बायलाइन | जौने रोगिया भावै उहै बैइद बतावै
प्रवीण ने एक ख़बर की क़तरन भेजी, जिसके मुताबिक़ प्रयाग के आज़ाद पार्क में दो कैंटीन खोलने के लिए टेंडर मांगे गए हैं, इसमें सवा सौ लोगों के बैठने का बंदोबस्त होगा और इडली-डोसा और गरम समोसे के साथ ही राजस्थानी जलेबी और बिहारी बाटी-चोखा भी खाने को मिलेगा. ख़बर में जिस सद्भावना का ज़िक्र नहीं है कि वो यह कि इस लंबे-चौड़े पार्क में लंबी सैर के बाद शायद भूख लग जाती होगी तो खाने-पीने के बाहर वाले ठिकानों तक जाने के बजाय अफ़सरों को ‘ऑन स्पॉट’ भूख मिटाने का इंतज़ाम करने की सूझी होगी.
शहर के पार्कों को सुविधा सम्पन्न पिकनिक स्पॉट बनाने की इस हिकमत से बरेली वाले तो पहले से वाक़िफ़ हैं – कंपनी बाग़ यानी गाँधी उद्यान में ‘चाट सरोवर’ और ‘द डाइन गार्डन’ नाम के दो ठिकाने काफ़ी पहले से चल रहे हैं. इसके अलावा ‘द ट्री हाऊस कैफ़े’ नाम का एक और ठिकाना है. मेन गेट के क़रीब ‘मिरर मेज़’ है. ऐसे ही, सिटी इम्प्रूवमेंट पार्क में सीआई पार्क रेस्टोरेंट खोला गया, जो ऑनलाइन ऑर्डर भी लेता है. ये दोनों ही पार्क नगर निगम की देखरेख में हैं. बरेली हो या प्रयाग, गाँधी उद्यान हो या आज़ाद पार्क, एक तरह के इन कारनामों के पीछे जो नीयत काम करती है, वह किसी से छिपी नहीं है.
इन पार्कों में आने वालों की बड़ी तादाद खाने के इन ठिकानों के लिए बहुत मुफ़ीद साबित होती है तो जगह हासिल करने के लिए वे मुँहमांगी रक़म भरने को तैयार रहते हैं. चुंगी वाले या प्रयाग के मामले में उद्यान महकमे के लोगों को लोगों को लगता है कि इतनी ख़ाली पड़ी सार्वजनिक जगह में अगर थोड़ी-बहुत धंधे के काम आ ही जाए तो क्या हर्ज़. घूमने को इत्ती जगह पड़ी तो है. किसी तरक़ीब से अगर इन अफ़सरों का दिमाग़ पढ़ा जा सकता तो पक्का है कि उसमें यह बात भी शामिल निकलेगी कि गुज़रे ज़माने के अफ़सर बेवक़ूफ़ थे जो ख़ाली पड़ी जगहों को यूं ही ज़ाया होने दिया. पर एक तरह से यह अच्छा भी हुआ वरना हम लोग क्या करते! बरेली में तो ख़ैर गाँधी उद्यान में टिकट लगाने का प्रस्ताव लोगों के हल्ले के बाद ख़ारिज़ हो गया था मगर आज़ाद पार्क में तो बाक़ायदा पाँच रुपये का टिकट भी लगता है.
आज़ादी के पहले तक 135 एकड़ में फैले आज़ाद पार्क (अंग्रेज़ हुक्मरानों का कंपनी बाग़) में बीचोबीच एक बैंड स्टैंड बना था, बस! बाद में इस पार्क के अंदर के प्रयाग संगीत समिति, इलाहाबाद संग्रहालय, सेंट्रल लाइब्रेरी, गंगानाथ झा संस्कृत विद्यापीठ, लाल बहादुर शास्त्री स्टेडियम, जिला उद्यान विभाग का दफ़्तर, लेडीज़ क्लब और टेनिस का इलाहाबाद जिमखाना क्लब आबाद हुए. एक मज़ार और मंदिर भी हैं. चंद्रशेखर आजाद की मूर्ति और उनकी शहादत की जगह इस पार्क के भीतर ही है. 2.9 किलोमीटर लंबी जॉगिंग ट्रैक है, जो बाउंड्री से क़रीब 20 से 70 मीटर तक अंदर है. कुल छह गेट हैं और हर गेट के बाहर खाने-पीने की चीज़ों के बेशुमार ठिकाने. पार्क के अंदर किसी तरह के पक्के निर्माण पर हाई कोर्ट ने पाबंदी आयद कर रखी है. ऐसे में बाटी-जलेबी खाने-खिलाने का मंसूबा किस तरह कामयाब होगा, यह देखना अभी बाक़ी है.
