिक. हमेशा बहुअर्थी. और इसमें है उस प्रकृति का अद्भुत वात्सल्य जिसे हम बेगाना बना बैठे हैं. ‘सह-सा’ एक अनूठी प्रेम गाथा है. इसी किताब का एक अंशः
जिन्हें गाड़ी पकड़नी थी चले गए, जिन्हें रुकना था वह शाम की सभा में भी आए.
‘अम्मा आप चाहें तो घर पे रुक जाएँ, शम्भु की जिज्जी के साथ,’ अम्मा से कहा गया, तो बोलीं, ‘काहे हम रुकें’ और सोती कि जागती कबीर भजन सुनती रहीं—
उड़ जाएगा उड़ जाएगा हंस अकेला जग दर्शन का मेला…
छूटेंगे महल अटारी छूटेगी दुनिया सारी कुटुम्ब कबीला
छूटे छूटे बचपन दिन संग खेला रे
उड़ जाएगा उड़ जाएगा हंस अकेला…
जब होवे उम्मर पूरी जब छूटे हुकम हजूरी
यम के दूत बड़े मजबूत जम से पड़ा झमेला रे
उड़ जाएगा उड़ जाएगा हंस अकेला उड़ जाएगा…
जब मंच पर जाकर तस्वीर के पास खड़े होकर लोग बोलने लगे तो तातू से न रहा गया. एक बार बुआ से आँख मिलाई—नई डोर में दोनों आज ही बँधे हैं, तोड़ना थोड़े है—पर बुआ ने स्नेह से देखा, तो उठा और दौड़ पड़ने की इच्छा को लगाम देता हुआ, अतिरिक्त सतर्क, सयानी भी, चाल से मंच की तरफ़ बढ़ा.
श्रवण बोल रहा था. ‘पापा वर्काहॉलिक थे. जज थे तब कोर्ट में, रिटायर हुए तो घर में. समय बर्बाद नहीं करना, बेफ़िज़ूल बात नहीं करना. फ़ोन पर भी कैसे हैं पूछो तो आधा अधूरा स्वर करेंगे जिसका सार था कि अटको भटको नहीं जियो मस्ती से फ़ालतू बातें बन्द, बौड़म इन्तज़ार करते हैं, जो पल है उसे जीने के बजाय इन्तज़ार में गँवा देते हैं. और चट से काम की बात पर आ जाते, या कॉल ओवर, फ़ोन रख देते. फ़ाइनेंशियल्स एक्सपर्ट मैं हूँ पर एक्सपर्ट एडवाइस उनसे पाता. कहाँ लगा दूँ मैं पूछता, स्टडी वे करते, ब्लाइंडली मैं फ़ॉलो करता. सेंसेक्स डाउन है कोटक में लगा दो, यूटीआई वाला एक्स्टेंड कर दो, इतना पोस्ट ऑफ़िस में डाल दो. हमने हमेशा उन्हें व्यस्त जाना, उनकी कोई और छवि नहीं बनती. काम के बीच होहुल्लड़ कर सको कर लो. कोर्ट में हमने नहीं देखा मगर घर में जब देखो लगे हुए हैं और कोई काम उनके लिए छोटा न था, घर चमकाते रहते, जाले निकालते रहते, ज़ंग लगी हो, जले बर्तन हों तो दुकान लगाके बैठ जाते और साफ़ करके ही उठते. क्लब रेस्टोरेंट नहीं जाना पर वीकली मार्केट ज़रूर जाना है और आज ख़ुश कि हरा चना मिल गया, आज कि कच्ची हल्दी मिल गई, आज कि रतालू मिल गया, नितिन के यहाँ भी भेज दो. रतालू क्या, मैंने पूछा. जिमीकंद, उन्होंने बताया. वह क्या, मैंने पूछा, तो चिढ़ाया अंग्रेज़ू दत्त. सबके लिए नाम रखते और सब हँसते. टीचर को फटीचर, झऊ ताऊजी को तुम्हारे झाड़ू ताऊ आ गए. एक बार मेरे इम्पोर्टेंट कलीग्ज़ लंच पर आए. उनके आगे भी मुझे मिस्टर अंग्रेज़ू दत्त. मैं बाद में ग़ुस्साया कि अरे मैं उनका बॉस हूँ मौक़ा देखकर चिढ़ाएँ. उस पर भी हँसे. उनसे यही सीखा, काम करो और हँसो हँसाओ.’
श्रवण भूले को देखने लगा. ‘इतनी जल्दी उन्हें नहीं जाना था. नो वन विल कॉल मी अंग्रेज़ू दत्त नाउ.’
वह चुप हो गया.
तातू अब तक उसकी बगल में सब्र की मूर्ति बना खड़ा था. गर्दन मचका के उसने बाप के चेहरे को ताड़ा और उनका हाथ थाम लिया और दादा की तरफ़ देखने लगा. तेरह दिन में वह तेरह दिन और बड़ा हो गया था. क़द और समझ न बदली हो, पर जान गया कि आज का दिन दादा का है.
बाप को हाथ पकड़ के दादा की फ़ोटो के पास ले गया और हाथ उठाए कि मुझे गोदी उठाओ. श्रवण ने उठा लिया तो झुक के दादा को चूमा. चुम्मा माथे पर पड़ा जहाँ टीके पर गुलाब की पंखुड़ियाँ थीं. अपने होंठों से रंग पोंछते और पंखुड़ी हटाते उसने श्रवण को वापस माइक की तरफ़ घुमाया. और ‘ट्विंकल ट्विंकल’ गाने लगा. श्रवण ने माइक उसके मुँह के पास पकड़ दिया. ‘अप बव स्काई’ करके तातू ने हाथ आसमान को उठाया और देखा हाथ पर भी टीका है. दोनों हाथ पोंछने लगा.
पंडित जी, जो तातू के लिए अलग खड़े हो गए थे, माइक पे आ गए. ‘बाबूजी दानवीर थे. हम उन्हें शुरू से जानते हैं. जज की कोठी से भी हमारे ही मन्दिर आते थे, हम बातें करते, धर्म की, राजनीति की, न्याय-संहिता की. बाबूजी सबकी चिन्ता करते. अपने बच्चों के जन्मदिन पर मन्दिर के बाहर लंगर उन्होंने शुरू किया. अन्तहीन पंक्ति लग जाती और सब पूड़ी सब्जी खाते. इस संसार में कुछ लोग केवल देने आते हैं. जैसे बाबूजी. जगत दाता बनने का अधिकार सबका नहीं होता. आपको उसके लिए सुपात्रता पूरी करनी होती है. लेने वाले बहुत होंगे मगर सच्चे देने वाले नहीं. जिनके लिए देना स्वभावोचित होता है, दिखाने, बताने, याद रखने वाली बात नहीं. जो करते हैं निष्काम करते हैं. अरे हम आप क्या, वे स्वयं न जानते होंगे क्या देते रहे. राजनेता की तरह गरीब को कम्बल बाँटते, कैमरे में तस्वीर खिंचाने मुस्काते एक भी बाबूजी का फ़ोटो दिखाओ तो जानें. वह देना नहीं होता. वह लेना ही होता है. कि जो कर रहे हो, जो याद आ रहा है, उसमें अपने को देख रहे हो. बाबूजी देते थे और उससे अनजान रहे. जज थे तो जजी में दिया, घर में रहे तो घरदारी में. बस देते रहे. उसका आभास नहीं, अभिमान नहीं. सरल दिया, भूल गए, सहायता की, हिसाब नहीं. ऐसे लोगों के साथ एक समस्या होती है, वे दे सकते हैं, किसी से ले नहीं पाते, आता ही नहीं, नहीं सीख पाते. विवश हैं, ईश्वर उन्हें चुन के भेजता है कि बस दोगे, पाने के फेर में न पड़ोगे. भगवान के रहस्य भगवान जाने. देते रहो, लेना कभी नहीं, वह क्षमता न रखो. और,’ पंडित जी ने रुककर हर तरफ़ दृष्टि दौड़ाई, जैसे यह मूल बात है जो अभी सूझी, ‘और पहले कि उम्र तुम्हें निर्बल कर दे, परिस्थिति तुम्हें निर्भर बना दे, बुढ़ापे का कोई रोग लग