और बरेली का कंपनी बाग़ तो जैसे स्मार्ट सिटी वालों की प्रयोगशाला बन गया है, जिस प्रयोग के मनमाफ़िक़ नतीजे मिल जाते हैं, फिर उसे शहर में अमल में लाकर फंड ठिकाने लगाने में जुट जाते हैं. कंपनी बाग़ की दीवारों पर निहायत अनगढ़ हाथों से बनी महापुरुषों की छवियाँ अब शहर की दीवारों पर भी हैं. एक बड़े हिस्से में स्वच्छ भारत अभियान के छापे वाले सौ-सवा रिक्शे अपने पहिये ऊपर किए जाने कब से आराम की मुद्रा में टिके जंग खा रहे हैं, ऐसे ही दूसरे हिस्से में बैटरी वाले रिक्शे. टिन की लाल टोपी वाली बत्तियाँ और स्मार्ट सिटी के छापे वाले खंभे पहले पहल यहीं लगे. संगीत कक्ष बने और पार्क भर में स्पीकर लगे, जो ख़ामोश ही रहते हैं और भले लगते हैं क्योंकि जब भी बजते हैं, चारों तरफ़ फूहड़ फ़िल्मी संगीत फैला रहता है. हालांकि मंदिर पर लग गया भोंपू इसकी भरपाई कर देता है, जहाँ तेज़ ड्रम बीट्स वाले भजनों पर एक किशोर वय तालियाँ बजा-बजाकर झूमता मिल जाता है.
हमारे कॉलेज के दिनों में जहाँ एक बड़ा तालाब हुआ करता था, पुराने मेयर ने वहाँ ब्याह-बारात के इंतज़ाम की इज़ाज़त दे दी थी, स्मार्ट सिटी के ख़्वाहिशमंदों ने अब वहाँ संगेमरमर बिछाकर कोई म्युज़िकल फाउण्टेन बना डाला है. दो ओपन जिम बने, जिनमें ज़्यादातर लोग अपने बच्चों को झूला झुलाने लाते हैं, काहे से कि बाल वाटिका में अब सिर्फ़ लोहा-लंगड़ बचा रह गया है. जो ख़र्च करने के इरादे से ही निकले होते हैं, टिकट लेकर शीशों में अपना कैरीकैचर देखने-दिखाने के लिए बच्चों को लेकर मिरर मेज़ में हो आते हैं. बापू का बुत सेल्फ़ी लेने वालों की श्रद्धा का केंद्र बन गया है, बच्चे उनके कंधे पर चढ़ जाते हैं और मुस्कराते हुए माँ-बाप उनकी फोटुएं उतारते हैं. शाम को औरतों-बच्चों और बुजुर्गों की भीड़ के बीच सड़क पर मोटरें-बाइकें बेधड़क धड़धड़ाती हुई गुज़र जाती हैं… कई रोज़ पहले ओपन जिम के सामने की कच्ची ज़मीन पर बालू ईंटों के ढेर देखकर मिस्त्री से दरयाफ़्त किया तो उसने बताया – हियां पै हर डिजैन का आदमी मिलेगा. तो काफ़ी दिनों तक ख़ाली पड़े रहे मूर्तितल पर अब मूर्तियाँ आकर जम गई हैं.
ये ब्योरे लिखने का मक़सद कम से कम दो बातों को रेखांकित करने का हैं – एक तो पब्लिक प्लेस और उस स्पेस की पवित्रता का सवाल है, जिससे पब्लिक को ही बहुत सरोकार नहीं रह गया लगता है. क्लबों या रेस्तरां की तरह ही लोगों ने उसे ख़ालिस मौज-मस्ती की जगह मान लिया है तो इंतज़ामिया को मनमर्ज़ी करने के लिए किसी बहाने की ज़रूरत ही नहीं रह गई. जौने रोगिया भावै, उहै बैइद बतावै. प्रवीण ने बताया कि आज़ाद पार्क में सैर के लिए आने वाले कैंटीन खोले जाने के पक्ष में नहीं हैं और इसे लेकर पीआईएल दाख़िल करने की तैयारी कर रहे हैं. बरेली वाले इससे एकदम ग़ाफ़िल है.
दूसरा सवाल सौंदर्य बोध से जुड़ा है, नेताओं-अफ़सरों में जिसका घोर अभाव है और उसकी वजह सपने में गाँधी-दर्शन छोड़कर और कुछ नहीं लगती. शोर-शराबे और फ़ूड पार्क में तब्दील होती जाती पार्क जैसी शांत और सुकून वाली सार्वजनिक जगहें उनकी सोच और सामर्थ्य का साफ़ पता देती हैं.
बरेली में ही एक और गाँधी उद्यान है, कैंट का पुराना फूल बाग़. वहाँ पार्क में जाने के लिए अब टिकट लगने लगा है पर लगता नहीं कि कंपनी बाग़ का तमाशा बना डालने वाले अफ़सरों में से कोई कभी उसके अंदर गया भी होगा.
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