जाए, अर्थात् वह अवस्था पहुँच जाए कि दूसरों को तुम्हें सँभालना पड़े और देना पड़े, समझ लो कि समय आ गया, उठाओ अपना सामान, यह आदेश ऊपर से आ गया है. बाबूजी समझ गए कि उठ चलो, हो गया हमारा काम पूरा, सब बड़े हो गए, सब ठिकानों पर लग गए, अब उन्हें मेरी आवश्यकता नहीं. उस दिन मन्दिर की सीढ़ी से बाबूजी उतरे, ऊँचे ललाट पर रोली का टीका, आँखों में तेज, और उतर के गुम हो गए.’ पुरोहित जी ने ऊपरवाले की लीला पर हाथ स्वीकार में लहराए, कलाई घड़ी पे दृष्टि डाली, ‘वही दे गए,’ बताया, मंच से उतर गए.
झऊ ताऊ ने बारी सँभाली. ‘हम ही हैं झाड़ू ताऊ. हमही आते तो भुलऊ अन्दर से चिल्लाते आ गए झाड़ू ताऊ. हम गाँव से बोरियाँ भर के चावल गेहूँ ले आते, गुड़, घी, सत्तू, अचार जो तुम्हारी ताई रख देतीं, और हरा चना, हरी मटर, कद्दू सीधे खेत से ले के रिक्शे से उतरते तो अन्दर से भँकारते आ गए झाड़ू ताऊ, गाँव से अल्लम गल्लम लेकर, झाड़ू निकालो, तेल चू रहा है, भूसा छिटक रहा है, पूरे घर में गाँव छितराएँगे. बहू लजाती थी कि ऐसे न बोला करें पर ना बहू, हम बुरा नहीं मानते, क्यों मानें, हम लल्ला को गोदी में खिलाए हैं. लल्ला जस्टिस बन गए पर हमारे तो लल्ला ही हैं. चाँप के हम दोनों सत्तू सूतते—कड़वा तेल, हरा मिर्चा, लहसुन मिलाके, बाहर तुम्हारे लॉन में बैठकर. हमारा कूड़ा तो कूड़ा था, जब हम लौटने दिन स्टेशन के लिए निकलते तो हमारी एक न सुनते कि कूड़ा लाए तो अब आप शहर का कूड़ा ले जाएँ. उसके बाद हम शहर का कूड़ा गाँव में बाँटते फिरते. ऐन तैन कपड़ा लत्ता मिठाइयाँ नमकीन शम्पू साबुन,’ झऊ ताऊ याद करके हँस दिये. ‘ऐ क्या क्या याद करें.’ फिर सभा से. ‘याद ही कर सकते हैं.’ नहीं हँसे. ‘वही छोड़ गए हैं लल्ला.’ दुखी लगे. ‘सब कूड़ा भयो. ऐ लल्ला सबकूड़ाभयो.’ वे माइक पर खड़े रहे. फिर हट गए.
सरजू नाथ भी गाँव से आ गए थे. ‘अब हम क्या कहें,’ वे माइक पे पहुँचने के पहले ही बोलने लगे, बोलते हुए आए, बीच वाक्य में उनका स्वर गूँजा. ‘झऊ सही कह रहे हो. हमको भी दालमोठ काजू बर्फ़ी चिप्स चुप्स देते. देने में ही लगा रहता. हम बचपन में साथ खेलते थे भाई. गिल्ली डंडा भी खेला, फिर क्रिकेट चली. शायद बैडमिंटन भी एक आधी बारी. एक बार हमें याद आ रहा है, हम मइया के पास आए थे, मइया.’ उन्होंने अम्मा की तरफ़ देखा, जिन्होंने पता नहीं किधर देखा. ‘हम बाहर आपकी बाराबंकी वाली कोठी में खेल रहे थे. कि बीच खेल में भूले ने गिल्ली डंडा फेंका और गए कूदते भीतर कि पैसा दीजिए अंकल आए हैं, माँग रहे हैं. मइया आईं निकलकर देखने कौन अंकल आए हैं, तो भिखमंगा खड़ा था, जिसे भूले अंकल अंकल कर रहे थे. सबको देना, सत्कार से, बिना भेदभाव के, यह था भुल्ला.’
एक युवक मंच पर आ पहुँचा, ‘अंकल डैड को डाँटते थे कि देखना इसे नालायक़ नालायक़ करते हो, सबसे आगे नालायक़ ही जाएगा और लायक़ तुम्हें छोड़ देंगे, यह नालायक़ ही साथ रहेगा. अभी रिज़ल्ट नहीं आया है, इतराओ मत, डैड ने कहा. अंकल हैज़ फेथ, जस्ट वॉच, मैं हँसता था और मैंने यूपीएससी में टॉप किया. देखा नालायक़ की नालायक़ी, अंकल डैड को चिढ़ाते थे,’ युवक मुस्कराया.
उसके बगल में जो आए रोने लगे. ‘देखिए,’ शक्ल पहनावे से एनआरआई दिखते सज्जन ने उससे माइक ले लिया. अजनबी थे. ‘आइ ऐम,’ वे कुछ बोले पर किसी को सुनाई नहीं पड़ा क्योंकि बोलने के बजाय सुबकने लगे, मानो उनका नाम रुलाता है. बोलना चाहा तो पहले कुछ समझ नहीं आया, फिर समझ आने लगा. अंग्रेज़ी में कह रहे थे, कि ‘ही गेव मी टोयलेट पेपर, मैं रो रहा था,’ वे रोते रहे, ‘कि यहाँ पानी नहीं, मग्गा टम्बलर नहीं, कैसे धोऊँ? ही कंसोल्ड मी, टोयलेट पेपर फाड़ के दिया और समझाया ऐसे लो, थोड़ा थोड़ा, ऐसे फ़ोल्ड करो, ऐसे पोंछो, पोंछते रहो जब तक पेपर साफ़ न निकले, डोंट क्राई. हम उसी बोर्डिंग स्कूल में साथ आए थे. प्रिंसिपल लूवैलिन थे, स्कॉटिश. हम प्राइमरी से उस स्कूल में पढ़े. मैं छह साल बाद इंडिया आया हूँ. भुल्ल्स एक बार यूएस में मिला जब वो पीएम के डेप्युटेशन के साथ आया था. बिलकुल नहीं बदला था. जस्ट ए टैड ओल्डर. आज मॉर्निंग पेपर में अनाउंसमेंट देखा. यहाँ चला आया. पीस टू योर सोल बडी. गुड फैलो गॉन.’ सिसकियाँ फिर आईं. ‘विद् द विंड,’ मंच से उतरते वे बोले, जो सामने बैठों ने सुना.
जैसे गिरजाघर की शान्ति में एक एक करके भक्त आएँ और कॉन्फ़ेशन बॉक्स उर्फ़ माइक में अपनी तह से उठती बात कहें, ऐसा सिलसिला.
सरदार जी आ गए. ‘वेरी गुड फेलो, चंगा मैन. हम बिजनेस स्पेक्यूलेशन की शर्तें लगाते. क्यों बालक, कौन सा शेयर इस समय ठीक रहेगा, आए दिन फ़ोन आता. बालक, ऐसा करो. मैं भी बालक कहता. एक गल आप लोग सुनो. मैं ट्रेन से जा रहा था. लम्बा सफर, फर्स्ट में बुकिंग कराई तो मुझे दो के कूपे में बर्थ मिली. दूसरा नाम जनानी का. मैं परेशान टीटी को खोजता फिरूँ कि जनानी के संग कैसे अकेले बन्द कूपे में जाऊँगा भय्या मेरी सीट बदल दो. टीटी व्यस्त, भीड़ से घिरा, मैं आगे पीछे. पता चला वह जनानी मुझसे ज़्यादा परेशान, वह भी टीटी के आगे पीछे. एक दूसरे से आँखें मिलाने से कतराते हम दोनों की रिक्वेस्ट, टीटी साहब हमें इनसे अलग सीट दे दो. अभी वहीं बैठ लो दोनों, रेलगाड़ी चलने के बाद अलग फिट कर दूँगा, टीटी ने मार भीड़ धक्का में कहा. ठीक. साहब हम चढ़ गए और कूपे में बैठ गए. चुप. बैठे हैं और महिला यों मुझे अनदेखा करें जैसे उन्हें मैं ही मैं दिख रहा हूँ और मैं कोई उचक्का, डॉन, गुंडा, लफंगा. बस भागना है, ऐसे मैडम परेशान. टीटी कहाँ, कब आएगा, हम चुप, चुप्पी भारी, तो मैंने हल्का करना चाहा, बोला हँस के कि हम पंजाब में मर्द औरत के एक से नाम रखते हैं, कौर और सिंह न लगाएँ तो बन्दा कन्फ्यूज़ हो जाए. मैडम मुस्करा दीं, हम गुजरात में उतना क्लू भी नहीं देते, पर यहाँ रेलवे वालों की चूक थी. रेलवेज़ भी बैठ गया, मैंने माहौल हल्का रखने को बात बढ़ाई, मेरा जिगरी है भूलेराम, जस्टिस भूलेराम, कहता है रेलवेज़ और पोस्ट ऑफिस, दो विभाग ऐसे, जो अभी बचे हैं, अपना काम पूरे मन से करते हैं, अब उसे बताऊँगा यार इन महकमों में भी लापरवाही और काहिली आने लगी है. जस्टिस भूलेराम, बाराबंकी वाले, जनानी ने पूछा? आप उनकी बात कर रहे हैं? हाँ, जस्टिस भूलेराम, हाँ, बाराबंकी वाले, मैं उन्हीं की गल कर रहा हूँ. वह मेरे सीनियर हैं, बेस्ट गाइड एवर एंड लवली मैन, मैडम बोलीं. तभी टीटी घुसा. हमें सीट नहीं बदलनी, मैडम ने टीटी को रुखसत किया, मुझसे पूछने की जरूरत भी नहीं समझी. कि पार्टनर ने पास कर दिया तो आदमी पाजी नहीं हो सकता. कमाल कर गए बालक बन्धु, मैंने उसे फोन पे बताया, तुम्हारा नाम लिया और मैडम बेफिकर हो गईं, आज तो तुम हमारे खूब काम आ गए. ऐसा था पार्टनर. सेलूट करता हूँ तुझे. भाभीजी, आपको सलूट. जस्टिस भूलेराम मिश्र के नाम सलाम, सत् श्री अकाल.’
एक एक कर मंच पे लोग आते गए. जिसने कहा था बोलेंगे बोल रहे थे और जिसने नहीं कहा था वह भी मंच पर चले आते और माइक पकड़ के चालू हो जाते. आज तारीफ़ों के पुल बाँध दो, कोई रोक टोक नहीं होगी.
‘भूले’ज़ जजी की मैं बताता हूँ,’ एक्स चीफ़ जस्टिस श्रीमाली ने बूढ़े काँपते हाथों में माइक लिया. स्वर ने हाथों से ताल मिलाया और होंठ थरथराये. घनी सफ़ेद भवों के नीचे कुम्हलाया चेहरा हिल डुल गया. ‘उस माई के लाल का रिकॉर्ड है कि एक जजमेंट उसका चैलेंज नहीं हुआ. उसके आर्ग्यूमेंट्स में लूपहोल्ज़ ही नहीं मिलते थे कि अलग कोई दलील घुसा सको. जब कोर्ट में उसका दिन होता तो कितने लोग सिर्फ़ उसको सुनने पहुँचे होते, न्यायिक मामलों में शीयर पोएट्री की तरह वह बात बढ़ाता. हम लोग ऐसा कहते तो मज़ाक़ में उड़ा देता या बगलें झाँकता जैसे कोई अपराध है कि वह तारीफ़ के इतने योग्य, कि जो औरों के बारे में न कहा जा सके वह उसके बारे में कैसे खरा बैठे, जैसे इसमें कोई अन्याय है, ग़ैरबराबरी है. कॉम्प्लिमेंट लेना तुम्हें आता नहीं, मैंने उसे बहुत बार लताड़ा. कहा न आपने कि बस देने आया, सच है, कॉम्प्लिमेंट भी लेना नहीं सीख पाया. लेकिन सबको लेसंस देता रहा, रिटायर हो गया
मगर सारी नई जेनरेशन उससे गाइडेंस लेती रही, फ़ोन पर, मेल पर, उससे मिलकर.’
कोई जूनियर उठा, लॉ का, ‘यस एब्सल्यूटली, वे कह दें गुड तो हम जानते थे हम कर लेंगे. आवर प्रोफ़ेशन इज़ प्राउड एंड ऑनर्ड वी हैव हिम. हैड हिम.’
बहुतों के सिर हामी में हिले.
इस पर हॉल में बैठे भूले के पुराने स्टेनो, ड्राइवर, चपरासी, शैडो, माली, मिनिस्टर, मेहतर, ट्रैवल एजेंट, जज, वकील, बैंक मैनेजर, बिजली वाला, लाइब्रेरियन, डॉक्टर, प्लम्बर सभी अपनी कहने लगे. एक दूसरे से, नहीं तो अपने से. मंच और श्रोता का भेद मिट गया. मेरे बेटे को नौकरी दिलाई, किसके केस के लिए सोलहों आने सटीक राय सुझाई, उसकी ज़मीन वापस मिल गई, फलाने के दिल के ऑपरेशन के लिए चन्दा जुटा दिया और पगली भी अपनी कहानी कह पड़ी, बिना पगली लगे, शिष्ट बूढ़ी दिखती, गेरुआ किनारी की सफ़ेद धोती, एक हाथ में बटुआ जिसमें मोबाइल, और एक में लाठी लिये. अपने घर बेघर की कहानी जो उसे जानने वाले पहले से जानते थे. स्वप्न पुरुष की कहानी जो सब नहीं जानते थे और जाने आज भी सुनी या नहीं.
‘दे दिया तो दे दिया, वापिस माँगना बाबूजी नहीं करेंगे, न न, हम उनके ऋणी हैं, ऋणी रहेंगे.’
एक और उठा. कभी उनका चपरासी था. उम्रवार. उनके सम्मान में यूनिफ़ार्म में आया था. अंग्रेज़ों के समय से चलता लम्बा नीला कोट, ऊपर से नीचे तक बड़े गोल चमकदार बटन, पगड़ी हाथ में पकड़ी हुई. ‘बड़े कड़क थे, गंदगी दिख जाए तो झाड़ू डस्टर
लेकर ऑफिस साफ करने लगते और हम काँपते, इससे बड़ी डाँट न थी.’
जो जहाँ, वहीं से बोल रहा था. एक संग क़िस्से कहानियाँ बहने लगे. सब बोल रहे थे.
सिर्फ़ अम्मा और प्रेमिला चुप थे. क्या बोला जा रहा है, पहले सुना नहीं है या कि अभी सुनाई नहीं पड़ रहा, संज्ञाहीन उनके मुखड़े.
चिया खिड़की की तरफ़ बैठी कभी अन्दर भीड़ देखती कभी बाहर भीड़ देखती. जो अन्दर जगह नहीं पा के बाहर उमड़ रही थी.
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किताबः सह-सा
लेखकः गीतांजलि श्री
प्रकाशकः राजकमल प्रकाशन
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